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शनिवार, अक्तूबर 31, 2009

जेब से पैसे निकालने की सजा ने बना दिया अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी


प्रेस क्लब रायपुर में रूबरू कार्यक्रम में बुधराम सारंग, प्रेस क्लब अध्यक्ष अनिल पुसदकर, अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी रूस्तम सारंग, अजय दीप सारंग और राजकुमार ग्वालानी

कामनवेल्थ में भारत को स्वर्ण पदक दिलाने वाले छत्तीसगढ़ के भारोत्तोलन रूस्तम सारंग आज अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेल जगत के चमकते सितारे बन गए हैं, पर उन्होंने कभी सोचा नहीं था कि उनको जिंदगी में की गई एक बड़ी गलती की सजा का इतना हसीन तोहफा मिल सकता है। बकौल रूस्तम सारंग मैं १३ साल का था तब एक बहुत बड़ी गलती कर बैठा और पापा की जेब से पैसे निकाल लिए। पापा को मालूम हुआ तो उन्होंने कहा कि तुम बिगड़ रहे हो, अब कल से तुम मेरे साथ जिम चलोगे। मैं तब पापा से काफी दिनों तक अच्छा खासा नाराज था कि कहां वे मुझे जिम में लेकर आ गए हैं। लेकिन तब मैं नहीं जानता था कि मेरा जिम जाना मुझे एक दिन ऐसे मुकाम पर पहुंचा देगा जहां मेरी खुद की एक अलग पहचान हो जाएगी और मुझे विश्व स्तर पर पहचान मिलेगी। मैं आज इस बात से बहुत खुश हूं कि पापा ने मुझे एक गलत काम की एक ऐसी अच्छी सजा दी जिसने मेरा जीवन बदल दिया। मैं ऐसा सोचता हूं कि हर गलत काम करने वाले को ऐसी ही सजा मिलनी चाहिए ताकि उसका भी जीवन बदल जाए।


रूस्तम ने बताया कि जब पापा ने मुझे भारोत्तोलन के क्षेत्र में उतारा तब हमारी आर्थिक स्थिति ज्यादा अच्छी नहीं थी इसके बाद भी पापा ने मुझे कोई कमी नहीं होने दी और मुझे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहुंचाकर ही दम लिया। मैं २००४ में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेलने नहीं जा सका था, लेकिन २००५ में मुझे मौका मिल गया। इसके बाद मुझे चार साल इंतजार करना पड़ा और अब २००९ में कामनवेल्थ में गया और स्वर्ण पदक जीतने में सफल रहा। अब मेेरा पहला लक्ष्य भारत में अगले साल होने वाले कामनवेल्थ में पदक जीतना है। इसी के साथ मेरा दूसरा लक्ष्य २०१२ के ओलंपिक में खेलने की पात्रता पाना है। इसके लिए विश्व स्तर पर ज्यादा से ज्यादा स्पर्धाओं में खेलना होगा। उन्होंने पूछने पर कहा कि अभी ओलंपिक में तीन साल का समय है और जिस तरह से अभी से भारत में इसकी तैयारी हो रही है, उससे तय है कि भारत के कई भारोत्तोलकों को खेलने की पात्रता मिल जाएगी। उन्होंने बताया कि भारतीय टीम को हंगरी के कोच संवारने का काम कर रहे हैं।

बढ़ाई का काम करके बना अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी

रूस्तम के छोटे भाई अजय दीप सारंग ने अपने खेल जीवन का खुलासा करते हुए बताया कि जब मैं २००३ में इस खेल में आया तो उस समय हमारे परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत ज्यादा खराब थी। एक तो बड़े भाई के लिए पापा जुङाते रहते थे, ऊपर से मेरे चाचा का निधन होने के कारण उनके घर की भी जिम्मेदारी पापा पर आ गई थी। ऐसे में मेरे लिए वे कुछ ज्यादा कर पाएंगे इसकी संभावना कम थी। ऐसे में मैंने अपने पापा के खेल जीवन के प्रेरणा लेते हुए बढ़ाई का काम करके खेल को जारी रखने का फैसला किया। सुबह को बढ़ाई का काम करता था और शाम को जिम जाता था। उन्होंने बताया कि लगातार ३-४ साल मेहनत करने के बाद पिछले साल राष्ट्रीय चैंपियनशिप में पदक मिला। इसके बाद इस साल २००९ में पहले विश्व कप में खेलने का मौका मिला, पर वहां मैं कुछ नहीं कर पाया और जब मैं रायपुर आया तो चुप चाप रिक्शे में बैठकर घर चला गया। तब दोस्तों ने कहा था कि हमें बताते तो स्टेशन लेने आते। तब मैंने कहा था कि मैंने कोई पदक जीतने का तीर तो मारा नहीं था कि स्टेशन तुम लोग लेने आतेे। बकौल अजय मेरी आंखों में तो मेरे भाई का वह स्वागत था जो उनका पदक जीतकर आने पर हुआ था। मैं भी ऐसे स्वागत की कल्पना करता था जो अंतत: कल सच हो गया जब भाई के साथ मैं भी कामनवेल्थ से पदक जीतकर आया। अजय पूछने पर कहते हैं मैं भी भाई की तरह की पहले कामनवेल्थ फिर ओलंपिक को लक्ष्य मानकर चल रहा हूं। उन्होंने कहा कि अभी मैं सीनियर वर्ग में टॉप चार में हूं। यहां भी मेरा लक्ष्य पदक तक पहुंचना है।

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शुक्रवार, अक्तूबर 30, 2009

विंडोज -7 की औकात अब 20 रुपए

अपने देश में किसी भी साफ्टवेयर की नकल कितनी तेजी से होती है इसका एक नमूना फिर से सामने आया है विंडोज-7 के रूप में। इस साफ्टवेयर के बाजार में आए अभी चंद ही दिन हुए हैं कि इसकी नकल महज 20-20 रुपए में बिकने लगी है। यह नकल जहां महानगरों में 50 रुपए में बिक रही है, तो छोटे शहरों में इसे महज 20 रुपए में खरीदा जा सकता है। लेकिन इस नकल के साथ एक बात की गारंटी जरूर है कि आपके कम्प्यूटर में कई तरह से वायरसों का हमला हो जाएगा। अब आप चाहे तो जरूर साढ़े छह हजार के माल को 20 रुपए में लेकर अपने कम्प्यूटर की बर्बादी का सामान कर लें।

दुनिया की सबसे बड़ी साफ्टवेटर कंपनी माइक्रोसाफ्ट ने जैसे ही विंडोज -7 लांच किया, इस पर नकल बनाने वालों की नजरें तुरंत इनायत हो गई और कंपनी ने जितनी तेजी से इसकी सीडी तैयार नहीं की होगी उससे ज्यादा तेजी से इसकी लाखों नकली सीडी तैयार करके इसको भारत के बाजार में छोड़ दिया गया। अब हालात यह है कि भारत के बाजार में विंडोज-7 की औकात महज 20 रुपए की रह गई है। वैसे अपने देश में असल से ज्यादा नकल का ही चलन है, क्योंकि नकली की कीमत काफी कम होती है। अब भला कोई सोच सकता है कि 6799 रुपए का एक साफ्टवेयर महज 20 रुपए में मिल सकता है। यह कमाल तो भई अपने देश में ही हो सकता है। इसमें कोई दो मत नहीं है कि जब भी किसी साफ्टवेटर की नकल तैयार की जाती है तो उसके साथ वायरस के आने का खतरा बहुत ज्यादा होता है। विंडोज-7 के बारे में भी कहा जा रहा है कि इसकी पायरेटेड सीडी के साथ 60 प्रतिशत मालवेयर यानी वायरस मिलता है। अब वायरस के बारे में अपने देश के लोग कुछ सोचते नहीं हैं। इसके पीछे का कारण यह है कि अपने देश में कम्प्यूटर का प्रयोग करने वाले लोग इतने धनी नहीं हैं कि वे एक साफ्टवेटर के लिए इतना ज्यादा पैसा खर्च कर सके। अब शौक पूरा करना है तो नकल में क्या बुराई है ऐसा लोग सोचते हैं।

वैसे अब तक ऐसे काफी कम मामले सामने आए हैं जिसमें नकली साफ्टवेटर में कम्प्यूटर की बर्बादी हुई है। नकली साफ्टवेयर का कारोबार करने वाले भी उसी तरह की गारंटी की बात करते हैं कि इस साफ्टवेयर से कुछ नहीं होगा अगर होगा तो हम बैठे हैं न आपका कम्प्यूटर बनाकर देने के लिए। अब यह बात अलग है कि आपका कम्प्यूटर अगर खराब हो जाए तो आपको यह कह दिया जाए कि यह उस साफ्टवेयर के कारण नहीं किसी और किसी वायरस के कारण ऐसा हुआ है। अब आप और हम तो कम्प्यूटर के साफ्टवेयर के जानकार हैं नहीं जो साफ्टवेयर का काम करने वालों की बातों को गलत साबित कर सके, ऐसे में उनकी बातें मानने के अलावा कोई चारा नहीं रहता है। अब यह फैसला तो हमें करना है कि हमें क्या करना है।


वैसे हमारे कई मित्र इस बात को मानते हैं कि नकल भी चल ही जाती है। कई अखबारों में ही एक साफ्टवेयर खरीदा जाता है और प्रेस के सारे कम्प्यूटरों में वह साफ्टवेयर काम करता है। फिर ये कैसे होता है? आखिर वहां भी तो साफ्टवेयर को कापी करके ही दूसरे कम्प्यूटरों में डाला जाता है। जब वहां के सारे कम्प्यूटर काम करते हैं तो दूसरे स्थानों के क्यों काम नहीं करेंगे? मीडिया से जुड़े कई मित्र अपने अखबारों के कम्प्यूटर से कई तरह के साफ्टवेयर कापी करके अपने घरों के कम्प्यूटरों में चलाते हैं और वो चलते हैं।

नकल को रोकना किसी के बस की बात नहीं है। अगर सच में साफ्टवेयर बनाने वाली कंपनियां नकल को रोकना चाहती है तो उनको साफ्टवेयर इतने महंगे बनाने की नहीं चाहिए। अगर नकल करके साफ्टवेयर बेचने वाले जब लाखों कमा सकते हैं तो कम कीमत में साफ्टवेयर उपलब्ध कराके साफ्टवेयर कंपनियां क्यों नहीं लाखों कमा सकती हैं। हालांकि तब भी बाजार में नकल आएगी लेकिन जब नकल और असल की कीमत में जमीन-आसमान का अंतर नहीं होगा तो जरूर कोई नकल खरीदना नहीं चाहेगा। अब सोचना कंपनी वालों का है कि वे नकल से कैसे मुक्ति चाहते हैं।

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गुरुवार, अक्तूबर 29, 2009

खेल पुरस्कारों के नियम सरल होंगे

कई राज्यों के नियमों का किया जा रहा है अध्ययन
प्रदेश का खेल एवं युवा कल्याण विभाग अब राज्य के खेल पुरस्कारों के नियमों को सरल बनाने की कवायद में लगा है। जिन राज्यों में पुरस्कारों के नियम सरल हैं उनको यहां मंगाकर उसका अध्ययन किया जा रहा है। इसी के साथ प्रदेश की खेल बिरादरी से भी सुझाव मांगे गए हैं। कोई भी अच्छे सुझाव खेल संचालनालय में दे सकता है। इसके लिए खेल संचालक जीपी सिंह ने सबको खुला आमंत्रण दिया है। खेल पुरस्कारों के साथ उत्कृष्ट खिलाडिय़ों के नियमों में भी बदलाव किया जाएगा।

खेल विभाग की कमान जब से खेल संचालक जीपी सिंह ने संभाली है, उन्होंने बड़ी ही गंभीरता से खेल संघों की बातों को सुना है। खेल पुरस्कारों के नियमों को लेकर प्रारंभ से ही विवाद की स्थिति रही है। इसके लिए जो नियम बनाए गए हैं, उसका लगातार विरोध होता रहा है, लेकिन इसके बाद भी इन नियमों में बदलाव की पहल नहीं की गई है। इस बार खेल पुरस्कारों के लिए जब खेल विभाग में कवायद प्रारंभ हुई थी और खेल संचालक के सामने नियम आए तो उनको भी लगा कि नियम सरल और स्पष्ट नहीं हैं। ऐसे में उन्होंने २९ अगस्त को खेल पुरस्कार दिए जाने के बाद से ही सभी खेल संघों के पदाधिकारियों से यह बात कही कि उनके पास सुझाव दिए जाए कि वे नियमों में किस तरह का संशोधन चाहते हैं। एक तरफ जहां प्रदेश ओलंपिक संघ के साथ और कई खेल संघ नियमों में संशोधन के सुझाव बनाकर दे रहे हैं, वहीं खेल संचालक ने पंजाब, हरियाणा, मप्र, महाराष्ट्र और आन्ध्र प्रदेश के खेल पुरस्कारों के नियम मंगाए हैं। इसी के साथ उनके पास जिस भी राज्य के नियमों के सरल और स्पष्ट होने की जानकारी मिलती है, उनको वे मंगवाने का काम करते हैं। आज ही उनको प्रदेश ओलंपिक संघ के महासचिव बशीर अहमद खान ने उत्तर प्रदेश के नियमों के अच्छे होने की जानकारी दी। उनकी जानकारी पर उन्होंने तत्काल वहां के नियम मंगाने के निर्देश दिए हैं।

पंजाब-हरियाणा के नियम अच्छे हैं

खेल संचालक जीपी सिंह ने बताया कि उन्होंने जो पंजाब और हरियाणा के नियम मंगाए हैं, वो बहुत ही अच्छे और सरल हैं। उन्होंने बताया कि वहां पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ओलंपिक, एशियाड, विश्व कप से लेकर अन्य अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में पदक जीतने के साथ भागीदारी के लिए अलग-अलग अंक हैं। इसी के साथ राष्ट्रीय स्पर्धाओं में पदकों के लिए अलग-अलग अंक हैं। उन्होंने कहा कि अंकों पर आधारित नियम ही ठीक होते हैं। उन्होंने बताया कि पंजाब और हरियाणा के नकद राशि पुरस्कार के नियम भी सरल हैं। इन राज्यों के पुरस्कार नियम महज दो पन्नों के हैं, जबकि अपने राज्य के नियमों को काफी कठिन और ज्यादा पन्नों का बना दिया गया है। उन्होंने कहा कि अब सभी पुरस्कारों के लिए आवेदन फार्म भी एक करने का विचार है।

उत्कृष्ठ खिलाडिय़ों के नियम भी बदलेंगे

श्री सिंह ने खेल पुरस्कारों की तरह ही प्रदेश में उत्कृष्ट खिलाडिय़ों ने लिए तय किए गए नियमों पर उठ रहे सवालिया निशान को देखते हुए कहा है कि खेल विभाग ने पहले ही तय कर लिया है कि इसके नियमों में भी संशोधन किया जाएगा। खेल संचालक का कहना है कि विभाग कई राज्यों के नियमों का अवलोकन कर रहा है नियमों में जिन बदलावों की जरूरत होगी, वो बदलाव किए जाएंगे।

प्रदेश सरकार ने पहली बार ७० खिलाडिय़ों को उत्कृष्ट खिलाड़ी घोषित किया है। इस सूची के जारी होने के बाद ही खेल बिरादरी में इस बात को लेकर चर्चा होने लगी है कि उत्कृष्ट खिलाडिय़ों के लिए जो नियम बनाए गए हैं उसमें बहुत ज्यादा कमियां हैं। इन कमियों के कारण जहां कई अपात्र खिलाड़ी भी नौकरी के पात्र हो गए हैं, वहीं कई खिलाड़ी ऐसे हैं जो राज्य के लिए कुछ साल भी नहीं खेल पाएंगे ऐसे खिलाडिय़ों को नौकरी देने का क्या मतलब रहेगा।

खेल संचालक जीपी सिंह का कहना है कि उनके पास कई खेल संघों के पदाधिकारियों ने इस बात को रखा है कि नियमों में कई कमियां हैं। हमारा विभाग मप्र सहित कई राज्यों के नियमों का अवलोकन कर रहा है। नियमों में जो कमियां हैं उनको दूर किया जाएगा ताकि ज्यादा से ज्यादा खेलों के खिलाडिय़ों को उत्कृष्ट खिलाड़ी घोषित किया जा सके और उनको रोजगार मिल सके। विभाग का मसकद ही प्रदेश में हर खेल और खिलाड़ी का विकास करना है।

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बुधवार, अक्तूबर 28, 2009

नखरेवाली

दिल फिर मचलने लगा

प्यार का चिराग चलने लगा

अभी आए, वो अभी चल दिए

हम फिर अकेले रह गए

उनकी इस अदा को देखकर

हम दीवाने हो गए

लेना चाहा वादा कल का

पर वो मुकर गए

दिया जब प्यार का वास्ता प्रिंस

दिखाया उसने परसो का रास्ता

परसो जब हम उधर गए

जाने वो किधर गए

किया इंतजार दिन भर

पर हुआ ना दीदार

सुनाए क्या अब हाल

हम अपने दिल का यार

हमारे पल्ले पड़ गया है

एक नखरेवाली का प्यार

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मंगलवार, अक्तूबर 27, 2009

वन-वे पूल से दो ड्राइवर एक-दूसरे को क्रास करके गुजरे

हमारे रायपुर से नागपुर के बीच दुर्ग के बाद राजनांदगांव जाने वाले मार्ग में एक ऐसा पूल पड़ता है जो वन-वे है। इस पूल पर एक समय में एक तरफ से ही चार पहिए वाहन निकल सकते हैं। पूल इतना छोटा है कि यह संभव ही नहीं है कि दोनों चरफ से चार पहिए वाहन एक साथ निकल सके। जब भी इस पूल से गुजरना होता है एक तरफ के वाहन चालकों को इंतजार करना ही पड़ता है। लेकिन एक दिन गजब हो गया एक बार हम लोग जब राजनांदगांव जा रहे थे तो हमने देखा कि ट्रकों के दो ड्राइवर एक-दूसरे को क्रास करते हुए निकल गए।

आपको अपने दिमाग की बत्ती जलाकर यही बताना है कि यह कैसे संभव हो सकता है। तो देर किस बात की है, जरा जल्दी बताएं। हम कोई इनाम तो नहीं दे सकते हैं, पर बधाई जरूर दे सकते हैं अगर आपने बता दिया तो।

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सोमवार, अक्तूबर 26, 2009

9 माह में 700 पोस्ट, 25 हजार पाठक, 2700 टिप्पणियां


हमारे दो ब्लागों राजतंत्र के साथ खेलगढ़ को मिलाकर 700 से ज्यादा पोस्ट पूरी हो गई है। ये पोस्ट हमने महज 8 माह में लिखी है। इन पोस्टों को जहां करीब 25 हजार पाठकों ने देखा है, वहीं 2700 टिप्पणियां मिली हैं। इसी के साथ हमारा राजतंत्र ब्लाग इस समय टॉप 100 में शामिल होकर 60वें नंबर पर काबिज है। खेलगढ़ इस समय 236 नंबर पर है।

हमने आज से करीब 9 माह पहले ब्लाग जगत में खेलगढ़ के माध्यम से कदम रखा था। इसके बाद हमने एक और ब्लाग राजतंत्र बनाया। आज हमें इस बात की खुशी है कि हम इन दो ब्लागों के माध्यम से समाज और देश के लिए कुछ कर पा रहे हैं। खेलगढ़ में हमने 9 माह में सबसे ज्यादा 467 पोस्ट लिखी है। इन पोस्टों पर हमें महज 124 टिप्पणियां मिली हैं, और इस ब्लाग को चार हजार से ही ज्यादा पाठक मिल पाए हैं। इसी के साथ इसका वरीयता क्रम भी 236 है। खेलगढ़ को भले कम पाठक मिले हैं, पर हमें इस बात का कोई अफसोस नहीं है। हमें इस बात की खुशी है कि अपने राज्य के खेलों को एक नई दिशा देने का जो काम हम कर रहे हैं, वह धीरे-धीरे ही सही पर सफल हो रहा है। इसकी सफलता का इससे भी पता चलता है कि इस ब्लाग की चर्चा दैनिक हिन्दुस्तान में हो चुकी है।

अब हम राजतंत्र की बात करें तो यह एक ऐसा ब्लाग है जिसे काफी कम समय में ही ब्लाग बिरादरी और पाठकों का बहुत ज्यादा प्यार और स्नेह मिला है। इस ब्लाग की जिंदगी 8 माह की है और इतने कम समय में हमने इस ब्लाग पर 255 पोस्ट लिखी है जिसे 20 हजार से ज्यादा पाठकों ने पढ़ा है। इसी के साथ इस ब्लाग का वरीयता में इस समय 60वां स्थान है। इस ब्लाग की पोस्टों पर 2565 टिप्पणियां मिली हैं। इस ब्लाग का 20 से ज्यादा चिट्ठों में उल्लेख हो चुका है। इसी के साथ हमारे इस ब्लाग की कई पोस्टों को कई समाचार पत्रों ने प्रकाशित किया है।

हम जब ब्लाग जगत में आए थे, तब हमें मालूम नहीं था कि हमें यहां पर इतना ज्यादा प्यार मिलेगा कि हमें लिखने के लिए अपनी दिनचर्या को भी बदलना पड़ेगा। हम बताना चाहते हैं कि प्रेस के काम के बाद हमें रात को एक बजे के बाद ही सोना नसीब होता है। ऐसे में पहले हम सुबह 9 बजे के बाद ही उठते थे, लेकिन जब से ब्लाग लिखने लगे हैं हमें 6 से 7 बजे के बीच उठाया पड़ता है क्योंकि सुबह 11 बजे प्रेस जाना पड़ता है मीटिंग में। इसके बाद प्रारंभ हो जाती है, रोज की खबरों के लिए मशक्कत।

हम उन सभी ब्लागर मित्रों के साथ पाठकों और उन मित्रों के तहे दिल से आभारी हैं जो हमारे ब्लाग पर अपनी नजरें इनायत करते हैं और अपने प्यार के रूप में टिप्पणियों की बरसात करते हैं। हम आशा करते हैं कि हमें ब्लाग बिरादरी के साथ पाठकों का इसी तरह से प्यार और स्नेह मिलता रहेगा। इसी उम्मीद के साथ विदा होते हैं कि कल फिर से नई पोस्ट के साथ हाजिर होंगे।

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रविवार, अक्तूबर 25, 2009

सरकार तो बेरोजगारों को ही लूट रही है

अपने राज्य छत्तीसगढ़ में सरकार इन दिनों बेरोजगारों को ही लूटने में लगी है। यह लूट कोई छोटी-मोटी नहीं बल्कि करोड़ों की लूट है। और लूट भी ऐसी है कि हर बेरोजगार को लुटने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। दरअसल मामला यह है कि प्रदेश में इन दिनों शिक्षा कर्मियों की भर्ती के लिए सभी पोस्ट आफिस में फार्म बेचे जा रहे हैं। इस फार्म की कीमत है 450 रुपए। अब तक दस लाख से ज्यादा फार्म बिक चुके हैं और इतने ही और बिकने की संभावना है। कुल मिलाकर 20 लाख से ज्यादा फार्म बिक जाएँगे और इन फार्मों ने मिलने वाली करोड़ों की राशि से ही व्यावसायिक परीक्षा मंडल का काम चलेगा। सभी बेरोजगारों को इस बात से इतराज है कि फार्म की इतनी ज्यादा कीमत रखी गई है। क्या यह सरकार बेरोजगारों की हितैशी हो सकती है, यही सवाल आज हर बेरोजगार की जुबान पर है।

कल शाम की बात है हमारे प्रेस के सामने एक चाय-पान की दुकान में कुछ बेरोजगार चर्चा करने में लगे थे कि यार जो भाजपा सरकार अपने को को बेरोजगारों की हितैषी बताती है, क्या वह सच में उनकी हितैषी है। अगर सरकार बेरोजगारों की हितैषी है तो फिर शिक्षा कर्मियों की भर्ती के जो परीक्षा फार्म बेचे जा रहे हैं उस फार्म की कीमती 450 रुपए क्यों रखी गई है? जिस राज्य में बेरोजगारों को बेरोजगारी भत्ता महज 500 रुपए दिया जाता है, वहां बेरोजगारों से एक परीक्षा के फार्म की कीमत 450 रुपए वसूलना कहां का न्याय है।

हमें उन बेरोजगारों की बातों में बहुत दम लगा। वास्तव में यहां पर सोचने वाली बात है कि क्या इस तरह से सरकार बेरोजगारों को लूटने का काम नहीं कर रही है। अपने प्रदेश में अब तक करीब 10 लाख से ज्यादा फार्म बिक चुके हैं। फार्मों की कालाबाजारी हो रही है, वह तो अलग मुद्दा है, लेकिन जो फार्म बेचे जा रहे हैं, उन्हीं फार्मों से व्यावसायिक परीक्षा मंडल (व्यापमं) के खाते में करीब 9 करोड़ रुपए जमा होने का अनुमान है। जानकारों का कहना है कि व्यापमं परीक्षा के लिए फार्म से जो पैसा लेता है उसी से परीक्षा लेता है। ये सारी बातें ठीक हैं। लेकिन क्या परीक्षा में इतना ज्यादा खर्च होता है कि परीक्षा के फार्म के नाम पर बेरोजगारों को लूटा जा रहा है। वैसे ही अपने देश में बेरोजगार कम ठगे नहीं जाते हैं कि अब सरकार भी उनको ठगने का काम कर रही है।

यह बात सब जानते हैं कि शिक्षा कर्मी के जितने पद हैं, उससे कई गुना ज्यादा बेरोजगार परीक्षा में बैठेंगे। परीक्षा देने के बाद किस की नियुक्ति होगी, यह बात भी सब जानते हैं। यहां पर चलेगा पैसों का खेल। जिनके पास नियुक्ति के लिए पैसे देने का दम होगा नियुक्ति उनकी ही होगी। जो वास्तव में हकदार और जरूतमंद होंगे उनको नियुक्ति मिल ही नहीं पाएगी। यहां पर एक सोचने वाली बात और है कि शिक्षा कर्मियों को जो नौकरी दी जाने वाली है, वह भी स्थाई नहीं है। यह दो साल के लिए होगी इसके बाद फिर से सब बेरोजगार हो जाएंगे।

बहरहाल सरकार को इस बारे में जरूर सोचना चाहिए कि वह कम से कम बेरोजगारों के साथ इस तरह का खिलवाड़ न करे और उनको लूट से बचाने का काम करे। क्या व्यापमं को चलाना सरकार के बस में नहीं है जो वह बेरोजगारों के पैसों से उनको चलाने का काम कर रही है। किसी भी परीक्षा के फार्म के लिए थोड़ी सी राशि का लेना तो समझ में आता है, लेकिन 450 रुपए जितनी बड़ी राशि लेने का मतलब एक तरह की लूट ही है। लेकिन इसका क्या किया जाए कि अपने देश के बेरोजगार अपना घर फूंक कर भी नौकरी पाने की चाह में रहते हैं। लेकिन इसकी चाहत कभी पूरी नहीं हो पाती है, लेकिन सरकार के साथ अफसरों की तिजौरियां जरूर भर जाती हैं।

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शनिवार, अक्तूबर 24, 2009

क्या बालों में डाई लगाने से ब्लड कैंसर होता है?

अचानक एक बात यह सामने आई है कि बालाओं में डाई लगाने से ब्लड कैंसर होता है। यह बात हमारे एक पत्रकार सहयोगी ने कही है। अब इस बात का कोई पुख्ता सबूत तो हमें नहीं मिला है, लेकिन इस एक सवाल ने जरूर मन में एक हलचल पैदा कर दी है कि क्या वास्तव में बालों में डाई लगाने से ब्लड कैंसर हो सकता है। वैसे हम तो कभी डाई का उपयोग नहीं करते हैं, पर हमारे कई मित्र जरूर ऐसा करते हैं और संभवत: हमारे कई ब्लागर मित्र भी डाई का उपयोग करते होंगे। ऐसे में यह जानना जरूरी है कि इसमें कितनी सच्चाई है। हम अपने ब्लागर मित्रों से जानना चाहते हैं कि क्या आप में से किसी के पास ऐसी कोई जानकारी है क्या कि डाई लगाने से ब्लड कैंसर होता है। अगर है तो उसे सार्वजानिक किया जाए ताकि यह बात साफ हो कि मामला क्या है। अगर वास्तव में इस बात में सच्चाई है तो फिर बालाओं को काला करने का मोह त्याग कर डाई से किनारा कर लेना चाहिए। अगर सच्चाई नहीं है तो फिर क्यों खौफ का माहौल रहे।

ब्लागर मित्र जरूर इस बारे में अपनी जानकारी का खुलासा करें।

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शुक्रवार, अक्तूबर 23, 2009

नहीं खुल रहे थे ब्लाग-जानकारी लेने लोग करते रहे भागमभाग

आज अचानक 11.30 बजे के आस-पास सारे ब्लागों की बोलती बंद हो गई। हम जब घर से प्रेस गए और मीटिंग निपटाने के बाद ब्लाग खोलने का प्रयास किया तो हमारा राजतंत्र नहीं खुला। हमने कई बार प्रयास किया, पर नहीं खुला, फिर हमने अपने दूसरे ब्लाग खेलगढ़ को खोलने का प्रयास किया पर सफलता नहीं मिली। इसके बाद हमने ब्लागवाणी से और कई ब्लागों को खोलने का प्रयास किया, पर कोई भी ब्लाग नहीं खुला। गुगल से भी प्रयास सफल नहीं हुआ। तब तक अपने मित्र ललित शर्मा जी का फोन आया कि भईया हमारा ब्लाग खुल ही नहीं रहा है। हमने उनको बताया कि शर्मा जी घबराने की जरूरत नहीं है, सिर्फ आपका ही नहीं बल्कि किसी का भी ब्लाग नहीं खुल रहा है। हमने कई ब्लागों को खोलने का प्रयास किया, पर कोई नहीं खुल रहा है, सभी की बोलती बंद है, जरूर कोई तकनीकी खामी है, थोड़ी देर में ठीक हो जाएगी।

यह खामी अब ठीक हो चुकी है। यह खामी कब ठीक हुई हम ठीक-ठीक तो नहीं बता सकते पर जब 11.30 बजे के बाद हमने दो बजे अभी ब्लाग खोला तो खुल गया। अब सारे ब्लाग खुल रहे हैं। हो सकता है ब्लाग बिरादरी के और भी कई मित्र परेशान रहे हों और यह सोच रहे हों कि कहीं उनके ब्लाग में तो ताला नहीं लगा दिया गया। जरूर कई लोगों ने ब्लाग बंद होने का राज जानने अपने शर्मा जी की तरह ही भागमभाग की होगी। लेकिन अब सब खुल जा सिम सिम हो गया है।

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पहली नजर की मोहब्बत के बारे में क्या सोचते हैं आप

पहली नजर में जो मोहब्बत होती है, उसके बारे में अपनी ब्लाग बिरादरी के मित्र क्या सोचते हैं, यह जानने का आज मन हो गया है। ऐेसा मन हुआ है तो इसके पीछे एक कारण यह है कि अक्सर ऐसा कहा जाता है कि पहली नजर की मोहब्बत ज्यादा परवान नहीं चढ़ती है और परवान चढ़ भी गई तो वह अंजाम यानी शादी तक पहुंच पाती है। लेकिन हम इस बात को नहीं मानते हैं कारण यह कि हमने भी पहली नजर में मोहब्बत की और हमारी मोहब्बत न सिर्फ परवान चढ़ी बल्कि अंजाम तक भी पहुंची। यानी हमने जिसे पहली नजर में चाहा उसी को अपना जीवनसाथी बनाया और हमारा यह साथ 18 साल का हो चुका है।

आज अचानक हमें ये बातें इसलिए याद आ गईं क्योंकि दीपावली मिलन में जब अनिल पुसदकर जी की मंडली एक मित्र के घर पर जुटी और इस मंडली के बीच में जिस तरह से प्यार को लेकर बातें हुईं, उसी ने हमें भी याद दिलाया कि यार वास्तव में वह जमाना क्या था जब अपने महबूब की एक झलक पाने के लिए बेताबी रहती थी, पर आज ऐसी न तो बेताबी होती है और न ही इंतजार करने की जरूरत होती है। आज महबूब की याद आई नहीं कि बजा दी अपने मोबाइल की घंटी। मोबाइल की घंटी बजते ही न सिर्फ अपने महबूब की आवाज सुनाई पड़ती है बल्कि उसकी नूरानी सूरत भी सामने जाती है। यही कारण है कि आज के प्रेमी समझ ही नहीं सकते हैं कि मिलन की बेताबी और तडफ़ क्या होती है। इसी के साथ आज के युवा तो पहली नजर की मोहब्बत के बारे में सोच भी नहीं सकते हैं। आज का जमाना तो तू नहीं और सही और सही वाला हो गया है। बहरहाल अगर बातें की तो लंबी हो जाएगी, हम तो यह यह जानना चाहते हैं कि अपने ब्लागर मित्र पहली नजर के प्यार के बारे में क्या सोचते हैं।

कोई ऐसा मित्र है जिसने पहली नजर में मोहब्बत की और उनकी मोहब्बत परवान चढ़कर हमारी तरह अंजमा तक पहुंची हो तो जरूर बताएं। आप सभी के विचारों का इंतजार रहेगा।

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गुरुवार, अक्तूबर 22, 2009

जय ईमानदारी, जय रमन, जय छत्तीसगढ़

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के एएसपी शशिमोहन सिंह ने मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह की पहल पर अपना इस्तीफा वापस लिया और काम पर लौट आए हैं। यह जीत है एक ईमानदार अफसर की। चलिए कम से कम मुख्यमंत्री ने एक ईमानदार अफसर की कद्र तो की। वैसे मुख्यमंत्री को इसी तरह से खुले अमित कटारिया की भी कद्र करनी चाहिए थी, पर संभवत: यह उनकी मजबूरी है कि नगर निगम के चुनाव को देखते हुए उनको अपनी पार्टी के दबाव के कारण अमित कटारिया को हटाना पड़ा। लेकिन यहां पर मुख्यमंत्री डॉ. सिंह की तारीफ करनी पड़ेगी कि उन्होंने अमित कटारिया के स्थान पर जिनको निगम का आयुक्त बनाया है, वे ओम प्रकाश चौधरी साहब भी अमित कटारिया से कम नहीं है। यानी मुख्यमंत्री ने ऐसा खेल खेला कि सांप भी मर गया और लाठी भी सलामत है। कुल मिलाकर अपने रायपुर में ईमानदारी की जीत हुई है। तो चलिए यही कहा जाए कि जय ईमानदारी, जय रमन, जय छत्तीसगढ़।

छत्तीसगढ़ में पिछले कुछ दिनों से दो ईमानदार अफसरों के साथ की गई राजनीति को लेकर माहौल काफी गर्म रहा है। पहली बार आम जनता ने सामने आकर इन ईमानदार अफसरों के पक्ष में हस्ताक्षर अभियान तक चलाया। इसका नजीता यह रहा कि अंतत: मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह को कम से कम एएसपी शशिमोहन सिंह के मामले में हस्तक्षेप करना पड़ा। उनको मुख्यमंत्री के निर्देश के बाद अपना इस्तीफा वापस लेकर काम पर लौटना पड़ा। उनके काम पर लौटने से पुलिस विभाग का सिर ऊंचा हो गया है कि चलो यार अपने विभाग में ऐसे अफसर हैं जिनकी ईमानदारी की कद्र करना अपने सीएम जानते हैं।

सीएम ने जिस तरह की कद्र एएसपी की है, वैसी की कद्र उनको नगर निगम के आयुक्त अमित कटारिया की भी करनी चाहिए थी। वैसे सीएम ऐसा करते भी अगर सामने नगर निगम के चुनाव नहीं होते और उन पर पार्टी का दबाव नहीं होता। पार्टी के दबाव के चलते ही उनको अमित कटारिया को निगम से हटाने का काम करना पड़ा। लेकिन यहां पर सीएम ने एक ऐसा खेल खेला जिसके बारे कोई सोच नहीं सकता था। पार्टी के लोग चाहते थे कि निगम का आयुक्त ऐसे अफसर को बनाया जाए जो पार्टी के लोगों की बातें मानें। लेकिन सीएम ने यहां पर अपनी पसंद के एक ऐसे आयुक्त को अमित कटारिया के स्थान पर नियुक्त किया है जो किसी भी मायने में कटारिया से कम नहीं हैं। कटारिया और चौधरी में मित्रता भी है। इनकी मित्रता का कारण यह है कि दोनों के काम करने की शैली एक जैसी है और दोनों को ईमानदारी के कीड़े से काट रखा है।

एक तरह से देखा जाए तो अपने शहर के दोनों ईमानदारों अफसरों की जीत हुई है। कम से कम मुख्यमंत्री ने तो जरूर इनकी कद्र की है। एक की कद्र खुले रूप में तो दूसरे की परोक्ष रूप में ही सही कद्र तो की है। अगर ऐेसा नहीं होता तो निगम में पार्टी की पसंद का आयुक्त नियुक्त किया जाता।
तो चलो हम बोले जय ईमानदारी, जय रमन सिंह, जय भारत, जय हिन्द, जय छत्तीसगढ़।

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बुधवार, अक्तूबर 21, 2009

ये बच्चा किसका है?

एक ट्रेन के एक डिब्बे में एक डॉक्टर और नर्स सफर करते हैं। उस ट्रेन में इन दो यात्रियों के अलावा कोई नहीं रहता है। ये ट्रेन जब बिलासपुर से रायपुर पहुंचती है तो ट्रेन से उतरने पर इन दो यात्रियों के साथ एक नवजात शिशु रहता है। अब यहां पर सवाल यह है कि जो डॉक्टर है वह बच्चे का बाप नहीं है और जो नर्स है वो बच्चे की मां नहीं है तो फिर बच्चा किसका है। आपको यही बताना है कि बच्चा किसका है। ट्रेन में बच्चा पड़ा भी नहीं था। यह बात समझ ले। तो जल्दी से बताएं?

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मंगलवार, अक्तूबर 20, 2009

मंदिरों में फोटो खींचना क्यों मना है?

हमने अक्सर कई बड़े-बड़े मंदिरों में देखा है कि वहां पर किसी को फोटो खींचने की इजाजत नहीं दी जाती है। कोई फोटो खींचने की कोशिश करता है तो वहां के पंडित उनको छोड़ते नहीं हंै। सोचने वाली बात है कि आखिर धार्मिक स्थलों पर किसी को फोटो खींचने से क्यों मना किया जाता है। इसका हमारे पास तो यही जवाब है कि ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि मंदिर के बाहर बैठा वह दुकानदार फोटो बेच सके जिसके पास मंदिर के देवी-देवता के फोटो रहते हैं। जब मंदिर में फोटो खींचना ही मना है तो फिर उस दुकानदार के पास फोटो कहां से आ जाते हैं। अगर मना है तो सबके लिए मना है। अपने देश के सभी धार्मिक स्थल पूरी तरह से व्यापारिक स्थल बन गए हैं कहा जाए तो गलत नहीं होगा।

मंदिरों का यह प्रसंग आज अचानक इसलिए निकल पड़ा है क्योंकि कल ही हम लोग अपने शहर के एक मंदिर में गए थे। महादेव घाट के इस मंदिर में कुछ फोटो हमें अच्छे लगे तो हमने फोटो खींचने प्रारंभ किए। ऐसे में वहां पर एक बंदे ने कहा कि भाई साहब यहां पर फोटो खींचना मना है। हमने पूछा क्यों तो उसने कहा कि बस मना है। अगर यहां की फोटो चाहिए तो सामने दुकान पर मिल जाएगी। यही कहानी अपने देश के ज्यादातर मंदिरों की है। छोटे मंदिरों में तो एक बार आप किसी भी तरह से फोटो खींचने में सफल हो जाएंगे, पर मजाल है कि किसी बड़े मंदिर में आप फोटो खींचने की हिम्मत कर सके। अगर आपने ऐसा करने का साहस किया तो उस मंदिर के पुजारी के गुंड़े आपका क्या हाल करेंगे यह तो आप सोच भी नहीं सकते हैं।

वास्तव में यह बहुत गंभीर मुद्दा है कि आखिर अपने देश में मंदिरों में फोटो खींचने पर प्रतिबंध क्यों है। इसके लिए क्या कोई कानून नहीं है? क्या कोई ऐसा नहीं है अपने देश में जो इस मामले में अदालत की शरण में जाए। लोग तो बात-बात पर जनहित याचिका लगाने की बात करते हैं, तो क्यों कर आज तक किसी ने इस मामले में ऐसी पहल नहीं की है। हमें तो लगता है कि इस मामले में भी कोर्ट तक जाने की जरूरत है ताकि कम से कम किसी भी मंदिर के देवी-देवताओं की फोटो खींचने से कोई वंचित नहीं रह सके।

यहां पर सोचने वाली यह भी है कि जिस मंदिर में फोटो खींचने की मनाही की जाती है, अगर उसी मंदिर में किसी फिल्म की शूटिंग होनी हो तो उस मंदिर में इसकी इजाजत दे दी जाती है, तब कोई नियम कानून क्यों नहीं होता है। अरे फिल्म की तो बात ही छोड़ दें अगर कोई छोटी-मोटी वीडियो फिल्म ही बनाने वाले ही वहां पहुंचा जाते हैं तो उनको कोई मना नहीं करता है। फिर ये कैसा मनमर्जी का कानून है कि किसी को फोटो खींचने से रोको, किसी को इजाजत दे दो।

अब सवाल यह है कि आखिर मंदिरों में फोटो खींचने से रोका क्यों जाता है? तो इसका सीधा सा जवाब यही है कि मंदिर के बाहर मंदिर के कर्ताधर्ताओं के लोग दुकान लगाकर बैठते हैं जिनके पास मंदिर के फोटो रहते हैं। इन्हीं फोटो को वे लोग भक्तों को बेचकर पैसे बनाने का काम करते हैं। फोटो खींचने से रोकने के पीछे का सच यही है कि फोटो से पैसा कमाने का काम किया जाता है। इस अवैधानिक काम पर रोक लगनी ही चाहिए और मंदिरों में भक्तों को फोटो खींचने की इजाजत मिलनी चाहिए। कई मंदिरों में लिखे भी रहता है कि यहां फोटो खींचना मना है, ऐेसा लिखने का अधिकार आखिर मंदिर में कौन देता है, यह भी सोचने वाली बात है।

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सोमवार, अक्तूबर 19, 2009

भरे पेट ईमानदारी दिखाने में क्या हर्ज है

अपने छत्तीसगढ़ में इन दिनों दो ईमानदार अफसरों की खासी चर्चा है। एक अपने नगर निगम के अमित कटारिया तो दूसरे एएसपी शशिमोहन सिंह। एक को अपनी ईमानदारी से निगम आयुक्त की कुर्सी गंवानी पड़ी तो दूसरे ने खुद ही कुर्सी को लात मार दी। इन दोनों अफसरों की चर्चा के बीच में कई बातें सामने आ रही हैं। कोई कहता है कि भाई साहब अब इन अफसरों का पेट भरा हुआ है तो ईमानदारी की बातें कर रहे हैं, क्या कोई खाली पेट ईमानदारी की बातें कर सकता है। किसी अमित या शशि मोहन में दम है तो भूखे पेट ईमादारी दिखाए तो माने। एक मित्र ने कहा कि यार जब किसी से खाली पेट ईमानदारी की उम्मीद नहीं की जा सकती है तो फिर कोई भरे पेट ईमानदारी की बातें कर रहा है तो इसमें हर्ज क्या है?

वैसे जो भी बातें सामने आईं है उनमें दम तो है। यह बात सही है कि अब तक ऐसे बहुत कम मौके सामने आए हैं जब ईमानदारी की बातें करने वाले और ईमानदारी के रास्ते पर चलने वाले अफसर फाके करके इस रास्ते पर चलते हैं। पेट की आग वास्तव में ऐसी आग होती है जो अच्छे-अच्छे ईमानदारों को गलत रास्तों पर डाल देती है। इसी पेट की आग की खातिर कई मजबूर महिलाओं को अपने जिस्म तक का सौदा करना पड़ता है। ऐसे में यह बात तय है कोई खाली पेट रहने वाला तो ईमानदारी की बातें करने से रहा। अपने शहर में जहां अमित कटारिया और शशिमोहन जैसे ईमानदार अफसरों के मामले की चर्चा है, वहीं कई लोग यह बात भी कह रहे हैं कि इन अफसरों को ईमानदारी के कीड़े ने इसलिए काटा है क्योंकि इनको मालूम है कि वे कुछ भी कर लें उनके घर का चूल्हा तो जलेगा ही। अगर इनको इस बात का जरा सा भी अंदेशा रहता कि उनके ईमानदारी के चक्कर में उनके घर में चूल्हा नहीं चलेगा तो जरूर वे भी इस रास्ते पर नहीं चलते। ठीक बात है, लेकिन इसमें गलत क्या है?

अगर आज अपने देश में ईमानदारों की कमी है तो इसका एक सबसे बड़ा कारण यही है कि लोगों का ईमान खरीदने वाले जानते हैं कि कम वेतन पाने वालों को कैसे लालच में फंसाया जा सकता है। आज यही वजह रही है कि लोग पहले मजबूरी में और फिर अब आदत के कारण भ्रष्ट हो गए हैं। आज हालात यह है कि 100 में 99 भ्रष्ट हैं फिर भी भारत महान है।

अमित कटारिया को लेकर एक मित्र ने कहा कि माना कि यार अमित जी ईमानदार हैं, पर उनके निगम के आयुक्त रहते हुए ऐसा कौन सा शहर के हित का काम हुआ है जिसको देखकर ऐसा माना जाए कि उन्होंने बड़ी ईमानदारी से काम किया है। शहर में जहां भी अतिक्रमण तोड़ा गया है, सभी ऐसे स्थान रहे हैं जहां से वीआईपी जाते हैं। ऐसे कौन से रास्ते को अतिक्रमण मुक्त किया गया है जो आम जनता के लिए है। हमारे इस मित्र की बातों में दम तो है। उन्होंने जो बातें कहीं हैं वो गलत भी नहीं है। लेकिन यहां पर हम एक बात यह कहना चाहेंगे कि भले वीईपी के लिए अतिक्रमण हटाया गया, पर उससे अपना शहर कम से कम सुंदर तो लगने लगा है।

हमारे एक मित्र ने एक और बात मीडिया के लिए भी कही उन्होंने कहा कि मीडिया भी तो नेताओं की बातें मानता है। अगर मीडिया नेताओं की बातें मानना बंद कर दें तो फिर किसी नेता या मंत्री में ऐसे किसी भी अमित कटारिया और शशिमोहन सिंह के खिलाफ कुछ भी करने का दम ही नहीं रहेगा। जब उनको मालूम होगा कि मीडिया उनकी हालत खराब कर सकता है तो फिर वह ईमानदार अफसर के खिलाफ कुछ भी करने से पहले हजारों बार सोचेंगे, लेकिन नेता और मंत्री जानते हैं कि वे जो चाहेगा मीडिया भी वही लिखेगा तो फिर कैसे कोई इस देश में ईमानदारी से काम करेगा।

हमारे एक मित्र ने एक अच्छी बात यह कही कि यार इसमें क्या बुराई है कि किसी का पेट भरा है इसलिए वह ईमानदारी का बातें कर रहा है और उस रास्ते पर चल रहा है। जब किसी भूखे पेट वाले के बस में ईमानदारी के रास्ते में चलना संभव नहीं है तो कोई तो इस रास्ते पर चलने का काम कर रहा है, ऐसे में ऐसे इंसानों की सभी को मदद करनी चाहिए। संभवत: यही वजह है कि अपने शहर के दोनों ईमानदारों अफसरों का साथ यहां की जनता दे रही है। पहली बार जनता को किसी अफसर के पक्ष में सड़क पर आते देखा गया है। सोचने वाली बात यह भी है कि अपने देश में ऐसे कितने ईमानदार अफसर हैं जिनका पेट भरा है और वे ईमानदारी के रास्ते पर चलते हैं। कोई इस रास्ते पर चल रहा है तो उनको इस रास्ते से हटाने की बजाए उनको इसी रास्ते पर दमदारी से चलने के लिए प्रोत्साहित करने की जरूरत है न कि यह कहते हुए उनको हतोउत्साहित करने की कि आपका पेट भरा है इसलिए आप ईमानदारी की बात कर रहे हैं। अब बातें करने वालों का क्या है। ऐसी बातें करने वालों के कारण ही तो अच्छा काम करने से कतराने लगते हैं।

हमने यहां पर एक तस्वीर पेश करने की कोशिश की है कि कैसे लोग किसी अच्छे काम में भी बुराई निकालने से बाज नहीं आते हैं। लेकिन जहां लोग बुराई निकालने से बाज नहीं आते हैं, वहीं अच्छे लोग भी हैं जो अच्छाई को समझते हैं और समझदारी की बात करते हैं तभी तो आज तक ईमानदारी जिंदा है। जय ईमानदारी, जय हिन्द, जय भारत, जय छत्तीसगढ़।

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रविवार, अक्तूबर 18, 2009

तुम्हारी आंखें



सागर सी गहरी, झील सी नीली हैं तुम्हारी आंखें

कितनी खुबसूरत और प्यारी हैं तुम्हारी आंखें


जब भी नजर उठती है तडफ़ उठते हैं कई दिल

हर दिल में अरमानों का तूफान उठाती हैं तुम्हारी आंखें

जिसे भी एक बार देख लेती हैं तुम्हारी आंखें

चैन नहीं लेने देती हैं तुम्हारी आंखें


हर सय में नजर आती हैं फिर तुम्हारी आंखें

ख्वाबों में आकर तडफ़ाती हैं तुम्हारी आंखें


इतनी मदमस्त मदभरी हैं तुम्हारी आंखें

किसी को भी दीवाना बना दें तुम्हारी आंखें

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शनिवार, अक्तूबर 17, 2009

राहुल बाबा नक्लसवाद को राज्य ने नहीं केन्द्र सरकार ने नासूर बनाया है

अपने राहुल बाबा यानी राहुल गांधी को अब नक्सलवाद की समस्या के लिए राज्य सरकारें ही दोषी नजर आ रही हैं। हम राहुल बाबा को बताना चाहते हैं कि आज कम से कम छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद नासूर बना है तो इसके लिए राज्य सरकार नहीं बल्कि केन्द्र सरकार ही दोषी है। केन्द्र सरकार ने इसको कभी गंभीरता से लिया ही नहीं। अगर बरसों पहले ही इस मामले की गंभीरता को समझा जाता तो आज हालात इतने खराब नहीं होते कि युद्ध जैसी स्थिति आती। अब तो नक्सलियों और सरकार के बीच गृह युद्ध की स्थिति बन गई है और इस युद्ध के बिना नक्सलवाद से निपटना आसान नहीं है।

राहुल गांधी ने दो दिनों पहले ही नक्सलवाद के लिए राज्य सरकारों को दोषी ठहराया है। हम यहां पर बताना चाहेंगे कि हमें कम से कम छत्तीसगढ़ की नक्सली समस्या के बारे में इतना मालूम है कि इस समस्या से केन्द्र सरकार को आज से नहीं बल्कि पिछले तीन दशकों से आगाह किया जाता रहा है, पर केन्द्र से इस पर कभी भी गंभीरता से ध्यान नहीं दिया। पुलिस के एक आला अधिकारी जो बस्तर में लंबे समय तक रहे हैं अगर उनकी बातें मानें तो उनका साफ कहना है कि बस्तर में पिछले तीस सालों में जितने भी पुलिस अधीक्षक रहे हैं उनका रिकॉर्ड निकाल कर देख लिया जाए तो यह बात साफ होती है कि बस्तर में जिस समय नक्सलियों ने पैर पसारने प्रारंभ किए थे, तभी से केन्द्र को इसकी रिपोर्ट लगातार भेजी जाती रही है, पर केन्द्र सरकार ने कभी इस मुद्दे पर ध्यान देना जरूरी नहीं समझा।

इधर राजनांदगांव जिले में हुई सबसे बड़ी नक्सली घटना के बाद जहां प्रदेश की नक्सली समस्या पर रमन सरकार गंभीर नजर आई , वहीं केन्द्र सरकार को भी अब लगने लगा है कि सच में यह समस्या गंभीर है। इसके पहले तक तो लगता है कि केन्द्र सरकार छत्तीसगढ़ की नक्सली समस्या को केवल छत्तीसगढ़ की समस्या मानकर ही चल रही थी। वैसे देखा जाए तो छत्तीसगढ़ को अलग हुए अभी एक दशक भी नहीं हुआ है, और छत्तीसगढ़ में नक्सली समस्या कम से कम तीन दशक पुरानी है। इन तीन दशकों में शायद ही ऐसा कोई साल और बस्तर का ऐसा कोई एसपी होगा जिसने इस समस्या के बारे में केन्द्र सरकार को अवगत नहीं कराया होगा। छत्तीसगढ़ से पहले मप्र के गृह विभाग और अब छत्तीसगढ़ के गृह विभाग ने लगातार केन्द्र के पास इस समस्या की रिपोर्ट भेजी है। बस्तर में लंबे समय तक पुलिस अधीक्षक रहने वाले एक एसपी का दावा है कि बस्तर में आज तक जितने भी एसपी रहे हैं, उनमें से ऐसा कोई नहीं होगा जिसने नक्सली समस्या के बारे में केन्द्र तक रिपोर्ट नहीं भिजवाई होगी। अगर तीन दशक पहले जब बस्तर में नक्सली पैर पसार रहे थे, उस समय केन्द्र सरकार ने इस दिशा में ध्यान दिया होता तो आज छत्तीसगढ़ में यह समस्या विकराल रूप में सामने नहीं आती। छत्तीसगढ़ अलग होने के बाद भी लगातार केन्द्र को इस बारे में बताया जाता रहा, पर केन्द्र सरकार तो राजनीति में उलझी रही और इस समस्या पर ध्यान नहीं दिया गया। जब प्रदेश में जोगी सरकार आई तो केन्द्र में भाजपा गठबंधन की सरकार थी। और जब प्रदेश में भाजपा की सरकार है, तो आज जहां केन्द्र में कांग्रेस गठबंधन की सरकार है, वहीं इसके पहले भी कांग्रेस गठबंधन की सरकार थी। जब बस्तर में नक्सलियों ने बसेरा करना शुरू किया था, तब भी केन्द्र में कांग्रेस की सरकार थी। कुल मिलाकर देखा जाए तो केन्द्र की कांग्रेस सरकार ही नक्सली समस्या के लिए दोषी नजर आती है।

छत्तीसगढ़ में हालात ये हैं कि यहां के कांग्रेसी प्रदेश की भाजपा सरकार को इसके लिए दोषी मानने का कोई मौका नहीं गंवा रहे हैं। राजनांदगांव की घटना के बाद तो कांग्रेसियों ने प्रदेश में राष्ट्रपति शासन तक लगाने की मांग कर दी थी। और अब अपने राहुल बाबा भी वही राग अलाप रहे हैं कि नक्सलवाद के लिए राज्य सरकारें दोषी हैं। राहुल बाबा अपने केन्द्र की सरकार से यह सवाल क्यों नहीं करते हैं कि जब लगातार केन्द्र के पास इस समस्या की प्रारंभ से ही रिपोर्ट जाती रही है तो सरकार ने इस दिशा में ध्यान क्यों नहीं दिया? क्या विपक्ष में बैठने का मलतब यही होता है कि आप सत्ता में बैठी पार्टी पर चाहे जैसा भी हो दोष लगा दे।

हमारा यहां पर कताई भाजपा की सरकार का पक्ष लेने का मकसद नहीं है। लेकिन राजनीति से ऊपर उठकर कांग्रेस को सोचने की जरूरत है कि वास्तव में इस समस्या के लिए असली दोषी कौन है? अगर राहुल बाबा सहित कांग्रेसी इस समस्या से प्रदेश को मुक्त कराने की सच्ची भावना रखते हैं तो पहले केन्द्र सरकार से जरूर यह सवाल करें कि क्यों कर केन्द्र सरकार ने अब तक इस समस्या के समाधान का रास्ता नहीं निकाला है। माना कि प्रदेश में भाजपा की सरकार के आने के बाद नक्सली घटनाओं में बेतहासा इजाफा हुआ है, लेकिन यह भी सत्य है कि नक्सलियों को मार गिराने का काम भी पुलिस ने भाजपा शासन में ही बहुत किया है। यहां पर आंकड़े बताने की जरूरत नहीं है। अजीत जोगी के शासनकाल में कितने नक्सली मारे गए ये बात कांग्रेसी भी अच्छी तरह से जानते हैं। यदा-कदा दबी जुबान में ही सही यही कहा जाता रहा है कि जब प्रदेश में जोगी सरकार थी, तब उसका नक्सलियों से मौन समझौता था जिसके कारण जहां नक्सली घटनाएं कम हुईं, वहीं नक्सलियों का मारने का काम पुलिस ने नहीं किया।

कुल मिलाकर बात यह है कि एक तरफ कांग्रेसी नक्सली समस्या के लिए भाजपा को दोषी मान रहे हैं तो दूसरी तरफ भाजपाई कांग्रेस की केन्द्र सरकार को दोषी मान रहे हैं। भाजपा के दावे में इसलिए दम है क्योंकि केन्द्र के पास शुरू से नक्सली समस्या की रिपोर्ट भेजी जाती रही है और केन्द्र ने कुछ नहीं किया है। अब जबकि यह समस्या पूरी तरह से नासूर बन गई है तो यह वक्त एक-दूसरे पर आरोप लगाने का नहीं बल्कि इस समस्या को जड़ से समाप्त करने का है।

अंत में ब्लाग बिरादरी को दीप पर्व की प्यार भरी मीठी-मीठी बधाई

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शुक्रवार, अक्तूबर 16, 2009

ईमानदार एएसपी ने मारा मंत्री के मुंह पर इस्तीफा



छत्तीसगढ़ में एक तरफ जहां भ्रष्ट मंत्री और अफसर बेसुमार हैं तो ईमानदार अफसरों की भी कमी नहीं है। पुलिस जैसे विभाग के एक ईमानदार एएसपी शशिमोहन सिंह ने इस्तीफा सीधे तौर पर मंत्री के मुंह पर मारा है। अभी उनके इस्तीफे के एक दिन पहले ही नगर निगम के ईमानदार आयुक्त अमित कटारिया को राजनीति के खेल में हटाया गया था। अब इससे पहले की शशिमोहन सिंह का भी हश्र ऐसा ही होता उन्होंने इस्तीफा देने में भला समझा और सीधे इस्तीफा देकर चर्चा में आ गए है।

वास्तव में यह अपने देश का दुर्भाग्य है कि यहां पर ईमानदार लोगों को न तो काम करने दिया जाता है और न ही चैन से जीने दिया जाता है। ईमानदारी किस चिडिय़ां का नाम है यह तो कम से कम अपने देश के मंत्री और नेताओं के साथ 90 प्रतिशत अफसरों को मालूम ही नहीं है। मालूम भी है तो इससे हासिल कुछ नहीं हो सकता है, यह बात वे जानते हैं ऐसे में इससे कोई नाता नहीं जोडऩा चाहता है। बेईमानी की रोटी खाने की जिनकी आदत पड़ चुकी है वे भला कैसे ईमानदारों की कद्र कर सकते हैं।
अपने राज्य छत्तीसगढ़ में इस समय दो अधिकारी ईमानदारी की वजह से बहुत ज्यादा चर्चा में हैं। नगर निगम रायपुर के आयुक्त अमित कटारिया को ईमानदारी का यह इनाम मिला कि उनको निगम के आयुक्त पद से हटा दिया गया। हम अभी इस पर कुछ नहीं लिखना चाह रहे हैं क्योंकि इस पर पहले ही अनिल पुसदकर लिख चुके हैं। हम तो यहां पर चर्चा कर रहे हैं पुलिस विभाग के उन ईमानदार अधिकारी शशिमोहन सिंह की जिनको नकली खोवे के आरोपियों को छोडऩे के दबाव के कारण इस्तीफा देना पड़ा।

छत्तीसगढ़ में दीपावली के कारण लगातार नकली खोवा पकड़ में आ रहा है। ऐसे में एक मामले में एएसपी शशिमोहन सिंह ने तेलीबांधा इलाके में 25 बोरी खोवा जब्त किया। इस मामले के बाद मालूम हुआ कि खोवे का यह कारोबार करने वाले एक मंत्री के करीबी हैं। ऐसे में आने लगा दबाव मामले को रफा-दफा करने के लिए। इस मामले को लेकर एएसपी को अपने आला अफसरों की फटकार भी खानी पड़ी। इस फटकार के बाद शशिमोहन सिंह इतने ज्यादा विचलित हुए कि उन्होंने इस्तीफा ही दे दिया। यह कदम उनका एक अच्छा कदम है। अगर उन्होंने ऐसा नहीं किया होता तो जरूर उनको ईमानदारी के तोहफे के रूप में तबादला आदेश ठीक उसी तरह से थमा दिया जाता जिस तरह से अमित कटारिया को थमाया गया था।

अमित कटारिया और शशिमोहन सिंह के मामले ऐसे हैं जो अपने देश के राजनीति के गंदे चेहरे को एक बार फिर उजागर करते हैं। यह कोई नई बात नहीं है हमेशा से ही राजनीति में ईमानदार अफसरों की बलि ली जाती है। यही कारण है कि अपने देश में ईमानदार अफसरों की फसल उगनी ही बंद हो गई है। भूले भटके कोई ईमानदार अफसर सामने आता है तो उनका भी ऐसा ही हश्र होता है, ऐसे में या तो ईमानदार अफसर नौकरी छोड़ देते हैं या फिर वे काम ही नहीं करते हैं।

देश में ईमानदार अफसरों को भ्रष्ट बनाने का काम तो अपने नेता और मंत्री ही करते हैं। कोई भी अफसर यही सोचता है कि जब मंत्री को पैसे लेकर ही मामले को समाप्त करना है तो मैं ही क्यों न पैसे लेकर किसी भी मामले को समाप्त कर दूं। यही एक मानसिकता ईमानदारों को भी भ्रष्ट बना देती है। यह बात हर क्षेत्र में लागू होती है। यही बात आज मीडिया में भी लागू है। मीडिया में भी कम भ्रष्टाचार नहीं है।

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गुरुवार, अक्तूबर 15, 2009

क्षेत्रीय भाषाओं में लिखने में एतराज क्यों?



ब्लाग बिरादरी में लगता है लोगों को खालिस विवाद पैदा करने में ज्यादा रूचि हो गई है। एक तरफ धर्म युद्ध चल ही रहा है कि किसी जनाब को अब क्षेत्रीय भाषाओं में लिखने पर एतराज होने लगा है। सोचने वाली बात यह है कि कोई किसी भी भाषा में लिखे किसी का क्या जाता है। वैसे भी आप कौन होते हैं यह तय करने वाले कि कोई किस भाषा में लिखेगा, जब अपने देश में हर क्षेत्रीय भाषा को अलग दर्जा प्राप्त है तो फिर क्यों कोई ऐसा करने की हिमाकत कर रहा है और कह रहा है कि आप क्षेत्रीय भाषा में लिखना बंद करें। ऐसे बंदे को सामने आकर यह बताना चाहिए कि उनकी इस सोच के पीछे की मानसिकता क्या है, क्या खाली विवाद पैदा करना या फिर और कुछ।

हमारे एक ब्लागर मित्र हैं ललित शर्मा उनको कई भाषाओं में लिखने में महारथ हासिल है। वे अपनी छत्तीसगढ़ी भाषा के साथ भोजपुरी और हरियाणवी में भी लिखते हैं। अचानक दो दिनों पहले उनका फोन आया कि भाई साहब अब ये ब्लाग बिरादरी में ऐसा कौन सा बंदा आ गया है जिसको अब भोजपुरी और हरियाणवी में लिखने में दिक्कत होने लगी है। एक टिप्पणी चर्चा वाले चिट्ठे में किसी ने ऐसा लिखा है कि क्षेत्रीय भाषाओं में लिखना बंद होना चाहिए। हमने शर्मा जी को समझाया कि छोडि़ए न लोगों का तो काम है विवाद पैदा करना आप तो बस लिखते रहिए वैसे भी अच्छा काम करने वालों के ही पीछे लोग पड़ते हैं। अगर आप काम ही नहीं करेंगे तो कोई क्यों आपके पीछे पड़ेगा।

शर्मा जी को तो हमने समझा दिया, पर यहां पर सोचने वाली बात यह है कि आखिर किसी को क्यों कर क्षेत्रीय भाषा में लिखने में आपत्ति है। हमारे देश के संविधान में सभी क्षेत्रीय भाषाओं को जब भाषा का दर्जा दिया गया है तो फिर वो कौन है जो संविधान के खिलाफ जाकर यह तय करने का काम कर रहा है कि क्षेत्रीय भाषाओं में लेखन बंद हो। क्या वो बंदा विश्व के ब्लाग जगत का मालिक है? जो उनकी बातों को मानने के लिए लोग बाध्य हैं। बिना किसी तर्क के किसी भी भाषा पर उंगली उठाने की हिमाकत करना गलत है। अगर किसी को लगता है कि क्षेत्रीय भाषा में लिखना ठीक नहीं है तो पहले यह बात तो सामने आए कि आखिर क्यों ठीक नहीं है। हर क्षेत्रीय भाषीय चाहता है कि उनकी भाषा को ज्यादा से ज्यादा लोग जाने और पहचाने फिर क्यों कर कोई एतराज कर रहा है।

वैसे भी अपना देश ऐसा है जहां कदम-कदम पर भाषा और बोली बदल जाती है, हमारे देश की यही विविधता तो इसे महान बनाती है। भारत ही तो विश्व में एक ऐसा देश है जहां पर हर समुदाय, धर्म और भाषा के लोग एक साथ रहते हैं। अब यह बात अलग है कि इनके बीच में बैर पैदा करने का काम कुछ स्वार्थी लोग करते हैं, पर इनको सफलता नहीं मिल पाती है। अपनी ब्लाग बिरादरी में काफी समय से साम्प्रदायिकता का जहर फैलाने की कोशिशें हो रही हैं, पर इसको सफलता मिलने वाली नहीं है, यह बात अच्छी तरह से ऐसा करने वालों को समझ लेनी चाहिए। अपने देश के हिन्दु और मुस्लिम यह बात अच्छी तरह से जानते हैं कि उनको आपस में लड़ाने का काम कुछ स्वार्थी लोग ही करते हैं। ऐसे में ऐसे लोगों की दाल गलने वाली नहीं है।

जब ऐसे स्वार्थी लोगों की दाल यहां नहीं गलती है तो फिर क्षेत्रीय भाषा पर नजरें टेड़ी करने वाले की दाल कैसे गलेगी। ऐसे बंदों पर ध्यान देना ही बेकार है, जिसको जिस भाषा में लिखने का मन है वह लिखे। अपने ललित शर्मा जी तो काबिले तारीफ हैं कि वे छत्तीसगढ़ के होने के बाद भीभोजपुरी और हरियाणवी में लिखने का काम कर रहे हैं। ऐसा काम करने वालों को प्रोत्साहित करने की जरूरत है न कि ऐसे लोगों को डराने का काम करना चाहिए। वैसे अपने शर्मा जी डरने वालों में से नहीं है, लेकिन कोई भी किसी बात से विचलित जरूर हो जाता है, शर्मा जी भी विचलित हो गए थे। हमारा मानना है कि शर्मा जी जैसे किसी भी ब्लागर को विचलित होने की जरूरत नहीं है आप स्वतंत्र देश के स्वतंत्र नागरिक है और जिस भी भाषा में चाहे अपने विचार रख सकते हैं आप को ऐसा करने से अपने देश का संविधान भी नहीं रोक सकता है फिर कोई बंदा क्या चीज है।

तो लगे रहे अपने लेखन में। जय हिन्द, जय भारत, जय छत्तीसगढ़।

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बुधवार, अक्तूबर 14, 2009

100 रुपए में ले 50 हजार के पटाखों का मजा

दीपावली के पटाखे तो दशहरे से ही फूटने लगे हैं। ऐसे में जबकि अब दीपावली बस आने ही वाली है, ऐसे में हमें बरसों पुराना का जोक याद आ रहा है जो हम अपने ब्लाग बिरादरी के मित्रों के लिए पेश कर रहे हैं। यह जोक जाने-माने हांस्य अभिनेता जानी लीवर का है जो उन्होंने काफी पहले सुनाया था। वैसे इस जोक को उनके अंदाज में सुनने में मजा आता है फिर भी हम बता रहे हैं कि कैसे आप भी 100 रुपए खर्च करके 50 हजार के पटाखों का मजा ले सकते हैं।

एक मद्रासी भाई के घर के पास में एक कंजूस सिंधी भाई रहते हैं। दीपावली के समय में उनके घर से दे दना दना पटाखों की आवाजें लगातार आती हैं। मद्रासी भाई हैरान हो जाते है और सोचते हैं कि यार ये सिंधी भाई तो बहुत ज्यादा कंजूस हैं फिर उनके घर में इतने पटाखे आखिर फूट कैसे रहे हैं आखिर बात क्या है? कम से कम 50 हजार के पटाखे तो फोड़ दी दिए होंगे? क्या अपने सिंधी भाई की लाटरी लग गई है?

मद्रासी भाई से रहा नहीं जाता है और वे पहुंच जाते हैं कि जानने के लिए कि आखिर माजरा क्या है।

मद्रासी भाई सिंधी भाई से पूछते हैं- चेला रामानी जी आखिर बात क्या है इतने ज्यादा पटाखे फोड़ रहे हैं कम से कम 50 हजार के पटाखे तो फोड़ ही दिए होंगे। क्या बात है क्या कोई लाटरी वाटरी लग गई है क्या?

सिंधी भाई- अना तू चरया (पागल) हो गया है, क्या बात करता है यार हम भेड़ा 50 हजार का फटाखा फोड़ेगा। अरे बाबा साई हम 100 रुपए का पटाखा लाया और उसको फोड़ा और टेप में रिकॉर्ड कर लिया। अरे बाबा अब हम उसी टेप का कैसेट बजाता है नी। समझा की नहीं।

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मंगलवार, अक्तूबर 13, 2009

नंगे के साथ क्यों हो रहे हैं नंगे

ब्लाग जगत में पिछले कुछ दिनों से बहुत ही ज्यादा साम्प्रदायिकता का जहर घोलने का काम किया जा रहा है। ब्लाग बिरादरी को पूरी तरह से धर्म युद्ध का अखाड़ा बना दिया गया है। हर कोई बस अपने को सही और श्रेष्ठ साबित करने में लगा है। किसी के अपने को श्रेष्ठ मानने से कोई भला कैसे श्रेष्ठ हो सकता है। हमारा ऐेसा मानना है कि जिनको गंदगी करने की आदत है वे तो गंदगी करेंगे ही। अगर एक इंसान नंगा है और वो बाजार में कपड़े खोल कर खड़े हो जाता है, तो इसका यह मतलब कताई नहीं होता है कि हम भी कपड़े खोल कर नंगे हो जाएं। हमारा ब्लाग बिरादरी के मित्रों से आग्रह है कि हमें तो कम से कम हमाम में रहना चाहिए। अगर कोई हमाम से बाहर जाता है तो जाए, यह उसकी सोच है कि वह कपड़ों के बिना ज्यादा अच्छा लगेगा।

हमें काफी समय से लग रहा है कि अपना ब्लाग जगत एक गलत रास्ते पर चल पड़ा है, जहां देखो जिसे देखो धर्म के नाम पर जहर घोलने का काम किया जा रहा है। क्या जरूरत है कि किसी भी धर्म की बुराई करने की? हमें तो नहीं लगता है कि दुनिया में कोई मजहब बैर करने की बात सीखता है। इतना जरूर है कि धर्म के ठेकेदार जरूर अपने फायदे के लिए लोगों को आपस में लड़ाने का काम सदियों से करते रहे हैं। हमें लगता है कि ब्लाग बिरादरी में कुछ धर्म के ऐसे ही ठेकेदार आ गए हैं जो अपने स्वार्थ के लिए ब्लाग जगत को भी दूषित करने में लगे हैं। अब इससे पहले की यहां भी साम्प्रयादिकता का जहर पूरी धुल जाए हम लोगों को सचेत हो जाना चाहिए। अगर सचेत नहीं हुए तो वही हाल होगा जो अपने देश का हुआ था यानी हम लोग गुलाम बन जाएंगे एक ऐसी कौम के जिसका काम है लोगों को आपस में लड़ाना।

तो मित्रों हमें इस बात पर ध्यान देना बंद करना होगा कि कौन कितना गंदा लिख रहा है। हमें किसी ने एक बार एक बात बताई थी कि अगर कोई इंसान आप को गाली दे रहा है तो आप उसे कबूल ही न करें। जब आप उसकी गाली को कबूल ही नहीं करेंगे तो वह आपके आएगी ही नहीं। इसका मतलब है कि वह गाली उसी के पास रह जाएगी। अगर कोई किसी के धर्म के बारे में उल्टा-सीधा सोचता या फिर लिखता है तो किसी के लिखने मात्र से कोई धर्म कैसे खराब हो सकता है।

धर्म के नाम पर लोग सिर कटाने के लिए तैयार रहते हैं, लेकिन जिनके सिर कटते हैं वे ऐसे लोग होते हैं जिनको ऐसा करने के लिए उकसाया जाता है, कभी भी धर्म के नाम पर बड़ी-बड़ी बातें करने वालों के सिर कटते देखे हैं क्या आपने? तो क्यों कर हम लोग ऐसे लोगों के हाथों की कठपुतली बनने का काम कर रहे हैं जिनका काम ही है इंसानों को बेवकूफ बनाकर कठपुतली की तरह नचाना।

ब्लाग जगत में हम लोग आए हैं तो अपने समाज, शहर, राज्य और देश के साथ इस सारी कायनात के लिए कुछ अच्छा करने के जज्बे के साथ अपना लेखन करें ताकि जब हम न रहे तो कम से कम हमारा नाम रहे। धर्म के नाम पर लिखकर लड़कर न तो कुछ हासिल होगा और न ही कोई हमें याद करेंगे। बाकी ज्यादा क्या लिखें, अपनी ब्लाग बिरादरी के लोग ज्ञानी और समझदार हैं। हमारे मन में एक बात आई सो हमने अपने ब्लाग बिरादरी से बांटने का काम किया है। आगे जिसकी जैसी इच्छा किसी को किसी की इच्छा के विपरीत तो चलाने का दम किसी में नहीं होता है। एक मित्र होने के नाते कोई भी हमारी तरह एक सलाह ही दे सकता है। अब उस सलाह को मानना न मानना तो सामने वाले पर निर्भर होता है।

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सोमवार, अक्तूबर 12, 2009

छत्तीसगढि़हा सब ले बढिय़ा



मेजबान छत्तीसगढ़ ने राष्ट्रीय शालेय खेलों में तीन स्वर्ण पदक जीतकर यह साबित कर दिया है कि छत्तीसगढिहा सब ले बढिय़ा होते हैं। उन्होंने स्कूली खिलाडिय़ों के बीच नारे लगवाने के लिए कहा भी कि मेरे साथ कहें और फिर मुख्यमंत्री डॉ। रमन सिंह ने जब कहा कि छत्तीसढि़हा॥ तो सभी खिलाडिय़ों ने एक स्वर में कहा सब ले बढिय़ा।


यह नजारा था पुलिस मैदान में जहां पर मुख्यमंत्री डॉ। रमन सिंह पुरस्कार बांटने आए थे। उन्होंने कहा कि यह खुशी की बात है कि प्रदेश में खेली गई राष्ट्रीय शालेय चैंपियनशिप में चार में से तीन खिताब जीतकर छत्तीसगढ़ ने वास्तव में यह साबित कर दिया है कि छत्तीसगढ़ किसी से कम नहीं है। उन्होंने कहा कि अगर पूरे देश में यह बात कही जाती है कि छत्तीसगढि़हा सब ले बढिय़ा तो यह गलत भी नहीं है। इस बात को हमारे राज्य के स्कूली बच्चों ने भी साबित कर दिया है।


उन्होंने खिलाडिय़ों को संबोधित करते हुए कहा कि आप लोग ही भारत का भविष्य हैं। मुख्यमंत्री ने कहा कि आज मेरे सामने यहां पर पूरा भारत बैठा है। यहां १९ राज्यों के खिलाडिय़ों ने अपना कौशल दिखाया है। उन्होंने कहा कि जैसे आप लोग राष्ट्रीय स्पर्धा में अपने राज्य का नाम रौशन कर रहे हैं वैसे ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश का नाम रौशन करें।


इस अवसर पर कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए शिक्षा मंत्री बृजमोहन अग्रवाल ने कहा कि देश भर से आए खिलाडिय़ों का खेल देखकर अपने राज्य के खिलाडिय़ों को भी बहुत कुछ सीखने का मौका मिला है। उन्होंने भी खुशी जाहिर करते हुए कहा कि यह अच्छी बात है कि चार में से तीन खिताब मेजबान के हाथ लगे हैं। उन्होंने कहा कि खेल के मैदान में आने से ही सफलता मिलती है। श्री अग्रवाल ने खिलाडिय़ों से कहा कि हर राज्य के खिलाड़ी अपने राज्य के राजदूत का काम करते हैं।


छत्तीसगढ़ को ओवरआल चैंपियनशिप

७ अक्टूबर से ११ अक्टूबर चत चली इस स्पर्धा में मेजबान छत्तीसगढ़ ने नेटबॉल में बालक के साथ बालिका वर्ग का भी खिताब जीता। इसी के साथ कबड्डी के बालक वर्ग का खिताब जीतकर अपने खिताबों की संख्या तीन कर ली। तीन खिताब जीतने के कारण ही छत्तीसगढ़ के हाथ ओवरआल चैंपियनशिप भी लगी। उद्घाटन के सा समापन में भी सबसे अच्छा मार्च पास्ट करने के लिए हिमाचल की टीम को विशेष पुरस्कार दिया गया। समापन समारोह में दानी स्कूल की छात्राओं ने जहां देश रंगीला-रंगीला पर नृत्य प्रस्तुत किया, वहीं कटोरातालाब स्कूल की छात्राओं ने छत्तीसगढ़ी गीत पर नृत्य की मनमोहक प्रस्तुति दी। कार्यक्रम में महापौर सुनील सोनी के साथ जिला पंचायत के अध्यक्ष अशोक बजाज, शिक्षा सचिव नंद कुमार के साथ शिक्षा विभाग और जिला प्रशासन के अधिकारियों के अलावा कई खेल संघों के पदाधिकारी भी उपस्थित थे।

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रविवार, अक्तूबर 11, 2009

नक्सलियों पर हमले के लिए किसका इंतजार है?


छत्तीसगढ़ सहित देश के कई राज्यों से नक्सलियों के आतंक का सफाया करने की सारी योजनाएं बना लेने के बाद भी न जाने क्यों कर इस अभियान को अंतिम रूप देने में लगातार विलंब किया जा रहा है, आखिर किसका इंतजार किया जा रहा है यह बात समझ से परे है। क्या सरकार नक्सलियों को तैयारी का वक्त दे रही है या फिर सरकार की खुद की तैयारी अभी अधूरी है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इधर नक्सलियों पर हमले में सेना की मदद से इंकार कर दिया है, उनका यह बयान समझदारी भरा है वो इसलिए कि संभवत: प्रधानमंत्री को यह समझा दिया गया है कि नक्सलियों से निपटना सेना के बस में नहीं है। लेकिन जिनके भी बस में है वे तो तैयार बैठे हैं तो फिर देर किस बात की है।

नक्सलियों के सफाए के लिए लगता है इस बार केन्द्र सरकार वास्तव में गंभीर है, तभी तो उसने कई राज्यों के साथ मिलकर उनके सफाए कि योजना बना ली है, अब इस योजना को कब अमली जामा पहनाया जाएगा इसी बात का खुलासा नहीं किया गया है। एक यही बात कही गई है कि हमला दीपावली के बाद नवंबर में होगा। लेकिन नवंबर में कब इसका खुलासा न करके सरकार ने एक अच्छा काम किया है, वैसे कई बाते सार्वजनिक कर दी गई हैं, जो की गलत है। वैसे सरकार भी इस बात को अच्छी तरह से जानती है कि वह इन बातों को सार्वजनिक नहीं भी करती तो वो सारी बातें नक्सलियों तक पहुंच ही जानी है, नक्सलियों का नेटवर्क कितना तगड़ा है बताने की जरूरत नहीं है जो बातें किसी को मालूम नहीं होती हैं, वह बातें आसानी से नक्सलियों तक पहुंच जाती हैं। अगर सरकार ने अपनी रणनीति को छुपा रखा है तो यह एक अच्छी बात है, अगर उसने अपनी रणनीति ठीक उसी तरह से बनाई है जैसी कि सबको मालूम है तो यह बात बहुत घातक हो सकती है।

इसमें कोई दो मत नहीं है कि नक्सली भी जवाबी हमले की तैयारी करके बैठे होंगे, अब यह बात अलग है कि उन पर अचानक हमला किया जाए तो सफलता मिल सकती है। लगता तो कुछ ऐसा ही है कि इस बार नक्सलियों पर इस तरह से चौतरफा हमला होगा कि उनको बचने का मौका नहीं मिलेगा, ऐसा हुआ तो यह सबके लिए सुखद होगा, क्योंकि नक्सलियों ने आज आम लोगों का भी जीन दूभर कर कर दिया है। सरकार को तो महाराष्ट्र के चुनाव और दीपावली के पचड़े में पड़े बिना ही अविलंब हमला कर देना था ताकि नक्सलियों को सोचने का समय ही नहीं मिलता लेकिन पिछले एक माह से जिस तरह से हमला करेंगे-हमला करेंगे कि रट लगाई जा रही है, उससे नक्सलियों को संभलने का पूरा मौका मिल गया है । अगर सरकार यह सोच रही होगी कि नक्सलियों पर हमले की बातें बार-बार कहने से वे भाग जाएंगे तो यह उसकी गलती है, नक्सली उनके बयानों से बौखला कर लगातार वारदातें कर रहे हैं, ऐसे में ही सरकार को समझ जाना चाहिए कि उन पर जल्द से जल्द हमले के अलावा और कोई चारा नहीं है, मालूम नहीं सरकार किस बात का इंतजार कर रही है। सरकार को अविलंब अपनी रणनीति को अंजाम देना चाहिए।

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शनिवार, अक्तूबर 10, 2009

बापू के नाम पर करो भ्रष्टाचार


अपने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की आत्मा जरूर अब खून के आंसू रोते हुए यह सोच रही होगी कि क्यों कर उन्होंने भारत जैसी धरती पर जन्म लिया था। उनको क्या मालूम था कि जिस धरती को आजाद कराने के लिए उन्होंने इतनी मेहनत की, उसी धरती के वासी उनके नाम से भी भ्रष्टाचार करने का काम करेंगे। आपको लग रहा होगा कि आखिर बापू के नाम पर कैसे भ्रष्टाचार हो सकता है, तो हम बता दें कि भ्रष्टाचार हो नहीं सकता है, बल्कि हो रहा है और यह भ्रष्टाचार हो रहा है उस राष्ट्रीय रोजगार योजना में जिसका नाम अचानक इस बार गांधी जयंती पर बापू के नाम से कर दिया गया है। पता नहीं क्या सोच कर केन्द्र सरकार ने ऐसा किया है, जबकि उसको भी मालूम है कि इस योजना के नाम से पूरे देश में भ्रष्टाचार हो रहा है फिर क्यों ऐसा किया गया क्या केन्द्र सरकार बापू का मान करने की बजाए उनका अपमान नहीं कर रही है। इस योजना से बापू का नाम हटाने की मुहिम चलाने की जरूरत है।

विश्व में भारत का नाम भ्रष्टाचार के मामले में नंबर वन पर है। अपने देश में ऐसी कोई भी योजना नहीं होगी जिस योजना में भ्रष्टाचार न हो। ऐसे में जबकि हर योजना के साथ भ्रष्टाचार जुड़ा है तो फिर केन्द्र सरकार ने क्या सोचकर राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना का नाम राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नाम पर कर दिया है। क्या केन्द्र सरकार बापू की आत्मा को खून के आंसू रूलाने पर तूली है। बापू का वैसे भी क्या अब अपमान होता है अपने देश में जो उनकी आत्मा को और दुखी करने का काम केन्द्र की उस सरकार ने किया है जो सरकार कांग्रेस समर्पित सरकार है। बापू का कांग्रेस से ही ज्यादा नाता रहा ऐसा माना जाता है। ऐसे में यह बात समझ से परे है कि ऐसा क्यों किया गया। वैसे देखा जाए तो कांग्रेसियों को ही सबसे ज्यादा बापू से मतलब नहीं रह गया है। क्या केन्द्र सरकार को यह लगता है कि इस योजना के साथ बापू का नाम जोड़कर इसमें हो रहे भ्रष्टाचार को समाप्त किया जा सकता है। अगर केन्द्र सरकार ऐसा सोचती है तो उसकी सोच पर तरस आता है। ऐसी कौन सी योजना है जिसमें होने वाले भ्रष्टाचार पर अंकुश लग सका है कि इस योजना पर अंकुश लगेगा। अंकुश तो तब लगता जब केन्द्र में बैठे लोग पाक साफ होते। यहां तो हर साख पर उल्लू बैठे हैं वाली बात है तो फिर कैसे किसी योजना का नाम बापू के नाम पर रखने से ही भ्रष्टाचार रूक सकता है।

हमें लगता है कि केन्द्र सरकार को अपनी गलती को सुधारने का काम करते हुए बापू के नाम को कलंकित होने से बचाने के लिए इस योजना से बापू का नाम हटा लेना चाहिए। अगर ऐसा नहीं किया गया तो बापू का नाम लगातार कंलकित होता रहेगा। इस योजना में हम अपने राज्य छत्तीसगढ़ की ही बात करें तो प्रदेश में 25 हजार से ज्यादा मजदूरों को एक माह से मजदूरी ही नहीं मिली है। यही नहीं करीब 63 हजार मजबूरों को नियमित मजदूरी नहीं मिल पा रही है। यह बातें हवा में नहीं कही जा रही है बल्कि ऐसा सीएजी की रिपोर्ट में खुलासा हुआ है। इस रिपोर्ट की माने तो प्रदेश में योजना के लिए जिन दो हजार बेरोजगारों के कार्ड सरकार ने बनाए हैं उनको अब तक रोजगार ही नहीं मिला है। जिस योजना में पूरी तरह से भ्रष्टाचार हो रहा है और गरीबों का शोषण किया जा रहा है, उसी योजना का नाम बापू के नाम पर करना वास्तव में शर्मनाक है। इस योजना से बापू का नाम हटवाने के लिए एक मुहिम चलानी चाहिए।

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शुक्रवार, अक्तूबर 09, 2009

राष्ट्रगान से करो खिलवाड़-कोई क्या लेगा बिगाड़

राष्ट्रगान के साथ छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में किए गए खिलवाड़ पर कहीं कोई चर्चा नहीं हो रही है। हर बात पर आंदोलन करने की बात करने वाले कथित नेताओं को जैसे सांप सुघ गया है। किसी को इस बात से कोई मतलब ही नहीं है कि राष्ट्रगान के साथ क्या हुआ है। होगा भी कैसे। अपना देश भारत वास्तव में महान है जहां पर देश के तिरंगे के अपमान के बाद कुछ नहीं होता है। रायपुर में राष्ट्रगान के साथ जैसा किया गया उसको लेकर जहां हमें दुख हैं, वहीं वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार गिरीश पंकज भी बहुत ज्यादा दुखी और खफा हैं। उन्होंने इस पर एक अच्छा व्यंग्य भी लिखा है। उनको इस बात की भी पीड़ा है कि अपना आज का मीडिया कैसा हो गया है जो राष्ट्रगान के साथ खिलावड़ के बाद भी मौन है। इस पर तो संपादकीय भी लिखी जानी चाहिए और इस मामले में दोषी अफसरों पर कार्रवाई भी होनी चाहिए। अगर आज ऐसा नहीं होता है तो आगे न जाने राष्ट्रगान के साथ क्या किया जाएगा।

हमने कल ही यह मुद्दा ब्लाग बिरादरी के सामने रखा था कि छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में होने वाले एक समारोह के लिए राष्ट्रगान की एक बार नहीं बल्कि चार-चार बार रिहर्सल करके इसका अपमान किया गया है। हमारे इस मुद्दे के बाद जो कुछ प्रक्रियाएं आईं उनमें इस बात को कुछ लोगों ने गलत नहीं माना गया कि राष्ट्रगान की रिहर्सल क्यों की गई। लेकिन इस बारे में हमारे साथ ही और कई लोगों का नजरिया यह है कि राष्ट्रगान की रिहर्सल और वह भी आजादी के 63 साल बाद यह तो सचमुच में राष्ट्रगान का अपमान और अफसरों के निक्कमेपन का सबूत है। इस मुद्दे पर बहुत ही जानदार व्यंग्य लिखने का काम वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार गिरीश पंकज ने किया है आप भी उसे देख सकते हैं राष्ट्रगान का रिहर्सल ? वाह, क्या आईडिया है.... इस व्यंग्य को जब हमारे लेख में गिरीश जी ने टिप्पणी के रूप में पोस्ट किया तो हमने उसको पढऩे के बाद उनको फोन किया। हम बता दें कि हम गिरीश जी को 25 साल पहले से तब से जानते हैं जब स्कूल में पढ़ते थे और रायपुर के दैनिक नवभारत में गिरीश जी काम करते थे। हमने उनको जब फोन किया तो उन्होंने बताया कि एक अखबार में चंद लाइनों की खबर के बाद ही मैंने इस पर व्यंग्य लिखने का मन बनाया था कि आपके ब्लाग में इस मुद्दे पर लिखा देखा और उसको पढऩे के बाद व्यंग्य तैयार किया है।

गिरीश जी ने कहा कि वास्तव में राजकुमार यह दुखद बात है कि आजादी के 63 साल बाद भी राष्ट्रगान के रिहर्सल की जरूरत पड़ी है और इस पर मीडिया मौन है। उन्होंने कहा कि अगर मैं आज किसी अखबार में होता तो जरूर इस पर त्वरित टिप्पणी लिखता और साथ ही संपादकीय भी लिखता। गिरीश जी का भी ऐसा मानना है राष्ट्रगान के साथ ऐसा मजाक देश में और पहले कहीं नहीं हुआ है।

उन्होंने भी इस बात पर दुख जताया कि कैसे लोग इस तरह की टिप्पणी करते हैं कि राष्ट्रगान की रिहर्सल करना गलत नहीं है। क्या 63 साल बाद भी हम इस लायक नहीं बन सके हैं कि राष्ट्रगान को ठीक से गा सके। जहां पर राष्ट्रगान की रिहर्सल करवाई गई थी वहां पर तो राष्ट्रगान का मामला ही नहीं था, वहां तो महज राष्ट्रगान की धुन बजनी थी और वह भी पुलिस बैंड द्वारा। पुलिस बैंड को राज्यपाल के आने और जाने के समय राष्ट्रगान की धुन बजाने का इतना ज्यादा अभ्यास है कि रिहर्सल का कोई ओचित्य ही नहीं था। इसी के साथ राज्यपाल और राष्ट्रपति के बारे में देश के सभी लोग यह बात जानते हैं कि जब उनका किसी भी कार्यक्रम में आना होता है तो उनके आने के साथ और जाने के समय राष्ट्रगान की धुन बजाई जाती है, ऐसे में लोग खुद ही खड़े हो जाते हैं। अगर रिहर्सल करनी ही थी तो इस बात की की जाती है कि लोग को यह समझाया जाता कि जैसे ही राज्यपाल आएंगे राष्ट्रगान की धुन बजेगी और आप लोग अपने स्थान पर खड़े हो जाईएगा। लेकिन नहीं, अफसर तो अपने मन की न करें तो वे अफसर कैसे। उनको इस बात से क्या कि राष्ट्रगान का अपमान हो या और कुछ। वे तो अपनी अफसरशाही चलाएंगे ही। ऐसे अफसरों को जरूर निलंबित कर देना चाहिए जिन्होंने राष्ट्रगान के साथ रिहर्सल जैसा भद्दा मजाक किया है। अगर आज ऐसा नहीं किया गया तो आगे जरूर राष्ट्रगान का इससे ज्यादा बुरा हाल हो सकता है।

क्या अपने देश के मीडिया का खून भी सुख चुका है जो ऐसे मामले में कुछ नहीं कर रहा है। हर छोटी-छोटी बात पर संपादकीय लिखने वाला प्रिंट मीडिया और हर छोटी बात को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाने वाला इलेक्ट्रानिक मीडिया आखिर इस मामले में मौन क्यों है। इसी के साथ उन नेताओं को क्या सांप सुघ गया है जो हर छोटी-बड़ी बात पर आंदोलन करने की बात करते हैं, कैसे सब राष्ट्रगान का अपमान बर्दाश्त कर सकते हैं। चलिए जिनकी जैसी मानसिकता लेकिन हमें यह बात गलत लगी इसलिए हमने इसको कम से कम अपने ब्लाग में लिखने की हिम्मत तो दिखाई हमें इसी बात का संतोष है। वास्तव में अगर आज ब्लाग नहीं होता तो हमें भी अपना मन मारकर रहना पड़ता क्योंकि अखबार की नौकरी अपनी मर्जी से नहीं चलती है और खबरें भी वहां मर्जी से नहीं बनाई जा सकती है।

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गुरुवार, अक्तूबर 08, 2009

क्या राष्ट्रगान की रिहर्सल करना उचित है?

यह अपने देश का दुर्भाग्य है कि अपने राष्ट्रगान के लिए भी रिहर्सल करने की जरूरत पड़ गई है। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में जब राष्ट्रीय शालेय खेलों के उद्घाटन का पूर्वाभ्यास करवाया जा रहा था तो जिला प्रशासन के अफसरों ने राष्ट्रगान की एक बार नहीं बल्कि चार-चार बार रिहर्सल करवा दी। यानी इसका मतलब साफ है कि अफसरों की नजर में लोग राष्ट्रगान भी ठीक से नहीं गा सकते हैं। ऊपर से उनसे पूछने पर कहा जाता है कि इसमें गलत क्या है। हमें तो यह लगता है कि राष्ट्रगान की रिहर्सल करवाना एक तरह सेे राष्ट्रगान का अपमान है। कम से कम हमने तो इससे पहले न कभी ऐसा सुना था और न देखा था कि राष्ट्रगान की भी रिहर्सल करवाई जाती है। अब इस बारे में अपनी ब्लाग बिरादरी के मित्र बताएं कि क्या उन्होंने कभी ऐसा सुना या देखा है कि राष्ट्रगान की रिहर्सल होती है साथ ही यह भी बताएं कि क्या सही है या गलत।

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में कल से राष्ट्रीय शालेय खेलों का प्रारंभ हुआ है। इस आयोजन के एक दिन पहले से पुलिस मैदान में रिहर्सल करवाई जा रही थी। इसका सारा जिम्मा रायपुर के जिलाधीश संजय गर्ग और जिला पंचायत के सीईओ रजत कुमार पर था। ऐसे में जबकि उद्घाटन करने के लिए राज्यपाल ईएसएल नरसिम्हन को आना था तो जिला प्रशासन उद्घाटन अवसर पर होने वाले सभी कार्यक्रमों की रिहर्सल करवा रहा था। यहां तक तो ठीक था, पर राष्ट्रगान की रिहर्सल जहां एक दिन पहले दो बार करवाई गई, वहीं उद्घाटन कार्यक्रम में राज्यपाल के आने के पांच मिनट पहले ही राष्ट्रगान प्रारंभ कर दिया गया ऐेसे में आयोजन स्थल में उपस्थित बड़ी संख्या में लोग हड़बड़ा गए और खड़े हो गए। इसके पहले भी एक बार और राष्ट्रगान की रिहर्सल करवाई गई थी।

हमने अपने पत्रकारिता जीवन के 23 सालों में इससे पहले कभी ऐसा न देखा था और सुना है। हमने इस बारे में जब वहां पर उपस्थित देश के कई राज्यों से आए अधिकारियों से चर्चा की तो उनका भी साफ कहना था कि यह तो सरासर गलत है और एक तरह से राष्ट्रगान का अपमान है कि आप उसकी रिहर्सल करवा रहे हैं। रिहर्सल का मतलब है कि जिला प्रशासन को इस बात का भरोसा ही नहीं था कि राष्ट्रगान ठीक से हो सकता है। यहां पर सोचने वाली बात यह भी है कि किसी को राष्ट्रगान गाना नहीं था बल्कि जब राज्यपाल आते हैं तो पुलिस बैंड द्वारा राष्ट्रगान की धुन बजाई जाती है, इसके लिए पुलिस बैंड वाले पूरी तरह से प्रशिक्षित रहते हैं, फिर क्यों कर ऐसा किया गया इसका जवाब जिला प्रशासन के पास नहीं है। आयोजन सचिव का जिम्मा उठा रहे जिला पंचायत के सीईओ से जब इस बारे में बात की गई तो उनका कहना था कि इसमें गलत क्या है? भले यह उनको गलत न लगता हो लेकिन हमें तो ऐसा लगता है कि राष्ट्रगान की रिहर्सल करवाने का सीधा सा मतलब अपने राष्ट्रगान का अपमान करना है।

अब इस बारे में हमारी ब्लाग बिरादरी क्या सोचती है, उनके विचार आमंत्रित हैं, ताकि हमारे ज्ञान में भी कुछ इजाफा हो सके। क्या आप लोगों ने कभी ऐसा देखा या सुना है तो जरूर बताएं, साथ ही यह भी बताएं कि क्या राष्ट्रगान की रिहर्सल करना न्यायसंगत है।

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बुधवार, अक्तूबर 07, 2009

इंसानों का आधुनिक बाजार

आज हर जगह

इंसानों का आधुनिक बाजार बन गया है

इस बाजार में

इंसान-इंसान का ही

व्यापार कर रहा है

बिठाकर अपना बेटा बाजार में

हर बाप उसका मौल कर रहा है

और

लगाकर बोलियां बेटी का

मजबूर बाप

अपना घर-बार भी बेच रहा है

कोई मजबूर भाई

अपना ईमान भी बेच रहा है

दहेज के लोभी

इंसानों के सामने अपना सर रगड़ रहा है

दहेज की आग

हर बेबस बाप

मर-मर कर जी रहा है

कुछ भी कर रहा है

पर

अपनी बेटी का घर बसा रहा है

मगर

फिर भी ये अन्याय हो रहा है

घर-घर में

मजबूर बापों की बेटियों

का दामन जल रहा है

हर घर में

आज मौतम का मातम मन रहा है

और

हमारा अंधा कानून

हमेशा की तरह

अपनी आंखें बंद किए सो रहा है

(यह कविता हमने 20 साल पहले लिखी थी, पर आज भी लगता है कि इस कविता की एक-एक लाइन अपने सभ्य समझे जाने वाले समाज पर खरी
उतर रही है)

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मंगलवार, अक्तूबर 06, 2009

100 रुपए में दाल, चावल, सब्जी

खाने की थाली में महज दाल, चावल और सब्जी है और वह भी इतनी की एक आदमी का पेट भी नहीं भर सकता है और इस खाने की कीमत है 100 रुपए। अब आप सोच रहे होंगे कि क्या छत्तीसगढ़ में महंगाई इतनी ज्यादा हो गई है कि 100 रुपए में मात्र दाल, चावल और सब्जी ही मिल रही है। यह बात नहीं है यह अपने देश में होने वाले भ्रष्टाचार का एक उदाहरण है जो छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में राष्ट्रीय शालेय खेलों के खिलाडिय़ों के प्रशिक्षण शिविर में देखने को मिल रहा है। खिलाडिय़ों के खाने के लिए 100 रुपए मिलते हैं, पर भ्रष्टाचारी उनको 25 रुपए का भी खाना नहीं खिलाते हैं और बाकी पैसे बिना डकार लिए डकार जाते हैं। हमको जब इस सारे मामले की जानकारी मिली तो हमारी मिशन पत्रकारिता वाला दिल जागा और हमने हमेशा की तरह इस मामले में भी एक पहल की जिसके परिणाम स्वरूप खिलाडिय़ों को सब्जी में अंडा खाने को मिला और उनको खाना भी ठीक दिया जाने लगा।

राष्ट्रीय शालेय खेलों में खेलने वाली प्रदेश की कबड्डी और नेटबॉल टीम के प्रशिक्षण शिविर में शामिल खिलाडिय़ों के साथ उनके कोच-मैनेजर ने हमें फोन करके बताया कि उनको खाना ठीक नहीं मिल रहा है। हम यहां पर बताना चाहेंगे कि अपने राज्य का हर खिलाड़ी इस बात को जानता है कि उनके हक के लिए लडऩे का साहस हम रखते हैं इसीलिए वे ऐसे समय में हमें ही याद करते हैं। खिलाडिय़ों की शिकायत के बाद जब हमने अधिकारियों से इस बारे में बात की तो रात के खाने में खिलाडिय़ों के लिए अंडे बनाया गया। रात के खाने की जांच करने के लिए एडीएम और अतिरिक्त जिलाधीश भी गए थे। इस खबर को हमने अपने अखबार हरिभूमि में प्रकाशित भी किया है।


राजधानी रायपुर में 7 अक्टूबर से राष्ट्रीय शालेय नेटबॉल और कबड्डी का आयोजन होने वाला है। इसमें शामिल होने वाली छत्तीसगढ़ की टीमों का यहं पर प्रशिक्षण शिविर 30 सितंबर से लगाया गया है। इस शिविर में खेलने आए खिलाडिय़ों ने आज हमसे शिकायत करते हुए बताया कि उनको खाने में बस दाल, चावल और सब्जी ही दी जा रही है, यही नहीं खाना भी कम दिया जाता है। खिलाडिय़ों के साथ इनको प्रशिक्षण देने वाले और साथ ही कई खेल शिक्षकों का एक स्वर में कहना है कि इतना कम खाना खिलाने के बाद खिलाडिय़ों से अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद कैसे की जा सकती है। इनका कहना कि जब हर खिलाड़ी के लिए 100 रुपए खाने के लिए दिए जाते हैं तो खाना अच्छा होना चाहिए। इनका कहना है कि जो खाना खिलाया जा रहा है वह 25 रुपए का भी नहीं है।


खिलाडिय़ों की शिकायत के बाद जब इसके बारे में शिक्षा विभाग के सहायक संचालक (खेल) से बात की गई तो उन्होंने कहा कि खाने की जिम्मा रायपुर जिले के बाद है। वहां पर उपस्थित आयोजन की तैयारी में लगे एडीएम डोमन सिंह और अतिरिक्त जिलाधीश एसके अग्रवाल को इस बारे में बताया गया तो उन्होंने कहा कि इसकी आज ही रात के खाने में जांच की जाएगी। इधर एडीएम और अतिरिक्त जिलाधीश की खाने की जांच करने के लिए जाने की खबर मैस चलाने वालों के पास पहुंच गई और आनन-फानन में खिलाडिय़ों के लिए अंडे की सब्जी बनवा दी गई और सलाद भी कटवाया गया।
यहां पर यह बताना लाजिमी होगा कि स्कूल खेलों में हमेशा से खाने को लेकर शिकायतें रही हैं। अब तो राज्य स्तर पर भी 100 रुपए दिए जाते हैं, इसके बाद भी खाना ठीक नहीं मिलता है। खिलाडिय़ों का कहना है कि खाने की जांच अधिकारियों को मैस में आकर करनी चाहिए।

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सोमवार, अक्तूबर 05, 2009

रोमांच की धूम-दर्शक गए झूम


देश भर के बाइकर अपनी-अपनी बाइकों के एक्सीलेटर पर एक्सीलेटर दिए जा रहे हैं और सामने खड़ी एक लड़की जैसे ही इशारा करती हैं दौड़ पड़ती हैं सारी बाइक एक साथ और रास्ते में जैसे-जैसे बम्स आते हैं उन बम्स के ऊपर से बाइक हवा में इतनी ज्यादा ऊंचाई पर चली जाती है कि देखने वाले दर्शकों की सांसें थम जाती हैं। सभी दर्शक झूम उठते हैं। मैदान के चारों तरफ बस-बस दर्शक ही दर्शक हैं और सभी की नजरें लगीं हुई हैं रेसरों पर। पहले चक्र के मुकाबले के बाद ही हर दर्शक की जुबान पर बस एक ही नाम सुनाई पडऩे लगा, केपी अरविं का। इसी के साथ टीवीएस के एक और रेसर एचके प्रदीप को भी दर्शकों ने पसंद किया। इन दो रेसरों के अलावा तीसरे रेसर के रूप में प्रमोद जोसवा का नाम सामने आया। इन्हीं तीनों रेसरों के जलवों में दर्शक खो से गए और उनको ऐसा रोमांच देखने को मिला जैसा रोमांच सबने इसके पहले टीवी पर ही देखा था।

साइंस कॉलेज के मैदान पर जब विदेशी वर्ग का पहला मुकाबला प्रारंभ हुआ तो इस मुकाबले में पहले दो चक्रों तक एचके प्रदीप आगे रहे। इसके बाद तीसरे लैप यानी चक्र से अरविंद ने पहला स्थान प्राप्त किया और अंत तक इस पर कायम रहकर खिताब भी जीत लिया। इस पहले मुकाबले से ही सबको समङा में आ गया कि अरविंद ही खिलाड़ी नंबर वन हैं। उन्होंने इस पहले मुकाबले में ही जिस तरह की कलाबाजी दिखाई उसने सबको वाह-वाह करने पर मजबूर कर दिया। जैसे ही अरविंद की बाइक सबसे बड़े बम्स जिसे की टेबल टॉप कहा जाता है, उसके पास आती थी, सभी दर्शक उनका उत्साह बढ़ाने के लिए तालियां बजाने लगते थे। दर्शकों का उत्साह देखकर अरविंद लगातार बाइक को हवा में ऊंचा और ऊंचा करते गए साथ ही लंबाई में भी इजाफा करते गए। अंत में अरविंद ने अपनी बाइक से जहां हवा में करीब ४० से ५० फीट की ऊंचाई नापी, वहीं लंबाई में भी ५० फीट लंबे टेबल टॉप के अंतिम छोर को छूने में सफलता प्राप्त कर ली।

मुकाबले में रोमांच से जैसा आगाज हुआ अंजाम में भी वहीं रोमांच देखने को मिला। अंतिम मुकाबला विदेशी बाइक में ओपन वर्ग का हुआ। यहां पर अरविंद और प्रदीप ही हीरो रहे। इस चक्र में सबसे बड़ी खासियत यह रही है कि इन दोनों रेसरों ने एक बार नहीं बल्कि तीन बार एक साथ दो-दो बम्स को जंप करके पार करने का कारनामा किया। यह जंप देखकर दर्शक बहुत ज्यादा रोमांचित हुए। इन दोनों रेसरों के अलावा एक और रेसर प्रमोद जोसवा ने भी दर्शकों को लुभाने में सफलता प्राप्त की।

अरविंद की कलाबाजी पे सब फिदा



अंतिम मुकाबले के बाद दर्शकों से मिल रहे उत्साह से उत्साहित होकर अरविंद ने ऐसी कलाबाजी दिखाई जिसे दर्शक अब तक टीवी पर या फिर फिल्मों के पर्दे पर ही देखते आए हैं। अरविंद ने बाइक को एक चक्के पर लंबी दूरी तक चलाने का करतब दिखाने के साथ जब बाइक में ब्रेक लगाई तो बाइक का पीछे का चक्का ठीक उसी तरह से ऊपर उठ गया जिस तरह से दर्शकों ने फिल्म धूम में देखा था। लेकिन वह फिल्म थी और यहां पर दर्शकों को साक्षात सामने में यह सब देखने का मौका मिल रहा था।

छत्तीसगढ़ के रेसरों ने भी दिखाई हिम्मत



छत्तीसगढ़ में हुई सुपर क्रास राष्ट्रीय बाइक रेसिंग में छत्तीसगढ़ के रेसरों ेने भी अपनी जांबाजी दिखाने का काम किया। हालांकि इस रेसिंग से दर्शकों को इतना मजा नहीं आया क्योंकि इस वर्ग में कोई भी रेसर बाइक से वह करतब दिखाने में सफल नहीं हुआ जैसे करतब रेसरों ने विदेशी वर्ग में दिखाए। छत्तीसगढ़ के साथ नोवाइस वर्ग में छत्तीसगढ़ के संजय मिंज के साथ प्रवीण यादव और राजेश चक्रवर्ती ने कमाल दिखाया। छत्तीसगढ़ वर्ग में तीनों खिताब रायपुर के रेसरों ने जीते।


ये रहे विजेता



विदेशी वर्ग- प्रथम केपी अरविंद (टीवीएस), द्वितीय एचके प्रदीप, तृतीय प्रमोद जोसवा (तीनों टीवीएस टीम के सदस्य)। क्लास टू में प्रथम आर नटराज, द्वितीय संदीप खुटेगर (टीवीएस टीम), तृतीय प्रीण सनगुमारे (नागपुर)। क्लास तीन- प्रथम केपी अरविंद , द्वितीय प्रमोद जोसवा, तृतीय एचके प्रदीप (तीनों टीवीएस टीम)। क्लास फोर (छत्तीसगढ़ वर्ग) प्रथम प्रवीण यादव, द्वितीय संजय मिंज, तृतीय राजेश चक्रवर्ती (तीनें रायपुर)। क्लास फाईव - प्रथम विशाल भरगुजे द्वितीय आर नटराज (टीवीएस टीम) तृतीय स्नेहल चौहान (पूणे)।



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रविवार, अक्तूबर 04, 2009

नापसंद के चटके वाला बाक्स बैर ही पैदा करेगा

ब्लागवाणी वालों ने ऐलान किया है कि अब पसंद के साथ नापसंद के चटके वाला भी एक बाक्स बनाया जाएगा। एक तो सोचने वाली बात यह है कि इस बक्से की जरूरत क्या है? अगर ऐसा किया जाता है तो यह बात तय है कि इस बक्से से फायदा तो नहीं होगा बल्कि उल्टे ब्लागरों के बीच बैर जरूर पैदा हो जाएगा। अगर हमें कोई ब्लागर पसंद नहीं है तो हम बार-बार उसके ब्लाग में जाकर नापसंद वाले बाक्स में चटका लगा देंगे। ऐसे में क्या ब्लागरों में आपस में दुश्मनी नहीं होगी। हमारा ऐसा मानना है कि ऐसे किसी भी बाक्स को प्रारंभ करने से ब्लागवाणी को गंभीरता से इस दिशा में सोच लेना चाहिए कि इसका नतीजा कितना घातक हो सकता है। अगर हमें किसी का लिखा पसंद ही नहीं है तो यही काफी है कि हम उसे पढ़ेंगे ही नहीं, फिर अलग से नापसंद का चटका लगाने की क्या जरूरत है।

इस बारे में ब्लाग बिरादरी के मित्र क्या सोचते हैं जरूर बताएं ताकि ब्लागवाणी वालों को भी मदद मिल सके और सोचना पड़े कि उनको नापसंद के चटके वाला बाक्स लगाना चाहिए या नहीं?

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शनिवार, अक्तूबर 03, 2009

क्या खुद पसंद का चटका लगाना अपराध है?

ब्लागवाणी की पसंद को लेकर प्रारंभ हुए विवाद का अंत होता नजर नहीं आता है। ब्लागवाणी के बंद होने से लेकर फिर से प्रारंभ होने के बाद भी इस पर बहस चल रही है। अपने ब्लागर मित्र खुशदीप सहगल ने खुले दिल से यह बात कबूल की है कि उन्होंने खुद पसंद बढ़ाने का काम किया है। सोचने वाली बात यह है कि आखिर पसंद को लेकर विवाद क्यों खड़ा किया जा रहा है। क्या खुद पसंद बढ़ाना अपराध है? दुनिया में ऐसा कौन सा लेखक होगा जो यह नहीं चाहेगा कि उनका लिखा ज्यादा से ज्यादा लोग पढ़े। और ऐसे में वह लेखक क्या करेगा जब उनको मालूम होगा कि पसंद को बढ़ाए बिना उनका लेख पाठकों के सामने आने वाला नहीं है। ऐसे में उनको पसंद पर पहले पहल तो खुद ही चटका लगाना पड़ेगा। जहां तक हम समझते हैं कि खुद से चटका लगाना अपराध नहीं है। लेकिन यह चटका एक सीमा तक होना चाहिए। अगर हम स्वार्थ में फंस कर अपनी पोस्ट को सबसे ऊपर करने के लिए लगातार चटके लगाते हैं तो भले यह अपराध न हो लेकिन गलत तो है ही। हम भी यह बात मानते हैं कि हमने अपनी पोस्ट पर चटके लगाने का काम किया है ताकि हमारी पोस्ट कम से कम ब्लागवाणी में दिखने लगे।

ब्लागवाणी की पसंद को लेकर जो उस पर आरोप लगे उसकी वजह से इस वाणी पर एक दिन का विराम लगा था। यह एक दिन सभी ब्लागरों के लिए एक युग की तरह बीता कहा जाए तो गलत नहीं होगा। हो सकता है हमारी इस बात से कई लोग सहमत न हों, लेकिन इतना तो तय है कि ब्लागवाणी के बंद होने की खबर से ब्लाग जगत में भूचाल तो आ गया था। हर कोई चाहता था कि यह फिर से प्रारंभ हो जाए और ब्लागवाणी वालों ने इसको फिर से प्रारंभ कर दिया है। और इसको नए रूप में लाने की बात की जा रही है। ब्लागवाणी वालों के इस ऐलान से की अब आने वाले समय में खुद से चटका लगाने वालों के ब्लाग सार्वजनिक किए जाएंगे लगता है खुद से चटका लगाने वालों को एक झटका लगा है। लेकिन सोचने वाली बात यह है कि क्या खुद से चटका लगाना गलत है।

हमारे लिहाज से तो यह कम से कम उस समय तक गलत नहीं माना जाना चाहिए जब तक कोई लेखक महज इतने चटके लगाए कि उसकी पोस्ट दिखने लगे। इसके बाद अगर कोई चटका लगाता है तो जरूर उसको सार्वजनिक किया जाना चाहिए। ऐसा कौन सा लेखक होगा जो यह नहीं चाहेगा कि उनका लिखा भी सबके सामने दिखे और लोग उसको पढ़े। लेकिन ऐसा नहीं हो पाता है और लेखक पाठकों के लिए तरस जाते हैं। ऐसे में पसंद का चटका खुद लगाने के अलावा कोई चारा नहीं होता है। ब्लाग बिरादरी में बहुत ऐसे लोग हैं जिनको पसंद के चटके के बारे में मालूम ही नहीं है। अपने अनिल पुसदकर जी को ही इस चटके के बारे में करीब साल भर तक मालूम नहीं था। एक बार जब बीएस पाबला पहली बार रायपुर आए थे, और हम लोग प्रेस क्लब में बैठे तो उन्होंने सवाल किया था कि यार आखिर ये पसंद क्या बला है, तब उनको हमने, पाबला जी और संजीत त्रिपाठी ने बताया था। अनिल जी जैसे और न जाने कितने ब्लागर होंगे जिनको यह मालूम ही नहीं होगा कि उनकी पोस्ट में जब तक पसंद का चटका नहीं लगेगा उनकी पोस्ट ब्लागवाणी में नहीं दिखेगी।

हम एक बात और यह भी कहना चाहेंगे कि आपकी पोस्ट अच्छी होगी तो जरूर उस पर भरपूर चटके लगेंगे। लेकिन यह पोस्ट पाठकों की नजर में अच्छी होनी चाहिए। जरूरी नहीं है कि हमें जो पोस्ट अच्छी लग रही है, वह सबको अच्छी लगे। हमारी तीन दिन पहले की पोस्ट ब्लागवाणी में सही जानकारी देने वालों का ही पंजीयन हो, में 15 चटके लगे। इसमें चटका लगाने का आगाज हालांकि हमने ही किया था। संभवत: हमारी यह ऐसी पहली पोस्ट रही है जिसमें इतने चटके लगे हैं। वैसे यह पोस्ट हमारी नजर में उतनी अच्छी नहीं थी, पर इसको सबसे ज्यादा पसंद किया गया। जिस पोस्ट को हमने अच्छा माना है उनको चटकों के लिए कई बार तरसना पड़ा है।

एक बार फिर से यह बात सामने आ रही है कि आप अगर किसी ग्रुप विशेष से जुड़े हैं तो जरूर आपको चटकों के साथ टिप्पणियां मिलेंगी। हमें भी कई मित्रों ने एक ग्रुप बनाने की सलाह दी। लेकिन कम से कम यह बात हमें अच्छी लगीं कि हम एक ग्रुप बनाएं और अपने मित्रों से कहे कि यार तुम हमारी पोस्ट में चटके लगाओ और टिप्पणी करो तो हम भी ऐसा करेंगे। हमारे जमीर ने ऐसा करने की इजाजत नहीं दी, इसलिए हमने ऐसा नहीं किया, वरना तो छत्तीसगढ़ में इतने ज्यादा ब्लागर हैं कि अगर इनका एक ग्रुप बन जाए तो सबसे ऊपर छत्तीसगढ़ की ही पोस्ट रहेंगी और सबसे ज्यादा टिप्पणियां भी मिलेंगी, लेकिन क्या ऐसा करके हमारे लेखक मन को संतोष मिल सकता है। कदापि नहीं। सच्चे लेखक को अगर एक टिप्पणी भी कोई गंभीरता और दिल से कर दे वह टिप्पणी 100 टिप्पणियों पर भारी होती है, इस पर हम पहले लिख चुके हैं।


अंत में हम ब्लाग बिरादरी से जानना चाहते हैं कि आप लोग क्या सोचते हैं पसंद के चटकों के बारे में क्या खुद चटके लगाना अपराध है? कितने चटके लगाने की इजाजत लेखकों को होनी चाहिए।

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शुक्रवार, अक्तूबर 02, 2009

गांधी से युवाओं को सरोकार ही नहीं


आज गांधी जयंती है, इस अवसर पर हम एक बार फिर से याद दिलाना चाहते हैं कि भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के दर्शन करने का मन आज के युवाओं में है ही नहीं। यह बात बिना वजह नहीं कही जा रही है। कम से कम इस बात का दावा छत्तीसगढ़ के संदर्भ में तो जरूर किया जा सकता है। बाकी राज्यों के बारे में तो हम कोई दावा नहीं कर सकते हैं, लेकिन हमें लगता है कि बाकी राज्यों की तस्वीर छत्तीसगढ़ से जुदा नहीं होगी। आज महात्मा गांधी का प्रसंग इसलिए निकालना पड़ा है क्योंकि आज महात्मा गांधी की जयंती है और हमें याद है कि इस साल ही हमारे एक मित्र दर्शन शास्त्र का एक पेपर गांधी दर्शन देने गए थे। जब वे पेपर देने गए तो उनको मालूम हुआ कि वे गांधी दर्शन विषय लेने वाले एक मात्र छात्र हैं। अब यह अपने राष्ट्रपिता का दुर्भाग्य है कि उनके गांधी दर्शन को पढऩे और उसकी परीक्षा देने वाले परीक्षार्थी मिलते ही नहीं हैं। गांधी जी को लेकर बड़ी-बड़ी बातें करने वालों की अपने देश में कमी नहीं है, लेकिन जब उनके बताएं रास्ते पर चलने की बात होती है को कोई आगे नहीं आता है। कुछ समय पहले जब एक फिल्म मुन्नाभाई एमबीबीएस आई थी तो इस फिल्म के बाद युवाओं ने गांधीगिरी करके मीडिया की सुर्खियां बनने का जरूर काम किया था।

हमारे एक मित्र हैं सीएल यादव.. नहीं.. नहीं उनका पूरा नाम लिखना उचित रहेगा क्योंकि उनके नाम से भी मालूम होता है कि वे वास्तव में पुराने जमाने के हैं और उनकी रूचि महात्मा गांधी में है। उनका पूरा नाम है छेदू लाल यादव। नाम पुराना है, आज के जमाने में ऐसे नाम नहीं रखे जाते हैं। हमारे यादव जी रायपुर की नागरिक सहकारी बैंक की अश्वनी नगर शाखा में शाखा प्रबंधक हैं। बैंक की नौकरी करने के साथ ही उनकी रूचि अब तक पढ़ाई में है। उनके बच्चों की शादी हो गई है लेकिन उन्होंने पढ़ाई से नाता नहीं तोड़ा है। पिछले साल जहां उन्होंने पत्रकारिता की परीक्षा दी थी, वहीं इस बार उन्होंने दर्शन शास्त्र पढऩे का मन बनाया। यही नहीं उन्होंने एक विषय के रूप में गांधी दर्शन को भी चुना। लेकिन तब उनको मालूम नहीं था कि वे जब परीक्षा देने जाएंगे तो उनको परीक्षा हाल में अकेले बैठना पड़ेगा। जब वे परीक्षा देने के लिए विश्व विद्यालय गए तो उनके इंतजार में सभी थे। दोपहर तीन बजे का पेपर था। उनको विवि के स्टाफ ने बताया कि उनके लिए ही आज विवि का परीक्षा हाल खोला गया और 20 लोगों का स्टाफ काम पर है। उन्होंने परीक्षा दी और वहां के स्टाफ के साथ बातें भी कीं। यादव संभवत: पहले परीक्षार्थी रहे हैं जिनको विवि के स्टाफ ने अपने साथ दो बार चाय भी पिलाई।

आज एक यादव जी के कारण यह बात खुलकर सामने आई है कि वास्तव में अपने देश में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की कितनी कदर की जाती है। इसमें कोई दो मत नहीं है कि राष्ट्रपिता से आज की युवा पीढ़ी को कोई मतलब नहीं रह गया है। युवा पीढ़ी की बात ही क्या उस पीढ़ी के जन्मादाताओं का भी गांधी जी से ज्यादा सरोकार नहीं है। एक बार जब कॉलेज के शिक्षाविदों से पूछा गया कि महात्मा गांधी की मां का नाम क्या था। तो एक एक प्रोफेसर ने काफी झिझकते हुए उनका नाम बताया पुतलीबाई। यह नाम बिलकुल सही है।

एक तरफ जहां कॉलेज के प्रोफेसर नाम नहीं बता पाए थे, वहीं अचानक एक दिन हमने अपने घर में जब इस बात का जिक्र किया तो हमें उस समय काफी आश्चर्य हुआ जब हमारी छठी क्लास में पढऩे वाली बिटिया स्वप्निल ने तपाक से कहा कि महात्मा गांधी की मां का नाम पुतलीबाई था। हमने उससे पूछा कि तुमको कैसे मालूम तो उसने बताया कि उनसे महात्मा गांधी के निबंध में पढ़ा है। उसने हमें यह निबंध भी दिखाया। वह निबंध देखकर हमें इसलिए खुशी हुई क्योंकि वह अंग्रेजी में था। हमें लगा कि चलो कम से कम इंग्लिश मीडियम में पढऩे वाले बच्चों को तो महात्मा गांधी के बारे में जानकारी मिल रही है। यह एक अच्छा संकेत हो सकता है। लेकिन दूसरी तरफ हमारी युवा पीढ़ी जरूर गांधी दर्शन से परहेज किए हुए हैं। हां अगर गांधी जी के नाम को भुनाने के लिए गांधीगिरी करने की बारी आती है तो मीडिया में स्थान पाने के लिए जरूर युवा गांधीगिरी करने से परहेज नहीं करते हैं। एक बार हमने अपने ब्लाग में भी गांधी की मां का नाम पूछा था हमें इस बात की खुशी है ब्लाग बिरादरी के काफी लोग उनका नाम जानते हैं।

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गुरुवार, अक्तूबर 01, 2009

ब्लागवाणी में सही जानकारी देने वालों का ही पंजीयन हो

ब्लागवाणी का वापस प्रारंभ होना सुखद है, लेकिन इसी के साथ अब यह बात भी सामने आई है इस वाणी की आवाज को और ज्यादा बुंलद करने का काम ब्लागवाणी के संचालक करने का मन बना चुके हैं और वे चाहते हैं कि इसको अच्छा बनाने के लिए सुझाव दिए जाए। हमारे मन में तभी से एक बात है जबसे हम ब्लाग बिरादरी में शामिल हुए हैं। आज अगर ब्लागवाणी बंद हुई थी तो इसके पीछे भी एक छद्म नाम रहा है। ऐसे में हमारा ऐसा मानना है कि ब्लागवाणी में पंजीयन करने के लिए यह व्यवस्था हो कि आप जब तक अपने बारे में सही जानकारी नहीं देंगे तब तक आपका पंजीयन नहीं होगा। जब मोबाइल का एक नंबर लेने के लिए आईडी प्रुफ दिया जा सकता है तो एक ब्लाग के लिए ऐसा क्यों नहीं किया जा सकता है, जब आप सही लिखने वाले हैं। ऐसा करने से ब्लाग बिरादरी में बहुत सी बदमाशियों पर अंकुश भी लग जाएगा।

हम जानते हैं कि हमारे इस सुझाव पर उन लोगों को जरूर आपति हो सकती है जिनके लिए छद्म नाम से लिखना मजबूरी है। ऐसे ब्लागरों में खासकर महिलाओं को। तो इसके लिए एक रास्ता यह है कि कम से कम ब्लागवाणी या फिर जो भी एग्रीगेटर हैं उनको तो आप सही जानकारी दें और उनसे यह अनुरोध किया जाए कि वे आपका पंजीयन उसी नाम से करें जिस नाम से आप पंजीयन चाहते हैं। ऐसे में होगा यह कि कोई छद्म नाम का फायदा उठाते हुए न किसी के खिलाफ कुछ गलत लिख सकेगा और न ही कोई गलत टिप्पणी कर सकेगा। ऐसा करने पर पंजीयन करनी वाली संस्था को यह अधिकार हो कि वह ऐसे छद्म नाम वाले व्यक्ति का नाम उजागर कर दे। यह बात हम केवल एग्रीगेटर के लिए नहीं बल्कि गूगल के लिए पहले कह चुके हैं कि कोई भी ब्लाग बनाने से पहले उसकी सही जानकारी का लेना अनिवार्य किया जाए।

आज लफड़े हो रहे हैं तो इसके गर्भ में छद्म नाम ही हैं। सही नाम वाले ब्लागर ऐसा नहीं करते हैं यह तो नहीं कहा जा सकता है, पर जिन ब्लागरों को कम से कम अपने मान-अपमान से वास्ता है, वे ऐसा कोई रास्ता नहीं अपनाते हैं। अब जिनको गदंगी करने की आदत है उनके लिए सही नाम क्या और छद्म नाम क्या। लेकिन इतना जरूर है कि अगर मोबाइल नंबर लेने की तर्ज पर ही ब्लाग बनाने और एग्रीगेटर में पंजीयन कराने के लिए आईडी प्रुफ जैसी बात लागू कर दी जो तो काफी हद तक बदमाशियों पर अंकुश लग सकता है। इस दिशा में खासकर गूगल को गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत है। आज हिन्दी ब्लाग शैशव अवस्था में है आगे जब इसका दायरा और बढ़ेगा तो इस बढ़े हुए दायरे के साथ बदमाशियां भी बढ़ेंगी, तब इन पर अंकुश लगाना संभव नहीं हो सकेगा। आज ही अगर इस दिशा में ध्यान नहीं दिया गया तो न जाने आगे क्या होगा।

हम यहां एक बात और कहना चाहेंगे कि ब्लागवाणी के लिए मासिक शुल्क जैसी व्यवस्था इसलिए उचित नहीं होगी क्योंकि हर कोई यह शुल्क वहन करने में सक्षम नहीं होगा। ऐसे में यह कोई रास्ता नहीं है। अब इंटरनेट के लिए शुल्क देना तो मजबूरी है। वैसे भी लेखकों को लेख छपवाने के लिए पैसे देने की परंपरा कहीं नहीं रही है लेखों के प्रकाशन पर मीडिया ही लेखकों को प्रारंभ से पैसे देता रहा है। अगर एग्रीगेटर भी पहले इस परंपरा को प्रारंभ करें और लेखकों को अच्छे लेखों के लिए पैसे देने लगे तो फिर लेखकों से कोई शुल्क लिया जाए तो बात अलग है, तब शायद किसी को आपति नहीं होगी। अगर किसी एक लेख के बदले कुछ मिलेगा तो उसको कुछ देने में क्या आपति हो सकती है।

ब्लाग बिरादरी के मित्र इस बारे में क्या सोचते हैं, आपके विचार सविनय आमंत्रित हैं।

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