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सोमवार, अगस्त 31, 2009

अगस्त ने किया धमाल - देकर गया पांच सटरडे, संडे, मनडे का कमाल



अगस्त माह के अंतिम दिन आज अचानक एक खबर पर ध्यान गया कि अगस्त का महीना कमाल का था। अब कमाल का कैसे तो ये जान लें कि यह माह ऐसा रहा जिसमें एक साथ तीन दिन सटरेड, संडे और मनडे पांच बार आए। ऐसा 823 सालों के कैलेंडर के इतिहास में पहली बार हुआ है। और अब गणितज्ञ इस बात का भी दावा कर रहे हैं कि आगे कम से कम दो दशक तक ऐेसा कोई माह आने वाला नहीं है।


वास्तव में कभी-कभी अपने आस-पास ही ऐसा कुछ अद्भुत और कमाल का हो जाता है, जिस पर ध्यान ही नहीं जाता। ऐसा ही संभवत: अगस्त माह में हो गया जिस पर संभवत: काफी कम लोगों का ध्यान गया होगा। वैसे भी हर इंसान किसी भी माह को सामान्य माह की तरह लेता है। लेकिन कई बार कई माह कमाल के होते हैं। जैसे अगस्त का माह कमाल का रहा। इस माह की खासियत यह रही कि इस माह में तीन वार एक साथ पांच बार पड़े। ऐसा इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ है। इतिहासकारों की मानें तो 823 साल के कैलेंडर में पहली बार शनिवार, रविवार और सोमवार एक माह में पांच बार पड़े। 1, 8,15, 22 और 29 को शनिवार, 2, 9, 16, 23, 30 को रविवार और 3, 10, 17, 24 और 31 को यानी आज सोमवार है। है न गजब की जानकारी।

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रविवार, अगस्त 30, 2009

जल्दी बताएं आपको कौन सा दिन भाता है

हिन्दी ब्लाग लिखने वाले ब्लागरों को भी अब इस बात का खुलासा कर देना चाहिए कि उनको लिखने के लिए कौन सा दिन भाता है और कौन सा दिन पसंद नहीं आता है। वैसे हमें तो सभी दिन एक समान लगते हैं और हम कभी किसी दिन को अच्छा और बुरा नहीं मानते हैं। लेकिन वाशिंगटन में शोधकर्ताओं ने 2.4 करोड़ ब्लागों का अध्ययन करके यह बात सामने रखी है कि ब्लागरों को कौन सा दिन अच्छा लगता है और कौन सा दिन बुरा। इस अध्ययन में इस बात का खुलासा नहीं है कि इस अध्ययन में हिन्दी ब्लागों को शामिल किया गया है या नहीं लेकिन हमारा ऐसा मानना है कि हिन्दी ब्लागों को इसमें शामिल नहीं किया गया होगा।

यूनिवर्सिटी ऑफ वेर्मोट के शोधकर्ता ने जो अध्ययन किया है उसके मुताबिक ब्लागरों का सबसे पसंदीदा दिन रविवार है। इस दिन ब्लागर आपस में संपर्क करते हैं। जहां तक ब्लाग लिखने का सवाल है तो मंगलवार के दिन को सबसे अच्छा माना गया है। अधिकांश ब्लागर अपने ब्लाग इसी दिन अपडेट करते हैं। बुधवार के दिन को अध्ययन में सबसे खराब माना गया है। अन्य दिनों की बात करें तो सोमवार को शेयर बाजार के लिए उपयुक्त, गुरुवार को ध्रुमपान छोडऩे के लिए सही और शुक्रवार को बॉस से मिलने के लिए घातक माना गया है। शनिवार के दिन को जहां शराब न पीने के लिए उपयुक्त माना गया है, वहीं बच्चों के जन्म दिन के लिए सबसे उपयुक्त माना गया है।

अब यह तो रही बात उस अध्ययन की जो अंग्रेजी ब्लागों पर किया गया है। क्या ऐसा कोई तरीका है जिससे यह मालूम हो सके कि अपने हिन्दी ब्लाग लिखने वाले ब्लागर मित्र कौन से दिन को ठीक मानते हैं और कौन सा दिन उनको अच्छा नहीं लगता है। हमने एक पहल की है कि ब्लाग बिरादरी के लोग अपने मन की बात जरूर बताएं कि वे इस बारे में क्या सोचते हैं। कौन सा ब्लागर किस दिन को लिखने के लिए उपयुक्त मानता है। वैसे हमारा अपने साथ ऐसा मानना है कि हिन्दी के ज्यादातर नियमित लिखने वाले ब्लागरों के लिए सभी दिन एक समान होते हैं। पर नियमित लिखने वालों की हिन्दी ब्लाग बिरादरी में हमें कमी नजर नहीं आती है। ऐसे में सोच की सुई आकर वहीं अटक जाती है कि आपको कौन सा दिन उपयुक्त लगता है। तो चलिए फिर देर किसी बात की है लिख डालिए अपने मन की बात और बताई अपने ब्लागरों मित्रों को कि आपको कौन सा दिन पसंद है।

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शनिवार, अगस्त 29, 2009

एक कमरे में गुजारे 33 साल-खेलों से मोहब्बत का कमाल

मुश्ताक अली प्रधान यह नाम है छत्तीसगढ़ की खेल बिरादरी से जुड़े उस इंसान का जिन्होंने खेल को अपना सारा जीवन समर्पित कर दिया है। ४० साल से हॉकी के साथ फुटबॉल से जुड़े इस खिलाड़ी ने अपने जीवन के ३३ साल शेरा क्लब के एक कमरे में ही बीता दिए और शादी भी नहीं की। मुश्ताक के सिर पर खेल का जुनून सवार है। ११ साल की उम्र से खेल की शुरुआत करके आज तक बस खेल के लिए काम कर रहे हैं। एक तरह से उन्होंने खेल से शादी कर ली है। अपने खेल जीवन में उन्होंने कितने खिलाड़ी तैयार किए हैं यह तो उनको भी याद नहीं है।


प्रदेश में राजधानी के शेरा क्लब का नाम हर खिलाड़ी और खेल प्रेमी काफी सम्मान से लेता है। इस क्लब की नींव रखने वाले मुश्ताक अली प्रधान हैं जो क्लब के एक कमरे में ३३ साल से रह रहे हैं और खिलाडिय़ों को तराशने का काम कर रहे हैं। मुश्ताक अली पुराने दिनों के बारे में पूछने पर यादों में खो जाते हैं और बताते हैं कि कैसे उन्होंने अपने खेल जीवन की शुरुआत की थी। महज ११ साल की उम्र में उनको खेलने का जुनून चढ़ा जो आज तक कायम है।

छीन के पेड़ से हॉकी बनाकर खेलते थे

मुश्ताक पूछने पर बताते हैं कि आज से करीब ४० साल पहले की बात है १९६९ में उन्होंने महज १३ साल की उम्र में खेल से नाता जोड़ा। वे बताते हैं कि उनके घर के पास बैजनाथ पारा में मैदान में सीनियर खिलाड़ी खेलते थे। इसी के साथ उनके तीन बड़े भाई रौशन अली, असरफ अली और कौसर अली फुटबॉल खेलते थे। शुरू में खेल की शुरुआत मुश्ताक ने फुटबॉल ने न करते हुए हॉकी से की। वे बताते हैं कि उस समय हॉकी स्टिक १५ रुपए की आती थी, पर किसी खिलाड़ी के पास इतने पैसे नहीं होते थे। ऐसे में हम लोग छीन के पेड़ की लकडिय़ों को काटकर उसको हॉकी स्टिक की शक्ल देकर उससे रोड़ में ही हॉकी खेलते थे। उनके हाथ पहली बार हॉकी स्टिक तब लगी जब वे स्कूल की टीम से खेले। वे बताते हैं कि उनको जो हॉकी स्टिक मिली थी, वह २० रुपए की थी। यह स्टिक पाकर मैं बहुत खुश हुआ था। बकौल मुश्ताक उनकी किस्मत अच्छी रही कि उनका खेल देखकर उनको सीनियर अपने साथ खिलाते थे, वरना सीनियर किसी भी जूनियर को अपने साथ नहीं खिलाते थे।

बैजनाथ पारा, छोटा पारा, बैरनबाजार था हॉकी का गढ़

पुराने दिनों के बारे में मुश्ताक बताते हैं कि उन दिनों हॉकी खिलाडिय़ों के मामले में बैजनाथ पारा, छोटा पारा और बैरनबाजार का ही नाम लिया जाता था। यहां के हॉकी खिलाड़ी ही छाए रहते थे। वे बताते हैं कि उस समय वे नेताजी स्टेडियम में २० चक्कर लगाने के बाद ही अभ्यास करते थे। लेकिन आज के खिलाडिय़ों की बात की जाए तो खिलाडिय़ों में दम ही नहीं है। आज किसी खिलाड़ी को मैदान में पांच चक्कर लगाने के लिए कह दिया जाए तो नहीं लगा पाते हैं। आज के खिलाडिय़ों में पहले की तुलना में १० प्रतिशत भी दम नहीं है। उस समय सभी खिलाड़ी इसलिए मेहनत करते थे क्योंकि उस समय उनमें यह डर रहता था कि अगर वे मेहनत नहीं करेंगे तो उनको टीम में स्थान नहीं मिलेगा। आज की स्थिति की बात करें तो आज खिलाडिय़ों को ऐसे ही रख लिया जाता है। आज फुटबॉल की बात करें तो जिस को किक मारने आ जाती है उनको टीम में रख लिया जाता है। सबसे खराब स्थिति स्कूली खेलों की है। यहां पर बस खाना पूर्ति होती है।

१८ साल की उम्र में छोड़ दिया घर

क्लब के एक कमरे में ३३ साल बिताने वाले मुश्ताक पूछने पर बताते हैं कि उन्होंने १८ साल की उम्र में एक छोटी सी बात पर घर छोड़ दिया फिर कभी घर का रूख नहीं किया। वैसे वे परिवार के सुख-दुख में सदा साथ रहते हैं, पर रहने के नाम से कभी नहीं लौटे। काफी पूछने पर उन्होंने बताया कि एक दिन हमारी भाभी की मां से किसी बात को लेकर बहस हो गई और मुङो मां का अपमान बर्दाश्त नहीं हुआ तो मैंने ही घर छोड़ दिया। वे बताते हैं कि चार भाई और चार बहनों का उनका परिवार रहा है। भाई अपना व्यापार करते हैं और बहनों में तीन बहनों का विवाह मुंबई में हुआ है। एक बहन रायपुर में है। मुश्ताक ने एक सवाल के जवाब में बताया कि अच्छे परिवार से होने के बाद भी उनकी खेलों से ऐसी लगन लगी कि उन्होंने खेल को ही अपना जीवन समर्पित कर दिया।

एक फुटबॉल से साल भर खेलते थे

फुटबॉल के बारे में पूछने पर उन्होंने बताया कि हॉकी के साथ उन्होंने फुटबॉल से भी नाता प्रारंभ से जोड़ा था। उस जमाने में ४० रुपए की एक बॉल आती थी। इस बॉल से साल भर खेलना पड़ता था क्योंकि ४० रुपए की बॉल खरीदना आसान नहीं रहता था। बॉल को कई बार मोची के पास जाकर सिलवाते थे। कई बार मोची भी परेशान हो जाता था कि कितनी बार बॉल को सिलवाएंगे। मुश्ताक बताते हैं कि फुटबॉल वे लोग सालेम स्कूल के पीछे वाले मैदान में और हॉकी नेताजी स्टेडियम में खेलते थे। जूतों के बारे में वे बताते हैं कि उस समय पीटी शूज १०-१२ रुपए के आते थे। इनमें इतना दम नहीं होता था। ये महज कुछ ही महीनों में फट जाते थे। ऐसे में जूते लेने के बाद उसके तले में मोटा रबर लगावा देते थे। ऐसे में ये जूते साल भर चल जाते थे।

प्रदेश को दिए कई खिलाड़ी

एक सवाल के जवाब में वे बताते हैं कि यह बताना तो मुश्किल है कि ४० साल के खेल जीवन में उन्होंने कितने खिलाड़ी तैयार किए हैं। मुश्ताक बताते हैं कि ३४ साल से शेरा क्लब चल रहा है और इसमें पहले हॉकी और फुटबॉल दोनों खेल होते थे। पर अब सिर्फ फुटबॉल चल रहा है। वे बताते हैं कि अंतरराष्ट्रीय खिलाडिय़ों में मृणाल चौबे के साथ तनवीर जमाल, राजेश मांडवी, जुनैद अहमद और नवेद जमाल को उन्होंने प्रशिक्षण दिया है जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेल हैं। इसी के साथ महिला खिलाडिय़ों में नीता डुमरे को भी प्रारंभ में प्रशिक्षण दिया। इसके अलावा भारत की संभावित टीम में रहीं अंजुम रहमान, सुनीता सेन को प्रशिक्षण दिया था।

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शुक्रवार, अगस्त 28, 2009

देह की माया की खेलों पर भी छाया

देह के आगे सब बेमानी है लिखने के बाद एक और बड़ी सामने यह आ गई है कि देह की माया की छाया खेलों पर भी भारी है। वैसे तो यह बात हम काफी पहले से जानते और मानते हैं, पर अपने क्रिकेटर सांसद कीर्ति आजाद साहब ने तो सीधे तौर पर दिल्ली क्रिकेट संघ पर यह आरोप लगा दिया है कि टीम के चयन में लड़कियां चलती हैं। अब भले इस बात को अपने अरूण जेटली साहब न मानें, पर आजाद साहब ने ऐसा कहा है तो उनको कुछ तो मालूम होगा। अगर जेटली जी की चुनौती पर उन्होंने कुछ खुलासा कर दिया तो फिर जेटली साहब को भागने का रास्ता मिलने वाला नहीं है। वैसे यह बात कौन नहीं जानता है कि आज हर क्षेत्र में बस चलती है तो वह देह की महिमा चलती है। इस देह की महिमा के आगे ही तो सब बेमानी है। ये बात हमने ही नहीं सारी दुनिया ने मानी है।

कुछ दिनों पहले ही हमने देह की महिमा पर एक लेख लिखा था। तब हमें नहीं मालूम था कि अपने सांसद महोदय कीर्ति आजाद साहब भी देह की महिमा को लेकर एक धमाका करने वाले हैं। पर उन्होंने एक धमाका कर दिया और सीधे तौर पर दिल्ली क्रिकेट संघ पर आरोप लगा दिया है कि टीम के चयन में जहां पैसे चलते हैं वहीं लड़कियां भी चलती हंै। यानी कि अगर आपको दिल्ली की टीम में स्थान चाहिए तो जनाब लड़कियां लेकर आईये। अब अपने कीर्ति जी ने इस बात का खुलासा नहीं किया है कि ये लड़कियां किनके पास पहुंचाई जाती हैं। पर उन्होंने इतना बड़ा आरोप लगाया है तो जरूर उनके आरोप के पीछे कुछ तो होगा ही। अब भले इस आरोप को चुनौती देते हुए अरूण जेटली कहते हैं कि कीर्ति के पास कोई सबूत है तो सामने रखें वरना वे अपना मुंह बंद रखें। अब तक तो कीर्ति जी का मुंह बंद ही था, पर अब मुंह खुला है तो बवाल का आगाज हुआ है। अब अगर उन्होंने दिल्ली संघ का पूरा कच्चा चिट्टा ही खोल कर रख दिया तो आपका क्या होगा जेटली साहब।

इसमें कोई दो मत नहीं है कि खेलों में लड़कियों का बहुत ज्यादा शोषण होता है। लेकिन यह बात हंगामाखेज है कि क्रिकेट जैसे खेल में दिल्ली की टीम में स्थान पाने के लिए बोर्ड के लोग या फिर चयनकर्ता लड़कियों की मांग करते हैं। जो लोग उनकी मांग को पूरा करने का काम करते हैं उनको टीम में रखा जाता है। इस मामले की गंभीरता को समझते हुए इस मामले में जांच करवाए जाने की जरूरत है न कि जेटली साहब को भड़कने की जरूरत है। सांसद के पद पर रहने वाले कीर्ति आजाद कोई हवा में तो आरोप लगाएंगे नहीं। अच्छा होता कि उनको खुले आम चुनौती देने की बजाए उनके जेटली साहब मामले की सच्चाई जानने के लिए बात करते और इस मामले में जांच करवाने का काम करते। अगर कीर्ति जी ने अपने बयान की तरह की किसी भी तरह की सच्चाई किसी चैनल में जाहिर कर दी तब क्या होगा।

हमने कुछ समय पहले एक लेख लिखा था कि यौन शोषण का धंधा खेलों को कर रहा है गंदा हमें लगता है कि हमारा वह लेख पूरी तरह से सही है। आज हर खेल की टीम में ऐसी गंदगी भरी है कि लड़कियों को टीम में स्थान पाने के लिए अपनी देह की कुर्बानी देनी पड़ती है। हर इंसान की नजर आज बस और बस देह पर है। किसी की देह मिल जाए तो फिर चाहे जो काम करवा ले। देह के सामने तो हर काम आसानी से हो जाता है फिर यह दिल्ली जैसी टीम में स्थान की क्या बात है। कम से कम खेल जैसे पवित्र पेशे को इस गंदगी से दूर रखने की जरूरत थी, पर देह के भूखे भेडिय़ों ने खेल को भी पवित्र नहीं रहने दिया है। अब ऐसे पापियों का क्या किया जा सकता है।

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गुरुवार, अगस्त 27, 2009

गब्बर सिंह का नशा चढ़ा संस्कृत पर भी


कितने आदमी थे..., तेरा क्या होगा कालिया...., इस गांव से पचास-पचास कोस दूर जब गांव में बच्चा रोता है तो मां कहती है बेटा सो जा नहीं तो गब्बर सिंह आए जाएगा। फिल्म शोले के ये डायलॉग आज भी लोगों को बहुत भाते हैं। इन डायलॉग को हर वर्ग पसंद करता है। ये डायलॉग की नहीं फिल्म शोले आज भी किसी सिनेमाघर में लग जाए तो लोगों की भीड़ उमड़ पड़ती है। अब इस फिल्म के डायलॉग का नशा संस्कृत पर भी चढ़ा है। वैसे संस्कृत पर शोले के साथ और 10 फिल्मों का नशा चढ़ा है। इन फिल्मों के डायलॉग को संस्कृत में तैयार किया गया है। अब तेरा होगा कालिया कि जगह अगर गब्बर सिंह यह कहते हुए नजर आए कि कालिया तव किं भविष्यसि.. तो आपको कैसा लगेगा। दरअसल गुजरात की एक संस्था संस्कृत क्लब ने 11 फिल्मों के डायलॉग को संस्कृत में तैयार किया है। यह इसलिए किया गया है ताकि संस्कृत को बढ़ाया जा सके।

वास्तव में यह अपने देश की विंडबना है कि आज संस्कृत जैसी भाषा को फिल्मों के डायलॉग का सहारा लेना पड़ रहा है। आज जबकि अपने देश की राष्ट्रभाषा का ही अपने देश में काफी बुरी हाल है तो बाकी के बारे में क्या किया जा सकता है। वैसे भी आज संस्कृत केवल पंडितों की पूजा तक ही सिमट कर रह गई है। वैसे पंडित भी हिन्दी में पूजा करना ज्यादा उचित समझते हैं। ऐसे में संस्कृत का हाल तो बुरा होना ही है। आज संस्कृत पढऩा कोई पसंद ही नहीं करता है। देश के संस्कृत के कॉलेजों में गिन-चुने छात्र ही जाते हैं। बहरहाल हम बातें करें फिल्म शोले की। इस फिल्म के सबसे लोकप्रिय किरदार गब्बर सिंह के डायलॉगों को अब गुजरात की एक संस्था संस्कृत क्लब ने संस्कृत में तैयार किया है न केवल डायलॉग संस्कृत में ंतैयार किए गए हैं बल्कि इनको एक कार्यक्रम में मंच पर पेश करने की तैयारी भी की गई है। यह कार्यक्रम संस्था 29 अगस्त को करने जा रही है। इस कार्यक्रम में जो भी गब्बर सिंह का किरदार निभाएगा उसको मंच पर गब्बर सिंह के डायलॉग कुछ इस तरह से बोलते सुना जाएगा कि
कालिया तव किं भविष्यस
यानी कालिया तेरा क्या होगा
कालिया जवाब देगा-सरदार मैंने आपका नमक खाया है ...
महोदया मया भवत: लवंण खादितवान...

इस पर गब्बर कहेगा-ईदानि गोलिकां अपि खादत
यानी अब गोली खा...
इस तरह से और कई डायलॉग को संस्कृत में तैयार किया गया है। फिल्म शोले के साथ ही गुरु, दामिनी, लगे रहो मुन्नाभाई, दीवार,हेरा फेरी, क्रांतिवीर और लीडेंड ऑफ भगत सिंग जैसी फिल्मों के भी लोकप्रिय डायलॉग को संस्कृत में तैयार किया गया है। इसके पीछे का कारण यह है कि संस्था चाहती है कि आज का युवा वर्ग संस्कृत को जाने और समझे। संस्था का यह प्रयास है तो सराहनीय, पर देखने वाली बात यह होगी कि इसका कितना असर युवाओं पर पड़ता है। युवा इस प्रयास को गंभीरता से लेते हैं या फिर इसको एक मजोरंजन मात्र समझ कर हवा में उड़ा देते हैं।

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बुधवार, अगस्त 26, 2009

मैं ट्रक और बस का टायर हूं

मैं ट्रक और बस का टायर हूं

ट्रक और बस मेरी हस्ती है

ट्रक और बस मेरी जवानी है

मुझसे पहले कितने टायर

आए और आकर चले गए

कुछ भस्ट होकर चले गए

कुछ पंचर होकर रह गए


मैं ट्रक और बस का टायर हूं

ट्रक और बस मेरी हस्ती है

ट्रक और बस मेरी जवानी है

कल और आएंगे सड़कों पे

चलने वाले कितने टायर

मुझसे बेहतर चलने वाले

मुझसे बेहतर दिखने वाले

क्यों कोई मुझको याद करे

क्यों कोई मुझको याद करे

मशरूफ जमाना मेरे लिए

क्यों वक्त अपना बर्बाद करे

मैं ट्रक और बस का टायर हूं

ट्रक और बस मेरी हस्ती है

ट्रक और बस मेरी जवानी है

(नोट: यह पैरोडी हमने स्कूल के जमाने में बनाकर स्कूल के वाषिक कार्यक्रम में सुनाई थी, आज अचानक याद आई तो इसे लिख दिया)।

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मंगलवार, अगस्त 25, 2009

मिल के काम करबो संगवारी-आ गे राष्ट्रीय खेल ले के बारी


प्रदेश के सभी खेल संघों के पदाधिकारियों ने खेल संचालक जीपी सिंह की अध्यक्षता में हुई बैठक में एक स्वर में एक तरह से शपथ लेते हुए राष्ट्रीय खेलों की मेजबानी लेने के लिए सभी स्वार्थों से ऊपर उठकर मिलकर काम करने की बात कही। बैठक में यह भी तय किया गया कि ३६ गढ़ में होने वाले राष्ट्रीय कुंभ में ३६ खेलों को शामिल किया जाएगा। राष्ट्रीय खेलों की मेजबानी के लिए प्रारंभिक राशि ५० लाख देने के लिए खेल संघों ने मुख्यमंत्री डॉ। रमन सिंह के साथ खेल मंत्री सुश्री लता उसेंडी का भी आभार माना गया।


प्रदेश के खेल एवं युवा कल्याणा विभाग के संचालक जीपी सिंह ने खेल मंत्री सुश्री लता उसेंडी से मिले निर्देश के मुताबिक यहां पर प्रदेश के सभी मान्यता प्राप्त खेल संघों की एक बैठक का आयोजन सुबह को ११ बजे सर्किट हाउस में किया। इस बैठक का मकसद जहां राष्ट्रीय खेलों के लिए खेलों का चयन करना था, वहीं खेल संघों को इस बात के लिए सहमत करना था कि किसी भी तरह के विवाद के बिना इस पर सभी सहमत हों कि प्रदेश में राष्ट्रीय खेलों का आयोजन करना है। अब ये आयोजन चाहे रायपुर में हों, भिलाई में हो या फिर राजनांदगांव में हों। जहां पर जिन खेलों की सुविधाएं होंगी, वहां पर उन खेलों का आयोजन किया जाएगा।

ज्यादा पदक जीतने की योजना पर काम करें

खेल संचालक जीपी सिंह ने कहा कि सबसे पहले मैं सभी खेल संघों को कहना चाहता हूं कि राष्ट्रीय खेलों का आयोजन आप सभी के सहयोग के बिना संभव नहीं है। ऐसे में जबकि यह आयोजन प्रदेश की प्रतिष्ठा वाला होगा तो हम चाहते हैं कि हर संघ इसके लिए बिना किसी स्वार्थ के सहयोग करे। यहां पर तेरे-मेरे वाली भावना से परे सोचने की जरूरत है। इसी के साथ हर खेल संघ को इस बात के प्रयास करने हैं कि उनके खेल में पदक मिल सके। पदकों के लिए किस तरह की योजना बनानी है इसके लिए क्या जरूरी रहेगा। यह तय करना आपका काम है। उन्होंने कहा कि मुङो लगता है कि आयोजन से पहले सभी खेल संघों को तकनीकी ज्ञान बढ़ाने की जरूरत है। इसके लिए क्या करना होगा ये आपको बताना है। उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय खेलों के आयोजन को ज्यादा स्थानों पर करना संभव नहीं होगा। वैसे रायपुर के साथ भिलाई और राजनांदगांव में आयोजन की बात की जा रही है। अब देखना यह होगा कि अंतिम फैसला क्या होता है। उन्होंने कहा कि करीब एक पखवाड़े के आयोजन में ज्यादा दूर-दूर आयोजन संभव नहीं होंगे। खेल संचालक ने बताया कि हमारा विभाग लगातार उन राज्यों के संपर्क में है जो राज्य राष्ट्रीय खेलों का आयोजन कर चुके हैं या करने वाले हैं। उनसे जितनी जानकारी मिल रही है, हम लोग एकत्रित करने का काम कर रहे हैं।


नई राजधानी में बनेगा खेल गांव

कार्यक्रम में उपस्थित उप संचालक ओपी शर्मा ने जानकारी देते हुए बताया कि नई राजधानी में ३०० एकड़ जमीन में खेल गांव बनाने की योजना है। इसका मास्टर प्लान भी बना लिया गया है। खेल गांव बनाने में जहां ५०० करोड़ का खर्च आएगा, वहीं राष्ट्रीय खेलों के आयोजन पर भी ५०० करोड़ का खर्च होगा। उन्होंने बताया कि राष्ट्रीय खेलों के लिए जो भी मैदान प्रदेश में बनाए जाएंगे, सभी अंतरराष्ट्रीय स्तर के होंगे। यही नहीं ये सारे मैदान देश के नंबर वन बनाए जाएंगे। जितने भी नए मैदानों का निर्माण होगा सभी राजधानी में बनाए जाएंगे।

३६ खेलों को रखा जाएगा


बैठक में उपस्थित प्रदेश ओलंपिक संघ के महासचिव बशीर अहमद खान ने बताया कि वर्तमान में राष्ट्रीय खेलों में ३४ खेल शामिल हैं। इन खेलों में दो और नए खेलों को जोड़कर खेलों की संख्या ३६ कर दी जाएगी ताकि ३६ गढ़ में ३६ खेलों का आयोजन करके एक अलग इतिहास बनाया जा सके। उन्होंने कहा कि सभी खेल संघ अपने-अपने खेलों के बारे में खेल विभाग को जानकारी उपलब्ध कराए कि उनके पास कितने अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय खिलाडिय़ों के साथ कोच, रेफरी और निर्णायक हैं। इसी के साथ सभी खेल संघ वाले अपने-अपने खेलों के मैदानों के बारे में जानकारी दें। उन्होंने भी सभी खेल संघों के पदाधिकारियों से आव्हान किया कि सभी को एक होकर काम करना है, राष्ट्रीय खेलों का आयोजन कोई हंसी खेल नहीं है। उन्होंने कहा कि जिसके मन में जो भी बातें हों सामने कहें बाहर जाकर बिना वजह की बातें करने का कोई मतलब नहीं होगा। उन्होंने कहा कि कौन से नए खेलों को जोड़ा जाएगा, इसका फैसला बाद में किया जाएगा। अंत में उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय खेलों के आयोजन के बाद इस बात का ध्यान रखना होगा कि मैदान ठीक रहे इसके लिए यह जरूरी होगा कि जिन खेलों के मैदान हैं वह उस खेल संघों को दे दिए जाएं नहीं तो असम की तरह सारे मैदान रख-रखाव के अभाव में खंडहर हो जाएंगे।


विद्याचरण की मदद लेंगे मेजबानी के लिए

बैठक में उपस्थित कैनोइंग संघ के वैभव मिश्रा ने कहा कि राष्ट्रीय खेलों की मेजबानी लेने के लिए भारतीय ओलंपिक संघ के आजीवन अध्यक्ष विद्याचरण शुक्ल की मदद ली जानी चाहिए। अगर वे चाहेंगे तो मेजबानी मिलने में कोई विलंब नहीं होगा। यहां पर यह बताना लाजिमी होगा कि ओलंपिक संघ में विद्याचरण की तूती बोलती है। उन्होंने अगर अध्यक्ष सुरशे कलमाड़ी को छत्तीसगढ़ को मेजबानी देने के लिए कह दिया तो फिर छत्तीसगढ़ की मेजबानी पक्की हो जाएगी। आज जो बात वैभव मिश्रा ने कही, वहीं बात पहले विद्यान मिश्रा भी कह चुके हैं।

मुख्यमंत्री-खेलमंत्री का तारीफ


बैठक में तीरंदाजी संघ के कैलाश मुरारका ने राष्ट्रीय खेलों की मेजबानी लेने का फैसला करने के लिए प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह के साथ खेल मंत्री लता उसेंडी और खेल संचालक जीपी सिंह की तारीफ करते हुए कहा कि यह एक अच्छी पहल है। यह पहल तो पहले ही हो जानी थी। अगर यह पहल पहले हो जाती तो आज सभी खेलों के लिए मैदानों की कमी नहीं रहती। श्री मुरारका ने भी मेजबानी के लिए विद्याचरण शुक्ल की मदद लेने की बात कही। पूर्व अंतरराष्ट्रीय हॉकी खिलाड़ी नीता डुमरे ने कहा कि हॉकी का आयोजन रायपुर के साथ राजनांदगांव में किया जा सकता है। और कई खेल संघों के पदाधिकारियों ने भी अपने मत रखे। बैठक में सभी मान्यता प्राप्त संघों के प्रतिनिधि शामिल हुए।

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सोमवार, अगस्त 24, 2009

देह की भूख के आगे सब बेमानी

आज आदमी अपनी देह की भूख में इतना अंधा हो गया है कि उसको इसके आगे कुछ नजर ही नहीं आता है। देह की भूख तो इंसान में सदियों से रही है, पर इस भूख की खातिर जिस तरह से सितम अब महिलाओं पर होने लगे हैं वैसे शायद पहले नहीं होते थे। पहले किसी देश में ऐसा कानून नहीं था कि अगर पत्नी, पति की देह की भूख नहीं मिटाएगी तो उसको खाना नहीं मिलेगा। लेकिन अब ऐसा कानून भी बना गया है। भले यह कानून मुस्लिम देश अफगानिस्तान में बना है, पर इस कानून की गूंज अगर आगे दूसरे मुस्लिम देशों में हो जाए तो आश्चर्य नहीं होगा। वैसे भी महिला जाति पर सबसे ज्यादा सितम तो मुस्लिम राष्ट्रों में ही होते हैं। फिर यह नहीं भूलना चाहिए कि इसी समाज में एक से ज्यादा पत्नियां रखने की भी इजजात है। ऐसे में महिलाओं का सम्मान कैसे हो सकता है? संभवत: महिलाओं को अफगानी कानूनी से हो रही पीड़ा का अहसास करते हुए ही अपनी एक साथी ब्लागर गीताश्री ने अपने एक लेख में लिख दिया है कि शादी लायसेंस प्राप्त वैश्यावृति है। उनकी इस बात से हर कोई सहमत नहीं हो सकता है, पर महिला जाति पर हो रहे अत्याचार का घिनौना चेहरा देखकर कोई भी आंदोलित हो जाएगा।

जब से अफगानी कानून की बात सामने आई है तब से इसको लेकर बहस चल रही है। इसमें कोई दो मत नहीं है कि यह एक काला कानून है जो स्त्री जाति की स्वंत्रतता पर पूरी तरह से पाबंदी लगाता है। क्या महिलाओं की अपनी इच्छा और मन नहीं होता है? क्या पुरुष को जब भी इच्छा हो तो उसके तन की प्यास बुझाने के लिए स्त्री हाजिर हो जाए? अगर वह हाजिर नहीं होती है तो उसका खाना-पीना बंद। यह कहां का न्याय है? ऐसे कानून का समूचे विश्व को मिलकर विरोध करना चाहिए। वैसे भी पुरुष प्रधान समाज में हमेशा से महिलाओं को केवल भोग की वस्तु समझा जाता रहा है। लेकिन अब जमाना वह नहीं रह गया है। आज जब महिलाओं को समान अधिकार देने की बात की जाती है, तो सेक्स के मामले में महिलाओं के साथ पक्षपात क्यों? अगर पत्नी को सेक्स की इच्छा हो और पति मना कर दे तब उसके लिए यह कानून क्यों लागू नहीं होता है कि उसको भी भूखा रखा जाए। क्या महिलाएं अपनी सेक्स की इच्छा जाहिर नहीं कर सकती है? यहां पर सबसे बड़ी विडंबना यही है कि महिलाओं को अपनी इच्छा जाहिर करने की आजादी नहीं है। एक तो संकोच और शर्म की वजह से कम से कम भारतीय नारी ऐसा नहीं कर पाती हैं। अगर कोई ऐसा करने की हिम्मत करती है तो अगर उसका पति समझदार हुआ तब तो ठीक है, वरना उसकी सामत आ जाती है कि कैसी निर्लज है जो ऐसी बात कर रही है। पुरुष ऐसी बातें करें तो जायज है, अगर महिला करें तो वह निर्लज है। वाह क्या बात है।

हर तरह से महिलाओं पर ही पाबंदी का शिकंजा कसा जाता है। पुरुष अगर एक से ज्यादा महिलाओं से संबंध बना ले तो कहा जाता है वह तो पुरुष है उसका क्या जाएगा। और अगर कोई महिला अपने पति के अलावा किसी और से संबंध बना ले तो कहा जाता है कि इज्जत चली गई। यानी इसका मलतब साफ है कि इज्जत महिलाओं की ही होती है पुरुषों की इज्जत होती ही नहीं है इसीलिए तो जाती नहीं है। यहां पर तो महिला जाति को खुश होना चाहिए कि वास्तव में यह बड़ी बात है कि इज्जत महिला जाति की होती है पुरुषों की इज्जत होती ही नहीं है, अगर इज्जत होती तब जाती न।

आज जिधर भी नजर डालो हर तरफ बस देह के सौदागर नजर आते हैं। हर किसी को बस देह की भूख मार रही है। यह देह की भूख का ही तो आर्कषण है जिसके कारण यौन शोषण से लेकर बलात्कार जैसे घिनौने अपराध होते हैं। न जाने क्यों लोगों ने इस हमेशा कायम न रहने वाली काया से इतना मोह पाल रखा है कि हर किसी को चाहिए तन का मिलना वाली बात हो रही है। इंसान देह की भूख शांत करने के लिए न जाने क्या-क्या करता है।

गीताश्री ने अगर शादी को लायसेंस प्राप्त वैश्यावृति की संज्ञा दी है तो उसकी गहराई में जाने की जरूरत है। यहां पर हम इसको समझाने के लिए छोटा सा उदाहरण देना चाहेंगे कि जिस तरह से वैश्या को हासिल करने के लिए इंसान पैसे खर्च करता है, उसी तरह से इंसान अपनी प्रेमिका और पत्नी को तोहफों के साथ प्रलोभन से भी लुभाने की कोशिश करता है ताकि उनकी इच्छुओं का ख्याल रखा जाए। तो क्या यह भी एक तरह का सौदा नहीं है। माना कि पति-पत्नी के बीच में प्यार होता है, पर क्यों कर कोई पति अपनी पत्नी की हर मांग पूरी करता है, कहीं न कहीं तो उसके मन में यह बात रहती है कि यार अगर मैंने उसकी बात नहीं मानी तो न जाने वह कब सेक्स से इंकार कर दे। यह एक कटु सत्य है, भले कोई इस बात से इंकार कर दें, लेकिन यह बात सत्य।

कुल मिलाकर आज इंसान किसी भी तरह से देह पाने का लालची हो गया है। इसके लिए वह हर तरह का जतन करता है। इसका मतलब साफ है कि इंसान के सामने आज देह ऐसी चीज हो गई है जिसके आगे सब बेमानी हो गया है। बातें तो बहुत हैं इसको साबित करने के लिए। आज के जमाने में लोग बड़े-बड़े काम करवाने के लिए नेता-मंत्रियों और अफसरों के सामने सुंदर देह परसोने का काम करते हैं यह बात सब जानते हैं। कई बार ऐसी खबरे आती हैं कि लोग अपने प्रमोशन के लिए भी बॉस के सामने सुंदर देह परसोन का काम करते हैं। जासूसी में भी जानकारी एकत्रित करने के लिए देह का उपयोग होता है। देखा जाए तो हर बात आकर देह पर अटक जाती है क्योंकि इंसान को अगर सबसे ज्यादा भूख है तो वह है देह की भूख जिस भूख के आगे सब बेमानी है, देह की भूख में तो लोग देश को बेच खाते हैं।

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रविवार, अगस्त 23, 2009

नक्सलियों से निपटना सेना के बस में नहीं

छत्तीसगढ़ की नक्सली समस्या के विकराल होते रूप के बाद लगातार यह बात की जाती रही है कि बस्तर को सेना के हवाले कर देना चाहिए। लेकिन सोचने वाली बात यह है कि क्या वास्तव में बस्तर को सेना के हवाले करने से इस समस्या का अंत हो जाएगा। इसका सीधा सा जवाब है कि सेना के बस में नक्सलियों से निपटना है ही नहीं। ऐसा हम कोई हवा में नहीं कह रहे हैं। बस्तर में लंबे समय तक रहने वाले पुलिस के एक आला अधिकारी का कहना है कि सेना और पुलिस की कार्रवाई में बहुत अंतर है। सेना आतंकवादियों से तो एक बार निपट सकती है, पर नक्सलियों से निपटना उसके बस में नहीं है।

छत्तीसगढ़ में नक्सल समस्या को लेकर केन्द्र सरकार एक बार फिर से गंभीर दिख रही है। केन्द्र सरकार इस समस्या को समाप्त करना चाहती है ऐसा उसका कहना है। लेकिन हमें तो नहीं लगता है कि केन्द्र सरकार इस समस्या के प्रति गंभीर है। अगर ऐसा होता तो यह समस्या इतने विकराल रूप में कभी सामने नहीं आती। हमने पहले भी लिखा है, एक बार फिर से याद दिलाने चाहेंगे कि छत्तीसगढ़ में जब नक्सलियों ने पैर पसारने प्रारंभ किए थे, तब से लेकर अब तक लगातार केन्द्रीय गृह मंत्रालय के पास जानकारी भेजी जाती रही है, पर केन्द्र सरकार ने इस दिशा में गंभीरता दिखाई ही नहीं। केन्द्र सरकार के साथ पहले मप्र और अब छत्तीसगढ़ की सरकार भी गंभीर नहीं लगती है। हर सरकार के नुमाईदें महज हवा में बातें करते हैं कि नक्सलियों का नामो-निशा मिटा देंगे। अरे भई कैसे मिटा देंगे कोई योजना है? नहीं तो फिर कैसे मिटा देंगे, कुछ बताएंगे। इसका जवाब नहीं है खाली बयानबाजी करनी है तो कर रहे हैं। अपने देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी इस तरह का राग अलापते हैं। छत्तीसगढ़ के गृहमंत्री ननकी राम कंवर भी ऐसा कह चुके हैं।

केन्द्रीय और राज्य के मंत्री बयान तो दे देते हैं और सरकारें कुछ नहीं करती हैं। इनके बयानों का असर यह होता है कि नक्सली खफा हो जाते हैं और कहते हैं कि अरे तुम क्या हम लोगों का नामों निशा मिटा दोगे हम लोग तुम लोगों को मिटा देंगे और करने लगते हैं बेगुनाहों का खून। मंत्रियों और अफसरों के जब-जब बयान आएं हैं, उन बयानों के बदले में नक्सलियों ने हमेशा बेगुनाहों का खून बहाया ही है। अरे भाई अगर कुछ करने का मादा है तो चुपचाप उसी तरह से करो न जैसे नक्सली करते हैं। नक्सलियों ने निपटने के लिए उनके जैसी सोच चाहिए।

अब राजनीति देखिए कि कहा जा रहा है कि बस्तर को सेना के हवाले कर दिया जाए। यह बात आज से नहीं काफी समय से कांग्रेसी करते रहे हैं। लेकिन सोचने वाली बात यह है कि क्या सेना में इतना दम है कि वह नक्सलियों का सफाया कर सकती है। सेना का काम नक्सलियों ने निपटने का नहीं है। बस्तर में लंबे समय तक रहने वाले पुलिस के आला अधिकारी की बातें मानें तो सेना की अपनी अलग कार्यप्रणाली है, उनके बस में नक्सलियों से निपटना नहीं है। उनको ऐसा प्रशिक्षण ही नहीं दिया जाता है कि नक्सलियों से वे दो-दो हाथ कर सकें। इन अफसर महोदय ने बताया कि बस्तर में कुछ समय पहले सीआरपीएफ की फोर्स रखी गई थी, यह फोर्स वहां पर तीन माह तक रहकर भी कुछ नहीं कर पाई। इस फोर्स को जब कही भेजा जाता था तो इनकी सुरक्षा के लिए पुलिस वाले जाते थे। अब ऐसे में यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि सेना नक्सलियों से निपट सकती है। नक्सलियों पर बस्तर में एक नागा बटालियन भारी पड़ी थी, पर उसको हटा दिया गया। इस बटालियन के जवानों पर कई तरह के आरोप भी लगे थे।

कुल मिलाकर नक्सली समस्या से पुलिस वाले ही मुक्ति दिला सकते हैं। इसके लिए जरूरत यह है कि एक तो पुलिस को मजबूत किया जाए और दूसरे बस्तर में ऐसे अधिकारियों को रखा जाए जो वास्तव में पुलिस के जवानों का मनोबल बढ़ा सके। जबरिया बस्तर भेजे जाने वाले जवान और अधिकारी कभी भी नक्सलियों का सामना नहीं कर सकते हैं। सरकार को तलाशने होंगे ऐसे अफसर और जवान जो नक्सलियों से लोहा लेने की इच्छा रखते हों। अब ये अधिकारी और जवान चाहे छत्तीसगढ़ के हों या फिर देश के किसी भी कोने के हों।

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शनिवार, अगस्त 22, 2009

राहुल गांधी की तो.....

अरे यार.. ये रास्ता भी बंद है, वो रास्ता भी बंद आखिर जाए तो जाए कहां से जाए। यार ये ऐसे नेता लोग आते ही क्यों है जिनके कारण रास्ते बंद करने पड़ते हैं। आखिर ये कौन नेता है? जिसके कारण रास्ते बंद कर दिए गए हैं। एक से बताया यार ये यह राहुल गांधी है। जैसे ही एक ने नाम लिया, दूसरे ने तपाक से कहा राहुल गांधी की तो.....।

ये नजारा छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में तब नजर आया जब सोनिया गांधी से लाडले राहुल बाबा का रायपुर आना हुआ। उनका आना हमेशा की तरह से आम जनों के लिए मुसीबत का सबब बना। सुबह के समय हम भी प्रेस की मिटिंग निपटा कर लौट रहे थे। हर तरफ रास्ता बंद। बड़े रास्ते क्या हर गली-कुचे के रास्तों को बंद कर दिया गया था और कदम-कदम पर पुलिस वाले तैनात थे। पुलिस वालों का व्यवहार हमेशा की तरह आम जनों से ऐसा था मानो आमजन ही वो आतंकवादी हैं जो राहुल बाबा को उड़ा देंगे। यहां पर एक बार फिर से कुछ दिनों पहले दिल्ली हाई कोर्ट का दिया गया फैसला याद आया कि अगर नेताओं को जान का इतना ही खतरा है तो वे बाहर ही क्यों निकलते हैं।

नेताओं के कारण जब आम जनों को परेशानी होती है तो परेशानी में इंसान क्या-क्या नहीं कहने लगता है। हम जिस रास्ते से भी गुजरे और जहां भी रास्ता बंद था, वहां पर ज्यादातर लोग राहुल बाबा को कोसते हुए और गाली देते दिखे। जिसके मन में जो आ रहा था वह अपनी भड़ास गालियां देकर निकाल रहा था। किसी ने गालियों में सभ्यता दिखने की जरूरत नहीं समझी और ऐसे मामले में सभ्यता दिखाने की जरूरत भी क्या है। वास्तव में ऐसे समय में अच्छे खासे इंसान का दिमाग खराब हो जाता है। अब ऐसे में इंसान ऐसे नेताओं को जो आम जनों को कीड़ों से ज्यादा नहीं समझे हैं उनको गालियां नहीं देंगे तो क्या उनकी आरती उतारेंगे। वैसे भी आम जनों को क्या लेना-देना राहुल गांधी के दौरे से। राहुल के आने न आने से किसकी सेहत पर फर्क पड़ता है। अरे आमजनों की बात ही छोड़ दें उनके आने से तो उनकी पार्टी के लोग भी खुश नहीं होते हैं। कारण पार्टी के कितने ऐसे लोग हैं जिनको उनसे मिलने का मौका मिलता है। जिनको उनके मिलने का मौका नहीं मिलता है, वे भी मन ही मन उनको कोसते हैं, कई लोग अपने गुस्से का इजहार सार्वजनिक भी कर देते हैं।

रास्ते में जहां आम जन राहुल बाबा को कोसते नजर आए, वहीं कई पुलिस वाले भी राहुल बाबा को गालियां देने से परहेज नहीं कर रहे थे। पुलिस वालों का ऐसा कहना था कि साले ये नेता आते हैं तो जनता के साथ हमारी भी मुसीबत हो जाती है। उनके आने-जाने के समय घंटों खड़े रहो मूर्ति की तरह रास्ते में। उपर से आम जनों की गालियां भी खाओ और उनसे विवाद भी करो।

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शुक्रवार, अगस्त 21, 2009

हम अब भी तेरा एतबार करते हैं


तुम्हें हमसे नफरत सही

हम तुम्हें प्यार करते हैं।।

इस हंसी गुनाह को

हम हर बार करते हैं।।

तुम आओगी नहीं जानकर भी

हम तुम्हें बुलाते हैं।।

दिल के आईने में अब भी

हम तेरा दीदार करते हैं।।

ऐ मेरी हमदम तुम्हें तो

वफा के नाम से नफरत है।।

और एक हम हैं जो

जफा से भी प्यार करते हैं।।

गम लिए फिरते हैं

सारे जमाने का दिल में।।

मगर फिर भी न किसी से

शिकायत करते हैं।।

आ जाओ लौटकर तुम

दिल की दुनिया फिर से बसाने।।

हम तो तेरा अब भी

इंतजार करते हैं।।

सब कहते हैं बेवफा तुम्हें

पर हम तेरा अब भी एतबार करते हैं।।

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गुरुवार, अगस्त 20, 2009

कांग्रेस महिला विरोधी

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में कांग्रेस का महिला विरोधी चेहरा सामने आया है। जिस कांग्रेस की कमान श्रीमती सोनिया गांधी के हाथों में है, उस कांग्रेस का यह रूप समझ से परे है। अरे कांग्रेस को इस मामले में खुश होना था, पर कांग्रेसियों ने उल्टे विरोध करके अपने लिए परेशानी का सबब खड़ा कर दिया। दरअसल यह मामला है रायपुर के महापौर पद के आरक्षण का। छत्तीसगढ़ में होने वाले नगरीय निकाय चुनावों के लिए जब लाटरी से आरक्षण किया गया तो रायपुर की सीट महिलाओं के लिए आरक्षित हो गई। ऐसे में महापौर का चुनाव लडऩे की आश लगाए बैठे कांग्रेसी बौखला गए और इस आरक्षण का विरोध करने नारे बाजी पर उतर आए। ऐसे में उनका महिला विरोधी चेहरा सामने आ गया।

छत्तीसगढ़ में इस समय नगरीय निकाय चुनावों की तैयारी चल रही है। ऐसे में प्रदेश के 10 नगर निगमों के महापौर के लिए किए गए आरक्षण में रायपुर की सीट महिला के हिस्से में चली गई। यह फैसला होना था कि कांग्रेसी बौखला गए और महिलाओं के खिलाफ ही नारे बाजी करने लगे। इधर कांग्रेसी नारेबाजी कर रहे थे उधर भाजपाई उनके इस विरोध के खिलाफ नारेबाजी करने लगे। कांग्रेसियों ने जिस तरह से महिला महापौर का विरोध किया है, उससे यह लगने लगा है कि वास्तव में कांग्रेस में केवल उपरी तौर पर महिलाओं के लिए बात होती है।

दरअसल कांग्रेस में महिलाओं का सम्मान किया ही नहीं जाता है। माना कि कांग्रेस की कमान एक महिला श्रीमती सोनिया गांधी के हाथों में है इसके बाद भी कांग्रेसी महिलाओं के विरोधी हैं। अगर ऐसा नहीं है तो वे क्यों कर महापौर पद के लिए महिला आरक्षण का विरोध कर रहे थे। हमें तो लगता है कि कांग्रेसियों को इस बात से खुश होना चाहिए कि रायपुर सीट महिलाओं के लिए आरक्षति हो गई। अब कम से कम कांग्रेस के लिए महापौर का पद पाने की संभावना रहेगी। वरना अगर यह पद सामान्य रहता तो उसके लिए मौजूदा महापौर सुनील सोनी से पार पाना आसान नहीं होता। सुनील सोनी ने जिस तरह से रायपुर का विकास किया है, उसके बाद अगर उनको दूसरी बार चुनाव लडऩे का मौका मिलता तो कांग्रेस के लिए उनको मात देना आसान नहीं रहता। लेकिन अब जबकि सीट आरक्षित हो गई तो कांग्रेस किसी दमदारी महिला प्रत्याशी को मैदान में उतार कर जीत सकती है। लेकिन लगता है कि कांग्रेस के पास कोई दमदार महिला प्रत्याशी भी नहीं है तभी तो वह ज्यादा बौखला गई है।

एक तरफ कांग्रेस के पास कोई दमदार महिला प्रत्याशी नजर नहीं आ रही है तो दूसरी तरफ भाजपा के पास दमदार प्रत्याशियों की लंबी सूची है। इस सूची में से एक के नाम का चयन करना परेशानी का सबब होगा। वैसे भी भाजपा ने महिलाओं को आगे बढ़ाने की दिशा में बहुत काम किए हैं। भाजपा में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण काफी पहले से है। भाजपा ने ही संसद में महिलाओं को चुनाव में 33 प्रतिशत आरक्षण का मुद्दा उठाया था। भाजपा काफी पहले से इस आरक्षण के पक्ष में था, पर हमेशा कांग्रेस ने इसका विरोध किया। इधर रायपुर में जिस तरह से कांग्रेस ने महिलाओं का विरोध किया है, उसका खामियाजा उसे चुनाव में भी उठाना पड़ सकता है। वैसे भी कांग्रेस के लिए छत्तीसगढ़ में अब बचा क्या है। विधानसभा चुनाव के बाद लोससभा चुनाव में भी उसे करारी मात मिली है। अब नगरीय निकाय चुनावों में भी उसके हाथ कुछ ज्यादा लगने की उम्मीद नहीं है।

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बुधवार, अगस्त 19, 2009

हर बात पे मांगना इस्तीफा-विपक्ष का सबसे बड़ा शगूफा

राजनीति में विपक्ष के पास एक ही सबसे बड़ा शगूफा रहता है और वह है कि सत्ता पक्ष ने कोई गलती की नहीं कि बिना सोचे समझे दे दिया जाता है बयान कि इस्तीफा दें। अब 15 अगस्त के दिन की बात करें तो दंतेवाड़ा में महिला बॉल विकास मंत्री सुश्री लता उसेंडी ने जो झंडा फहराया, उसे झंडा लगाने वाले ने उल्टा लगा दिया था। उल्टा झंडा फहराया दिया गया, पर बाद में ध्यान जाने पर उसे सीधा कर दिया गया। झंडा लगाने वाले प्रधान आरक्षक को निलंबति भी कर दिया गया और पुलिस अधीक्षक को नोटिस भी जारी कर दिया गया। पर ऐसे समय में अगर विपक्ष चुप बैठ जाता तो फिर वह विपक्ष कैसे कहलाता। पूर्व नेता प्रतिपक्ष कांग्रेसी नेता महेन्द्र कर्मा ने आनन-फानन में मंत्री से इस्तीफा देने की मांग कर दी। अब कर्मा जी बताएं कि उन मंत्री महोदया की यहां पर क्या गलती है? क्या कर्मा जी ने खुद कभी झंडा फहराने से पहले इस बात की जानकारी ली है कि कहीं झंडा उल्टा तो नहीं बंधा है। कर्मा जी क्या कोई इस बात की जानकारी कभी नहीं लेता है। इसमें दो मत नहीं है कि झंडे का अपमान किया गया है, लेकिन उसकी सजा भी दे दी गई। फिर झंडे को लेकर ओछी राजनीति क्यों? ऐसी राजनीति करने वालों को ऐसे लोग नजर नहीं आते हैं क्या जो वास्तव में तिरंगे का अपमान करते हैं। सानिया मिर्जा से लेकर सचिन तेंदुलकर पर भी तिरंगे के अपमान के आरोप लगे हैं। इन्होंने ऐसा किया भी है, पर इनके खिलाफ किसी ने क्या कर लिया।

छत्तीसगढ़ में 15 अगस्त के दिन बस्तर के दंतेवाड़ा में जब वहां की प्रभारी मंत्री सुश्री लता उसेंडी मुख्य समारोह में गईं तो वहां पर उन्होंने जो झंडा फहराया, वह झंडा उल्टा लगाया गया था। उन्होंने झंडा फहरा दिया और सलामी ले ली। बाद में इस तरफ ध्यान गया कि झंडा उल्टा लगा है। झंडे में हरा रंग ऊपर था जबकि वह नीचे होना चाहिए। ध्यान जाने पर झंडे को उतार कर सीधा किया गया। इस मामले में दंतेवाड़ा की कलेक्टर रीना कंगाले ने जहां झंडा लगाने वाले प्रधान आरक्षक भीमाराम पोयाम को निलंबित कर दिया, वहीं पुलिस अधीक्षक अमरेश मिक्षा को कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया। देखा जाए तो इस मामले में इतना पर्याप्त था। लेकिन यहां पर विपक्षी दल कांग्रेस के नेता महेन्द्र कर्मा से रहा नहीं गया और अपने विपक्षी होने का धर्म निभाने के लिए आनन-फानन में बयान दे दिया कि मंत्री को इस्तीफा दे देना चाहिए।

अब कर्मा जी यह बताएं कि आखिर इस सारे प्रकरण में मंत्री का कहां दोष है? क्या कोई भी मंत्री या वे खुद कभी किसी समारोह में झंडा फहराने से पहले इस बात की जानकारी लेते हैं कि झंडा ठीक से लगाया गया है या नहीं? कमावेश कभी ऐसा होता नहीं है कि झंडा उल्टा लगाया जाए। यह बात देश का हर नागरिक जानता है कि झंडा कैसे लगाया जाता है। कोई भी सच्चा भारतीय कभी नहीं चाहेगा कि तिरंगे का अपमान हो। और उन प्रधान आरक्षक की भी भावना तिरंगे का अपमान करने की नहीं रही होगा। निश्चित ही यह मानवीय भूलवश हो गया होगा। इस मामले को तूल देने का सवाल ही नहीं था, पर विपक्ष अगर किसी बात को तूल न दे तो फिर विपक्ष कैसे कहलाएगा। सोचने वाली बात यह है कि आखिर विपक्ष में बैठे राजनीतिक दल कब तक ऐसी ओछी राजनीति करते रहेंगे। अरे किसी मामले में दम हो तो बात करें। बिना मलतब की बातों पर बात-बात में इस्तीफा मांगना क्या यह विपक्ष का शगूफा नहीं हो गया है।

अब छत्तीसगढ़ की नक्सल जैसी गंभीर समस्या पर भी तो विपक्ष महज राजनीति ही कर रहा है। जिस मामले में सरकार के साथ मिलकर विपक्ष को काम करना चाहिए, उस मामले में विपक्ष महज इस्तीफा मांगने के अलावा कुछ नहीं कर रहा है। अगर विपक्ष को वास्तव में तिरंगे के मान का इतना ही ध्यान है तो क्यों नहीं वह ऐसे लोगों के खिलाफ मुहिम चलाने का काम करता है जो देश भर में तिरंगे का अपमान करते हैं। हमने कुछ दिनों पहले ही एक ब्लाग पर देखा था कि कैसे भारत की टेनिस की सुपर स्टार सानिया मिर्जा तिरंगे की तरफ शान से पैर करके बैठीं थीं। वैसे यह मामला पिछले साल का है। फिल्मी स्टार मंदिरा बेदी ने साड़ी में बिलकुल घुटानों के नीचे तिरंगा लगा रखा था। सचिन ने तो तिरंगे का केक काटा था। एक अधिकारी के घर में उनके पैर दान में तिरंगा पड़ा था। क्या तिरंगे का अपमान करने वाले इन लोगों के खिलाफ विपक्ष को कुछ करने की बात नहीं सुझती है। क्या विपक्ष सिर्फ पक्ष में बैठे लोगों के खिलाफ ही बोलना अपना धर्म समझता है। अगर ऐसा है तो फिर ऐसे विपक्ष का इस देश में क्या काम है।

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मंगलवार, अगस्त 18, 2009

गंदे टिप्पणिकार कभी नहीं आएंगे बाज-चाहे गिरे बिग-बी जैसे ब्लागर पर गाज


अपनी ब्लाग बिरादरी के लिए एक दुखद खबर है कि अपने बिग-बी यानी अमिताभ बच्चन ने अब गंदे टिप्पणीकारों से परेशान होकर अपना ब्लाग बंद करने की चेतावनी दे दी है। उनकी इस चेतावनी पर जरूर ऐसे गंदे टिप्पणीकार जश्न मना रहे होंगे कि देखों हमने सदी के महानायक की बोलती बंद करने का इंतजाम कर दिया है। दूसरी तरफ अमित जी के लाखों चाहने वाले परेशान हैं कि अगर उन्होंने ब्लाग लिखना बंद कर दिया तो उनका क्या होगा। उनके चाहने वालों ने उनके ब्लाग पर ब्लाग बंद न करने का आग्रह किया है। देखें.. उनका ब्लाग बिग-अड्डा । अमित जी जैसे सुलझे हुए इंसान को ऐसी छोटी-छोटी बातों से परेशान नहीं होना चाहिए। उनके लिए ज्यादा अच्छा होगा कि वे ब्लाग पर मोडरेशन प्रारंभ कर दें। या फिर टिप्पणी देने की सुविधा ही समाप्त कर दें। ऐसा करने से कम से कम उनके चाहने वालों को उनको पढऩे से वंचित नहीं होना पड़ेगा। ब्लाग बिरादरी भी चूंकि इस दुनिया का हिस्सा है तो यहां पर भी जरूर अच्छे के साथ गंदे लोग भी हैं। अब ऐसे लोगों से हम लोगों को निपटने के रास्ते निकालने होंगे न कि इनसे डर कर भागने का काम करना होगा। अगर हम भाग गए तो क्या मतलब। अमित जी को अपनी ही फिल्म शोले के गब्बर सिंह का वह डॉयलाग तो आज भी याद होगा जो डर गया समझो मर गया। अगर आप मैदान छोड़कर भाग रहे हैं, मतलब आप मर गए हैं। मैदान छोडऩे में कभी समझदारी नहीं होती है।

ब्लाग बिरादरी में गंदे टिप्पणीकारों से आज हर कोई परेशान है। ऐसे लोगों से बचने के लिए ज्यादातर ब्लागरों ने मोडरेशन का सहारा लिया है। यानी आपके ब्लाग में कोई भी टिप्पणी तब तक सामने नहीं आ सकती है, जब तक आप उसकी इजाजत नहीं देंगे। लेकिन मोडरेशन का सहारा लेना हर किसी के बस की बात इसलिए नहीं होती है क्योंकि हर किसी के पास इतना समय नहीं होता है कि वह यह देखे कि उनके ब्लाग में कितनी और किस तरह की टिप्पणियां आई हैं। जब मामला बिग-बी यानी अमिताभ बच्चन का हो तो यह बात और आसानी से समझी जा सकती है कि इस सदी के महानायक के पास इतना समय ही कहां है कि वे अपनी टिप्पणियों को देख सकें कि उसमें क्या गलत लिखा है। ऐसे में लगता है कि उन्होंने मोडरेशन का प्रारंभ करना जरूरी नहीं समझा। उन्होंने ऐसा किया तो यह उनकी महानता है कि उन्होंने हर किसी के लिए अपने ब्लाग को खुला रखा कि आप आएं और टिप्पणी करें। लेकिन इस सुविधा का अंत में उन गंदे लोगों से फायदा उठा ही लिया जिनका मकसद ही अच्छे ब्लागरों को परेशान करना है।

अमित जी ने जिस तरह से अपने ब्लाग को बंद करने की चेतावनी दी है उसके बाद से यह सोचना जरूरी हो गया है कि क्या कोई ऐसी तकनीक नहीं है जिससे गंदी टिप्पणियां स्वत: ही मोडरेशन हो जाए ताकि अमित जी जैसे लोग जिनके पास समय की कमी है उनकी अनचाही टिप्पणियां सामने ही न आएं। ऐसा होने से अच्छा लिखने वाले आहत भी नहीं होंगे और कभी लिखने से किनारा करने के बारे में सोचेंगे भी नहीं। अगर अमित जी ने वास्तव में ब्लाग लिखना बंद कर दिया तो यह ब्लाग बिरादरी के लिए बहुत घातक होगा। ऐसा होने से गंदे टिप्पणीकारों के हौसले बढ़ जाएंगे कि हमने तो सदी के महानायक की बोलती बंद कर दी फिर बाकी ब्लागरों की औकात की क्या है। ऐसे में पूरी ब्लाग बिरादरी के लिए यह जरूरी हो जाता है कि अपने बिग-बी ब्लाग बंद न करें। वैसे तो उनके ब्लाग में सैकड़ों चाहने वालों ने उनसे ब्लाग बंद न करने का आग्रह किया है। हमें लगता है कि अमित जी भी अपने चाहने वालों की कदर करेंगे। वे जानते हैं कि उनके चाहने वाले इस दुनिया में लाखों की संख्या में हैं। अमित जी संभवत: उस दिन को नहीं भूले होंगे जब उनको फिल्म कुली की शूटिंग में पुनीत इस्तर के हाथों से चोट लग गई थी और वे जिंदगी और मौत से जूझ रहे थे, तब उनको अपने चाहने वालों की दुवाएं ही मौत के मुंह से निकाल कर लाई थी। ऐसे में भला कैसे वे अपने चाहने वालों का दिल चंद गंदे लोगों के कारण तोड़ सकते हैं।

अमित जी से हम इतना ही कहना चाहेंगे कि सारी ब्लाग बिरादरी उनके साथ हैं। उनको मैदान छोड़कर जाने का ख्याल भी अपने दिमाग से निकाल देना चाहिए। अगर वे मैदान छोड़कर चले गए तो यह घातक होगा। बेसक वे चाहें तो अपने ब्लाग में टिप्पणियों का रास्ता बंद कर दें। हालांकि यह उनके और उनके चाहने वालों के लिए ठीक नहीं होगा, लेकिन ब्लाग बंद करने के रास्ते से तो यह रास्ता अच्छा ही होगा। कम से कम अमित जी के चाहने वाले उनको पढ़ पाएंगे।

यहां पर हम एक बार फिर से गुगल से आग्रह करना चाहेंगे कि उनको इस दिशा में काफी गंभीरता से सोचना चाहिए। अगर गुगल में किसी का जी-मेल या फिर ब्लाग बनाने के लिए उनसे सही नाम पता और उसका आईडी प्रफू लिया जाए तो बदमाशी पर काफी हद तक रोक लग सकती है। हम जानते हैं कि बदमाशी करने वाले गलत आईडी प्रफू देकर आईडी बना सकते हैं। आज के जमाने में कुछ भी संभव है। लेकिन आईडी प्रफू लेने से समस्या का हल निकल जाएगा, ऐसा हमारा मानना है। इस पर छद्म नाम से लिखने वालों को आपति हो सकती है, लेकिन छद्म नामों से कारण अपने सही नामों से लिखने वाले अमित जी जैसे ब्लागरों की अनदेखी करना बिलकुल गलत होगा। अगर आप चाहते हैं कि आपके लेखन को लोग जाने और आप अच्छा लिखने की मानसिकता रखते हैं तो फिर सही नाम से लिखने में क्या आपति है।

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सोमवार, अगस्त 17, 2009

छत्तीसगढ़ी अंग्रेजी

बात उन दिनों की है जब हम एक गांव टेमरी में कक्षा 9वीं में पढ़ते थे। हम लोगों को एक टीचर पढ़ाते थे, चन्द्राकर सर। हम लोग अक्सर शाम के समय में वालीबॉल खेलने जाते थे। हमारे सर का एक साला भी था वह भी वालीबॉल खेलने आता था। हम लोग मस्ती में अंग्रेजी को छत्तीसढ़ी के साथ मिलाकर बोलते थे। कई बार ऐसा होता था कि ध्यान ही नहीं रहता था और बेख्याली में कही भी कुछ भी बोल देते थे।

एक दिन की बात है हम लोग शाम के समय में वालीबॉल खेल रहे थे कि हमारे चन्द्रकार सर का साला एक शाट मारने के चक्कर में जमीन पर गिर गया। उसका गिरना था कि हमारे मुंह से अनायस ही आदत के मुताबिक यह निकल गया कि चन्द्राकर के साला इज द गिरिंग भूइया में (छत्तीसगढ़ी में जमीन को भूइया कहा जाता है)। हमने यह कह तो दिया पर बाद में ध्यान आया कि यार सर भी साथ में खेल रहे हैं। ऐसे में हम थोड़े से घबरा गए कि क्या मालूम यार सर हमारी इस बात को किस रूप में लेंगे। लेकिन हमारी बात पर सबसे पहले हंसने वाले हमारे सर ही थे। जब हमने उनसे कहा कि सॉरी सर हमें ध्यान नहीं था कि आप भी साथ में हैं। तो उन्होंने कहा कोई बात नहीं यार हम सब लोग इस समय खिलाड़ी और दोस्त-यार हैं और दोस्ती यारी में सब चलता है।

यह तो एक वाक्या था। वैसे हम लोगों की काफी पहले यह आदत थी कि हम लोग अंग्रेजी को हिन्दी या फिर छत्तीसगढ़ी के साथ जोड़कर अलग टाइप की हंसी वाली अंग्रेजी का मजा लेते थे। कई मौकों पर कुछ भी बोलने की आदत रही है हमारी। और अचानक बोली गई बातों से ही हंसी आती है। हंसाने का काम करना दुनिया में सबसे पुन्य का काम होता है। आज के टेंशन भरे माहौल में लोगों के पास हंसी के लिए समय है भी कहां। वैसे भी अपने बिग-बी अमिताभ बच्चन ने अपनी फिल्म शराबी में कहा था कि आज कल हंसी की फसल उगती कहां है। यह बात को सच है कि आज हंसी की फसल उगती नहीं है। ऐसे में हंसने-हंसाने के लिए जो भी कुछ किया जाए अच्छा है। तो फिर हम चलते हैं और अब हम मिलिंग यू आर लोगन से एक नान चुक (छोटे को छत्तीसगढ़ी में नान चुक) ब्रेक के बाद।

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रविवार, अगस्त 16, 2009

पाठक हों बेसूमार-टिप्पणियों पर ध्यान ही मत दो यार

अपनी ब्लाग बिरादरी में टिप्पणियों को लेकर जंग जैसी स्थिति रहती है। कुछ दिनों में कोई न कोई ऐसा कुछ कर देता है कि ब्लाग बिरादरी जंग का मैदान लगने लगती है। न जाने क्यों लोग टिप्पणियों के पीछे लगे रहते हैं। अब
संगीता पुरी की एक टिप्पणी को लेकर बवाल मचा कर रखा गया है। हमारा तो ऐसा मानना है कि आप अच्छा लिखें और ये भूल जाएं कि आपको कितनी टिप्पणियां मिलेंगी। अच्छे लिखने वालों को इस बात से मतलब होना चाहिए कि आपके लिखे को कितने लोगों पढ़ रहे हैं। अगर कोई बिना पढ़े ही कोई टिप्पणी कर देता है तो क्या मतलब ऐसी टिप्पणी का। लेकिन कोई आपके विचार पढ़कर भी टिप्पणी नहीं करता है तो वह ज्यादा महत्वपूर्ण है। न जाने क्यों ब्लाग बिरादरी में छोटे-बड़े का भेद डालकर रखा गया है। आपको तो यह मानकर चलना चाहिए कि अगर कोई ब्लागर अपने को बहुत ज्यादा महान समझता है और उसको किसी नए ब्लागर के ब्लाग में टिप्पणी देना या आना पसंद नहीं है, तो न आए ऐसे ब्लागर। अगर आपके लेखन में दम होगा तो जरूर सारे ब्लागर एक दिन आपके ब्लाग में आएंगे। अपने लेखन में दम लाएं।


हमने कुछ समय पहले एक लेख लिखा था कि 100 काम चलाऊं टिप्पणियों पर एक अच्छी टिप्पणी भारी होती है। हमें लगता है कि उस पोस्ट की बातों को एक बार फिर से सबके सामने रखने की जरूरत है। देखें हमारी उसी पोस्ट की कुछ महत्वपूर्ण बातें फिर से प्रस्तुत हैं।

न जाने क्यों कर ब्लाग बिरादरी में यह मानसिकता घर कर गई है कि टिप्पणी देने से ही टिप्णणी मिलती है। हमें भी कुछ ऐसा लगता है कि लोग इस मानसिकता के शिकार हो गए हैं। अगर इसमें वास्तव में सच्चाई है तो यह जरूरी है कि इस मानसिकता से उबरना ही होगा। वरना एक दिन ऐसा आएगा कि अच्छा लिखने वाले संभवत: इस हीनभावना से ग्रस्त होकर लिखना बंद कर देंगे कि उनको कोई टिप्पणी देने वाला नहीं है। अगर हम अपनी बात करें तो हमें कभी भी काम चलाऊ टिप्पणी देना पसंद नहीं आता है। हम अपने पत्रकारिता के काम में इतने ज्यादा व्यस्त रहते हैं कि काम के कारण हम ज्यादा लेखों को पढ़ भी नहीं पाते हैं। अब यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम ज्यादा लेख पढ़ नहीं पाते हैं। अगर हम भी सिर्फ इसलिए बिना लेखों को पढ़े टिप्पणी करने लगें कि हमें टिप्पणियां नहीं मिलेंगी तो हो सकता है कि हम उस लेख की मूल भावना को समझे बिना कोई टिप्पणी कर दें जिससे लेख लिखने वाले लेखक की भावना आहत हो जाए।

हमारे एक और ब्लाग खेलगढ़ में नहीं के बराबर टिप्पणियों आती हैं। इसका कारण भी शायद यही है कि हम ज्यादा टिप्पणियां नहीं कर पाते हैं। हमको जब कोई लेख अच्छा लगता है तो जरूर समय निकाल कर गंभीरता से उसको पढऩे के बाद टिप्पणी करते हैं। हम इस बात से बचने की कोशिश करते हैं कि यह लिखा जाए कि आपका लेख बहुत अच्छा है, आभार.. आपने अच्छा मुद्दा उठाया है.. आदि। ऐसी टिप्पणियों से लेखक का कितना मनोबल बढ़ता है, हम नहीं बता सकते हैं। लेकिन हमारा ऐसा मानना है कि ऐसी टिप्पणियां किसी लेखक के लिए कोई मायने नहीं रखती हैं। यह बात ठीक उसी तरह से है जिस तरह से एक कलाकार को एक सच्चा कद्रदान मिल जाए तो वह एक कद्रदान बहुत होता है। यहां पर हम एक फिल्म शराबी के साथ एक और जीता जागता उदाहरण देना चाहेंगे। शराबी में अमिताभ जब जयाप्रदा के डांस पर उनको दाद देते हैं तो उस दाद में उनके हाथों से खून निकल जाता है। इस दाद को कलाकार के रूप में जयाप्रदा सबसे बड़ी दाद मानती है। उनका कहना रहता है कि इस दाद में उनको हजारों तालियां की गूंज से ज्यादा गूंज सुनाई दी। यह तो थी फिल्म की बात अब आपको बताते हैं कि एक सच्ची घटना।

बात आज से करीब 20 साल पुरानी है। तब हम लोगों से अपने गृहनगर भाटापारा में संगीत का एक कार्यक्रम आयोजित किया था। इस कार्यक्रम में खैरागढ़ संगीत विवि के एक वायलिन वादक भी आए थे। रात को करीब एक बजे कार्यक्रम समाप्त होने के बाद हम चंद मित्रों के आग्रह उस उन वायलिन बजाने वाले कलाकार से हम लोगों के साथ महफिल सजाई और हम लोगों ने जिन भी गानों की फरमाइश की, उन गानों को उन्होंने सुनाने का काम किया। हम चार मित्र थे, जो बड़ी गंभीरता से उनके संगीत को सुन रहे थे। उनके संगीत में हम लोग इस कदर खो गए थे कि कब सुबह के पांच बज गए मालूम ही नहीं हुआ। समय का किसी को पता ही नहीं चला। उस दिन उन वायलिन वादक ने हम लोगों से कहा था कि हर कलाकार इस तरह से कद्र करने वालों का भूखा होता है। उन्होंने साफ कहा कि मुझे भारी महफिल से ज्यादा मजा आप चार लोगों के साथ बैठकर आया।

ये दो उदाहरण इस बात को साबित करते हैं कि हर कलाकार और लेखक अपनी कला और लेख की सच्ची तारीफ का भूखा होता है। हमें किसी की लिखी बात पसंद आती है, तभी हम वहां पर टिपप्णी करते हैं। ऐसे में यह मानसिकता पालना गलत है कि टिप्पणी दो और टिप्पणी लो। ऐसा करने का सीधा सा मतलब यह है कि आप टिप्पणी के भूखे हैं। वैसे टिप्पणी की भूख गलत नहीं है, लेकिन जब आप टिप्पणी के बदले टिप्पणी की भूख शांत करने की मानसिकता में रहते हैं तो यह गलत है। जरूरी नहीं है कि जिसके लेख में हमने टिप्पणी की है, उनको हमारा लेख पसंद आए ही, ऐसे में वह टिप्पणी नहीं करेगा, तो क्या इसका मतलब यह है कि हम अगली बार उनके अच्छे लेख पर टिप्पणी ही न करें। अगर हम ऐसा करते हैं तो यह न सिर्फ उन अच्छे लिखने वालों के साथ अन्याय है बल्कि हम अपने जमीर से भी गिरते हैं। भले आज का जमाना एक हाथ दे एक हाथ ले जैसा हो गया है, लेकिन इस भावना को बदलने की जरूरत है और यह भावना बदलनी ही चाहिए। हमें तो लगता है कि वास्तव में आज ब्लाग बिरादरी में यही प्रचलन हो गया कि टिप्पणी दे और टिप्पणी लें, वरना कई अच्छे लेख लिखने वालों के टिप्पणी बक्से खाली नहीं होते। हमें नहीं मालूम लोगों की मानसिकता में बदलाव आएगा या नहीं लेकिन हम ऐसा सोचते हैं कि मानसिकता का बदलना जरूरी है। वरना एक दिन वह आएगा जब अच्छे लिखने वालों का टोटा पड़ जाएगा। अब इससे पहले की अच्छे लेखर ब्लाग बिरादरी से किनारा कर लें उनको बचाने की मुहिम पर काम करना जरूरी है।

एक तरफ इस तरह के बदलाव की जरूरत है तो दूसरी तरफ इस बात की भी जरूरत है कि हम एक-दूसरे की बिना वजह की आलोचना करने से भी बचें। उस ब्लागर से फला ब्लाग में फला टिप्पणी की है, वह गलत है। अरे भई ये उनकी मानसिकता है कि वह क्या टिप्पणी कर रहा है आप क्यों सर खफा रहे हैं। अगर किसी को कामचलाऊं टिप्पणियां चिपकाने में आनंद आता है तो आप उनको उस आनंद से क्यों वंचित कर रहे हैं। यह उनका अपना विवेक है। आप ऐसी टिप्पणियों पर ध्यान ही न दें। अगर आप ध्यान देंगे तो यह आपकी गलती है। हमारा ऐेसा मानना है कि हर ब्लागर को इस बात पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए कि उनके लिखे को कितने ज्यादा लोगों ने पढ़ा। सबसे अहम बात यह है कि आपके लिखे को कितने लोग पढ़ रहे हैं। अगर पढऩे के बाद कोई जरूरी समझता है और उसके पास समय रहता है तो वह टिप्पणी कर देता है। अगर कोई कामचलाऊं टिप्पणी के रूप में यह लिख दें की आपने काफी अच्छा लिखा है तो क्या आप इतने से संतुष्ट हो जाएंगे। ऐसी टिप्पणियां कभी भी अच्छा लिखने वालों को संतुष्ट नहीं कर सकती है। फिर क्यों ऐसी टिप्पणियों की तरफ ध्यान देना।

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शनिवार, अगस्त 15, 2009

क्या आपको आता है राष्ट्रगान


आज स्वतंत्रता दिवस है। इस मौके पर हम एक छोटी सी बात ब्लाग बिरादरी के साथ अपने पाठकों से पूछना चाहते हैं कि क्या आपको राष्ट्रगान आता है। अगर आता है तो लिख कर दिखाएं। हमने बहुत से ऐसे लोगों को देखा है जो देशभक्ति की बातें तो बहुत करते हैं, पर जब राष्ट्रगान के बारे में पूछा जाता है तो बंगले झांकने लगते हैं। ऐसे लोगों में कई बड़े-बड़े अधिकारी शामिल हैं। वैसे भी आज के अंग्रेजी के जमाने में स्कूलों में भी राष्ट्रगान की कदर नहीं रह गई है। अगर आप इसकी कदर करते हैं तो फिर देर किस बात की है आज के दिन लिख दें आप भी राष्ट्रगान और बता दें कि आप जानते हैं राष्ट्रगान।



अंत में पूरी ब्लाग बिरादरी और पाठकों के साथ सभी देशवासियों को आजादी की 62वीं वर्षगांठ की ढेरों बधाई और शुभकामनाएं।

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शहीदों का अहसान



भारत माता की रखने को शान

दे दी कई वीर जवानों से जान

नेता सुभाष चन्द्र बोस जैसे महान

भगत सिंह जैसे वीर इंसान

रखने को मातृ-भूमि की आन

कर गए अपनी जान देश पर कुर्बान

कैसे हुआ था अपना देश आजाद

सदा रखना ये बात याद


आए कभी कोई ऐसा मौका

हो जाना देश पर कुर्बान


तिरंगे को कभी झूकने न देना

चाहे पड़ जाए प्राण भी देना

जान की बाजी लगा देना

बनाए रखना तिरंगे का मान

आजादी को जिन्होंने अपना लक्ष्य समझा

गोलियों को जिन्होंने अपना जेवर समझा

खाकर गोलियां जिन्होंने देश को आजाद कराया

याद रखना उन शहीदों का सदा अहसान

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शुक्रवार, अगस्त 14, 2009

नेताओं पर चला हाई कोर्ट का डंडा

वीआईपी की सुरक्षा को लेकर आज देश में कौन परेशान नहीं है। लाखों कोशिशों के बाद भी इसका कोई इलाज नहीं हो पा रहा है। बरसों से आम जन इनकी सुरक्षा के नाम से डंडे खा रहे हैं। लेकिन अब संभवत: पहली बार होई कोर्ट ने ऐसी सुरक्षा लेकर चलने वाले नेताओं को एक तरह के फटकारते हुए उन पर डंडा चलाने का काम किया है। दिल्ली हाई कोर्ट ने एक फैसले में साफ कहा कि अगर नेताओं को जान का इतना की खतरा है तो वे घर से बाहर ही क्यों निकलते हैं। सरकार को ऐसे नेताओं को बाहर निकलने की अनुमति ही नहीं देनी चाहिए। हाई कोर्ट के इस फैसले का कोई असर होता है या नहीं यह अलग मुद्दा है, पर कम से कम यह बात तो है कि हाई कोर्ट ने आम जनों से दर्द को पहली बार समझा है। अब भले इसके पीछे कारण सुप्रीम कोर्ट के एक जज रहे हैं जिनका अपमान वीआईपी सुरक्षा के नाम से हुआ है।

देश के नेताओं और मंत्रियों के काफिले के कारण आम जनों को कितनी परेशानी होती है,यह बात सब जानते हैं कि इसके बारे में हमने भी कई बार लिखा है। लेकिन इस बार हाई कोर्ट ने एक ऐसा फैसला किया है जिसके बारे में संभवत: अपने देश का आम आदमी कभी कल्पना नहीं कर सकता है। आम आदमी के दिमाग में तो अदालतों के बारे में भी यही छवि रही है कि अदालतें भी नेताओं और मंत्रियों के इशारे पर चलती हैं। इसमें कोई दो मत भी नहीं है, आज का जमाना डंडे का है। कहा जाता है जिसका डंडा उसी की भैस। ऐसे में जिनके पास पॉवर होगा उसकी सुनी जाएगी। लेकिन हाई कोर्ट दिल्ली ने जो एक फैसला किया है, उससे आम जनों को इस बात की राहत जरूरत मिली है कि कोर्ट ने आम जनों के दर्द और भावनाओं की तो कदर की है। भले इसके पीछे कारण जो भी रहा हो।

जस्टिस तीरथ सिंह ठाकुर और वीना बीरबल की बेंच ने एक मामले में सरकार से कहा कि 10-15 सुरक्षा कर्मियों से घिरे रहने वाले नेताओं को घर से निकलने की इजजात ही नहीं देनी चाहिए। कोर्ट ने कहा कि चारों तरफ सुरक्षा घेरा लेकर चलना इन नेताओं को स्टेटस सिब्बल बन गया है। अदालत ने सुप्रीम कोर्ट के एक जज के साथ हुए दुव्र्यवहार का उल्लेख भी किया है, पर उन जज का नाम नहीं बताया है। इन जज महोदय को घर के बाहर टहलते हुए देख कर एक नेता के सुरक्षा कर्मियों ने दीवार की तरफ मुंह करके खड़े होने के लिए मजबूर कर दिया था, क्योंकि वहां से एक वीआईपी का काफिल निकलने वाला था। इस बारे में टिप्पणी करते हुए अदालत ने कहा है कि ये कैसी सुरक्षा है, जिससे आम आदमी परेशान हो रहा है। कोर्ट ने कहा कि अगर नेताओं को जान का खतरा है तो वे घर के बाहर की क्यों जाते हैं। अदालत का यह तर्क वास्तव में जानदार है कि अगर नेता लोकप्रिय है तो उसकी सुरक्षा के लिए तो आम जन ही आगे आ जाएंगे। उनको सुरक्षा की क्या जरूरत है।

अदालत में दिल्ली पुलिस ने जो दलील दी कि केन्द्रीय गृह मंत्रालय की मंजूरी से ही सुरक्षा दी जाती है। इस पर कोर्ट ने असहमति जताते हुए कहा कि एक तरफ एक राजनेता को 10 से 15 सुरक्षा कर्मी दिए जाते हैं और दूसरी तरफ आम आदमी की हत्याएं हो जाती हैं तो भी सरकार चिंता नहीं करती है, यह कैसी सुरक्षा है? कोर्ट ने इस बात पर भी आपति जताई कि पुलिस ने सुरक्षा प्राप्त राजनेताओं की जानकारी बंद लिफाफे में दी। कोर्ट ने कहा कि सरकार बंद लिफाफे में वीआईपी सुरक्षा तय नहीं कर सकती है।

कोर्ट का फैसला है तो लाजवाब, पर सोचने वाली बात तो यही है कि क्या इस फैसले पर अमल हो पाएगा? क्या राजनेताओं की सुरक्षा कम होगी? क्या आम आदमी को वीआईपी सुरक्षा से होने वाली परेशानियों से मुक्ति मिल पाएगी? ये ऐसे सवाल हैं, जिनका जवाब लगता है कि न तो किसी हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के साथ किसी भी सरकार के पास है। आम जनता तो निरीह है उसको जैसे चाहो प्रताडि़त कर लो कौन बोलने वाला है।

आम जनता को अपनी परेशानियों से तभी मुक्ति मिलेगी जब वह खुद जागेगी और साझा विरोध करना प्रारंभ करेगी। नहीं तो क्या सुप्रीम कोर्ट के जज क्या कोई भी आला अधिकारी जब वह सड़क पर आम इंसान की तरह चलेगा तो उसकी हैसियत वीआईपी के सामने एक कीड़े-मकौड़े से ज्यादा नहीं रहेगी और उसको डंडों से किनारे लगा दिया जाएगा। अब यह तो हमें सोचना है कि हम कब तक कीड़े-मकौड़ों की तरह नेताओं के सुरक्षा कर्मियों के डंडे खाकर किनारे होते रहेंगे। अब भी वक्त है जाग जाओं नहीं तो बने रहो कीड़े और मकौड़े और खाते रहो डंडे।

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गुरुवार, अगस्त 13, 2009

आ जा बेटा खुडू-डुडू

हर किसी को अंग्रेजी के पीछे भागते देखकर एक गांव वाले ने सोचा कि क्यों न यार मैं भी अपने बेटे को पढऩे के लिए किसी बड़े शहर के बड़े अंग्रेजी स्कूल में भेजूं। यह सोचकर उस ग्रामीण ने अपने बेटे को पढऩे के लिए एक शहर के एक बड़े से अंग्रेजी स्कूल में भेज दिया। जब बेटा छुट्टियों में घर आ रहा था तो उसने अपने पिता को खबर दी कि वह इस दिन इस ट्रेन ने आने वाला है। अब वह ग्रामीण अपने बेटे को लेने के लिए स्टेशन गया। जब दोपहर के समय ट्रेन आई तो ट्रेन से उतरते ही बेटे ने अपने पिता से सबसे पहले कहा

हाऊ डू यू डू फादर।

अब उस ग्रामीण को कुछ नहीं सुझा तो उसने जवाब में कहा

आ जा बेटा खुडू-डुडू

इसके बाद दोपहर का समय होने पर बेटे ने कहा

गुड ऑफटर नून फादर

इस पर ग्रामीण ने जो समझा उसके जवाब में उसने कहा कि

बेटा गुड तो घर में नहीं है, नून (यानी नमक, छत्तीसगढ़ी में नमक को नून कहा जाता है) अपनी मां से घर में जाकर मांग लेना।

जब बेटे को लेकर पिता घर पहुंचा तो फिर बेटे ने अपनी मां से वही कहा -

गुड ऑफर नून मदर

इस पर पिता ने नाराज होते हुए कहा कि अबे तेरे को स्टेशन में ही कहा था न कि घर में गुड नहीं है मां से नून मांग लेना फिर भी तू गुड मांगे जा रहा है।

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बुधवार, अगस्त 12, 2009

छत्तीसगढ़ में बना पेशेवर फुटबॉल क्लब



खिलाडिय़ों को मिलेगा ५ से १५ हजार तक वेतन
प्रदेश में पहली बार इतिहास बनाते हुए जेसीबी की पहल पर जेसीबी भिलाई ब्रदर्स के नाम से पेशेवर फुटबॉल क्लब बनाया गया है। इस क्लब में दो नाइजीरियन खिलाडिय़ों के साथ देश के आला दर्ज के कुल ११ खिलाड़ी रखे गए हैं। इतने ही खिलाड़ी छत्तीसगढ़ के भी हैं। खिलाडिय़ों को उनके स्तर के हिसाब से ५ से १५ हजार का वेतन हर माह दिया जाएगा। यह टीम देश की नामी स्पर्धाओं में खेलने जाएगी।


छत्तीसगढ़ के फुटबॉलरों को एक नई राह देने के मकसद से पहली बार पेशेवर क्लब का गठन किया गया है। इस क्लब के बारे में जानकारी देते हुए जेसीबी के एमडी अश्वनी महेन्द्रु जो कि बास्केटबॉल के राष्ट्रीय खिलाड़ी रह चुके हैं, ने बताया कि काफी समय ने वे चाहते थे कि छत्तीसगढ़ में ऐसा कुछ नया किया जाए जिससे यहां के खेलों को एक नई राह मिल सके। उन्होंने बताया कि काफी सोच विचार के बाद अंतत: यह फैसला किया गया कि अगर पेशेवर क्लब बनाना है तो इसके लिए फुटबॉल ही सबसे उपयुक्त खेल हो सकता है। बकौल श्री महेन्द्रु बंगाल और मुंबई की तर्ज पर यहां पर पेशेवर क्लब के गठन के लिए चयन ट्रायल का आयोजन भिलाई में किया गया जिसमें दशे के कई राज्यों के खिलाडिय़ों के साथ छत्तीसगढ़ के खिलाड़ी शामिल हुए। उन्होंने बताया कि जो टीम बनाई गई है उस टीम में नाइजीरिया के दो खिलाडिय़ों के साथ मिजोरम, बंगाल और महाराष्ट्र के पेशेवर कुल ११ खिलाडिय़ों को रखा गया है। इतने ही खिलाड़ी छत्तीसगढ़ के भी रखे गए हैं। इन खिलाडिय़ों को पांच से १५ हजार तक का वेतन उनके खेल के स्तर को देखते हुए दिया जाएगा। इसी के साथ सभी खिलाडिय़ों के रहने और खाने की व्यवस्था भिलाई में की गई है।


एक सवाल के जवाब में श्री महेन्द्रु ने बताया कि टीम का कोच जिन जौहर दास को बनाया गया है वे पहले मोहन बागान क्लब के कोच थे। अब उनको यहां की टीम का कोच बनाया गया है, उनको वेतन के रूप में कम से कम ३० हजार रुपए दिए जाएंगे। पूछने पर उन्होंने बताया कि हर माह इस टीम पर दो लाख पचास हजार रुपए का खर्च आएगा। यह टीम अब चन्द्रपुर में होने वाली स्पर्धा से खेल की शुरुआत करेगी। इसके बाद टीम देश की सभी नामी स्पर्धाओं में खेलने के लिए जाएगी।


डीजीपी-खेल संचालक ने सराहा


टीम के खिलाडिय़ों को सबसे पहले खेल भवन में खेल संचालक जीपी सिंह से मिलवाया गया। इसके बाद खिलाडिय़ों की डीजीपी विश्वरंजन से मुलाकात करवाई गई। प्रदेश में बनी इस टीम के बारे में जानकार डीजीपी और खेल संचालक ने इस प्रयास को सराहा और कहा कि इससे दूसरे खेलों को भी एक प्रेरणा मिलेगी और दूसरे खेलों के भी ऐसी पेशेवर क्लब टीमें बनेगी।

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मंगलवार, अगस्त 11, 2009

अखबारों में हिन्दी का भगवान ही मालिक

कुछ दिनों पहले किसी ब्लाग में एक अखबार की करतन के साथ यह पढऩे को मिला कि यह कैसी हिन्दी है। अखबार की जिस करतन को ब्लाग ने दिखाया था, उस छोटी सी करतन में इतनी गलतियां थीं कि सोचना पड़ता है कि वास्तव में हिन्दी के अखबार हिन्दी के साथ क्या कर रहे हैं। हमें जहां तक लगता है कि हिन्दी के साथ सबसे ज्यादा खिलवाड़ अगर आज कहीं हो रहा है तो वह अखबारों में हो रहा है। अखबारों की हिन्दी का भगवान ही मालिक है। हमको खुद अखबार में काम करते दो दशक से ज्यादा समय हो गया है, लेकिन इधर पिछले एक दशक में अखबारों में हिन्दी की ज्यादा ही दुर्गति हुई है कहा जाए तो गलत नहीं होगा।

जिन अखबारों को हिन्दी का रखवाला होना चाहिए, आज वही अखबार हिन्दी के लिए घातक साबित हो रहे हैं। हिन्दी की सबसे ज्यादा दुर्दशा तो अखबारों में ही हो रही है। हम खुद दो दशक से ज्यादा समय से पत्रकारिता कर रहे हैं, पर हमने अपनी जिंदगी में बहुत कम ऐसे संपादक और पत्रकार देखें हैं जिनकी हिन्दी अच्छी हो। आज अखबारों का जिस तरह से व्यावसायिककरण हो गया है उसके चलते नए-नए पत्रकारिता के छात्रों को ही अखबार में रखा लिया जाता है। अखबार मालिकों को अखबार निकालने से मतलब है न की हिन्दी से। अखबार में व्याकरण का ध्यान ही नहीं रखा जाता है, मात्राओं को ही हिन्दी मान लिया गया है। जिसको मात्राओं का थोड़ा सा भी ज्ञान होता है, वही अपने को हिन्दी का ज्ञानी समझने लगता है।

आज हर अखबार में बहुत ज्यादा रद्दी तरीके से लिखे समाचार रोज मिल जाएंगे। हमारी नजरों में तो हिन्दी के साथ रोज अखबार वाले ही खिलवाड़ कर रहे हैं। एक ब्लागर मित्र के एक अखबार की करतन में यह बताने का प्रयास किया कि वास्तव में अखबार में किस तरह से गलत हिन्दी का प्रयोग हो रहा है। यह तो महज एक छोटा सा उदाहरण मात्र था। आज आप किसी भी बड़े से बड़े अखबार को उठाकर देखेंगे तो आपको उसको पढऩे में शर्म आएगी कि ये कैसी हिन्दी है। एक वह समय था जब लोग अपनी हिन्दी ठीक करने के लिए अखबार पढ़ते थे, लेकिन आज के आधुनिक जमाने में अगर आप यह सोचकर अखबार पढ़ेंगे कि आपकी हिन्दी सुधर जाएगी तो उल्टे आपकी हिन्दी बिगड़ जाएगी।

हमें अखबार में दो दशक से ज्यादा समय काम करते हो गया है लेकिन हमको इस बात को मानने में कताई शर्म और झिझक नहीं है कि अखबारों की हिन्दी का भगवान ही मालिक है। इसका कारण यह है कि आज जहां अच्छे हिन्दी के जानकर पत्रकारों की कमी है, वहीं जो जानकार हैं उनको मालिक इसलिए नहीं रखना चाहते हैं कि उनको कम वेतन वाले पत्रकार चाहिए। अब आप कम पैसे खर्च करेंगे तो आपको बाजार में माल भी वैसा ही मिलेगा। हमारे कहने का मतलब यह है कि किसी भी गुणवत्ता वाली चीज के लिए तो ज्यादा पैसे लगते ही हैं अगर आपको असली की बजाए नकली सामान से काम चलाना है तो नकली सामान तो नकली जैसा ही रहेगा। अब इसमें बेचारे उस अखबार को पढऩे वाले पाठक का क्या दोष जो असली पैसे देकर असली अखबार की चाह में अखबार खरीदता है, पर उसको असली अखबार तो मिल जाता है, पर उस अखबार में असली हिन्दी नहीं मिल पाती है। ऐसे में बेचारा पाठक क्या कर सकता है। आज हर अखबार की एक ही कहानी है। हर अखबार में हिन्दी के जानकारों का टोटा है। अब इसके लिए कुछ किया ही नहीं जा सकता है। एक बात और यह कि कई अखबारों में संपादकों के पदों पर भी कई ऐसे लोग विराजमान हैं जिनकी हिन्दी का भगवान मालिक है। ऐसे में वे संपादक अपने साथ काम करने वाले हिन्दी के जानकारों की हिन्दी को गलत साबित करके अपनी हिन्दी को सही कहते हुए उनको डांट पिला देते हैं। अब एक कहावत है कि बॉस इज आलवेज राइट। अब बॉस सही कह रहा है तो भी सही है और गलत कह रहा है तो भी सही है क्योंकि वो बॉस है और बॉस कभी गलत नहीं होता है। ऐसा हम नहीं अंग्रेजी की कहावत कहती है।

हमें याद है एक घटना जब हम कुछ साल पहले एक अखबार में काम करते थे तो एक हेडिंग को लेकर हमारी संपादक से बहस हो गई थी। वो गलत हेडिंग को सही बताने पर तुले थे, हमने विरोध किया तो वे कहने लगे कि मैं प्रधान संपादक से बात करवा देता हूं। तब हमने अंत में कह दिया था कि किसी से बात करवाने की जरूरत नहीं है जनाब वैसे भी कहा जाता है कि बॉस इज आलवेज राइट। आप इस अखबार के बॉस हैं तो आप जो कह रहे हैं वो सही है। आपका अखबार है आप जो चाहें हम वही लिख देते हैं, हमारा क्या है। यह एक घटना मात्र नहीं है। ऐसा हमारे साथ कई बार हुआ है, हमने कई बार संपादक से गलत-सही के लिए पंगा लिया। लेकिन हासिल कुछ नहीं हुआ। अंत में हमें भी यह सोचकर हथियार डालने पड़े कि जब अखबार के संपादक और मालिक को ही अपने अखबार में सही और गलत हिन्दी से मतलब नहीं है तो हम लगातार अपना सर खपाकर क्यों अपनी नौकरी का खतरा मोल लें। संभवत: हमारे जैसे न जाने कितने ऐसे पत्रकार होंगे जिनको इस तरह से समझौता करना पड़ता होगा।

हम जानते हैं कि अगर कोई भी पत्रकार अखबार में गलत और सही हिन्दी के चक्कर में पड़ता है और संपादक से कुछ कहता है तो अगर हिन्दी का जानकार और समझदार संपादक होगा तो बात जरूर सुन लेगा, लेकिन अगर कोई संपादक अपने को ही ज्ञानी समझने वाला होगा तो उस पत्रकार की सामत आ जाएगी और उसको बाहर का रास्ता भी देखना पड़ सकता है। ऐसे में सही जानकार पत्रकार हिन्दी की दुर्गति होते देखकर भी इसलिए कुछ नहीं कह और कर पाते हैं क्योंकि एक तो उनकी सुनने वाला कोई नहीं है और दूसरे उनको भी अपना घर चलाना है। अगर वे सही और गलत हिन्दी के पचड़े में पड़ेंगे तो उनकी नौकरी ही पचड़े में पड़ जाएगी। अब आप खुद ही तय कर लें कि ऐसे पत्रकार क्या कर सकते हैं। अखबारों में सही हिन्दी के जानकार कम अपने को डेढ़ होशियार समझने वाले पत्रकार और संपादक ज्यादा है जो ऊंचे पदों पर बैठे हैं। ऐसे में अखबारों की हिन्दी का तो भगवान ही मालिक होगा न। इसलिए मित्र इस पचड़े में पड़े ही नहीं कि अखबार में हिन्दी के साथ क्या हो रहा है। आज के अखबार महज हिन्दी फिल्म की तरह ही मनोरंजन का साधन रह गए हैं। इसको हिन्दी का ज्ञान लेने के लिए पढऩा सही नहीं है।

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सोमवार, अगस्त 10, 2009

अब फोल्डिंग ई-बुक



जमाने के साथ अब लोगों की जरूरत के हिसाब से लगातार नए-नए अविष्कार हो रहे हैं। ई-बुक का अविष्कार तो काफी पहले हो चुका है, लेकिन अब विश्व की सबसे छोटे आकार की एक ई-बुक का अविष्कार भी हो गया है। इस ए-4 साइज की ई-बुक की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसको फोल्ड करके रखा जा सकेगा। इस ई-बुक में गोल घुमाकर बंद की जाने वाली स्क्रीन बनाई गई है। स्क्रीन की खासियत यह है कि यह टूटती नहीं है।

आज के आधुनिक कम्प्यूटर युग में नीति नए आयाम स्थापित करने की होड़ लगी है। हर कोई ऐसा कुछ नया करना चाहता है जिससे उसकी बनाई गई वस्तु के साथ उसकी भी तारीफ हो। कम्प्यूटर युग में अब घर में भी पुस्तकों का ढेर रखना अब बीते जमाने की बात हो गई है। वैसे आज भी लोग सीधे तौर पर किताबें पढऩा पसंद करते हैं, लेकिन जिनके पास समय की कमी है और कही भी आते-जाते कुछ अच्छा पढऩे की तमन्ना रखते हैं उनके लिए छोटी ई-बुक किसी जादुई पिटारे के कम नहीं है। संभवत: इसी बात को ध्यान में रखते हुए छोटी ई-बुक इजाद की गई है कि आप कही भी आते-जाते विमान या टे्रन की लेट लतीफी से बचने अपनी कार में चलते हुए ट्रैफिक में फंसने के कारण हो रहे विलंब का फायदा उठाते हुए कुछ पढ़ सके।

अभी जिस ए-4 ई-बुक के आने की खबर है उसको बरसों की मेहनत के बाद बनाने में सफलता प्राप्त की है कैम्ब्रिज विश्व विद्यालय ने। इस ई-बुक की स्क्रीन को इस तरह से प्लास्टिक और माइक्रोचिप से लैंस किया गया है कि इसके टूटने का सवाल ही नहीं है। अन्यथा जब इसको गोल घुमाकर बंद करने वाली बनाया गया तो सबसे बड़ा खतरा स्क्रीन के टूटने का था, पर इस खतरे को दूर कर दिया गया है। अभी यह तय नहीं हुआ है कि इस छोटी ई-बुक को बाजार में लाने का काम कौन सी कंपनी करेगी लेकिन जल्द ही कोई न कोई नामी कंपनी जरूर इसको बाजार में लाने का काम करेगी। इसके बाजार में आने पर सबको इंतजार रहेगा।

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रविवार, अगस्त 09, 2009

कॉलेज में आईटम गर्ल के डांस का एक पीरियड !

आज के आधुनिक जमाने में शिक्षा इतनी बाजारू हो गई है कि शिक्षा के पवित्र मंदिर को नापाक करने का काम किया जाने लगा है। पवित्र शिक्षा के साथ भी निजी शिक्षण संस्थान इस कदर खिलवाड़ करने लगे हैं कि शर्म आती है। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के एक इंजीनियरिंग कॉलेज ने अपने कॉलेज की सीटें भरने के लिए छात्रों के सामने आईटम गर्ल को परोसने का काम किया है। एक होटल में जोरदार पार्टी देकर छात्रों को रिझाने का प्रयास किया गया कि आए और आईटम गर्ल का डांस देखें और हमारे कॉलेज में एडमिशन ले। अगर आप इस कॉलेज में आ जाते हैं तो इसी तरह से आपका मनोरंजन होता रहेगा। इस एक घटना ने सोचने पर मजबूर कर दिया है कि आखिर ये निजी संस्थान शिक्षा को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं। आज निजी संस्थानों के कारण ही शिक्षा एक गलत राह की तरफ चल पड़ी है कहां जाए तो गलत नहीं होगा। आने वाले समय में ऐसा भी हो सकता है कि कोई कॉलेज यह ऐलान कर दे कि उनके कॉलेज में रोज आईटम गर्ल के डांस का एक पीरियड भी होगा।


हैं तो यह चौकाने वाली खबर पर यह हकीकत है कि छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में एक इंजीनियरिंग कॉलेज ने अपने कॉलेज की सीटों को भरने के लिए नैतिकता को किनारे लगाते हुए छात्रों के लिए एक आलीशान होटल में मुंबई की आईटम गल्र्स को बुलाकर उनका डांस करवाया। अब यह डांस किस हद तक था इसका तो खुलासा नहीं हो सका है, पर जानकारों की मानें तो यह डांस सभ्यता के दायरे में कताई नहीं था। वैसे भी यह सभ्यता के दायरे में नहीं आता है कि कोई शिक्षण संस्थान अपने संस्थान के फायदे के लिए ऐसा काम करे और वह भी शिक्षा जैसे पवित्र काम के लिए। आज यह सोचने वाली बात है कि ऐसा जो काम रायपुर के एक कॉलेज ने किया है, वैसा तो किसी विदेशी कॉलेज ने भी कभी नहीं किया होगा।

आखिर कहां जा रही है हमारी शिक्षा की दिशा? क्या निजी शिक्षण संस्थाएं नैतिकता से परे काम नहीं कर रही हैं? एक समय अपने देश में शिक्षा को पूजा जाता था, किसी को शिक्षा देना सबसे बड़ा धर्म माना जाता था। गुरु की इज्जत करना भारत की परंपरा रही है। लेकिन अब न तो ऐसे गुरु रह गए हैं और न ही ऐसे शिष्य। वरना अपने देश का इतिहास गवाह है कि यहां पर गुरु को गुरु दक्षिणा में अंगूठा काटकर देने वाले शिष्य रहे हैं। लेकिन आज के समय में ऐसे उदाहरण मिलने संभव ही नहीं है। आज के समय में यह जरूर सुनने को मिलता है कि फला छात्र अपनी शिक्षिका के साथ भाग गया , या फिर फला छात्र ने अपनी शिक्षिका का ही बलात्कार कर दिया।

निजी शिक्षण संस्थाओं के कारण शिक्षा का जो व्यावसायिक करण हुआ है उसके अच्छे नजीजे सामने आए तो इसके बुरे नतीजे भी नजर आते हैं। आज का हर तरफ सिर्फ और शिक्षा का बाजार लगा हुआ है। शिक्षा बेचने की चीज बना दी गई है। हर निजी संस्थान शिक्षा को एक उत्पाद के रूप में पेश करने में लगा है। जिस उत्पाद का जितना ज्यादा प्रचार उस उत्पाद की उतनी ही कीमत बाजार में है। आज हर तरफ सिर्फ और सिर्फ कोचिंग क्लासों का भी बाजार लग गया है। क्या पहले लोग पढ़ते नहीं थे और पास नहीं होते थे? पहले तो कभी कोचिंग की जरूरत नहीं पड़ती थी। लेकिन अब क्यों पडऩे लगी है? यह सोचने की बात है। कोचिंग क्लासों से हमें कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन कोचिंग के नाम पर जिस तरह की लुट मची है, उस लुट पर अंकुश लगाने में सरकार भी नाकाम रही है। सरकार नाकाम है तो उसके पीछे कारण भी है, सरकार में बैठे शिक्षा के मठाधीश भी अपनी तिजौरी भरने का काम कर रहे हैं। अगर कोई पैसा खर्च करेगा तो वह कमाएगा ही। ऐसे में उस कमाई के लिए लुट का शिकार तो आम आदमी ही होगा न।

लिखने को बहुत कुछ है। पर फिलहाल को यह एक मामला सामने आया कि जिसमें शिक्षा के पवित्र मंदिर को नापाक करने का काम किया है। अगर यही हाल रहा तो शिक्षण संस्थानों में ही अगर कोई आईटम गर्ल के डांस का भी पीरियड करने लगे तो आश्चर्य नहीं होगा। कोई कॉलेज कल को यह कर सकता है कि आईये हमारे कॉलेज में एडमिशन लीजिए और रोज लीजिए मजा एक आईटम गर्ल के डांस के पीरियड है।

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शनिवार, अगस्त 08, 2009

खेलगढ़ में पोस्ट का तिहरा शतक

देखते-देखते खेलगढ़ में पोस्ट का तिहरा शतक हो गया है और इसके बाद भी काफी रन बन गए हैं। हम इसके बारे में लिखना तो नहीं चाह रहे थे, पर लगातार कई मित्र यह बात कह रहे हैं कि लिखने और बताने में क्या बुराई है। वैसे भी आज का जमाना चिख-चिख कर बताने का है। अगर आप किसी को यह नहीं बताएंगे कि आपमें फला गुण है तो सामने वाला आपको मुर्ख ही समझेगा। हमने खेलगढ़ में लिखने की पारी की शुरुआत फरवरी 2009 से की थी। और अब तक छह माह के सफर में 300 से ज्यादा पोस्ट लिख चुके हैं। हम तो लगातार लिख रहे हैं क्योंकि हमारा मकसद छत्तीसगढ़ के साथ अपने देश के खेलों को एक अलग पहचान देने का है। लेकिन अफसोसजनक बात यह है कि खेल को संभवत: पढऩे वाले पाठक कम से कम ब्लाग बिरादारी में काफी कम हैं। अगर ऐसा न होता तो हमने खेलगढ़ के बाद राजतंत्र में लिखना शुरू किया है और अभी उसका दोहरा शतक भी पूरा नहीं हुआ है लेकिन राजतंत्र ज्यादा पढ़ा जाता है। बहरहाल चाहे जो भी हो भले खेलगढ़ को कम लोग पढ़ते हैं, पर हम इसमें कभी लिखना बंद करने वाले नहीं है। कभी तो सफलता मिलेगी और खेलगढ़ भी राजतंत्र की तरह पढ़ा जाएगा।

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अनोखा कटहल

कटहल की सब्जी भले किसी को पसंद आती हो, पर हमें यह सब्जी बिलकुल पसंद नहीं आती है। हमारी श्रीमतीजी ने आज जब फरमाइश की कि आज तो कटहल की सब्जी ला दो। हम जब बाजार कटहल लेने जा रहे थे तो हमें बरसों पहले किसी कवि सम्मेलन में सुनी गई ये चंद लाईनें याद आ गईं जिसमें एक आंख वाले एक बंदे से सब्जी मंडी में अनोखा कटहल इजाद कर दिया था। देखिए इन लाईनों को और आप भी मिलीए अनोखे कटहल से

एक आंखे के अंधे ने

खुद के बंदे ने

सब्जी मंडी में प्रवेश किया

और मुंहासों से ओत-प्रोत

सब्जी वाली बाई के गालों पर

हाथ फेरते हुए पूछा

भाई साहब कटहल क्या रेट है

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शुक्रवार, अगस्त 07, 2009

12 34 56 7 8 9 का अनूठा नजारा आने वाला है

आज का दिन सदी का सबसे अनूठा दिन साबित होने वाला है। आज यानी सात अगस्त के दिन जब देश और दुनिया की घडिय़ों में 12 बजकर 34 मिनट और 56 सेकेंड का समय होगा तो यह समय इतिहास में दर्ज हो जाएगा। क्योंकि इस समय के कारण जो संख्या बनेगी वह होगी 1 2 3 4 5 6 7 8 9 ये संख्या इसलिए बनेगी क्योंकि आज जहां सात तारीख है, वहीं आठवां महीना है और 2009 की अंतिम संख्या 9 है। तो तैयार हो जाईए एक अद्भूत अंकों वाले समय तारीख और साल को अपने पास कैद करने के लिए। जैसे ही घड़ी की सुईयां 12 बजकर 34 मिनट 56 सेकेंड का समय दिखाएं आप इसको अपने कैमरे में कैद कर सकते हैं। वैसे यह संयोग एक बार नहीं बल्कि दो बार आएगा। एक बार तो यह रात को आज चुका है, पर दिन में आने वाले संयोग के आप भी साक्षा बन सकते हैं।

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सस्ते चावल ने बनाया शराबी

छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा दिए जाने वाले सस्ते चावल को लेकर यह बात सामने आ रही है कि इस चावल के कारण लोग कामचोर और शराबी बनते जा रहे हैं। एक तो इस चावल को लेकर लोग बेच देते हैं और उन पैसों से शराब पीने का भी काम करते हैं। लगातार इस तरह की बातें सुनने को मिल रही है कि छत्तीसगढ़ सरकार ने जिस सोच के साथ यह योजना प्रारंभ की थी, वह सोच पूरी नहीं हो पा रही है। उधर चावल माफिया भी सस्ते चावल की कालाबाजारी करने का काम लगातार कर रहे हैं।

छत्तीसगढ़ सरकार ने पहले गरीबों को तीन रुपए किलो चावल देना प्रारंभ किया, फिर चुनाव के कारण एक रुपए और दो रुपए में चावल देने का वादा किया। आज कि तारीख में छत्तीसगढ़ में महज एक और दो रुपए किलो में चावल मिल रहा है। सरकार की सोच इसके पीछे चाहे कितनी भी अच्छी रही हो, लेकिन सरकार की यह सोच पूरी नहीं हो रही है। एक तो सस्ते चावल को खुले बाजार में ले जाने का काम चावल माफिया प्रारंभ से कर रहे हैं। सरकार चाह कर भी इन माफियाओं पर लगाम नहीं लगा सकी है। एक तरफ सस्ते चावलों की कालाबाजारी हो रही है, तो दूसरी तरफ इन चावल के हकदार गरीब खुद भी इन चावलों को बाजार में बेचने का काम कर रहे हैं। अगर जानकारों की बातें मानें तो ऐसा कोई गांव नहीं है, जहां पर गरीब चावल लेकर उसको ज्यादा कीमत में न बेच रहे हों। जानकारों को साफ कहना है कि रमन सरकार ने गरीबों को सस्ता चावल देकर उनको कामचोर और शराबी बना दिया है। सस्ते चावल के कारण लोग काम करने से कतराने लगे हैं। वैसे भी छत्तीसगढ़ में शुरू से ही यह बात रही है कि अगर किसी के घर में चार दिनों का राशन रहता है तो वह काम करने जाने की जरूरत नहीं समझता है, लेकिन जब राशन समाप्त हो जाता है, तो वह काम मांगने निकलता है।

रमन के चावल ने लोगों को शराबी भी बना दिया है, ऐसा कहा जाने लगा है। सस्ता चावल लो दुकानदारों को बेचो और पैसे लेकर पहुंच जाऊ मयखाने में पीने के लिए। और पीने के बाद फिर जाकर घर में करो मार-पीट बीबी-बच्चों से। यही सब गांव-गांव में होने की बात की जा रही है। इसके लिए सरकार को दोष नहीं दिया जा सकता है, सरकार ने तो गरीबों की मजबूरी के चलते उनको सस्ता चावल उपलब्ध करवाया था, पर उसका सही उपयोग अगर वे गरीब नहीं कर रहे हैं तो इसमें सरकार क्या कर सकती है। उन गरीबों को सस्ते चावल की कीमत समझनी होगी तब जाकर सस्ते चावल की योजना साकार होगी। लेकिन लगता नहीं है कि गरीब इस बात से बाज आएंगे कि वे सस्ते चावल का दुरूपयोग न करें।

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गुरुवार, अगस्त 06, 2009

चाहिए युवा खून


अचानक

सुबह-सुबह

दरवाजा खटका

दरवाजा खोलकर देखा

सामने एक अजनबी खड़ा था

किन्तु

चेहरा कुछ जाना-पहचाना था

हमने पूछा कौन हैं? किससे काम है?

जवाब मिला

मैं हूं लोकतंत्र

जिसकी हत्या कर दी गई है

हमने पूछा यहां क्यों आए हैं?

उसने कहा

मुझे तुम्हारी जरूरत है

मौत ने मुझसे कहा है

युवा खून ही तुम्हें

पुन: जीवन दे सकता है

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बुधवार, अगस्त 05, 2009

ट्रेन का पहला सफर-टीटी पर गया गांव वाला चढ़

यह बात उस जमाने की है जब ट्रेनों में कोयले का इंजन लगता था। एक गांव का बंदा पहली बार ट्रेन में सफर करने के शौक के चलते अपने गांव से रायपुर पहुंचा और बिलासपुर जाने के लिए टिकट कटाने गया तो वहां पर उसने टिकट देने वाले बंदे से पूछा कि भईया जरा बता दीजिए कि ट्रेन कैसी होती है और हमें कहां पर से ट्रेन में चढ़ाना है। टिकट कलर्क ने उस गांव के बंदे को विस्तार से समझाया कि ट्रेन काले रंग की होती है और उसके मुंह से धुंआ निकलता। ट्रेन पटरी में चलती है। जैसे ही ट्रेन आए तुम बैठ जाना।

बंदा ट्रेन के बारे में जानकारी लेकर प्लेटफार्म पर पहुंच गया। थोड़ी देर बाद एक टिकट चेकर साहब जो कि खुद पूरी तरह से काले थे और काले कोटे के साथ काली पेट पहने हुए थे, सिगरेट के कस लगाते हुए मस्त चाल से पटरी के बीचों-बीच चल आ रहे थे। गांव वाले बंदे को लगा कि यार शायद यही ट्रेन है। फिर क्या था उसने आव देखा न ताव उन टिकट चेकर के पास आते ही कूद कर चढ़ गए जनाब उनके कंघे पर। टिकट चेकर परेशान हो गए, और उसको बोलने लगे भाई साहब आप ये क्या कर रहे हैं। गांव वाले ने कहा क्या कर रहे हैं का क्या मतलब है। भईया हमने टिकट लिया है। ये देखों टिकट, हमें जल्दी से बिलासपुर पहुंचा दो। पहली बार तो ट्रेन में बैठने का मौका मिला है, और आप हैं कि कह रहे हैं कि क्या कर रहे हैं। एक तो बहुत देर से हम इंतजार कर रहे हैं और अब आप इतनी देर बाद आए हैं, और हमें से ही पूछ रहे हैं कि क्या कर रहे हैं।

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मंगलवार, अगस्त 04, 2009

एक सत्य


मकान के नाम पर

टूटे-फूटे झोपड़े

बदन ढ़कने के नाम पर

फटे-पुराने कपड़े

भीख मांगते इंसान

प्यासी आंखें, भूखी आतें

नजर आती है चारो तरफ

बेबसी, लाचारी, गरीबी और भूख

लगती है आज सारी दुनिया

बधिर और मूक

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आपके दर से न लौटे कोई खाली हाथ

हमारी कालोनी में रहने वाला एक परिचित हमारे पास मदद मांगने के लिए आया। मदद बहुत छोटी सी थी, उनको अपने बच्चे का एक स्कूल में एडमिशन करवाना था। हमने उनका काम कर दिया और वह हमें धन्यवाद देने लगा कि आपके कारण मेरे बच्चे का अच्छे स्कूल में एडमिशन हो गया। हमारी मदद करने की आदत शुरू से रही है। जितनी हो सकती है हम लोगों की किसी भी तरह की मदद करते हैं। हम इतने ज्यादा सक्षम तो नहीं हैं कि किसी की आर्थिक मदद कर सके, पर दूसरे तरह की जो भी मदद होती है, उससे हम इंकार नहीं करते हैं। हमारे कई मित्र इस बात से खफा रहते हैं कि जिसे देखों मदद करते फिरते हो। हमारा ऐसा मानना है कि अगर कोई हमारे पास मदद मांगने के लिए आया है तो इसका मतलब साफ है कि हमें भगवान ने इस काबिल बनाया है कि हम किसी की मदद कर सके तभी तो लोग हमारे पास मदद मांगने आते हैं, अगर हम काबिल ही नहीं होते तो क्यों कर कोई मदद मांगने आता।

हमारा ऐसा सोचना है कि अगर कोई किसी के पास मदद मांगने आता है तो इस बात का जरूर ख्याल रखना चाहिए कि वह इसलिए आपके पास आया है क्योंकि आप इस लायक हैं। अब हम किसी को यह कभी नहीं कर सकते हैं कि कोई अगर मदद मांगने आए तो उसको अपना सब कुछ दे दो। हमारे कहने का मतलब यह है कि हम कम से कम किसी को यह नहीं कह सकते हैं कि कोई रुपए-पैसे मांगने आए तो उसको दे देने चाहिए। रुपए-पैसों का मामला इंसान का अपना व्यक्तिगत मामला होता है। वैसे तो किसी की मदद करना भी अपना व्यक्तिगत मामला होता है, लेकिन किसी को थोड़ी सी मदद करने से अगर उसका काम बन जाता है, तो ऐसी किसी मदद से इंकार नहीं करना चाहिए। आप अगर किसी ऐसे मुकाम पर हैं जिनके कहने से किसी का काम हो जाता है तो ऐसा करने में हर्ज क्या है। अब अगर हम उन परिचित को उनके बच्चा का एडमिशन करवाने से इंकार कर देते तो वह किसी और के पास चले जाते। कोई न कोई उनकी मदद कर ही देता। लेकिन उनको चूंकि इस बात का भरोसा था कि हम उनकी मदद कर सकते हैं और हमारे कहने से उनका काम बन सकता है सो वे हमारे पास आए। इस तरह से कई लोग हमारे साथ काम करने वाले या फिर जान-पहचान वाले हमारे पास आते हैं तो हम किसी को मना नहीं करते हैं। बशर्ते कि वह काम हमारे बस का होना चाहिए। लेकिन इसका यह मलतब भी नहीं है कि कोई उलटा-सीधा काम लकेर आए और वह हमारे बस में हो तो हम वह करवा दें। ना.. बिलकुल ना..। ऐसा कोई काम कभी करना पसंद नहीं करते हैं।

हम लोग जिस दुनिया में रहते हैं तो हम सभी को कभी न कभी जाने अंजाने एक-दूसरे की मदद की जरूरत पड़ती है। अगर सभी मदद करने से कतराने लगेंगे तो क्या होगा। अक्सर ऐसा होता है कि कहीं सड़क पर कोई घटना हो जाती है तो कोई किसी की मदद करने के लिए रास्ते में रूकने में तैयार नहीं होता है। इसके पीछे कारण भी है कि कोई पुलिस के लफड़े में पडऩा नहीं चाहता है। यहां पर पुलिस वालों की गलती है कि आज अगर कोई किसी की मदद के लिए नहीं रूकता है तो पुलिस वालों के सवालों के कारण ऐसा हो गया है। अगर पुलिस वाले सुधर जाएं और मदद करने वालों से ज्यादा सवाल-जवाब न किए जाए तो लोग जरूर मदद करने लगेंगे। वैसे मदद तो लोगों की मिली ही जाती है, क्योंकि इंसानियत अभी कायम है। अगर ऐसी इंसानियत दिखाने का काम हर कोई करने लगे तो क्या बुरा है। आज अगर हम लोग यह ठान लें कि किसी को भी अपने दर से खाली हाथ जाने नहीं देंगे, तो जरूर वह ऊपर वाला भी हमारा भला करेगा। कहते भी है कि कर भला तो हो भला। फिर न जाने क्यों इंसान है आज इस मुंह मोड़ चला।

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सोमवार, अगस्त 03, 2009

गरीबी ने बना दिया राष्ट्रीय खिलाड़ी को कालगर्ल

कहते हैं कि गरीबी जो न कराए कम है। जब पेट में आग लगती है तो इंसान सारी नैतिकता की बातों को भूल जाता है और ऐसा कुछ भी करने के लिए मजबूर हो जाता है जिसके लिए उसकी आत्मा गंवारा नहीं करती है। ऐसा ही कुछ असम की एक पूर्व राष्ट्रीय खिलाड़ी निशा शेट्टी के साथ हुआ है जिसके कारण उनको एक खिलाड़ी से कालगर्ल बनाना पड़ गया। रायपुर में पकड़े गए एक सेक्स रैकेट में निशा भी शामिल थीं। पहली बार रायपुर आई इस सेक्स वर्कर ने जब इस बात का खुलासा किया कि वह राष्ट्रीय खिलाड़ी रह चुकी हैं और उनको बेरोजगारी और गरीबी ने इस दलदल में धेकले दिया है तो पुलिस वाले भी आश्चर्य में पड़ गए।

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के देवेन्द्र नगर इलाके में जब एक सेक्स रैकेट पकड़ा गया तो यह पहले दिन यह खबर आम सेक्स के रैकेट जैसी खबरों की तरह ही खबर थी। लेकिन दूसरे दिन इस कांड में शामिल एक सेक्स वर्कर निशा शेट्टी के बयान ने अपने समाज की पोल खोलकर रख दी। इस महिला की बात मानें तो उनका कहना है कि वह इस पेशे में मजबूरी से आई हैं। उसने पुलिस और मीडिया के सामने जो अपनी दास्ता सुनाई उसके मुताबिक मूलत: असम की रहने वाली यह महिला वालीबॉल के साथ एथलेटिक्स की राष्ट्रीय खिलाड़ी थी और दोनों खेलों में राष्ट्रीय स्तर पर खेल कर अपने राज्य के लिए पदक भी जीते। खेल के दौरान ही उसकी मुलाकात राष्ट्रीय फुटबॉल खिलाड़ी रायबहादुर से हुई और फिर इसके बीच प्यार हो गया और रायबहादुर ने निशा को अपनी जीवनसाथी बना लिया। निशा इस बात से खुश थीं कि उनको जीवनसाथी के रूप में एक खिलाड़ी मिला है तो उनकी भावनाओं को समझता है। लेकिन निशा की किस्मत में सुख नहीं लिखा था। राष्ट्रीय स्तर पर खेलने वाली इस दंपति को काफी कोशिशों के बाद कोई नौकरी नहीं मिली। रायबहादुर ने उस रेलवे की भी शरण ली जिसके बारे में कहा जाता है कि प्रतिभाशाली खिलाडिय़ों की कोई देश में कदर करता है तो वह रेलवे है। पर यहां पर जब राय बहादुर को पनाह नहीं मिली तो यह राष्ट्रीय खिलाड़ी टूट गया और इसी गम में वह शराब पीने लगा। और एक दिन ऐसा आया कि शराब रायबहादुर को पी गई और वह निशा को एक बेटी के साथ छोड़कर दो साल पहले इस दुनिया से चला गया।

पति की मौत के बाद निशा के बुरे दिनों की शुरुआत हुई। पति की मौत की दुहाई देकर भी इस राष्ट्रीय खिलाड़ी को जब नौकरी नहीं मिली तो वह अपनी एक सहेली के पास नौकरी की तलाश में मुंबई चली गई। यहां भी उनके हाथ नौकरी नहीं लगी तब उन्होंने अपनी सहेली की सलाह पर अपनी बेटी के साथ मां की परवरिश करने के लिए अंतत: उस जिस्म फरोशी के धंधे में कदम रखा जिसको समाज में अच्छी नजरों ने नहीं देखा जाता है। बकौल निशा उसको इस धंधे में आए ज्यादा समय नहीं हुआ है। लेकिन क्या करती, अगर मैं इस धंधे में नहीं आती तो मेरे साथ मेरी बेटी और मां की भूख से मौत हो जाती। कम से कम आज मैं जिस्म को बेचकर अपनी बेटी और मां का पेट तो भर रही हूं। निशा का कहना है कि वह बाहर जाने का काम नहीं करती है, पर सहेली के कहने पर ही वह पहली बार रायपुर आई और यहां पर पुलिस के हत्थे चढ़ गई। निशा का कहना है कि अगर उनके पति को ही नौकरी मिल गई होती तो आज वे जिंदा होते और मुझे ऐसे गंदे धंधे में न आना पड़ता। मेरे पति के मरने के बाद भी अगर मुझे नौकरी मिल जाती तो मुझे क्यों अपना जिस्म बेचना पड़ता।


ये दास्ता एक महज निशा की नहीं है। न जाने ऐसे कितनी निशाएं हैं अपने देश में जिनको बेरोजगारी और गरीबी की लाचारी में अपना जिस्म बेचना पड़ता है। भले समाज इनको अच्छी नजरों ने नहीं देखता है, तो क्यों नहीं समाज के ठेकेदार ऐसी असहाय और गरीब लड़कियों की मदद करने के लिए सामने आते हैं। क्या समाज के ठेकेदार ऐसी लड़कियों पर केवल ताने मारने के लिए हैं। बहुत जरूरी है कि समाज में फैली जिस्म फरोशी की बुराई के पीछे छुपी मजबूरी को समझा जाए। इसमें भी कोई दो मत नहीं है कि ऐसा धंधा करने वाली कई महिलाएं अपने शौक पूरे करने के लिए इस धंधे में आती हैं, लेकिन ज्यादातर महिलाओं के इस धंधे में आने के पीछे मजबूरी होती है। इस मजबूरी की जड़ को अगर समाप्त कर दिया जाए तो कोई इस धंधे में क्यों कर आए। लेकिन लगता नहीं है कि अपने देश में ऐसा संभव है। यहां तो लोग बिना टिकट का तमाशा देखने के आदी है, किसी की मजबूरी की फायदा उठाने का आदी है और किसी की मजबूरी पर हंसने के भी आदी है।

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समीर लाल जी को बधाई दें राखी सावंत उनकी बहू बन गईं

फिल्म जगत की एक नायिका राखी सावंत ने अंतत: समीर लाल जी के घर की बहू बनना पसंद किया और टोरंटो के युवक इलेश को अपना जीवन साथी चुन लिया है। इलेश चूंकि समीर लाल जी के शहर के हैं ऐसे में अब हमारा तो कम से कम ऐसा मानना है कि राखी सावंत अपने उडऩ तश्तरी की बहू बन गई हैं। वैसे भी भारतीय समाज में एक परंपरा है कि किसी शहर में कोई लड़की ब्याह कर आती है तो वह उस शहर के रहने वालों की बहू बन जाती है, ऐसे में समीर लाल जी के शहर में जाने वाली राखी सावंत उनकी बहू हुईं या नहीं। तो फिर देर किस बात की है, अपने समीर लाल जी को दीजिए बधाई कि उनका टोरंटो जाना सुखद रहा और उनको राखी सावंत जैसी बहू मिल रही हैं।

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रविवार, अगस्त 02, 2009

तेरे जैसा यार कहां?

आज फ्रेंडशिप डे है। अमूनन हम ऐसे किसी डे में विश्वास नहीं रखते हैं। पर लोग कहते हैं कि जमाने के साथ चलना चाहिए। अगर जमाने की बात करें तो आज जमाना इतना बदल गया है कि अब न तो सच्ची दोस्ती आसानी से मिल पाती है, न ही सच्चे दोस्त मिल पाते हैं। स्वार्थ के इस जमाने में दोस्ती भी स्वार्थ परक हो गई है। ऐसे में हमें अपने बचपन की दोस्ती याद आती है जिस दोस्ती की एक समय हमारे गृहनगर भाटापारा में मिसाल दी जाती थी। हमारी दोस्त एक मुस्लिम युवक शौकत अली साजन से थी। यह दोस्ती आज भी कायम है, पर अंतर यह है कि हम लोग बरसों से जुदा हो गए हैं और हमारे वे मित्र बेंगलोर में रहने लगे हैं। इसी के साथ काम की अधिकता हम दोनों के पास इतनी है कि अब समय ही नहीं मिल पाता है, बात करने के लिए। हमारे उन मित्र का परिवार रायपुर में है। लेकिन अब वहां पर भी आना-जाना कम हो गया है। एक समय वह था जब हम लोग हर दिन एक-दूसरे के घर में खाना खाते थे। अब तो यही सोचते हैं कि जाने कहां गए वो दिन।

इस दुनिया में वास्तव में वे इंसान बहुत किस्मत वाले होते हैं जिनको कोई सच्चा दोस्त मिल जाता है। हमारे जीवन में एक नहीं कई ऐसे दोस्त रहे हैं जिनकी दोस्ती पर हम गर्व कर सकते हैं। सबसे पहले सच्चे दोस्त की बात करें तो यह दोस्त हमारे बचपन के रहे हैं। जब हम लोग अपने गृहनगर भाटापारा में रहते थे, तब एक मुस्लिम युवक शौकत अली साजन से हमारी दोस्ती हुई। यह दोस्ती इस तरह से हुई कि हमारे बड़े भाई साहब और उनके पापा एक साथ काम करते थे। ऐसे में उनके घर आना-जाना हुआ तो एक शौकत ही नहीं बल्कि उनकी दो बहनों से भी हमारी बहुत अच्छी दोस्ती हो गई। कहीं भी बाहर जाना रहता तो हमारी चौकड़ी ही जाती। हमारी यह दोस्ती इस तरह से परवाह चढ़ी की हम लोग एक दिन भी एक दूसरे के बिना नहीं रह पाते थे। सुबह का खाना अगर शौकत हमारे घर में खाता तो शाम का खाना उनके घर में होता। शायद ही कोई ऐसा दिन होगा जब हम लोगों ने एक-दूसरे के घर में खाना न खाया हो।

इसी के साथ एक सबसे बड़ी बात यह थी कि हमारा रोज सुबह और शाम को घर के पास मातादेवालय मंदिर जाने का रूटीन था। हमारे सुबह के रूटीन में तो नहीं पर शाम के रूटीन में रोज शौकत भी साथ होते थे। हमारे साथ वे भी अपने माथे पर माता का टिका लगाते थे और हम लोग फिर देर रात तक घुमते रहते थे। अक्सर लोग उनको माथे पर टिका लगाने के कारण टोकते थे। हमारी जानकारी में मुस्लिम समाज में मूर्ति पूजा नहीं की जाती है। उनको अपने समाज में भी बहुत विरोध का सामना करना पड़ा था कि तुम रोज मंदिर क्यों जाते हो, लेकिन वह रोज हमारे साथ मंदिर जाते थे। वैसे हमने उन्हें कभी मंदिर जाने के लिए नहीं कहा। एक तरफ वो हमारे धर्म से जुड़े धार्मिक स्थल में जाते थे, दूसरे तरफ हमें भी उनके धार्मिक स्थल में जाने का मन होता था, पर हम जानते थे यह संभव नहीं है। ऐसे में हमने कभी उनके सामने जिद नहीं की। फिर भी हम उनके साथ कई बार कई दरगाहों में गए थे।

शौकत और हमारी दोस्ती की मिसाल पूरे शहर में दी जाती थी। कई मौकों पर कई लोग हमें भाई समझते थे। अरे भाई क्या हमारे वे मित्र भाई से कुछ ज्यादा ही थे। उनके परिवार में ऐसा कोई नाते रिश्तेदार नहीं होगा जिनके घर वे अकेले गए होंगे, और हमारे परिवार में भी ऐसा कोई रिश्तदार नहीं था जिनके घर हम शौकत के बिना गए होंगे। अगर किसी कारणवश कोई अकेला चला जाता तो सबको आश्चर्य होता था। हमारी भांजियों ने तो हम पति-पत्नी की संज्ञा तक दे रखी थी। कभी हम अकेले जाते तो वे पूछती थी कि शौकत मामी क्यों नहीं आई।

लंबे समय की दोस्ती को उस समय एक झटका लगा था जब उनका परिवार रायपुर चला आया। वैसे हमारे लिए रायपुर कोई दूर नहीं था और हम रायपुर में ही पढ़ते थे। लेकिन अब इतना मिलना नहीं हो पाता था। लेकिन हमारी दोस्ती की कशिश और किस्मत से हमें भी रायपुर के एक अखबार में काम मिल गया और हम भी यहां आ गए। लेकिन भाटापारा जैसे पुराने दिन हमारी जिंदगी में लौट के नहीं आ सके। हमने उनके घर के पास में घर भी लिया। पर काम की अधिकता ने फिर कभी इतना समय ही नहीं दिया कि हम लोग लंबे समय तक मिल बैठकर बातें कर पाते। और फिर हुआ यह कि उनकी शादी के कुछ सालों बाद उनको काम के सिलसिले में बेंगलोर जाना पड़ा और आज करीब 10 साल से हमारे वे मित्र बेंगलोर में है, अब तो फोन पर भी कभी- कभार बातें हो पाती हैं। रायपुर तो उनका आना कभी हो भी जाता है, पर हम ही कभी चाहकर बेंगलोर नहीं जा सके।

बहरहाल हमारे उन मित्र के घर से हमें अपने घर जितना ही प्यार मिला है। आज भी उनका परिवार यहां है। उनके मम्मी-पापा तो अब इस दुनिया में नहीं हंै। पर उन्होंने जीते जी हमें अपने बेटे से कम नहीं माना। हमें याद है जब उनकी मम्मी का इंतकाल हुआ था तो कब्रिस्तान में सिर्फ हमारे लिए उनका चेहरा खोला गया था ताकि हम अंतिम दर्शन कर सकें। एक तरफ हमें अपने दोस्त की मां का अंतिम संस्कार नसीब हुआ दूसरी तरफ हमें अपनी मां के अंतिम संस्कार में शामिल होना नसीब नहीं हुआ था क्योंकि हम रिपोर्टिंग करने के लिए बाहर गए थे। हमारे दोस्त शौकत के दो छोटे भाईयों आसिफ अली और शाकिर अली से भी हमारी अच्छी दोस्ती रही है। इनके और हमारे कुछ और अजीज दोस्तों की बातें अब बाद में क्योंकि हमारी पहली दोस्ती का किस्सा ही बहुत लंबा हो गया है। वैसे बातें तो इतनी हैं कि लिखा जाए तो लिखते ही रहे। पर ज्यादा क्या लिखे। आज इतना ही। अब तो बस हमारे साथ अपने दोस्त की पुरानी यादें हैं। हम आज फेंडशिप डे पर बस एक ही दुआ करते हैं कि हर किसी को जरूर जिंदगी में एक सच्चा दोस्त मिले। वैसे आज के जमाने में ऐेसा मुश्किल है, पर इतना भी मुश्किल नहीं है। कहते हैं दिल में सच्ची चाहत और लगन हो तो जरूर भगवान मिल जाता है, फिर ये तो सच्चा दोस्त है। चलिए आप भी सच्चे दिल से मांगिए तो आपको भी मिल जाएगा एक सच्चा दोस्त।


सभी मित्रों को फ्रेंडशिप डे की बहुत-बहुत बधाई।
एक दुआ है किसी का भी दोस्त किसी से जुदा न हो भाई

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