मेरी पत्नी की अनुसूचित जाति की सहेली साथ में खाना बनवाती है
हमारे पड़ोस में रहने वाली एक महिला हमेशा हमारे घर आती हैं जो कि अनुसूचित जाति हैं। वह महिला मेरी पत्नी की सहेली हैं। यह महिला जहां हमें जीजाजी बोलती हैं, वहीं हमारे घर के किचन में कई अवसरों में मेरी पत्नी अनिता ग्वालानी के साथ खाना बनाने में हाथ भी बटाती हैं। हम लोग उनके परिवार के कार्यक्रमों में भी जाते हैं और वहां खाना भी खाते हैं।
छूआ-छूत की एक घटना ने हमारा मन इतना विचलित कर दिया है कि हमें इसको मिटाने वाली जितनी बातें याद आ रही हैं लगता है कि सिलसिले वार लिख दें। हम लोग जिन दीनदयाल उपाध्याय नगर में रहते हैं, वहां पर दो घर छोड़कर एक परिवार रहता है, यह परिवार अनुसूचित जाति समुदाय से संबंध रखता है, लेकिन हमारे घर इनका आना-जाना एक परिवार की तरह है। हमारे घर में जब भी कोई कार्यक्रम होता है तो श्रीमती जी अपनी इस सहेली को ही हाथ बटाने के लिए याद करती हैं, और उनकी यह सहेली हमेशा खुशी-खुशी आती हैं। इसी के साथ मेरी पत्नी की एक और सहेली हैं जो कि ब्राम्हण हैं, वहां भी कई अवसरों पर हमारे घर के कार्यक्रमों में आती हैं। कुछ अवसरों पर ऐसा भी हुआ है कि जब कोई कार्यक्रम रहा है तो मेरी पत्नी के साथ उनकी ये दोनों सहेलियां भी किचन में रहीं है, श्रीमती जी की ब्राम्हण सहेली को यह बात अच्छी तरह से मालूम है कि उनकी दूसरी सहेली अनुसूचित जाति की हैं, पर उन्होंने कभी इस बात को लेकर आपति नहीं की है।
उस अनुसूचित जाति की महिला जो कि हमें जीजा जी बोलती हैं और हम भी उसे साली ही मानते हैं। उनके घर के कई कार्यक्रमों में हम लोग उनके गांव गए हैं, और वहां पर हमने बकायदा खाना भी खाया है।
हमारा ये सब बताने का मकसद यह है कि क्यों कर लोग भी छूआ-छूत को अपनाए हुए हैं। ऐसी परंपरा को तोडऩा ही बेहतर हैं। इंसान जात से नहीं अपने कर्मों से गंदा होता है, अगर आप ऊंची जाति के हैं और अपके कर्म गंदे हैं तो ऐसी ऊंची जाति का क्या फायदा। आज आप महानगरों और शहरों में देख लें आपके घर में काम करने वाली बाई की यदि आप जात पर जाने लगें तो आपको काम करने वाली कोई मिलेगी नहीं। उस समय क्यों ऐसे छोटी जाति के लोगों से काम करवाने को लोग तैयार हो जाते हैं, क्यों नहीं लोग खुद काम कर लेते हैं।
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छूआ-छूत की एक घटना ने हमारा मन इतना विचलित कर दिया है कि हमें इसको मिटाने वाली जितनी बातें याद आ रही हैं लगता है कि सिलसिले वार लिख दें। हम लोग जिन दीनदयाल उपाध्याय नगर में रहते हैं, वहां पर दो घर छोड़कर एक परिवार रहता है, यह परिवार अनुसूचित जाति समुदाय से संबंध रखता है, लेकिन हमारे घर इनका आना-जाना एक परिवार की तरह है। हमारे घर में जब भी कोई कार्यक्रम होता है तो श्रीमती जी अपनी इस सहेली को ही हाथ बटाने के लिए याद करती हैं, और उनकी यह सहेली हमेशा खुशी-खुशी आती हैं। इसी के साथ मेरी पत्नी की एक और सहेली हैं जो कि ब्राम्हण हैं, वहां भी कई अवसरों पर हमारे घर के कार्यक्रमों में आती हैं। कुछ अवसरों पर ऐसा भी हुआ है कि जब कोई कार्यक्रम रहा है तो मेरी पत्नी के साथ उनकी ये दोनों सहेलियां भी किचन में रहीं है, श्रीमती जी की ब्राम्हण सहेली को यह बात अच्छी तरह से मालूम है कि उनकी दूसरी सहेली अनुसूचित जाति की हैं, पर उन्होंने कभी इस बात को लेकर आपति नहीं की है।
उस अनुसूचित जाति की महिला जो कि हमें जीजा जी बोलती हैं और हम भी उसे साली ही मानते हैं। उनके घर के कई कार्यक्रमों में हम लोग उनके गांव गए हैं, और वहां पर हमने बकायदा खाना भी खाया है।
हमारा ये सब बताने का मकसद यह है कि क्यों कर लोग भी छूआ-छूत को अपनाए हुए हैं। ऐसी परंपरा को तोडऩा ही बेहतर हैं। इंसान जात से नहीं अपने कर्मों से गंदा होता है, अगर आप ऊंची जाति के हैं और अपके कर्म गंदे हैं तो ऐसी ऊंची जाति का क्या फायदा। आज आप महानगरों और शहरों में देख लें आपके घर में काम करने वाली बाई की यदि आप जात पर जाने लगें तो आपको काम करने वाली कोई मिलेगी नहीं। उस समय क्यों ऐसे छोटी जाति के लोगों से काम करवाने को लोग तैयार हो जाते हैं, क्यों नहीं लोग खुद काम कर लेते हैं।