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शुक्रवार, फ़रवरी 12, 2010

क्या अंग्रेजी का बहिष्कार कर पाएंगे हम

अपने देश में जहां पर हिन्दी से ज्यादा महत्व अंग्रेजी का हो गया है, ऐसे में यह सोचने वाली बात है कि क्या हम भारतीय फ्रांस की तरह अंग्रेजी का बहिष्कार कर पाएंगे। कम से कम हमें तो नहीं लगता है कि भारत में अंग्रेजी का बहिष्कार संभव है। यह बात आज इसलिए निकली है क्योंकि छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में एक कार्यक्रम में एक साहित्यकार ने यह सवाल खड़ा किया कि भारत में हिन्दी को बचाने के लिए ठीक उसी तरह की क्रांति की जरूरत है जैसी क्रांति फ्रांस में एक समय आई थी।

अपनी राष्ट्रभाषा हिन्दी को लेकर अपने देश के साहित्यकारों में ही बहुत ज्यादा मतभेद हैं। कोई यह मानता है कि हिन्दी भाषा का अंत नहीं हो सकता है तो कोई कहता है कि हिन्दी मर रही है। ऐसे में जबकि सबके अपने-अपने मत हैं तो भला कैसे अपनी राष्ट्रभाषा का भला हो सकता है। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में जब छत्तीसगढ़ राष्ट्रभाषा प्रचार समिति का एक कार्यक्रम आयोजित किया गया तो इस कार्यक्रम में जुटे देश के नामी साहित्यकारों के जो मत जानने को मिले उसमें भी यही बात सामने आई कि आखिर आज अपनी राष्ट्रभाषा के साथ क्या हो रहा है। हम यहां पर फिलहाल साहित्यकार और छत्तीसगढ़ के डीजीपी विश्व रंजन की बात रख रहे हैं। उनका ऐसा मानना है कि अपने देश में भी राष्ट्रभाषा को बचाने के लिए फ्रांसीस क्रांति की जरूरत है। विश्व रंजन ने एक किस्सा सुनाया कि जब वे काफी बरसों पहले फ्रांस गए थे तो वहां पर एक टैक्सी में बैठे। ड्राईवर को अंग्रेजी आती थी, इसके बाद भी उन्होंने साफ कह दिया कि वे अंग्रेजी में बात नहीं करेंगे और अंग्रेजी में उनको जिस स्थान के लिए जाने कहा गया वहां ले जाने वह तैयार नहीं हुआ।

कहने का मतलब यह है कि फ्रांस जैसे देशों ने अपनी राष्ट्रभाषा को बचाने के लिए अंग्रेजी का बहिष्कार करने का काम किया। लेकिन सोचने वाली बात यह है कि क्या अपने देश भारत में फ्रांस जैसी क्रांति संभव है? हमें नहीं लगता है कि भारत में ऐसा संभव हो सकता है। अपने देश में जिस तरह से लोग अंग्रेजी की गुलामी में जकड़े हुए हैं, उससे उनको मुक्त करना अंग्रेजों की गुलामी से देश को मुक्त कराने से भी ज्यादा कठिन लगता है। अंग्रेज तो भारत छोड़कर चले गए, लेकिन उनकी भाषा की गुलामी से आजादी का मिलना संभव नहीं है।

भले अंग्रेजी से आजादी न मिले, लेकिन इतना जरूर करने की जरूरत है कि अपनी राष्ट्रभाषा का अपमान तो न हो। यहां तो अपने देश में कदम-कदम पर अपनी राष्ट्रभाषा का अपमान होता है। लोगों को अंग्रेजी बोलने में गर्व महसूस होता है। जो अंग्रेजी नहीं जानता है उसे लोग गंवार ही समझ ही लेते हैं। हमारी नजर में तो जिसे अपनी राष्ट्रभाषा का मान रखना नहीं आता है, उससे बड़ा कोई गंवार नहीं हो सकता है। वास्तव में हमें फ्रांस जैसे देशों से सबक लेने की जरूरत है। भले आप अंग्रेजी का बहिष्कार करने की हिम्मत नहीं दिखा सकते हैं, लेकिन अपनी राष्ट्रभाषा का मान रखने की हिम्मत तो दिखा ही सकते हैं। अगर आप हिन्दी जानते हुए भी हिन्दी नहीं बोलते हैं तो क्या राष्ट्रभाषा का अपमान नहीं है। अगर कहीं पर अंग्रेजी बोलने की मजबूरी है तो बेशक बोलें। लेकिन जहां पर आपको सुनने और समझने वाले 80 प्रतिशत से ज्यादा हिन्दी भाषीय हों वहां पर अंग्रेजी में बोलने का क्या कोई मतलब होता है। लेकिन नहीं अगर हम अंग्रेजी नहीं बोलेंगे तो हमें पढ़ा-लिखा कैसे समझा जाएगा। आज पढ़े-लिखे होने के मायने यही है कि जिसको अंग्रेजी आती है, वही पढ़ा-लिखा है, जिसे अंग्रेजी नहीं आती है, उसे पढ़ा-लिखा समझा नहीं जाता है।

विश्व रंजन ने एक बात और कही कि आज अपने देश में हिन्दी को मजबूत करने के लिए स्कूल स्तर से ध्यान देने की जरूरत है। लेकिन यहां भी सोचने वाली बात यह है कि स्कूल स्तर से कैसे ध्यान देना संभव है। आज हर पालक अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूलों में ही भेजना चाहता है। यहां पर पालकों की सोच को बदलने की जरूरत है, जो संभव नहीं लगता है। हमारा ऐसा मानना है कि हिन्दी को बचाने के लिए स्कूल स्तर की बात तभी संभव हो सकती है जब किसी भी नौकरी में अंग्रेजी की अनिवार्यता के स्थान पर हिन्दी को अनिवार्य किया जाएगा। आज हर नौकरी की पहली शर्त अंग्रेजी है, ऐसे में पालक तो जरूर चाहेंगे कि उनके बच्चों का भविष्य सुरक्षित हो और जब अंग्रेजी में ही भविष्य नजर आएगा तो लोगों का अंग्रेजी के पीछे भागना स्वाभाविक है। अंग्रेजी से मुक्ति के लिए फ्रांसीस क्रांति की नहीं जागरूकता क्रांति की जरूरत है। अब यह कहा नहीं जा सकता है कि यह जागरूकता कब और कैसे आएगी।

13 टिप्पणियाँ:

Udan Tashtari शुक्र फ़र॰ 12, 06:54:00 am 2010  

विषय विचारणीय है.

बात किसी भी भाषा के बहिष्कार की नहीं अपितु हिन्दी के स्वीकार्य की है. इसे आजीविका की भाषा बनाने की है.

अपनी मातृभाषा को सम्मान मिले. इसका प्रचार प्रसार हो. लोग हिन्दी बोल गौरवांवित हों. इससे रोजगार उत्पन्न हों तो निश्चित ही स्थितियाँ बदलेंगी.

कडुवासच शुक्र फ़र॰ 12, 08:01:00 am 2010  

....अपने देश में "दर्जनों भाषाएं" हैं यदि सभी "भारतवासी" किसी एक "भाषा" पर एकमत हो कर "सीखने-बोलने" को तैयार हो जाते हैं तब अंग्रेजी को भगाने का प्रश्न उठाना हितकर होगा अन्यथा सब "टाईमपास" की बातें हैं!!!!
सर्वप्रथम तो अपने देश के अंदर ही जो "भाषाई" समस्याएं हैं उन्हें दूर करने का विचार बनाना चाहिये... अंग्रेजी कौन से खेत की मूली है जिसे उखाड फ़ेंकना संभव नही है !!!
सभी भाषाओं की अपनी-अपनी मान-मर्यादा है फ़िर अंग्रेजी तो "अंतर्राष्ट्रिय भाषा" का रूप ले चुकी है उसके साथ भी छेडछाड करना उचित जान नही पडता है !!

Taarkeshwar Giri शुक्र फ़र॰ 12, 08:25:00 am 2010  

Thakre ko samjaiye , sabse pahle to hum bhartwashi bhartiy bhashawo ki ijjat karna sheeke.

निर्मला कपिला शुक्र फ़र॰ 12, 09:00:00 am 2010  

श्याम कोरी उदय जी ने बिलकुल सही कहा है। महाशिवरात्रि की बधाई एवं शुभकामनाएँ.

गगन शर्मा, कुछ अलग सा शुक्र फ़र॰ 12, 09:31:00 am 2010  

अवस्था सचमुच शोचनीय है। आज आप दस में से नौ बच्चों (दसों भी हो सकते हैं) चौरासी, अठ्ठासी या ऐसी ही कोई संख्या पूछ लिजीये वहां से यही जवाब मिलेगा "अंकल" इंग्लिश में क्या कहते हैं। उस पर विड़बना यह कि खुदा न खास्ता उनके "ड़ैड" साथ हुए तो गर्व से मुस्कुराते हुए बतायेंगे कि इसकी हिंदी अच्छी नहीं है। अक्सर ऐसे लोगों से सामना हुआ है जिनके अंग्रेजी में लिखे पत्र का कोई सर पैर समझ में नहीं आता। जब अपना गुस्सा दबा आप उनसे कहते हो कि हिंदी में क्यूं नहीं लिखते तो जवाब मिलता है, बिना किसी शर्म या हिचक के, सर मेरी हिंदी बहुत पूअर है। उस समय आप सोच सकते हैं कि सामनेवाले का क्या किया जाए, यह सोच कर ही रक्तचाप बढ जाता है।

मुनीश ( munish ) शुक्र फ़र॰ 12, 10:21:00 am 2010  

Learning or using English does not necessarily mean hating Hindi. Hindi is fast becoming the 'market-language' across the country , but only English can unite India . Hard fact is that English is the declared official language of at least 5 states n' UTs in India. So u can not dismiss English easily . Let us not forget the difference in size of France and India.

मुनीश ( munish ) शुक्र फ़र॰ 12, 10:52:00 am 2010  

Moreover, only economic-viability makes a language widely acceptable and on this front Hindi is scoring fast. I love English, respect Hindi and hate English -mentality which inspires a sizable number of Indians to play Cricket only and drink Whisky only. My verdict speak English if u must ,but watch football and drink Rum for God's sake!

बेनामी,  शुक्र फ़र॰ 12, 11:08:00 am 2010  

I earn my bread and butter from english and i can live on daal roti also if hindi can provide the same to me with the same respect that i get when i earn it by english

rest i stadn by what munish has said i am a proud indian and love hindi but i dont hate english i USE it to conquer those who speak english

अनुनाद सिंह शुक्र फ़र॰ 12, 01:01:00 pm 2010  

मेरे खयाल से हिन्दी सारे मोर्चों पर जीत रही है। केवल एक मोर्चा कमजोर बना दिया गया है - रोजगार के लिये हिन्दी के बजाय अंग्रेजी के ज्ञान की अनिवार्यता। इस रोग को जड़ से हटाने के लिये राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं बौद्धिक आन्दोलन की आवश्यकता है।

मनोज कुमार शुक्र फ़र॰ 12, 11:31:00 pm 2010  

बहुत अच्छी प्रस्तुति।
इसे 13.02.10 की चिट्ठा चर्चा (सुबह ०६ बजे) में शामिल किया गया है।
http://chitthacharcha.blogspot.com/

Yashwant Mehta "Yash" शनि फ़र॰ 13, 12:25:00 am 2010  

हिन्दी और अग्रेंजी के बीच की लड़ाई मुझे हमेशा से समय की बरबादी लगी है हिन्दी मेरी मातृभाषा है सो उसका सम्मान और रक्षा करना मेरे लिए आवयश्क है

English is the language which is spoken throughout the world so it is essential for me to learn a global language.

अंकुर गुप्ता शनि फ़र॰ 13, 03:49:00 am 2010  

"लोगों को अंग्रेजी बोलने में गर्व महसूस होता है। जो अंग्रेजी नहीं जानता है उसे लोग गंवार ही समझ ही लेते हैं। हमारी नजर में तो जिसे अपनी राष्ट्रभाषा का मान रखना नहीं आता है, उससे बड़ा कोई गंवार नहीं हो सकता है।"
एकदम सटीक कहा आपने. लेकिन यदि यही गंवारपन चला जाए तो फ़्रांस वाली क्रांति लाना भी संभव हो जाएगा.

अंकुर गुप्ता शनि फ़र॰ 13, 04:00:00 am 2010  

"बात तभी संभव हो सकती है जब किसी भी नौकरी में अंग्रेजी की अनिवार्यता के स्थान पर हिन्दी को अनिवार्य किया जाएगा। आज हर नौकरी की पहली शर्त अंग्रेजी है, ऐसे में पालक तो जरूर चाहेंगे कि उनके बच्चों का भविष्य सुरक्षित हो और जब अंग्रेजी में ही भविष्य नजर आएगा तो लोगों का अंग्रेजी के पीछे भागना स्वाभाविक है। "

पर मुझे ये समझ में नही आता है कि नौकरियों में ये अंग्रेजी थोपते क्यों हैं? क्या जरूरत है?
चलो कम से कम एक निर्णय सभी हिन्दी ब्लागर करें कि जब वो किसी को नौकरी देंगे तो उम्मीद्वार से अंग्रेजी की बजाय हिन्दी या वहां कि प्रादेशिक भाषा की जानकारी की मांग करेंगे. बूंद बूंद सागर बनता है. यदि इस प्रकार के छोटे छोटे कदम हम सब उठाना शुरू कर दें तो बात बन सकती है.

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