राजनीति के साथ हर विषय पर लेख पढने को मिलेंगे....

रविवार, नवंबर 15, 2009

क्या भीख मांगने की शिक्षा लेने स्कूल जाते हैं बच्चे

छत्तीसगढ़ की राजधानी के एक स्कूल लिटिल फ्लावर के बच्चों को इन दिनों घर-घर भीख मांगते देखा जा रहा है। आखिर ये स्कूली बच्चे भीख क्यों मांग रहे हैं? इसकी जानकारी लेने का प्रयास करने पर मालूम हुआ कि इन बच्चों को स्कूल से एक पाम्पलेट देकर फरमान जारी किया गया है कि कैंसर पीडि़तों के लिए पैसे जमा करने हैं। ये कैंसर पीडि़त भी कहां के? छत्तीसगढ़ के नहीं बल्कि उत्तर-प्रदेश के। अगर देश में बाढ़ या फिर किसी बड़ी बीमार से आपदा आई होती तब स्कूल की यह पहल एक बार समझ में आती, लेकिन बिना बड़ी आपदा के आखिर स्कूल ने ऐसा क्यों किया? यह जानने पर मालूम होता है कि ये तो स्कूल वालों का धंधा है जो बड़ी शान से ज्यादातर निजी स्कूलों में चलता है। इसमें कोई नई बात नहीं है। निजी स्कूलों ने बच्चों के पालकों को लूटने का धंधा बना रखा है, वहीं बात-बात पर बच्चों को भेज देते हैं भीख मांगने के लिए घर-घर। सोचने वाली बात यह है कि क्या हम लोगों के बच्चे स्कूलों में भीख मांगने की शिक्षा लेने जाते हैं। अगर किसी संस्था को कैंसर या भी किसी भी बीमारी से पीडि़त लोगों की मदद करनी है तो इसके लिए केन्द्र के साथ राज्य सरकारों की कमी नहीं है अपने देश में। इसी के साथ बड़े-बड़े उद्योगपति भी हैं अपने देश में, फिर स्कूली बच्चों का शोषण क्यों किया जा रहा है।

हम लोग जिस कालोनी दीनदयाल उपाध्यय नगर में रहते हैं वहां पर एक कोई छोटा-मोटा नहीं बल्कि एक बड़ा और नामी स्कूल लिटिल फ्लावर है। इस स्कूल के सभी क्लास के बच्चों जिसमें नर्सरी तक शामिल है को एक पाम्पलेट दिया गया है। यह पाम्पलेट लखनऊ की एक संस्था केयरिंग सोल्स फाऊंडेशन अवायरनेंस कम स्पोंसर फोरम का है। इस फार्म में जहां 50 नामों के लिए स्थान दिया गया है जिनमें पैसे देने वालों के नाम लिखवाने हैं, वहीं स्कूली बच्चों को इसमें यह भी लालच दिया गया है कि अगर आप 401 रुपए तक का चंदा लेकर आते हैं तो आपको एक स्वर्ण पदक दिया जाएगा, इसी तरह से 301 तक लाने पर रजत पदक और 201 रुपए लाने पर कांस्य पदक दिया जाएगा। इसी के साथ 35 रुपए से लेकर 200 तक लाने वाले छात्र-छात्राओं को भी अवार्ड देने की बात कही गई है। इस संस्था के बारे में स्कूली बच्चों को बताया गया है कि यह संस्था कैंसर पीडि़तों के लिए काम कर रही है।

संस्था अच्छा काम कर रही है इसमें कोई दो मत नहीं है, लेकिन सोचने वाली बात यह है कि इसके लिए स्कूली बच्चों का इस्तेमाल क्यों किया जा रहा है? संस्था अगर वास्तव में कैंसर पीडि़तों की मदद करना चाहती है तो उसे पहले तो अपने राज्य सरकार से ही मदद लेनी चाहिए। उप्र कम बड़ा राज्य नहीं है। हमें नहीं लगता है कि वहां पर कैंसर की इतनी गंभीर स्थिति है कि उसके लिए अपने राज्य से बाहर निकल कर दूसरे राज्यों में मदद मांगने की जरूरत है। अगर आप मदद मांगना ही चाहते हैं तो दूसरे राज्यों में पहले सरकारों का दरवाजा खटखटाएं। फिर देश भर में बड़े-बड़े उद्योगपतियों की कमी नहीं है। काफी दानदाता पड़े हैं मदद करने वाले। हमारा सिर्फ यह कहना है कि ऐसे कामों के लिए स्कूली बच्चों का शोषण क्यों किया जा रहा है।

यह तो महज एक उदाहरण है निजी स्कूलों के निक्कमेपन का। हर स्कूल में किसी ने किसी बहाने से जहां बच्चों के पालकों से पैसे मंगाए जाते हैं, वहीं बच्चों को किसी न किसी बहाने घर-घर भीख मांगने के लिए भेजा जाता है। क्या अब शिक्षा का स्तर यही रह गया है कि स्कूलों में अब बच्चों को भीख मांगने की शिक्षा दी जाने लगी है। ऐसा कृत्य करने वाले स्कूलों में तो ताले लगवा देने चाहिए। एक तो निजी स्कूलों की फीस ही बेलाम होती है, ऊपर से पालकों पर रोज-रोज कुछ न कुछ खर्चे लाद दिए जाते हैं। और अब यह कि बच्चों को भेजा जा रहा है भीख मांगने के लिए। एक तो बच्चों को होमवर्क ही इतना ज्यादा दिया जाता है कि बच्चों को खेलने के लिए भी समय नहीं मिल पाता है, ऊपर से यह सितम की आप उनको मजबूर कर रहे हैं कि घर-घर जाकर भीख मांगे और एक ऐसी संस्था के लिए चंदा लेकर आए जिसका वास्तव में कोई अस्तित्व है भी या नहीं यह कोई नहीं जानता है।

ज्यादातर ऐसी संस्थाएं महज कागजों में चलती हैं और इनका स्कूल वालों से अनुबंध रहता है कि जितना चंदा हुआ आधा तुम्हारा आधा हमारा। हमारा विरोध बस इतना है कि ऐसी किसी भी संस्था के लिए चाहे वह यथार्थ में हो या फिर कागजों में उसके लिए स्कूली बच्चों का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। लेकिन क्या किया जाए अपने इस देश में हर काम के लिए स्कूली बच्चे ही नजर आते हैं। किसी नेता का कहीं कोई कार्यक्रम है तो खड़े कर दिए जाते हैं स्कूली बच्चे सड़कों पर लाइन से, फिर चाहे किसी बच्चे को तपती धूप में चक्कर आ जाए या फिर कोई बच्चा भूख और प्यास के मारे बेहोश हो जाए किसी का क्या जाता है।

2 टिप्पणियाँ:

M VERMA रवि नव॰ 15, 07:14:00 am 2009  

अक्सर ऐसे नज़ारे मिलते है

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून रवि नव॰ 15, 07:47:00 pm 2009  

एकदम सटीक लिखा है आपने. स्कूल वालों का पेट जब फ़ीसों और चंदों से नहीं भरता है तो बच्चों को यूं कटोरा ले भेज देते हैं..हमारे एक मित्र अपने बच्चे की सारी पर्चियां फाड़ कर फेंक देते हैं और बच्चे को जेब से पैसे देकर भेज देते हैं.

Related Posts with Thumbnails

ब्लाग चर्चा

Blog Archive

मेरी ब्लॉग सूची

  © Blogger templates The Professional Template by Ourblogtemplates.com 2008

Back to TOP