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रविवार, मई 02, 2010

नक्सलगढ़ की 46 किलो मीटर की रोमांचक यात्रा

बस्तर प्रवास की एक रोमांचक यात्रा की बात बताए बिना हमारी बस्तर यात्रा का अंत कैसे हो सकता है। हमने बारसूर से चित्रकूट तक घने जंगल और नक्सलगढ़ के रूप में जाने जाने वाले रास्ते की रोमांचक यात्रा की। इस यात्रा में हमें 46 किलो मीटर के दरमयान पहली बार बीच रास्ते में एक मंदिर में कुछ इंसानों के दर्शन हुए और इसके बाद दूसरी बार चित्रकूट के पास कुछ इंसान दिखे।
हम लोग जिस दिन बस्तर गए उसके एक दिन पहले ही दंतेवाड़ा में देश की सबसे बड़ी नक्सली वारदात हुई थी जिसमें 76 जवान शहीद हुए थे। ऐसे समय में हमारा बस्तर जाना हमारे परिजनों के साथ मित्रों को रास नहीं आया था। लेकिन हम भी धुन के पक्के हैं। बस्तर यात्रा का कार्यक्रम हमारा पुराना था और हम किसी भी कीमत पर नक्सली घटना के कारण अपनी यात्रा को रद्द करना नहीं चाहते थे। जब हम वहां पर सात अप्रैल को पहुंचे तो दूसरे दिन दंतेवाड़ा जाने के बाद हम बारसूर गए तो मालूम हुआ कि वहां से चित्रकूट के लिए जो रास्ता जाता है, वह 46 किलो मीटर का है। ऐसे में हमने जब उस रास्ते से जाने का फैसला किया तो हमें बारसूर में एक पत्रकार मित्र मिले उन्होंने हमें मना किया कि हम उस रास्ते से न जाए तो अच्छा है। कारण पूछने पर उन्होंने बताया कि यह रास्ता नक्सलगढ़ कहलाता है। यानी इस रास्ते पर नक्सली लेंड माइंस लगा देते हैं। यह वही रास्ता है जिस रास्ते पर तब नक्सलियों ने पिछले साल वारदात की थी जब राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल आई थीं। पत्रकार मित्र की बात सुनने के बाद हमारी मंडली सोच में पड़ गई थी कि आखिर क्या किया जाए। हमने कहा कि यार कहां मौत-वौत से डरते हो, अगर हम लोगों की किस्मत में मौत लिखी होगी तो हम किसी भी रास्ते से जाएंगे तो आएगी, उसे कौन टाल सकता है। ऐसा मौका बार-बार नहीं मिलता है, चलते हैं ऐसा रोमांचक सफर और कब नसीब होगा। अंत में सबको हमारी बात माननी पड़ी और हम लोग उस रास्ते पर चल पड़े। पूरे रास्ते घने जंगल और कई किलो मीटर तक कच्चे रास्ते का सफर तय करके जब हम लोग रास्ते के मध्य में पहुंचे तो वहां हमें एक मंंदिर मिला। उस मंदिर के पुजारी का जिक्र हम पहले ही कर चुके हैं कि वे हम लोगों को वहां देखकर कितने खुश हुए।
वहां से निकलने के बाद हम लोग जब चित्रकूट पहुंचने वाले थे तो हमें कुछ लोग रास्ते में जाते दिखे। इसके पहले और कोई बंदा रास्ते में नजर नहीं आया था। पूरे रास्ते घने जंगल को देखकर हम तो बहुत रोमांचित थे और गीत-संगीत का आनंद लेते हुए कार चला रहे थे। इस रोमांचक यात्रा का जब चित्रकूट पहुंच कर अंत हुआ तो सभी ने राहत की सांस ली कि यार चलो कोई घटना नहीं हुई। हमें यह सफर ताउम्र याद रहेगा। वैसे भी एक बात कही जाती है कि जो डर गया समझो मर गया। हम तो एक बात को हमेशा मान कर चलते हैं कि जिस इंसान की मौत जहां लिखी है, वहीं होगी, उसे कोई नहीं टाल सकता है, फिर डर किस बात है। 

5 टिप्पणियाँ:

ब्लॉ.ललित शर्मा रवि मई 02, 06:46:00 am 2010  

जो डर गया समझो मर गया। हम तो एक बात को हमेशा मान कर चलते हैं कि जिस इंसान की मौत जहां लिखी है, वहीं होगी, उसे कोई नहीं टाल सकता है, फिर डर किस बात है।

बिलकुल सही कहा राजकुमार भाई
जनम-मरण और परण ईश्वर के हाथ में है.
राम राम

विवेक रस्तोगी रवि मई 02, 07:49:00 am 2010  

आना जाना तो लगा ही रहता है, पर उसके कारण हमें अपना कार्य नहीं छोड़ना चाहिये, जो आया है वो जायेगा ही, प्रकृति का नियम है।

कडुवासच रवि मई 02, 10:01:00 am 2010  

...ye sach hai maut ... par bhay to bhay hai ... dar to kaheen bhee lag saktaa hai ... sundar post !!!

नरेश सोनी रवि मई 02, 10:49:00 am 2010  

शानदार फोटो,
और यात्रा का जानदार अंत।

Udan Tashtari रवि मई 02, 08:02:00 pm 2010  

बढ़िया रोमांचकारी यात्रा वृतांत..


भाई

जिस इंसान की मौत जहां लिखी है, वहीं होगी, उसे कोई नहीं टाल सकता है, फिर डर किस बात है।

-यह तो बिल्कुल सही है..अनायस डर पालना उचित नहीं लेकिन फिर भी रेल की पटरी पर तो नहीं सोया जाता कि मौत नहीं आई होगी तो ट्रेन भी क्या कर लेगी.

बस, जरा सजग रहने की बात है.

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