राजनीति के साथ हर विषय पर लेख पढने को मिलेंगे....

अनुसूचित जाति लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
अनुसूचित जाति लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शनिवार, अप्रैल 10, 2010

मेरी पत्नी की अनुसूचित जाति की सहेली साथ में खाना बनवाती है

हमारे पड़ोस  में रहने वाली एक महिला हमेशा हमारे घर आती हैं जो कि अनुसूचित जाति हैं। वह महिला मेरी पत्नी की सहेली  हैं। यह महिला जहां हमें जीजाजी बोलती हैं, वहीं हमारे घर के किचन में कई अवसरों में मेरी पत्नी अनिता ग्वालानी के साथ खाना बनाने में हाथ भी बटाती हैं। हम लोग उनके परिवार के कार्यक्रमों में भी जाते हैं और वहां खाना भी खाते हैं।
छूआ-छूत की एक घटना ने हमारा मन इतना विचलित कर दिया है कि हमें इसको मिटाने वाली जितनी बातें याद आ रही हैं लगता है कि सिलसिले वार लिख दें। हम लोग जिन दीनदयाल उपाध्याय नगर में रहते हैं, वहां पर दो घर छोड़कर एक परिवार रहता है, यह परिवार अनुसूचित जाति समुदाय से संबंध रखता है, लेकिन हमारे घर इनका आना-जाना एक परिवार की तरह है। हमारे घर में जब भी कोई कार्यक्रम होता है तो श्रीमती जी अपनी इस सहेली को ही हाथ बटाने के लिए याद करती हैं, और उनकी यह सहेली हमेशा खुशी-खुशी आती हैं। इसी के साथ मेरी पत्नी की एक और सहेली हैं जो कि ब्राम्हण हैं, वहां भी कई अवसरों पर हमारे घर के कार्यक्रमों में आती हैं। कुछ अवसरों पर ऐसा भी हुआ है कि जब कोई कार्यक्रम रहा है तो मेरी पत्नी के साथ उनकी ये दोनों सहेलियां भी किचन में रहीं है, श्रीमती जी की ब्राम्हण सहेली को यह बात अच्छी तरह से मालूम है कि उनकी दूसरी सहेली अनुसूचित जाति की हैं, पर उन्होंने कभी इस बात को लेकर आपति नहीं की है।
उस अनुसूचित जाति की महिला जो कि हमें जीजा जी बोलती हैं और हम भी उसे साली ही मानते हैं। उनके घर के कई कार्यक्रमों में हम लोग उनके गांव गए हैं, और वहां पर हमने बकायदा खाना भी खाया है।
हमारा ये सब बताने का मकसद यह है कि क्यों कर लोग भी छूआ-छूत को अपनाए हुए हैं। ऐसी परंपरा को तोडऩा ही बेहतर हैं। इंसान जात से नहीं अपने कर्मों से गंदा होता है, अगर आप ऊंची जाति के हैं और अपके कर्म गंदे हैं तो ऐसी ऊंची जाति का क्या फायदा। आज आप महानगरों और शहरों में देख लें आपके घर में काम करने वाली बाई की यदि आप जात पर जाने लगें तो आपको काम करने वाली कोई मिलेगी नहीं। उस समय क्यों ऐसे छोटी जाति के लोगों से काम करवाने को लोग तैयार हो जाते हैं, क्यों नहीं लोग खुद काम कर लेते हैं। 

Read more...

शुक्रवार, अप्रैल 09, 2010

हमने खाया था एक अनुसूचित जाति परिवार के घर में खाना

बात काफी पुरानी है, संभवत: करीब 30 साल पुरानी। यह बात तब की है जब पांचवीं क्लास में पढ़ते थे। हमारे ख्याल से आज से तीन दशक पहले गांवों में छूआ-छूत की तूती बोलती थी। ऐसे में किसी अनुसूचित जाति परिवार के घर पर खाना खाने के बारे में कोई सोच नहीं सकता था। लेकिन हमने  उस समय छोटी सी उम्र में एक अनुसूचित जाति परिवार के घर पर खाना खाया था, जब कोई वहां जाने को तैयार नहीं था।
यह प्रसंग आज इसलिए याद आ गया है कि हमने कल की एक पोस्ट लिखी है कि कैसे हमें आज भी एक गांव में छूआ-छूत देखने को मिला। तो मित्रों हम बता रहे हैं कि बात आज से करीब तीन दशक पहले की है जब पांचवीं क्लास में पढ़ते थे। तब लोग रायपुर जिले के एक गांव पलारी में रहते थे। हमारे स्कूल की खेलों की टीम एक गांव कुसमी में खेलने के लिए गई थी। उस जमाने में आज जैसे सुविधाएं नहीं थी कि खिलाडिय़ों के खाने के लिए अलग मेस हो। ऐसे में जब किसी भी गांव में खेल होते थे तो दो-दो, चार-चार बच्चों को गांवों के एक-एक घर में खाने के लिए भेजा जाता था। जब बच्चों को घरों में खाने के लिए भेजा जा रहा था तो वहां पर शिक्षकों ने कुछ अनुसूचित जाति परिवार  के घरों में भी बच्चों को खाने के लिए भेजना चाहा, पर कोई बच्चा तैयार नहीं हो रहा था, ऐसे में हमने अपने शिक्षक से कहा कि सर हमें जहां भी भेजेंगे हम चले चाएंगे। तब हमने एक अनुसूचित जाति परिवार  के घर में जाकर खाना खाया।
हम बता दें कि हमें हमारे परिवार में कभी भी ऊंच-नीच और छूआ-छूत  के बारे में कुछ नहीं कहा गया, सभी को एक मानने की शिक्षा हमें हमारे परिवार से मिली। यह एक वाक्या नहीं है। ऐसे में हमें एक और वाक्या याद आ रहा है, जब 9वीं क्लास में पढ़ते थे, तब हम लोगों की एक किराने की दुकान दुर्ग जिले के टेमरी गांव में थी, वहां पर हमारी दुकान के सामने में एक गरीब अनुसूचित जाति परिवार रहता था, इसी परिवार के घर में हम लोगों ने एक कमरा लिया था जहां पर हम लोग खाना बनाते थे। हम अपने दो भाईयों के साथ दुकान का काम करने के साथ खाना भी बनाते थे, और पढ़ाई भी करते थे। हम अक्सर उस परिवार से पूछते थे कि क्या सब्जी बनी है। ऐसे में वहां से एक ही जवाब मिलता था कि हम लोग कहां सब्जी बना सकते हैं, इसी के साथ वे अक्सर कहते थे कि क्यों ऐसा रोज पूछते हैं हम गरीबों का खाना वैसे भी कोई खाना पसंद नहीं करते हैं। लेकिन हमने एक बार नहीं कई बार उनके साथ बैठकर उसना चावल और अकरी की दाल खाई। इस के बाद हम जब भी अकेले रहते थे तो उनको ही कोई सब्जी और चावल देते थे और उनसे खाना बनवाकर उसके साथ बैठकर खाते थे।
हम बता दें कि हमारे मन में बचपन से लेकर आज तक किसी भी तरह की छूआ-छूत और ऊंच-नीच की भावना नहीं रही है। हमने हमेशा सबको एक नजर से देखा है। हमारा ऐसा मानना है कि सभी को ऐसा सोचना चाहिए। किसी की जात क्या यह पैमाना होती है कि उसे समाज से अलग रखा जाए। अगर कोई इंसान छोटी जात में पैदा हुआ है तो इसके पीछे उस इंसान का क्या दोष है। क्या इंसान बड़ी जात में पैदा होकर अच्छा बनने का ठेका लेकर आता है। हमें नहीं लगता है कि छोटी जात के इंसान अच्छे और सभ्य नहीं होते हैं, हमने कई अनुसूचित जाति परिवार  को बड़ी जात वालों से भी ज्यादा सभ्यता और शालीनता से रहते देखा है। अब आप ही फैसला करें कि क्या छूआ-छूत और ऊंच-नीच की भावना सही है।

Read more...
Related Posts with Thumbnails

ब्लाग चर्चा

मेरी ब्लॉग सूची

  © Blogger templates The Professional Template by Ourblogtemplates.com 2008

Back to TOP