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गुरुवार, जुलाई 23, 2009

अंग्रेजी बोलने में समझते हैं शान-हिन्दी बोलने में लगता है अपमान

न जाने क्यों अपनी राष्ट्रभाषा की दुर्गति करने पर हर कोई आमदा नजर आता है। खासकर अपने देश के नेता और मंत्री तो लगता है हिन्दी को कुछ समझते ही नहीं हैं। इनमें इतना ज्यादा गुरूर है कि हिन्दी को नीचा दिखाने का कोई मौका नहीं गंवाना चाहते हैं। हमें तो लगता है कि इनको अंग्रेजी बोलने में ही शान महसूस होती है और हिन्दी बोलने में अपमान लगता है। अरे भाई हिन्दी से इतनी ही खींज है तो फिर क्यों रहते हैं हिन्दुस्तान में? अगर हिन्दी जानते हुए भी आप हिन्दी नहीं बोलते हैं तो यह राष्ट्रभाषा का अपमान है। ऐसे किसी भी नेता-मंत्री, अफसर या चाहे वो कोई भी हो उन पर तो देश द्रोह का मामला चलाना चाहिए। जिसे देखो हिन्दी को कमजोर समझकर उनका अपमान किए जा रहा है। इनको बोलने वाला कोई नजर ही भी नहीं आता है। अरे भाई नजर आए भी कैसे। जो लोग देश के कर्णधार बने बैठे हैं वहीं तो हिन्दी का ज्यादा अपमान कर रहे हैं।

ससंद में एक मंत्री जयराम रमेश के अंग्रेजी प्रेम ने बवाल खड़ा किया तो एक बार फिर ये कम से कम हमें तो हिन्दी का अपमान होने पर बहुत ज्यादा दर्द हुआ। न जाने क्यों कर ये नेता और मंत्री अंग्रेजी की गुलामी से आजाद होना नहीं चाहते हैं। इनको लगता है कि अगर वे हिन्दी में बोलेंगे ेतो लोग उनको कम पढ़ा लिखा समझेंगे। क्या पढ़े-लिखे होने का पैमाना अंग्रेजी ही है। अपने देश में आज से नहीं बरसों से अंग्रेजी का हौवा इस तरह से खड़ा किया गया है कि सब अंग्रेजी के मोह में फंस गए हैं। आज हर शहर और गांव में अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों की बाढ़ आ गई है। आज एक गरीब किसान हो या फिर मजदूरी करने वाला, वह भी यही सोचता है कि अपने बच्चे को अंग्रेजी में शिक्षा दिलानी है। यह एक बड़ा ही दुखद पहलू है कि जिस देश की राष्ट्रभाषा हिन्दी है वहां पर हिन्दी में अपने बच्चों को पढ़ाने की कोई नहीं सोचता है। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण भी है, और वह कारण है कि अपने देश में सरकारी के साथ निजी नौकरियों में उन्हीं को प्राथमिकता दी जाती है जिनको अंग्रेजी आती है। अब ऐसे में कोई क्या कर सकता है, एक तो अपने देश में बेरोजगारी इतनी ज्यादा है कि जिसकी कोई सीमा नहीं है। ऐसे में हिन्दी माध्मय से पढऩे वालों को नौकरी कैसे मिल सकती है। आज यही वजह है कि हर कोई चाहता है कि उनका बच्चा भी अंग्रेजी माध्यम से पढ़े ताकि उसको नौकरी मिल सके। अगर अपने देश में अंग्रेजी के स्थान पर हिन्दी पर ध्यान दिया जाता और हर नौकरी में हिन्दी को अनिवार्य माना जाता तो ऐसी स्थिति नहीं होती।

हम याद करें आज से कोई तीन दशक पहले का जमाना जब हम लोग स्कूल में पढ़ते थे, तब छठी क्लास में जाकर ए, बी, सी, डी पढऩे को मिलती थी। लेकिन आज नर्सरी के बच्चे की स्कूली किताबें देखकर सिर चकरा जाएगा। हमारा अंग्रेजी से कोई विरोध नहीं है। लेकिन हिन्दी की शर्त पर अंग्रेजी को रखा जाना नितांत गलत है। अपनी राष्ट्रभाषा को किनारे लगा कर आज अंग्रेजी को अनिवार्य इस तरह से कर दिया गया है कि लगता है कि अंग्रेजी ही हमारी राष्ट्रभाषा हो गई है। तो क्या यह अपनी राष्ट्रभाषा का अपमान नहीं है। जिसे देखो बस हिन्दी के पीछे पड़ा है नहा-धोकर। हिन्दी को लोग आज अछूता कन्या की तरह समझने लगे हैं। एक तरफ जहां अपने देश में ही हिन्दी को पराया कर दिया गया है, वहीं दूसरे कई देशों में हिन्दी को अनिवार्य कर दिया गया है। विदेशों में हिन्दी के जानकारों की पूछ-परख बढ़ गई है तो क्या यह सब अपने देश के मंत्रियों और नेताओं को नजर नहीं आता है। क्या देश के कर्णधार इससे सबक लेना जरूरी नहीं समझते हैं। हमें तो ऐसा लगता है कि जिस तरह से देश को अंग्रेजों की गुलामी से आजाद कराने के लिए लंबी लड़ाई लडऩी पड़ी थी, उसी तरह से हिन्दी को भी अंग्रेजी की गुलामी से आजाद करने की लिए एक लंबी लड़ाई की जरूरत है।

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