अखबारों में हिन्दी का भगवान ही मालिक
कुछ दिनों पहले किसी ब्लाग में एक अखबार की करतन के साथ यह पढऩे को मिला कि यह कैसी हिन्दी है। अखबार की जिस करतन को ब्लाग ने दिखाया था, उस छोटी सी करतन में इतनी गलतियां थीं कि सोचना पड़ता है कि वास्तव में हिन्दी के अखबार हिन्दी के साथ क्या कर रहे हैं। हमें जहां तक लगता है कि हिन्दी के साथ सबसे ज्यादा खिलवाड़ अगर आज कहीं हो रहा है तो वह अखबारों में हो रहा है। अखबारों की हिन्दी का भगवान ही मालिक है। हमको खुद अखबार में काम करते दो दशक से ज्यादा समय हो गया है, लेकिन इधर पिछले एक दशक में अखबारों में हिन्दी की ज्यादा ही दुर्गति हुई है कहा जाए तो गलत नहीं होगा।
जिन अखबारों को हिन्दी का रखवाला होना चाहिए, आज वही अखबार हिन्दी के लिए घातक साबित हो रहे हैं। हिन्दी की सबसे ज्यादा दुर्दशा तो अखबारों में ही हो रही है। हम खुद दो दशक से ज्यादा समय से पत्रकारिता कर रहे हैं, पर हमने अपनी जिंदगी में बहुत कम ऐसे संपादक और पत्रकार देखें हैं जिनकी हिन्दी अच्छी हो। आज अखबारों का जिस तरह से व्यावसायिककरण हो गया है उसके चलते नए-नए पत्रकारिता के छात्रों को ही अखबार में रखा लिया जाता है। अखबार मालिकों को अखबार निकालने से मतलब है न की हिन्दी से। अखबार में व्याकरण का ध्यान ही नहीं रखा जाता है, मात्राओं को ही हिन्दी मान लिया गया है। जिसको मात्राओं का थोड़ा सा भी ज्ञान होता है, वही अपने को हिन्दी का ज्ञानी समझने लगता है।
आज हर अखबार में बहुत ज्यादा रद्दी तरीके से लिखे समाचार रोज मिल जाएंगे। हमारी नजरों में तो हिन्दी के साथ रोज अखबार वाले ही खिलवाड़ कर रहे हैं। एक ब्लागर मित्र के एक अखबार की करतन में यह बताने का प्रयास किया कि वास्तव में अखबार में किस तरह से गलत हिन्दी का प्रयोग हो रहा है। यह तो महज एक छोटा सा उदाहरण मात्र था। आज आप किसी भी बड़े से बड़े अखबार को उठाकर देखेंगे तो आपको उसको पढऩे में शर्म आएगी कि ये कैसी हिन्दी है। एक वह समय था जब लोग अपनी हिन्दी ठीक करने के लिए अखबार पढ़ते थे, लेकिन आज के आधुनिक जमाने में अगर आप यह सोचकर अखबार पढ़ेंगे कि आपकी हिन्दी सुधर जाएगी तो उल्टे आपकी हिन्दी बिगड़ जाएगी।
हमें अखबार में दो दशक से ज्यादा समय काम करते हो गया है लेकिन हमको इस बात को मानने में कताई शर्म और झिझक नहीं है कि अखबारों की हिन्दी का भगवान ही मालिक है। इसका कारण यह है कि आज जहां अच्छे हिन्दी के जानकर पत्रकारों की कमी है, वहीं जो जानकार हैं उनको मालिक इसलिए नहीं रखना चाहते हैं कि उनको कम वेतन वाले पत्रकार चाहिए। अब आप कम पैसे खर्च करेंगे तो आपको बाजार में माल भी वैसा ही मिलेगा। हमारे कहने का मतलब यह है कि किसी भी गुणवत्ता वाली चीज के लिए तो ज्यादा पैसे लगते ही हैं अगर आपको असली की बजाए नकली सामान से काम चलाना है तो नकली सामान तो नकली जैसा ही रहेगा। अब इसमें बेचारे उस अखबार को पढऩे वाले पाठक का क्या दोष जो असली पैसे देकर असली अखबार की चाह में अखबार खरीदता है, पर उसको असली अखबार तो मिल जाता है, पर उस अखबार में असली हिन्दी नहीं मिल पाती है। ऐसे में बेचारा पाठक क्या कर सकता है। आज हर अखबार की एक ही कहानी है। हर अखबार में हिन्दी के जानकारों का टोटा है। अब इसके लिए कुछ किया ही नहीं जा सकता है। एक बात और यह कि कई अखबारों में संपादकों के पदों पर भी कई ऐसे लोग विराजमान हैं जिनकी हिन्दी का भगवान मालिक है। ऐसे में वे संपादक अपने साथ काम करने वाले हिन्दी के जानकारों की हिन्दी को गलत साबित करके अपनी हिन्दी को सही कहते हुए उनको डांट पिला देते हैं। अब एक कहावत है कि बॉस इज आलवेज राइट। अब बॉस सही कह रहा है तो भी सही है और गलत कह रहा है तो भी सही है क्योंकि वो बॉस है और बॉस कभी गलत नहीं होता है। ऐसा हम नहीं अंग्रेजी की कहावत कहती है।
हमें याद है एक घटना जब हम कुछ साल पहले एक अखबार में काम करते थे तो एक हेडिंग को लेकर हमारी संपादक से बहस हो गई थी। वो गलत हेडिंग को सही बताने पर तुले थे, हमने विरोध किया तो वे कहने लगे कि मैं प्रधान संपादक से बात करवा देता हूं। तब हमने अंत में कह दिया था कि किसी से बात करवाने की जरूरत नहीं है जनाब वैसे भी कहा जाता है कि बॉस इज आलवेज राइट। आप इस अखबार के बॉस हैं तो आप जो कह रहे हैं वो सही है। आपका अखबार है आप जो चाहें हम वही लिख देते हैं, हमारा क्या है। यह एक घटना मात्र नहीं है। ऐसा हमारे साथ कई बार हुआ है, हमने कई बार संपादक से गलत-सही के लिए पंगा लिया। लेकिन हासिल कुछ नहीं हुआ। अंत में हमें भी यह सोचकर हथियार डालने पड़े कि जब अखबार के संपादक और मालिक को ही अपने अखबार में सही और गलत हिन्दी से मतलब नहीं है तो हम लगातार अपना सर खपाकर क्यों अपनी नौकरी का खतरा मोल लें। संभवत: हमारे जैसे न जाने कितने ऐसे पत्रकार होंगे जिनको इस तरह से समझौता करना पड़ता होगा।
हम जानते हैं कि अगर कोई भी पत्रकार अखबार में गलत और सही हिन्दी के चक्कर में पड़ता है और संपादक से कुछ कहता है तो अगर हिन्दी का जानकार और समझदार संपादक होगा तो बात जरूर सुन लेगा, लेकिन अगर कोई संपादक अपने को ही ज्ञानी समझने वाला होगा तो उस पत्रकार की सामत आ जाएगी और उसको बाहर का रास्ता भी देखना पड़ सकता है। ऐसे में सही जानकार पत्रकार हिन्दी की दुर्गति होते देखकर भी इसलिए कुछ नहीं कह और कर पाते हैं क्योंकि एक तो उनकी सुनने वाला कोई नहीं है और दूसरे उनको भी अपना घर चलाना है। अगर वे सही और गलत हिन्दी के पचड़े में पड़ेंगे तो उनकी नौकरी ही पचड़े में पड़ जाएगी। अब आप खुद ही तय कर लें कि ऐसे पत्रकार क्या कर सकते हैं। अखबारों में सही हिन्दी के जानकार कम अपने को डेढ़ होशियार समझने वाले पत्रकार और संपादक ज्यादा है जो ऊंचे पदों पर बैठे हैं। ऐसे में अखबारों की हिन्दी का तो भगवान ही मालिक होगा न। इसलिए मित्र इस पचड़े में पड़े ही नहीं कि अखबार में हिन्दी के साथ क्या हो रहा है। आज के अखबार महज हिन्दी फिल्म की तरह ही मनोरंजन का साधन रह गए हैं। इसको हिन्दी का ज्ञान लेने के लिए पढऩा सही नहीं है।
14 टिप्पणियाँ:
हमने भी बहुत सिर पीटा अपने ब्लॉग पर, नतीजा क्या वही ढाक के तीन पात, ईमेल भी किये पर अंजाम वही, इन पर कोई फ़र्क नहीं पड़ने वाला क्योंकि पाठक भी वैसी ही हिन्दी पढ़ने के आदि हो गये हैं, बस हम और आप जैसे कुछ ही लोग गाहे बगाहे गरियाते रहते हैं।
आज का जमाना चाटुकारिता का है मित्र, अपने से ज्यादा जानकारों को कोई पसंद नहीं करता है। किसी संपादक को यह कैसे गंवारा हो सकता है कि उसके अधीन काम करने वाले पत्रकार को हिन्दी का अधिक ज्ञान हो।
जब देश के चौथे स्तंभ को ही राष्ट्रभाषा की कदर नहीं है, फिर बाकी के लिए क्या कहा जा सकता है।
बहुत ही दमदारी से लिखा है आपने। पत्रकारिता के पेशे में होने के बाद पत्रकारिता का सच सामने लाना बड़ी बात है।
अखबारों ने ही तो हिन्दी का कबाड़ा कर दिया है। किसी भी अखबार में आज शुद्ध हिन्दी का अभाव है।
अच्छे इंसानों की कदर तो कहीं नहीं होती है, फिर इससे मीडिया जगत कैसे अछूता रह सकता है।
अखबार पढऩे का मतलब है अपनी हिन्दी को खराब करना है।
मालिक तो हम-आप हैं। भगवान होता तो इतनी दुर्दशा न होती
मालिक तो हम-आप ही है। भगवान मालिक होता तो, ऐसी दुर्दशा थोड़े न होती
विवेक जी जैसा हमने भी खूब सिर पीटा। हर बार जवाब यही मिलता था- भावनायें समझिये, शब्दों पर क्यों जाते हैं?
अब इन्हें कौन समझाता कि भावनाएं दर्शाने के लिए तो गाली का एक शब्द ही बहुत होता है।
समाचारपत्र आजकल एक व्यवसाय हो गया है और व्यवसाय युवा समाज के भरोसे ही चलता है।
वर्षों पहले इन्दौर से निकलने वाला नईदुनिया इस मामले में एक "मानक" माना जाता था, लेकिन अब धीरे-धीरे सभी का क्षरण होता जा रहा है… अशुद्ध हिन्दी के साथ "हिंग्रेजी" शब्दों का उपयोग भी धड़ल्ले से होने लगा है, और वह भी या तो कथित "आधुनिकता" के नाम पर या फ़िर "चलता है" के नाम पर… दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है, लेकिन नई भरती जो हो रही है उनमें से लगभग सभी "फ़र्जी" हैं उनसे कोई क्या उम्मी्द करे…
बाजार ने ज्यादा कबाड़ा किया है हिंदी का. जब पैसे लेकर स्पेस बेचे जाएंगे तो पतन के अगले चरण बस कल्पना ही की जा सकती है. 11-8-09 का नई दुनिया का संपादकीय पन्ना देखें. वर्गीस साहब का लेख है पाकिस्तान से संबंधित. गलतियां इतनी कि साफ समझ आ जाए कि मामला अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद का है. ये कोई बुरी बात नहीं. अंग्रेजी की अच्छी चीजें हिंदी भाषियों को उपलब्ध करवाने में बुराई क्या है. पर उसमें हिंदी की आत्मा तो होनी चाहिए. हूबहू अंग्रेजी अनुवाद से भाषा की आत्मा ही मर जाती है. पुराने लोगों को नई पीढ़ी के पत्रकारों में इस जिम्मेदारी का बोध भरना होगा.
जिस मुल्क की राजनीति तुष्टिकरण हो उस मुल्क की राष्ट्रभाषा का दीपक गुल समझो॥
रोहन साहब सच कह रहे हैं... अपने से ज्यादा पढ़े लिखे को कोई पसंद नहीं करता, और हमारे देश में भाषा के सरलीकरण का जो तमाशा चल पड़ा है, उससे भगवान बचाए....इस सम्बन्ध में कई लोग पहले भी बहुत लिख चुके हैं | योग्यता की हत्या कैसे की जाती है, वह आप किसी उच्च पदस्थ भारतीय से सीखें.
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