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गुरुवार, नवंबर 12, 2009

राज ठाकरे को हिन्दी से नफरत क्यों?

यह बात समझ से परे हैं कि अपनी ही राष्ट्रभाषा हिन्दी से राज ठाकरे को आखिर इतनी नफरत क्यों हैं। अपनी क्षेत्रीय भाषा से कोई दीवानगी की हद तक भले प्यार करे लेकिन इसका यह मतलब तो कदापि नहीं होता है कि आप इसके एवज में राष्ट्रभाषा का लगातार अपमान करें। अगर अपनी राष्ट्रभाषा का सम्मान करना नहीं जानते हैं तो फिर आपका अपनी क्षेत्रीय भाषा के प्रति प्यार किस काम का। राज ठाकरे का मराठी प्रेम तो उसी तरह से है जैसा पाकिस्तान का अपना देश प्रेम है। पाक को जिस तरह से भारतीय हमेशा दुश्मन लगते हैं, उसी तरह से राज ठाकरे तो भी हिन्दी हमेशा से दुश्मन ही लगी है। अगर ठाकरे ने ऐसा ही प्यार हिन्दी के प्रति दिखाया होता और अंग्रेजी से नफरत करते तो उनका मान पूरे देश में होता। अब भी समय है उनको अपना रास्ता बदलकर हिन्दी का विरोध करने की बजाए अंग्रेजी का विरोध करना चाहिए।

इन दिनों पूरे देश में राज ठाकरे के मनसे विधायकों द्वारा विधानसभा में किए गए कृत्य पर बवाल मचा हुआ है। यह सोचने वाली ही नहीं बल्कि एक गंभीर बात है कि राज ठाकरे की पार्टी ये क्या कर रही है। क्यों कर हिन्दी का इतना ज्यादा विरोध किया जा रहा है। जिस अंग्रेजी भाषा का विरोध होना चाहिए, उसका विरोध करने की हिम्मत क्यों नहीं दिखा रहे हैं मनसे के लोग? हिन्दी तो अपनी राष्ट्रभाषा है फिर उससे आखिर इतनी नफरत क्यों? क्या महाराष्ट्र को एक तरह से राज ठाकरे ने पाकिस्तान बना दिया है कि यहां कोई हिन्दू कदम नहीं रख सकता है। अगर कोई कदम रखेगा तो उसका सर कलम कर दिया जाएगा। इतनी नफरत तो पाकिस्तान में भी हिन्दूओं के प्रति नहीं है जितनी नफरत मनसे में हिन्दी के प्रति नजर आती है। हिन्दी से नफरत करके आखिर क्या साबित करना चाहते हैं मनसे के लोग। क्या महाराष्ट्र को देश से अलग करने की साजिश की जा रही है? अगर नहीं तो फिर हिन्दी के प्रति यह रवैय्या क्यों है? इसका जवाब किसके पास है।

अपनी क्षेत्रीय भाषा से आप बेशक प्यार नहीं बल्कि दीवानगी की हद तक प्यार करें। लेकिन इसका यह मतलब कदापि नहीं होना चाहिए कि आप अपनी राष्ट्रभाषा का ही अपमान करते रहे। अगर आप राष्ट्रभाषा का अपमान कर रहे हैं तो फिर वंदेमातरम् का विरोध करने वालों और आप में क्या फर्क रह जाता है। फिर तो वंदेमातरम् का विरोध भी सही माना जाना चाहिए। जिस तरह से मनसे के लोगों को हिन्दी से कोई मतलब नहीं है वैसे ही मुस्लिम कौम के कुछ लोगों को वंदेमातरम् से मतलब नहीं है। ऐसे में तो एक दिन हर कोई देश की अस्मत से खिलवाड़ करने लगेगा और अपना-अपना राग अलापेगा कि उसे यह पसंद नहीं है। क्या देश की राष्ट्रभाषा, राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत अब लोगों की पसंद पर निर्भर रहेंगे? देश की अस्मत से खिलवाड़ करने वालों को बर्दाश्त करना जायज नहीं है।

अपने मनसे के लोग तो देश के संविधान और कानून से ऊपर हो गए हैं। एक तरफ राष्ट्रभाषा का अपमान करने के बाद उनके माथे पर शिकन नहीं है तो दूसरी तरफ खुले आम ऐलान किया जाता है कि अबू आजमी की सड़क पर पिटाई की जाएगी। क्या अपने देश का कानून इतना ज्यादा नपुंशक हो गया है कि खुले आम चुनौती देने वालों के खिलाफ भी कुछ नहीं किया जा सकता है। अगर यही हाल रहा तो देश में जो थोड़ा बहुत कानून बचा है, उसका भी अंत हो जाएगा और देश को अराजक होने से कोई नहीं बचा पाएगा।

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शुक्रवार, नवंबर 06, 2009

असम विधानसभा उपाध्यक्ष के हिन्दी प्रेम को सलाम


छत्तीसगढ़ के साइंस कॉलेज के मैदान में 50 हजार से ज्यादा की भीड़ है और ऐसे माहौल में मंच में आई असम विधानसभा की उपाध्यक्ष पणिती पोकन को जब बोलने के लिए माइक दिया जाता है तो वह जैसे ही अपना उद्बोधन में हिन्दी में देती है, भीड़ तालियां बजाने के लिए मजबूर हो जाती है। यह तो किसी ने सोचा भी नहीं था कि असम की एक महिला इतनी अच्छी हिन्दी बोल सकती है। वास्तव में हमें गर्व हैं हिन्दी से प्रेम करने वाले ऐसे अहिन्दी भाषीय राज्यों के लोगों से जिनको हिन्दी बोलने में शर्म नहीं बल्कि गर्व महसूस होता है।


छत्तीसगढ़ की घरा पर इन दिनों राज्योत्सव की धूम मची है। हर तरफ खुशहाली का मौहाल है। ऐसे माहौल में अचानक असम की विधानसभा उपाध्यक्ष पणिती पोकन का रायपुर आना हुआ तो उनको राज्योत्सव के कार्यक्रम में आमंत्रित किया। यहां पर उनको जब बोलने के लिए माइक थमाया गया तो सबको लगा कि यार यह तो जरूर अंग्रेजी में बोलेंगी। लेकिन उन्होंने जैसे ही हिन्दी में बोलना प्रारंभ किया। करीब 50 हजार से भी ज्यादा की भीड़ तालियां बजाए बिना नहीं रह सकी। पणिती को हिन्दी बोलते देखकर अगथा संगमा की याद आ गई जिन्होंने केन्द्रीय मंत्रिमंडल में शामिल होने पर मंत्री पद की शपथ हिन्दी में ली थी। एक तरफ हिन्दी भाषीय राज्यों के लोग हिन्दी बोलने में शर्म महसूस करते हैं तो दूसरी तरफ अहिन्दी भाषीय राज्यों के पणिती और अगाथा संगमा जैसे लोग हैं जिनको हिन्दी बोलने में गर्व महूसस होता है। ऐसे लोगों को हम सलाम करते हैं।

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मंगलवार, अगस्त 11, 2009

अखबारों में हिन्दी का भगवान ही मालिक

कुछ दिनों पहले किसी ब्लाग में एक अखबार की करतन के साथ यह पढऩे को मिला कि यह कैसी हिन्दी है। अखबार की जिस करतन को ब्लाग ने दिखाया था, उस छोटी सी करतन में इतनी गलतियां थीं कि सोचना पड़ता है कि वास्तव में हिन्दी के अखबार हिन्दी के साथ क्या कर रहे हैं। हमें जहां तक लगता है कि हिन्दी के साथ सबसे ज्यादा खिलवाड़ अगर आज कहीं हो रहा है तो वह अखबारों में हो रहा है। अखबारों की हिन्दी का भगवान ही मालिक है। हमको खुद अखबार में काम करते दो दशक से ज्यादा समय हो गया है, लेकिन इधर पिछले एक दशक में अखबारों में हिन्दी की ज्यादा ही दुर्गति हुई है कहा जाए तो गलत नहीं होगा।

जिन अखबारों को हिन्दी का रखवाला होना चाहिए, आज वही अखबार हिन्दी के लिए घातक साबित हो रहे हैं। हिन्दी की सबसे ज्यादा दुर्दशा तो अखबारों में ही हो रही है। हम खुद दो दशक से ज्यादा समय से पत्रकारिता कर रहे हैं, पर हमने अपनी जिंदगी में बहुत कम ऐसे संपादक और पत्रकार देखें हैं जिनकी हिन्दी अच्छी हो। आज अखबारों का जिस तरह से व्यावसायिककरण हो गया है उसके चलते नए-नए पत्रकारिता के छात्रों को ही अखबार में रखा लिया जाता है। अखबार मालिकों को अखबार निकालने से मतलब है न की हिन्दी से। अखबार में व्याकरण का ध्यान ही नहीं रखा जाता है, मात्राओं को ही हिन्दी मान लिया गया है। जिसको मात्राओं का थोड़ा सा भी ज्ञान होता है, वही अपने को हिन्दी का ज्ञानी समझने लगता है।

आज हर अखबार में बहुत ज्यादा रद्दी तरीके से लिखे समाचार रोज मिल जाएंगे। हमारी नजरों में तो हिन्दी के साथ रोज अखबार वाले ही खिलवाड़ कर रहे हैं। एक ब्लागर मित्र के एक अखबार की करतन में यह बताने का प्रयास किया कि वास्तव में अखबार में किस तरह से गलत हिन्दी का प्रयोग हो रहा है। यह तो महज एक छोटा सा उदाहरण मात्र था। आज आप किसी भी बड़े से बड़े अखबार को उठाकर देखेंगे तो आपको उसको पढऩे में शर्म आएगी कि ये कैसी हिन्दी है। एक वह समय था जब लोग अपनी हिन्दी ठीक करने के लिए अखबार पढ़ते थे, लेकिन आज के आधुनिक जमाने में अगर आप यह सोचकर अखबार पढ़ेंगे कि आपकी हिन्दी सुधर जाएगी तो उल्टे आपकी हिन्दी बिगड़ जाएगी।

हमें अखबार में दो दशक से ज्यादा समय काम करते हो गया है लेकिन हमको इस बात को मानने में कताई शर्म और झिझक नहीं है कि अखबारों की हिन्दी का भगवान ही मालिक है। इसका कारण यह है कि आज जहां अच्छे हिन्दी के जानकर पत्रकारों की कमी है, वहीं जो जानकार हैं उनको मालिक इसलिए नहीं रखना चाहते हैं कि उनको कम वेतन वाले पत्रकार चाहिए। अब आप कम पैसे खर्च करेंगे तो आपको बाजार में माल भी वैसा ही मिलेगा। हमारे कहने का मतलब यह है कि किसी भी गुणवत्ता वाली चीज के लिए तो ज्यादा पैसे लगते ही हैं अगर आपको असली की बजाए नकली सामान से काम चलाना है तो नकली सामान तो नकली जैसा ही रहेगा। अब इसमें बेचारे उस अखबार को पढऩे वाले पाठक का क्या दोष जो असली पैसे देकर असली अखबार की चाह में अखबार खरीदता है, पर उसको असली अखबार तो मिल जाता है, पर उस अखबार में असली हिन्दी नहीं मिल पाती है। ऐसे में बेचारा पाठक क्या कर सकता है। आज हर अखबार की एक ही कहानी है। हर अखबार में हिन्दी के जानकारों का टोटा है। अब इसके लिए कुछ किया ही नहीं जा सकता है। एक बात और यह कि कई अखबारों में संपादकों के पदों पर भी कई ऐसे लोग विराजमान हैं जिनकी हिन्दी का भगवान मालिक है। ऐसे में वे संपादक अपने साथ काम करने वाले हिन्दी के जानकारों की हिन्दी को गलत साबित करके अपनी हिन्दी को सही कहते हुए उनको डांट पिला देते हैं। अब एक कहावत है कि बॉस इज आलवेज राइट। अब बॉस सही कह रहा है तो भी सही है और गलत कह रहा है तो भी सही है क्योंकि वो बॉस है और बॉस कभी गलत नहीं होता है। ऐसा हम नहीं अंग्रेजी की कहावत कहती है।

हमें याद है एक घटना जब हम कुछ साल पहले एक अखबार में काम करते थे तो एक हेडिंग को लेकर हमारी संपादक से बहस हो गई थी। वो गलत हेडिंग को सही बताने पर तुले थे, हमने विरोध किया तो वे कहने लगे कि मैं प्रधान संपादक से बात करवा देता हूं। तब हमने अंत में कह दिया था कि किसी से बात करवाने की जरूरत नहीं है जनाब वैसे भी कहा जाता है कि बॉस इज आलवेज राइट। आप इस अखबार के बॉस हैं तो आप जो कह रहे हैं वो सही है। आपका अखबार है आप जो चाहें हम वही लिख देते हैं, हमारा क्या है। यह एक घटना मात्र नहीं है। ऐसा हमारे साथ कई बार हुआ है, हमने कई बार संपादक से गलत-सही के लिए पंगा लिया। लेकिन हासिल कुछ नहीं हुआ। अंत में हमें भी यह सोचकर हथियार डालने पड़े कि जब अखबार के संपादक और मालिक को ही अपने अखबार में सही और गलत हिन्दी से मतलब नहीं है तो हम लगातार अपना सर खपाकर क्यों अपनी नौकरी का खतरा मोल लें। संभवत: हमारे जैसे न जाने कितने ऐसे पत्रकार होंगे जिनको इस तरह से समझौता करना पड़ता होगा।

हम जानते हैं कि अगर कोई भी पत्रकार अखबार में गलत और सही हिन्दी के चक्कर में पड़ता है और संपादक से कुछ कहता है तो अगर हिन्दी का जानकार और समझदार संपादक होगा तो बात जरूर सुन लेगा, लेकिन अगर कोई संपादक अपने को ही ज्ञानी समझने वाला होगा तो उस पत्रकार की सामत आ जाएगी और उसको बाहर का रास्ता भी देखना पड़ सकता है। ऐसे में सही जानकार पत्रकार हिन्दी की दुर्गति होते देखकर भी इसलिए कुछ नहीं कह और कर पाते हैं क्योंकि एक तो उनकी सुनने वाला कोई नहीं है और दूसरे उनको भी अपना घर चलाना है। अगर वे सही और गलत हिन्दी के पचड़े में पड़ेंगे तो उनकी नौकरी ही पचड़े में पड़ जाएगी। अब आप खुद ही तय कर लें कि ऐसे पत्रकार क्या कर सकते हैं। अखबारों में सही हिन्दी के जानकार कम अपने को डेढ़ होशियार समझने वाले पत्रकार और संपादक ज्यादा है जो ऊंचे पदों पर बैठे हैं। ऐसे में अखबारों की हिन्दी का तो भगवान ही मालिक होगा न। इसलिए मित्र इस पचड़े में पड़े ही नहीं कि अखबार में हिन्दी के साथ क्या हो रहा है। आज के अखबार महज हिन्दी फिल्म की तरह ही मनोरंजन का साधन रह गए हैं। इसको हिन्दी का ज्ञान लेने के लिए पढऩा सही नहीं है।

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शुक्रवार, जुलाई 24, 2009

जनप्रनिधियों के लिए हिन्दी अविनार्य हो

हिन्दी का जिस तरह से राजनेता लगातार मजाक बना रहे हैं, उसके बाद अब यह जरूरी लगता है कि अपने देश में कम से कम ऐसा कानून बनाने की जरूरत है जिसमें जनप्रतिनिधियों के लिए हिन्दी अनिवार्य हो। जिसको हिन्दी नहीं आएगी, वह चुनाव लडऩे का ही पात्र नहीं होगा। ऐसा करने से जरूर उन अहिन्दी भाषायी राज्यों के नेताओं को परेशानी होगी, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अपने ही देश में अगाथा संगमा जैसी मंत्री भी हैं जो अहिन्दी भाषीय राज्य की होने के बाद भी हिन्दी में शपथ लेने में गर्व महसूस करती हैं। अगर आप सच्चे दिल से हिन्दुस्तानी हैं तो फिर आपको हिन्दी बोलने में कैसी शर्म। अगर आप सच में देश की सेवा करने के लिए जनप्रतिनिधि बनना चाहते हैं तो फिर हिन्दी सिखने में क्या जाता है। हिन्दी आपके काम ही आएगी। हिन्दी में आपको बोलता देखकर आपके राज्य की जनता भी आप पर गर्व ही करेगी।

संसद में एक मंत्री जयराम रमेश ने जिस तरह से हिन्दी का अपमान किया है उसके बाद यह बात जरूरी हो जाती है कि इस देश में अपने देश की सरकार को गंभीरता से सोचना चाहिए। देश के संविधान में हिन्दी न जानने वालों के लिए अंग्रेजी में बोलने की जो छूट दी गई है, उसका लगातार गलत फायदा उठाया जा रहा है और हिन्दी का अपमान करने का सिलसिला लगातार जारी है। कब तक, आखिर कब तक हिन्दी का अपमान बर्दाश्त किया जाता रहेगा। हिन्दी का अपमान करने वालों को सबक सिखाना जरूरी है। इसके लिए यह जरूरी है कि इस दिशा में पहला कदम बढ़ाने का काम केन्द्र सरकार करें। हमारा तो ऐसा मानना है कि अपने राजनेता ही हिन्दी का सबसे ज्यादा अपमान करते हैं। ऐसे में इनके लिए यह जरूरी हो जाता है कि इनको हिन्दी में बोलने के लिए बाध्य किया जाए। ये हिन्दी में बोलने के लिए बाध्य तभी होंगे जब संविधान में ऐसा कोई प्रावधान किया जाएगा। हमें ऐसा लगता है कि कम से कम जनप्रतिनिधयों के लिए तो हिन्दी को अनिवार्य कर देना चाहिए।

अगर अपने देश की विधानसभाओं के साथ संसद में ही हिन्दी से मतलब नहीं रहेगा तो फिर हिन्दी की परवाह कौन करेगा। जब संविधान बनाने वाले ही हिन्दी को हेय नजरों से देखेंगे तो फिर आम लोगों से आप कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वे राष्ट्रभाषा का मान करेंगे। जिनके हाथों में देश की कमान है, पहले तो उनको ही हिन्दी प्रेम दिखाना होगा। हिन्दी प्रेम दिखाने का काम कई मौका पर अगाथा संगमा जैसी नेताओं ने किया है। जब-जब ऐसे नेताओं ने हिन्दी प्रेम दिखाया है, उन पर सबने गर्व ही किया है। क्यों नहीं हर अहिन्दी भाषीय राज्य के नेता अगाथा संगमा का अनुशरण कर सकते हैं? इसमें कोई शर्म की बात तो नहीं है कि आप हिन्दी सिख रहे हैं या फिर हिन्दी में बोल रहे हैं। अगर कोई जापानियों, चीनियों या रूसियों को कहे कि वे अपनी भाषा में क्यों बोलते हैं तो क्या यह उचित होगा। जिस देश की जो भाषा है, उस भाषा में बोलना ही गर्व है, न कि किसी और देश की भाषा में बोलना। माना कि अपने देश में कई भाषाओं का संगम है, लेकिन इसका मतलब कदापि नहीं है कि आप उस राष्ट्रभाषा को ही भूल जाए जिसके कारण यह राष्ट्र है और इसका मान है। अंग्रेजी को सहभाषा के रूप में भारत में ही नहीं हर देश में प्रयोग में लाया जाता है, लेकिन इसका मलतब यह नहीं है कि दूसरे देश में लोग अपनी भाषा को छोड़कर अंग्रेजी के पीछे भागने लगे हैं जैसा अपने देश में हो रहा है।

कहा जाता है कि मान देने से ही मान मिलता है, अगर आप हिन्दी का मान ही नहीं करेंगे तो आपको मान कहां से मिलेगा। इतिहास गवाह है कि जब भी जिसने हिन्दी का मान किया है उसका मान बढ़ा ही न कि घटा है। अपने देश में अगाथा संगमा जैसे कई नेता हैं, वहीं कई अफसर भी हैं जो अहिन्दी भाषीय राज्यों के होने के बाद भी हिन्दी बोलने में गर्व महसूस करते हैं। अपने राज्य छत्तीसगढ़ के राज्यपाल ईएसएल नरसिम्हन हिन्दी भाषीय राज्य के न होने के बाद भी इतना अच्छी हिन्दी बोलते हैं कि उनको हिन्दी बोलते देखकर ही गर्व होता। ऐसे कई उदाहरण हैं। अगर इच्छाशक्ति हो तो किसी भी भाषा के व्यक्ति के लिए कम से कम हिन्दी कठिन नहीं हो सकती है। देश के हर नागरिक को यह संकल्प लेना चाहिए कि वह हिन्दी में बोलेगा। बेशक आप अहिन्दी भाषीय हैं, तो हिन्दी में न लिखें, पर बोलने में परेशानी नहीं होनी चाहिए। आईये आज ही संकल्प लें कि हम राष्ट्रभाषा का मान रखने के लिए न सिर्फ खुद हिन्दी में बोलेंगे बल्कि इसके लिए दूसरों को प्रेरित करने का काम करेंगे। अगर ऐसा हो जाए तो फिर कभी कोई हिन्दी का अपमान नहीं करेगा।

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गुरुवार, जुलाई 23, 2009

अंग्रेजी बोलने में समझते हैं शान-हिन्दी बोलने में लगता है अपमान

न जाने क्यों अपनी राष्ट्रभाषा की दुर्गति करने पर हर कोई आमदा नजर आता है। खासकर अपने देश के नेता और मंत्री तो लगता है हिन्दी को कुछ समझते ही नहीं हैं। इनमें इतना ज्यादा गुरूर है कि हिन्दी को नीचा दिखाने का कोई मौका नहीं गंवाना चाहते हैं। हमें तो लगता है कि इनको अंग्रेजी बोलने में ही शान महसूस होती है और हिन्दी बोलने में अपमान लगता है। अरे भाई हिन्दी से इतनी ही खींज है तो फिर क्यों रहते हैं हिन्दुस्तान में? अगर हिन्दी जानते हुए भी आप हिन्दी नहीं बोलते हैं तो यह राष्ट्रभाषा का अपमान है। ऐसे किसी भी नेता-मंत्री, अफसर या चाहे वो कोई भी हो उन पर तो देश द्रोह का मामला चलाना चाहिए। जिसे देखो हिन्दी को कमजोर समझकर उनका अपमान किए जा रहा है। इनको बोलने वाला कोई नजर ही भी नहीं आता है। अरे भाई नजर आए भी कैसे। जो लोग देश के कर्णधार बने बैठे हैं वहीं तो हिन्दी का ज्यादा अपमान कर रहे हैं।

ससंद में एक मंत्री जयराम रमेश के अंग्रेजी प्रेम ने बवाल खड़ा किया तो एक बार फिर ये कम से कम हमें तो हिन्दी का अपमान होने पर बहुत ज्यादा दर्द हुआ। न जाने क्यों कर ये नेता और मंत्री अंग्रेजी की गुलामी से आजाद होना नहीं चाहते हैं। इनको लगता है कि अगर वे हिन्दी में बोलेंगे ेतो लोग उनको कम पढ़ा लिखा समझेंगे। क्या पढ़े-लिखे होने का पैमाना अंग्रेजी ही है। अपने देश में आज से नहीं बरसों से अंग्रेजी का हौवा इस तरह से खड़ा किया गया है कि सब अंग्रेजी के मोह में फंस गए हैं। आज हर शहर और गांव में अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों की बाढ़ आ गई है। आज एक गरीब किसान हो या फिर मजदूरी करने वाला, वह भी यही सोचता है कि अपने बच्चे को अंग्रेजी में शिक्षा दिलानी है। यह एक बड़ा ही दुखद पहलू है कि जिस देश की राष्ट्रभाषा हिन्दी है वहां पर हिन्दी में अपने बच्चों को पढ़ाने की कोई नहीं सोचता है। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण भी है, और वह कारण है कि अपने देश में सरकारी के साथ निजी नौकरियों में उन्हीं को प्राथमिकता दी जाती है जिनको अंग्रेजी आती है। अब ऐसे में कोई क्या कर सकता है, एक तो अपने देश में बेरोजगारी इतनी ज्यादा है कि जिसकी कोई सीमा नहीं है। ऐसे में हिन्दी माध्मय से पढऩे वालों को नौकरी कैसे मिल सकती है। आज यही वजह है कि हर कोई चाहता है कि उनका बच्चा भी अंग्रेजी माध्यम से पढ़े ताकि उसको नौकरी मिल सके। अगर अपने देश में अंग्रेजी के स्थान पर हिन्दी पर ध्यान दिया जाता और हर नौकरी में हिन्दी को अनिवार्य माना जाता तो ऐसी स्थिति नहीं होती।

हम याद करें आज से कोई तीन दशक पहले का जमाना जब हम लोग स्कूल में पढ़ते थे, तब छठी क्लास में जाकर ए, बी, सी, डी पढऩे को मिलती थी। लेकिन आज नर्सरी के बच्चे की स्कूली किताबें देखकर सिर चकरा जाएगा। हमारा अंग्रेजी से कोई विरोध नहीं है। लेकिन हिन्दी की शर्त पर अंग्रेजी को रखा जाना नितांत गलत है। अपनी राष्ट्रभाषा को किनारे लगा कर आज अंग्रेजी को अनिवार्य इस तरह से कर दिया गया है कि लगता है कि अंग्रेजी ही हमारी राष्ट्रभाषा हो गई है। तो क्या यह अपनी राष्ट्रभाषा का अपमान नहीं है। जिसे देखो बस हिन्दी के पीछे पड़ा है नहा-धोकर। हिन्दी को लोग आज अछूता कन्या की तरह समझने लगे हैं। एक तरफ जहां अपने देश में ही हिन्दी को पराया कर दिया गया है, वहीं दूसरे कई देशों में हिन्दी को अनिवार्य कर दिया गया है। विदेशों में हिन्दी के जानकारों की पूछ-परख बढ़ गई है तो क्या यह सब अपने देश के मंत्रियों और नेताओं को नजर नहीं आता है। क्या देश के कर्णधार इससे सबक लेना जरूरी नहीं समझते हैं। हमें तो ऐसा लगता है कि जिस तरह से देश को अंग्रेजों की गुलामी से आजाद कराने के लिए लंबी लड़ाई लडऩी पड़ी थी, उसी तरह से हिन्दी को भी अंग्रेजी की गुलामी से आजाद करने की लिए एक लंबी लड़ाई की जरूरत है।

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