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मंगलवार, मई 03, 2011

अबे तुम पत्रकार क्या घुटना दिमाग होते हो?

एक मित्र का फोन आया और उसने एक सवाल दाग दिया कि क्या तुम पत्रकार घुटना दिमाग होते हो?
हमने पूछा अबे हुआ क्या है जो तू इतना भड़का रहा है?
उसने कहा होना क्या है, जब देखो बस तुम लोग अपने को ही तीस मार खां समझते हो?
हमने फिर कहा अबे बताएगा मामला क्या है?
उसने कहा एक तो हमने तुम्हारी सम्मान वाली पोस्ट देखी, और फिर दिल्ली में हुए ब्लागर सम्मेलन का विवाद भी देखा।
हमने पूछा तो क्या हुआ?
उसने कहा अबे दूसरों को भी अपने मन से चलने और जीने-खाने दोगे या नहीं।
अब दिल्ली में बेचारों ने ब्लागर सम्मेलन किया, तो सीधी सी बात है कि ब्लागर अपने खर्च से तो वहां रूके नहीं होंगे। जरूर उनको इतने बड़े आयोजन में खर्च करना पड़Þा होगा। ऐसे में वे अगर किसी ईमानदार साहित्यकार, या किसी और को बुलाते तो उनका खर्च कैसे निकलता। एक भ्रष्ट मंत्री ही तो ऐसे आयोजन के लिए बड़ा सा चंदा दे सकता है। क्या पत्रकारों के आयोजनों में कभी किसी भ्रष्ट मंत्री को नहीं बुलाया जाता जो ब्लागर सम्मेलन में एक भ्रष्ट मंत्री को बुलाए जाने पर बवाल किया जा रहा है।
उसने कहा तू एक बात ईमानदारी से बता, क्या तेरी बिरादरी के सारे पत्रकार ईमानदार हंै? जब तुम्हारी खुद की कौम में ईमानदारी नाम की चीज नहीं है तो फिर क्यों कर दूसरों के फटे में टांग अड़ाने का काम करते हो तुम लोग। अगर तुम लोगों को ऐसे आयोजन में नहीं जाना है तो मत जाओ, क्यों कर किसी के पेट में लात मारने का काम करते हो। जिसने भी दिल्ली में ब्लागर सम्मेलन करवाया होगा उसकी भी तो कुछ जरूरत रही होगी, आज के जमाने में कोई ईमानदार तो किसी की जरूरत पूरी नहीं करता है, ऐसे में किसी बेईमान को ही तो पकड़ना पड़ेगा न फिर उन बेचारों ने गलत क्या किया।
उसने फिर एक सवाल दागा- चल बता क्या देश के सारे अखबार अपना काम ईमानदारी से कर रहे हैं?
उसके इस सवाल का हमारे पास वास्तव में कोई जवाब नहीं था। हम जानते हैं कि आज देश के बहुत कम अखबार अपना काम ईमानदारी से नहीं कर रहे हैं। सत्ता में बैठी सरकार के खिलाफ किसी भी अखबार में लिखने की हिम्मत नहीं होती है। कोई अखबार ऐसी हिम्मत करता भी है तो उसके पीछे उसका अपना स्वार्थ होता है। अब यह स्वार्थ किसी भी तरह का हो सकता है, संभवत है उसको कम विज्ञापन मिलता हो जिसके कारण सरकार पर दबाव बनाने वह उसके खिलाफ लिखने का काम कर रहा है, या फिर संभव है कि वह अखबार विपक्ष में बैठे लोगों के हाथों की कठपुतली हो। कुछ न कुछ तो बात रहती है, तभी कोई अखबार सत्ता में बैठी सरकार के खिलाफ जहर उगलता है।
एक बात हमारे मित्र की यह तो सही है कि हम पत्रकार घुटना दिमाग होते हैं। पत्रकारों पर पत्रकारिता का रंग इस कदर चढ़ा रहता है कि वे अपने से बड़ा और किसी को समझते ही नहीं हंै। हमने भी अक्सर पत्रकार साथियों को छोटी-छोटी बात पर किसी से भी उलझते देखा है। एक छोटा सा उदाहरण ही ले लीजिए। किसी बड़े मंंत्री के कार्यक्रम में जब किसी पत्रकार की तलाशी ली जाती है, तो अक्सर पत्रकार भड़क जाते हैं कि क्या हम चोर हैं।
अब हमारे पत्रकार मित्रों को भी समझना चाहिए कि तलाशी लेने वाले बेचारे तो बस अपना काम कर रहे हैं, अगर कहीं चूक हो गई तो उनकी नौकरी चली जाएगी, फिर हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि कई बड़ी वारदातों में लोग पत्रकार बनकर पहुंचे हैं। ऐसे में अगर सुरक्षा के लिहाज से आपकी तलाशी ली जा रही है तो इसमें गलत क्या है। ईमानदारी से बताए तो हमें भी ऐसे कई मौकों पर गुस्सा आता है, फिर हम सोचते हैं कि यार अगला आदमी तो बस अपना काम कर रहा है जिस तरह से हम अपना काम करने आए हैं। ऐसे में क्यों कर उसके काम में हम बाधा पहुंचाए।

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