सूखे में भी होगी अच्छी फसल
इंदिरा गांधी विश्वविद्यालय का अनुसंधान विभाग सूखे में भी लहराने वाली धान की किस्मों पर शोध कर रहा है। यूं तो एक किस्म इंदिरा बारानी पर शोध हो गया है, पर इस किस्म में भी उत्पादन क्षमता कम है। लेकिन अब एक दर्जन किस्मों पर शोध करके ज्यादा उत्पादन देने वाली फसलें तैयार की जा रही है। ज्यादा नहीं एक-दो साल के अंदर कम से कम दो किस्में ऐेसी किसानों को मिल जाएगी, जिनकी पैदावार किसान कर पाएंगे।
छत्तीसगढ़ में धान की पैदावार 70 प्रतिशत वर्षा पर आधारित होती है। धमतरी और जांजगीर-चांपा को छोड़कर राज्य में और कहीं पर सिंचाई के साधन नहीं हैं। ऐसे में इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक लंबे समय से इस प्रयास में हैं कि प्रदेश के किसानों को ऐसी किस्मों का तोहफा दिया जाए जिससे उनको सूखे की स्थिति में भी भरपूर पैदावार लेने का मौका मिल सके।
मौसम की सही जानकारी बड़ी समस्या
कृषि वैज्ञानिक कहते हैं कि प्रदेश में कब सूखा पड़ेगा इससे बारे में कोई जानकारी नहीं हो पाती है। सामान्यत: सितंबर के बाद सूखा पड़ता है। अपने राज्य में मौसम विभाग इतना सक्षम नहीं है कि वह सही-सही जानकारी दे सके कि कब पानी गिरेगा और कब नहीं। सितंबर के माह के मौसम की अगर पूरी सही जानकारी मिल जाए तो सूखे से निपटा जा सकता है।
पूणिमा-दंतेश्वरी में रुचि नहीं
सूखे से निपटने के लिए प्रदेश में धान की दो किस्में पूर्णिमा और दंतेश्वरी हैं। लेकिन इन किस्मों में किसानों की रुचि इसलिए नहीं है क्योंकि इन फसलों में उत्पादन कम होता है। यही हाल नई किस्म इंदिरा बारानी का है। ये किस्में ऐसी हैं जो 105 से 110 दिनों में तैयार हो जाती हैं। लेकिन किसान इन किस्मों को लगाने से कतराते हैं। किसानों की पसंद की किस्मों में स्वर्णा, महामाया, एमटीयू 1010 और आईआर 64 हैं। इन किस्मों की फसलें 120 से 140 दिनों में तैयार होती है। इन किस्मों से पैदावार ज्यादा होती है। लेकिन जब फसलों के पकने का मुख्य समय रहता है, तभी सूखे के बारे में जानकारी हो पाती है। ऐसे में अगर सूखा हुआ तो फसल खराब हो जाती है।
रुटलेंथ बढ़ाने पर शोध
कृषि वैज्ञानिक डॉ. एसबी वेरूलकर बताते हैं कि सूखे से निपटने के लिए धान की किस्मों में रुटलेंथ बढ़ाने पर भी शोध कर रहे हैं। वे बताते हैं कि सामान्यत: रुटलेंथ 30 से 50 सेमी होता है, लेकिन इसे 50 से 70 सेमी करने पर काम चल रहा है। ऐसा होने पर फसल की जड़ें जमीन में ज्यादा अंदर तक रहेंगी तो उनको पानी की कमी नहीं होती और फसल खराब होने से बच जाएगी।
दो साल बाद मिलेगा तोहफा
श्री वेरूलकर बताते हैं कि विश्वविद्यालय में कुछ सालों से सूखे में ज्यादा उत्पादन देने वाले किस्मों पर शोध चल रहा है। करीब एक दर्जन किस्मों पर शोध कार्य हो रहा है। इनमें से दो साल के अंदर कम से कम दो किस्मों में सफलता मिल जाएगी। किस्मों में सफलता मिलने पर इनका नामांकर ण होगा और फिर इन किस्मों को किसानों को लगाने की सलाह दी जाएगी। वे कहते हैं कि एक किस्म पर शोध करने में 10 से 12 साल का समय लग जाता है।
छत्तीसगढ़ में धान की पैदावार 70 प्रतिशत वर्षा पर आधारित होती है। धमतरी और जांजगीर-चांपा को छोड़कर राज्य में और कहीं पर सिंचाई के साधन नहीं हैं। ऐसे में इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक लंबे समय से इस प्रयास में हैं कि प्रदेश के किसानों को ऐसी किस्मों का तोहफा दिया जाए जिससे उनको सूखे की स्थिति में भी भरपूर पैदावार लेने का मौका मिल सके।
मौसम की सही जानकारी बड़ी समस्या
कृषि वैज्ञानिक कहते हैं कि प्रदेश में कब सूखा पड़ेगा इससे बारे में कोई जानकारी नहीं हो पाती है। सामान्यत: सितंबर के बाद सूखा पड़ता है। अपने राज्य में मौसम विभाग इतना सक्षम नहीं है कि वह सही-सही जानकारी दे सके कि कब पानी गिरेगा और कब नहीं। सितंबर के माह के मौसम की अगर पूरी सही जानकारी मिल जाए तो सूखे से निपटा जा सकता है।
पूणिमा-दंतेश्वरी में रुचि नहीं
सूखे से निपटने के लिए प्रदेश में धान की दो किस्में पूर्णिमा और दंतेश्वरी हैं। लेकिन इन किस्मों में किसानों की रुचि इसलिए नहीं है क्योंकि इन फसलों में उत्पादन कम होता है। यही हाल नई किस्म इंदिरा बारानी का है। ये किस्में ऐसी हैं जो 105 से 110 दिनों में तैयार हो जाती हैं। लेकिन किसान इन किस्मों को लगाने से कतराते हैं। किसानों की पसंद की किस्मों में स्वर्णा, महामाया, एमटीयू 1010 और आईआर 64 हैं। इन किस्मों की फसलें 120 से 140 दिनों में तैयार होती है। इन किस्मों से पैदावार ज्यादा होती है। लेकिन जब फसलों के पकने का मुख्य समय रहता है, तभी सूखे के बारे में जानकारी हो पाती है। ऐसे में अगर सूखा हुआ तो फसल खराब हो जाती है।
रुटलेंथ बढ़ाने पर शोध
कृषि वैज्ञानिक डॉ. एसबी वेरूलकर बताते हैं कि सूखे से निपटने के लिए धान की किस्मों में रुटलेंथ बढ़ाने पर भी शोध कर रहे हैं। वे बताते हैं कि सामान्यत: रुटलेंथ 30 से 50 सेमी होता है, लेकिन इसे 50 से 70 सेमी करने पर काम चल रहा है। ऐसा होने पर फसल की जड़ें जमीन में ज्यादा अंदर तक रहेंगी तो उनको पानी की कमी नहीं होती और फसल खराब होने से बच जाएगी।
दो साल बाद मिलेगा तोहफा
श्री वेरूलकर बताते हैं कि विश्वविद्यालय में कुछ सालों से सूखे में ज्यादा उत्पादन देने वाले किस्मों पर शोध चल रहा है। करीब एक दर्जन किस्मों पर शोध कार्य हो रहा है। इनमें से दो साल के अंदर कम से कम दो किस्मों में सफलता मिल जाएगी। किस्मों में सफलता मिलने पर इनका नामांकर ण होगा और फिर इन किस्मों को किसानों को लगाने की सलाह दी जाएगी। वे कहते हैं कि एक किस्म पर शोध करने में 10 से 12 साल का समय लग जाता है।
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