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शुक्रवार, जुलाई 31, 2009

ये कैसी नारी शक्ति

नारी शक्ति का लोहा तो पूरा भारत देश क्या समूचा विश्व मानता है। लेकिन इसका यह मतलब कदापि नहीं होता है कि आप अपनी इस शक्ति का गलत उपयोग करें। अरे भई शक्ति दिखाने से किसने मना किया है। लेकिन शक्ति का मतलब यह तो नहीं होता है कि आप अपनी शक्ति के कारण दूसरों को परेशान करें। अपना हक मांगने के लिए शक्ति का दिखाना जरूरी होता है, लेकिन अपनी शक्ति दिखाने के चक्कर में आप अगर हजारों लोगों को मुसीबत में डालने का काम कर रहे हैं तो फिर ये कैसी नारी शक्ति है। नारी को तो त्याग की मूर्ति के रूप में जाना जाता है। लेकिन अगर यही नारी दूसरों के लिए परेशानी का सबब बने तो इसे क्या कहा जाएगा। ऐसी ही परेशानी का सबब बनने का काम नारियों ने छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में तब किया जब आंगनबाड़ी की महिलाओं ने सरकार को अपनी शक्ति दिखाने के चक्कर में शहर के हजारों नागरिकों को परेशानी में डाल दिया। महज परेशानी में डाला होता तो भी चल जाता क्योंकि नागरिकों को परेशानी में पडऩे की आदत हो गई है, लेकिन महिलाओं ने अपनी रैली में जिस तरह का व्यवहार आम जनों के साथ किया, वह बिलकुल गलत था।

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में अपनी मांगों को लेकर आंगनबाड़ी की महिलाओं ने जोरदार रैली निकाली। यह रैली वास्तव में काबिले तारीफ थी जिसमें महिलाओं ने अपनी एकता का सबूत दिया। उनकी एकता एक मिसाल का काम करती अगर महिलाओं ने इस रैली में थोड़ी सी सावधानी बरती होती। लेकिन न जाने इन महिलाओं को यह पाठ किसने पढ़ाया था कि अपनी रैली में वे आम जनों को परेशान करने का काम करें। शायद ये महिलाएं भूल गईं थीं कि वो खुद भी आम जनों में शामिल हैं, और जिस तरह की परेशानी वो दूसरों के लिए खड़ी करने का काम कर रही हैं, वैसी परेशानी उनके साथ भी आए दिनों होती रहती हैं, लेकिन जब इंसान अपने स्वार्थ में स्वार्थी हो जाता है तो उसे किसी से कोई मतलब नहीं रहता है। ऐसा ही कुछ इन महिलाओं के साथ हुआ। इनकी रैली से सरकार को तो कोई असर नहीं पड़ा लेकिन आम जनों को जरूर परेशानी नहीं बहुत ज्यादा परेशानी का सामना करना पड़ा।

महिलाओं ने एक किलो मीटर से ज्यादा लंबी रैली में रोड़ को इस तरह से घेर लिया था कि कोई भी पैदल नहीं चल सकता था। महिलाओं ने रोड़ के दोनों किनारों से लंबी कतारें बनाई थीं। कतारें बनाना और रोड़ को इस तरह से घेरना भी बर्दाश्त किया जा सकता था, लेकिन महिलाओं ने रोड़ के किनारे से पैदल चलने वालों के साथ जिस तरह ही बदसलूकी की, वह वास्तव में दुखद रही। इन महिलाओं को इस बात से कोई मतलब नहीं था कि कोई बच्चा स्कूल जाने से वंचित रह जाए या कोई दफ्तर न जा पाए , या फिर कोई अस्पताल जा रहा हो रास्ते में ही उसका दम निकल जाए। इनको तो बस अपनी शक्ति का प्रदर्शन करना था। महिलाओं ने न सिर्फ बाइक सवारों को अपना निशाना बनाया और उनको घंटों रोके रखा बल्कि पैदल चलने वालों को धक्के मारकर गिराने का काम भी किया। हमने खुद इस रैली को काफी दूर तक देखा और देखा कि किस तरह से महिलाएं पैदल रास्ता पार करने वालों को भी न सिर्फ धक्के मार रही थीं, बल्कि उनके साथ गाली-गलौज भी कर रही थीं। पहले हमें रैली देखकर अच्छा लगा था कि चलो महिलाओं ने सरकार को जगाने के लिए अपनी जोरदार शक्ति तो दिखाई, लेकिन उनकी हरकतें देखकर सोचने पर मजबूर होना पड़ा कि आखिर ये कैसी नारी शक्ति है?

सरकार से मांगे मनवाने का आखिर ये कौन सा तरीका है? कितनी सरकारों ने ऐसी रैलियो रैलियों ने प्रभावित होकर मांगे मानी हैं। सरकारों को तो असर नहीं होता है, लेकिन आम जन जरूर परेशान हो जाते हैं। अरे भाई विरोध करने और रैली निकालने से किसने रोका है। रैली शालीनता से भी तो निकाली जा सकता है। अगर आम जनों को परेशान किए बिना ऐसी रैली निकाली जाए तो आम जनों का भी समर्थन मिल सकता है। लेकिन अगर आम जन परेशान होंगे तो वे क्यों कर ऐसी किसी रैली की मांगों का समर्थन करेंगे। अगर जन समर्थन लेकर कोई काम किया जाए तो जरूर उसका नतीजा सुखद होता है। वैसे भी आम जन क्या वीआईपी की वजह से होने वाले जाम से कम परेशान होते हैं जो आम जनों में शामिल लोग भी अब अपनी बिरादरी को परेशान करने का काम करने लगे हैं। कम से कम आम जनों में शामिल लोगों से तो यह उम्मीद जरूर की जा सकती है कि वे अपनी बिरादरी की परेशानी को समझेंगे और ऐसा कोई काम नहीं करेंगे जिससे लोग परेशान हों। लेकिन इसका क्या किया जाए कि जब आम जन अपनी मांगों के स्वार्थ में घिर जाता है तो वह वीआईपी से ऊपर हो जाता है और अपनी एकता के नशे में यह भूल जाता है कि कल को उसको भी किसी रैली में तब फंसाना पड़ सकता है जब वह अपने किसी परिजन को अस्पताल ले जा रहा हो, या फिर दफ्तर जा रहा हो या फिर अपने बच्चों को स्कूल छोडऩे जा रहा हो। इन बातों का अगर ध्यान रखा जाए तभी आपकी रैली सार्थक होगी। वरना तो आप भी वीआईपी की तरह लोगों को परेशान करते रहें और उनके कोसने और बदुवाओं के शिकार होते रहे।

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गुरुवार, जुलाई 30, 2009

बांहों का सहारा


बेसहारा जिंदगी को जब मिली तुम

हमें ऐसा लगा कोई सहारा मिला


एक अभिशाप सी थी मेरी जिंदगी

तुम्हारे प्यार से महक उठी जिंदगी

तुमने ला दिया प्यार के रास्ते पर जब

दिल के साहिल को किनारा मिला

बेसहारा जिंदगी को जब मिली तुम

हमें ऐसा लगा कोई सहारा मिला

जिंदगी तडफ़ती थी एक नजारे को

तुमने नजारों का खजाना दिया

मुस्कुराई जब-जब भी तुम

हमें भी मुस्कुराने का बहाना मिला

बेसहारा जिंदगी को जब मिली तुम

हमें ऐसा लगा कोई सहारा मिला

प्रिंस को जब किसी से प्यार न था

दिल की धड़कन का अहसास न था

हो गया जब से प्यार प्रिंस को

दिल की धड़कन का अहसास मिला

बेसहारा जिंदगी को जब मिली तुम

हमें ऐसा लगा कोई सहारा मिला


गिरते थे राहों पे ठोकरें खोकर जब हम

किसी को हाथ बढ़ाना गंवारा न था

जबसे आई तुम जिंदगी में मेरी

मुझे तुम्हारी नाजुक बांहों का सहारा मिला

बेसहारा जिंदगी को जब मिली तुम

हमें ऐसा लगा कोई सहारा मिला

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बुधवार, जुलाई 29, 2009

जंप रोप छत्तीसगढ़ के भी स्कूली खेलों में

जंप रोप को अंतत: छत्तीसगढ़ के स्कूली खेलों में भी स्थान मिल गया है। इसके लिए प्रदेश संघ ने काफी मेहनत की और मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह के साथ शिक्षा मंत्री बृजमोहन अग्रवाल के दरबार में लगातार दस्तक दी। इसका नजीता यह रहा है कि जब स्कूली खेलों के राज्य कैलेंडर को अंतिम रूप देने के लिए बैठक हुई तो शिक्षा मंत्री को इस खेल को स्कूली खेलों में शामिल करना पड़ा। जंप रोप जहां हर खेल का बेस माना जाता है, वहीं यह खेल देश के दूसरे राज्यों में शामिल हैं।


राज्य के स्कूली खेलों में जंप रोप के साथ टेनिस बॉल क्रिकेट को शामिल करने की सहमति स्कूली शिक्षा मंत्री बृजमोहन अग्रवाल ने दे दी है। इसी के साथ तीन अन्य खेलों को फिलहाल शामिल नहीं किया गया है। शिक्षा विभाग के राज्य खेलों के कैलेंडर को तय करने के साथ ही कुछ नए खेलों को राज्य स्कूली खेलों में शामिल करने के लिए शिक्षा मंत्री बृजमोहन अग्रवाल की अध्यक्षता में विधानसभा परिसर में बैठक हुई। इस बैठक में पांच नए खेलों जंप रोप के साथ टेनिस बॉल क्रिकेट, तलवारबाजी, रोल बॉल और वुशू को शामिल करने के प्रस्ताव रखे गए। इन खेलों में से दो खेलों जंप रोप और टेनिस बॉल क्रिकेट का भविष्य राज्य में अच्छा होने के जानकारी मिलने पर शिक्षा मंत्री श्री अग्रवाल ने इन दोनों खेलों को इसी सत्र से स्कूली खेलों में शामिल करने की सहमति दी है।


यहां पर यह बताना लाजिमी होगा कि जंप रोप को स्कूली खेलों में शामिल करवाने के लिए इसके प्रदेश संघ के जो मेहनत की थी उसका फल उसको मिल गया है। संघ अपने खिलाडिय़ों के साथ मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने भी मिले थे। मुख्यमंत्री को जहां यह जानकारी दी गई थी, कि यह खेल राष्ट्रीय स्कूली खेलों में शामिल हैं, वहीं उनको उन राज्यों के बारे में भी बताया गया है जिन राज्यों में यह खेल शामिल है। मुख्यमंत्री को प्रदेश के खिलाडिय़ों को राष्ट्रीय स्तर पर लगातार मिल रही सफलता से भी अवगत करा दिया गया था। मुख्यमंत्री के साथ शिक्षा मंत्री बृजमोहन अग्रवाल को भी संघ ने पहले से ही पूरी जानकारी देते हुए इस खेल को स्कूली अविलंब शामिल करने की मांग की थी। संघ ने नियमानुसार शिक्षा विभाग के पास एक प्रस्ताव भी भेजा था।

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मंगलवार, जुलाई 28, 2009

शत्रु मारते थे लड़कियों को लाइन और देते थे फाइन

फिल्म स्टार और नेता शत्रुध्न सिंहा ने खुद इस बात का खुलासा किया है कि वे अपने कॉलेज के जमाने में लड़कियों से छेड़छाड़ करते थे, जिसके कारण उनको फाइन भी देना पड़ता था। सोचने वाली बात यह है कि आज शत्रु स्टार और सांसद हैं इसलिए वे एक मंच पर इस बात को शान से बता रहे हैं कि वे लड़कियों से छेड़छाड़ करते थे, अगर उनके स्थान पर कोई आम आदमी मंच पर ऐसी किसी बात का खुलासा करे तो उसकी तो सामत ही आ जाएगी। वैसे कोई आम आदमी ऐसी हिम्मत कर भी नहीं सकता है। ये तो अपने फिल्मी सितारे ही हैं जिनमें इतनी हिम्मत है कि वे गलत कामों को भी शान ने बताते हैं कि वे ऐसा करते थे। वैसे भी जब शत्रु फिल्मों आए थे, तो उनको कोई हीरो के रूप में कोई लेना नहीं चाहता था। काफी समय तक उनकी छवि एक खलनायक की ही रही है। इस बात का खुलासा भी उन्होंने कई बार खुद किया है। बकौल शत्रु उनकी शक्ल ऐसी नहीं थी कि उनको हीरो लिया जाता। पर बाद में उन्होंने कई फिल्मों में बतौर हीरो काफी अच्छा काम किया है और आजकल बतौर नेता अच्छा काम करने के प्रयास में हैं। लेकिन वे लड़कियों से छेड़छाड़ की बात बता कर आखिर युवा पीढ़ी को क्या संदेश देना चाहते हैं इसका भी उनको खुलासा कर देना चाहिए।


एक मंच पर एक शत्रुध्न सिंहा जैसा फिल्म स्टार और सांसद यह कहता है कि वह अपने कॉलेज के जमाने में लड़कियों को छेड़ते थे और इसके लिए उन्हें २५ रुपए का जुर्माना देना पड़ता था। वे यह भी कहते हैं कि मैं उन बातों को यहां नहीं बता सकता जिसके कारण मुङो जुर्माना होता था क्योंकि यहां पर महिलाएं बैठी हैं। शत्रु जी आपको महिलाओं का इतना ही ख्याल है तो फिर आपने इस बात का खुलासा ही क्यों किया कि आप लड़कियों से छेड़छाड़ करते थे, आखिर इसके पीछे मकसद क्या है? आज जबकि आप भाजपा जैसे पार्टी के साथ जुड़े हुए हैं और संसद में जाते हैं तब आपको क्या ऐसी बात का खुलासा करना शोभा देता है जो बात समाज के लिए शर्मनाक है। कौन सा ऐसा परिवार होगा जो अपने सपूत की इस बात पर गर्व करेगा कि वह लड़कियों को छेडऩे का काम करता है। यही नहीं वह सपूत मंच पर खुलेआम इस बात को कबूल भी कर रहा है। हमें तो लगता है कि शत्रु जी को ऐसी बात करने के लिए माफी मांगनी चाहिए। उनकी मानसिकता भले हंसी वाली रही हो, लेकिन मामला बड़ी गंभीर है। किसी भी ऐसे इंसान को कभी सम्मान की नजर से नहीं देखा जा सकता है जो इंसान लड़कियों को छेडऩे का काम करता हो। समाज में ऐसे लोगों को मजनू और लुचों की संज्ञा दी जाती है। शत्रु जी के फिल्मी कैरियर के बारे में देखा जाए तो वे पहले पहल जब फिल्मों में आए थे तो कोई भी उनको बतौर नायक फिल्मों रखना नहीं चाहता था। इस बात का खुलासा उन्होंने खुद कई बार अपने साक्षात्कार में किया है। जब वे रायपुर आए थे, तब भी उन्होंने यह बात बताई थी। रायपुर में उनसे मिलने का मौका एक बार नहीं कई बार मिला है, लेकिन उनको देखकर कभी नहीं लगा कि वे कभी मजनूओं जैसी हरकतें करते रहे होंगे। बहरहाल अब जबकि उन्होंने खुद इस बात का खुलासा किया है तो उनको इस बारे में सोचना चाहिए कि वे समाज को ऐसा बता कर क्या देना चाहते हैं। क्या वे आज के युवाओं को यह बताना चाहते हैं कि लड़कियों को छेडऩा अच्छी बात है। आखिर उनके खुलासे से युवाओं को क्या सिख मिलेगी इसका खुलासा भी शत्रु जी को करना चाहिए। क्या उनको लगता है कि उनके इस खुलासे के बाद कोई उनको सम्मान की नजरों से देखना पसंद करेगा।

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सोमवार, जुलाई 27, 2009

भईया व्यापार की कांफ्रेंस हो तो जरूर बताना

क्राइम रिपोर्टरों के सच को उजागर करने के बाद एक बेनामी मित्र ने साथ प्रणव जी ने कह दिया कि खाली क्राइम रिपोर्टरों के पीछे क्यों पड़े हैं, क्या दूसरे रिपोर्टर साहूकार हैं। मित्रों कोई भी रिपोर्टर साहूकार हैं यह हम नहीं कह सकते हैं, और न ही हम यह कह सकते हैं कि सारे रिपोर्टर दलाल या फिर और कुछ हैं। हम जब खुद इस पेशे में हैं तो हमें तो कम से कम मालूम है कि कौन कितना ईमानदार है। वैसे ईमानदार तो आज के जमाने में कोई नजर नहीं आता है। फिर भी ईमानदारी जिंदा है। बहरहाल जब कुछ मित्रों ने दूसरे रिपोर्टरों की बात की है तो चलो रिपोर्टरों की गिफ्ट लेने वाली कौम का भी जिक्र कर लिया जाए। हम छत्तीसगढ़ की बात करें तो यहां पर गिफ्ट मिलने वाली कांफ्रेंस व्यापार की होती। इस तरह की कांफ्रेंस का बहुत से पत्रकार मित्रों को बेताबी से इंतजार रहता है। अक्सर गिफ्ट की चाह रखने वाले मित्र दूसरे पत्रकारों से कहते नजर आते हैं कि भईया व्यापार की कांफ्रेंस हो तो हमें भी जरूर बताना। फिर भले उस कांफ्रेंस में उस अखबार के बंदे को न बुलाया हो, लेकिन लोग व्यापार की कांफ्रेंस के नाम से टूट पड़ते हैं। अब व्यापार की कांफ्रेंस करवाने वाले भी पत्रकारों की औकात समझ गए हैं। ऐसे में या तो वे गिफ्ट देते ही नहीं हैं और देते हैं तो सौ-पचास रुपए वाला गिफ्ट थमा देते हैं, या फिर जिन रिपोर्टरों से उनको संबंध बनाकर रखने होते हैं, उनके घर भी भिजवा देते हैं गिफ्ट।


आज पत्रकारों की कौम बहुत ज्यादा बदनाम हो गई है। पुलिस की दारू, नेताओं और अफसरों के लिफाफे से लेकर व्यापार की कांफ्रेंस के गिफ्ट को लेकर पत्रकार एक तरह से कटघरे में खड़े हैं। व्यापार की कांफ्रेंस के बारे में अक्सर प्रेस क्लब में यह सुनने को मिलता है कि जूनियर रिपोर्टर जिनको व्यापार की प्रेस कांफ्रेस में बुलावा नहीं आता है, वे अक्सर बड़े अखबारों के व्यापार के रिपोर्टरों के सामने गिड़गिड़ाते नजर आते हैं और उनसे फरियाद करते हैं कि भईया हमें भी तो बता दिए करें व्यापार की कांफ्रेंस के बारे में। व्यापार की कांफ्रेंस का आयोजन ज्यादातर विज्ञापन एजेंसी वाले करवाते हैं। उनको मालूम रहता है कि किन अखबारों के रिपोर्टरों को बुलवाना है। ऐसे में जब भी कोई क्रांफेंस किसी होटल में होती है तो एजेंसी वाले उस कंपनी के आदेश के मुताबिक ही मुख्य चार-पांच समाचार पत्रों के व्यापार प्रतिनिधियों को ही आमंत्रण देते हैं। लेकिन व्यापार की कांफ्रेंस की चाह में घात लगाए बैठे गिफ्ट के भूखे पत्रकारों को पता चल ही जाता है और वे बिन बुलाए मेहमान की तरह पहुंच जाते हैं, वहां पर। अब अगर कोई बिन बुलाए आ जाए और वह भी पत्रकार तो फिर भला उनको बाहर का रास्ता दिखाने की हिम्मत कौन सी कंपनी वाले कर सकते हैं। उनको भी मालूम है कि भले है वह एक मामूली अखबार का रिपोर्टर पर उसे अगर गिफ्ट नहीं मिला तो वह जरूर ऐसा कुछ छापने के परहेज नहीं करेगा जिससे उस कंपनी की साख पर बट्टा लग सकता है। ऐसे में बेचारे कंपनी वाले मन मारकर ऐसे बिन बुलाए रिपोर्टरों को भी ससम्मान बुलाते हैं। लेकिन अब कंपनी वालों को भी यह बात अच्छी तरह से समझ में आ गई है कि गिफ्ट के भूखे बिन बुलाए मेहमानों की कमी नहीं है। ऐसे में या तो कंपनी वाले गिफ्ट देते ही नहीं है और होटल में बुलाकर नाश्ते -चाय में निपटा देते हैं, अगर गिफ्ट देना भी रहा तो सौ पचास रुपए का गिफ्ट दे देते हैं। बाहर की कंपनियों की नजरों में पत्रकारों की इतनी ही औकात है। अगर पत्रकारों की औकात आज सौ-पचास रुपए की है तो इसके लिए जिम्मेदार भी पत्रकार हैं जिनको अपनी कीमत मालूम नहीं है।


न जाने क्यों लोग सौ-पचास रुपए के गिफ्ट के पीछे भागते हैं और पत्रकारों की पूरी कौम को बदनाम करने का काम करते हैं। क्या पत्रकारिता में इसलिए आए हैं कि आप गिफ्ट ले और पत्रकारों की कौम को बदनाम करें। बंद होनी चाहिए ऐसी वाहियात हरकतें जिसके कारण पूरी पत्रकार कौम आज बदनाम हो रही है। कई मौका पर हम लोगों को बहुत ही शर्म आती है कि कहां हम लोग फंस गए हैं यार। न जाने आज के पत्रकार किस मिट्टी के बने हैं जो बेशर्मों की तरह बिन बुलाए कहीं भी मुंह उठाए चले जाते हैं। अगर मुफ्त के माल की इतनी ही ज्यादा तरकार है तो ऐसे लोगों को ेसड़क पर कटोरा लेकर खड़े हो जाना चाहिए, कम से कम पत्रकारों की कौम तो बदनाम होने से बच जाएगी। लेकिन क्या किया जाए ये लोग ऐसा करने वाले नहीं है।
आखिर किस-किस को कितना समझाया जाए कि अपने कलम की ताकत को पहचानो और मत बेचों इसको चंद सिक्कों के बदले में। मगर समझने वाला कौन है। हमें तो लगता है कि इनको समझाने का मतलब है पत्थरों में सिर फोडऩा। यही वजह रही है कि अपनी कौम के बारे में लिखने से हम कतराते हैं, क्योंकि हम जानते हैं कि जब हम कड़वा सच लिखने बैठेंगे तो जहां लिखने के लिए बहुत कुछ हैं, वहीं इस सच्चाई को हजम करने वाला कोई नहीं है। यह तो एक प्रसंग निकला तो सोचा चलो अब लिख ही दिया जाए। आगे और ऐसे प्रसंग सामने आते रहें तो हम जरूर लिखेंगे फिर चाहे किसी को कितना ही बुरा लगे तो लगता रहे।

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रविवार, जुलाई 26, 2009

रक्षक ही बना भक्षक

अचानक

राह के मध्य

भीड़ का हुजूम देखकर

उत्सुकतावश

हम उस और चल पड़े

देखा, नजारा बड़ा अजीब था

एक भयानक शक्ल-सूरत वाला गुंडा

एक असहाय अबला पर जोर आजमा रहा था

शायद उसे कहीं अपने साथ ले जाकर मनमानी करना चाहता था

वह अबला


आंसू भरी आंखों से

मदद की फरियाद कर रही थी


पर, भीड़ बिना टिकट का तमाशा देखने में लीन थी

अचानक

एक पुलिस वाला उधर आ निकला

उसने गुंडे को डरा-धमकाकर

कुछ ले-देकर चलता किया

फिर उस अबला को लेकर थाने की और चल पड़ा

हमारा कवि मन

अबला का हाल जानने के लिए उसके पीछे चल पड़ा

पुलिस वाला

अबला को लेकर थाने में घुस गया

हम बाहर खड़े काफी देर तक इंतजार करते रहे

अचानक

वह अबला थाने से दौड़ती हुई बाहर आई

और

वह उस ओर दौड़ी जिस तरफ रेलवे की लाइन थी

हम उसका इरादा भांप

उसके पीछे भागे

पर, हमें उस तक पहुंचने में कुछ देर हो गई

और, वह अबला अपने मकसद में कामयाब हो गई

ट्रेन के नीचे आकर वह इस दुनिया से कूच कर गई

लेकिन

उसके फटे कपड़े अब भी उसके साथ हुए

अत्याचार की कहानी बता रहे थे

और उसकी लाश के टुकड़े

कानून के रक्षकों के हंसी उड़ा रहे थे

(पटना की घटना को देखते हुए हमें यह बरसों पुरानी लिखी कविता याद आई जिसे हमने यहां पेश किया है)

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क्राइम रिपोर्टर या पुलिस के दलाल

मीडिया में इस समय क्राइम रिपोर्टिंग करने वाले रिपोर्टरों की छवि बिलकुल ठीक नहीं है। इनको एक तरह से पुलिस का दलाल कहा जाने लगा है। एक वह समय था जब क्राइम रिपोर्टर से पुलिस वाले खौफ खाते थे, लेकिन आज के क्राइम रिपोर्टरों में दम ही नहीं है कि वे पुलिस के खिलाफ कुछ लिख सकें। अगर वे ऐसा कुछ करते हैं तो उनको डर रहता है कि उनको खबरें ही नहीं मिलेंगी। इसी के साथ उनको यह भी डर रहता है कि अगर उनको किसी को छुड़ाना होगा तो पुलिस वाले उनकी बात नहीं सुनेंगे और उनकी दलाली बंद हो जाएगी। कुल मिलाकर आज के क्राइम रिपोर्टर रिपोर्टिंग नहीं पुलिस का रोजनामचा लिख रहे हैं और उनकी दलाली कर रहे हैं।

आज एक अखबार में अनारा गुप्ता वाले मामले में एक लेख पढऩे को मिला। वास्तव में इस लेख में जिस तरह से क्राइम रिपोर्टरों के बारे में लिखा गया था, वह सौ फीसदी सच है। आज के क्राइम रिपोर्टर सच में पुलिस के पीछे चलने वाले गुलाम से ज्यादा कुछ नहीं हैं। आज किसी क्राइम रिपोर्टर की अपनी कोई सोच नहीं रह गई है। पुलिस वाले जो उनको बता देते हैं, वही उनके लिए खबर है। कोई भी किसी खबर पर मेहनत ही नहीं करना चाहता है। आज कल तो कम से कम अपने छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में यह परंपरा हो गई है कि शाम को रोज पुलिस कंट्रोल रूम में सारे अखबारों के रिपोर्टरों को बुलाया जाता है और चाय की चुश्कियों के बीच उनको दिन भर में हुई घटनाओं का एक-एक पर्चा थमा दिया जाता है। रिपोर्टर वो पर्चा लेकर आ जाते हैं और वही सब बातें लिख देते हैं जो पुलिस अपने रोजनामचे में लिखती है। किसी रिपोर्टर की किसी घटना में थोड़ी से रूचि होती है तो वह उसके बारे में कुछ विस्तार से जानने का प्रयास करता है, पर यह विस्तार ऐसा नहीं होता है जिससे यह लगे कि रिपोर्टर पुलिस से एक कदम आगे की जानकारी रखता है।

हमें याद है जब हम लोग आज से करीब दो दशक पहले क्राइम रिपोर्टिंग करते थे। यह तो वह जमाना था जब न तो मोबाइल की सुविधा थी और न ही कोई दूसरी। फिर भी हम लोगों का नेटवर्क इतना तगड़ा था कि कोई भी घटना होते ही प्रेस में या फिर घर पर फोन आ जाता था और हम सीधे कूच कर जाते थे घटना स्थल की और ताकि देख सकें कि वास्तव में माजरा क्या है। घटना को देखने के बाद पुलिस से जो जानकारी मिलती थी वो और खुद हम जो जानकारी एकत्रित करते थे, वो मिलाकर खबर बनाते थे। कई मौका पर ऐसा हुआ कि पुलिस को हमारी जानकारी के आधार पर जांच करने में सफलता मिली। हमें आज भी याद है जब हमने राजीव गांधी के हत्यारे शिवरासन के बारे में खबर प्रकाशित की थी, तो उस खबर पर 8 पुलिस वाले निलंबित हो गए थे। इस खबर के बारे में हम पहले काफी विस्तार से लिख चुके हैं। हमने अपने शहर में अनिल पुसदकर जैसे भी क्राइम रिपोर्टर देखें हैं जिनके लेखन से हमेशा पुलिस में दहशत रही है। क्या उनको कभी किसी पुलिस वाले ने खबर न बताने की हिम्मत की? अनिल जी भी इसलिए दमदारी से लिखते थे कि उनको कोई पुलिस ने पैसे तो खाने नहीं रहते थे, न ही अपना कोई काम करना रहता था। हमें याद है कि हम जब क्राइम रिपोर्टिंग करते थे तो हम कभी भी किसी थाने में जाकर किसी थाने के प्रभारी के पास जाकर नहीं बैठे। हमारी दोस्ती सिपाहियों से ज्यादा रही। असल में खबरें बताने का काम यही करते हैं।

आज के क्राइम रिपोर्टरों की बात करें तो कोई भी रिपोर्टर एसपी से नीचे की बात नहीं करता है। एसपी अगर खबरें बताने लगे तो उनका ही निकाला हो जाएगा पुलिस विभाग से। एसपी तो बस आपको चाय पिला सकते हैं। और आज के रिपोर्टर सुबह को चाय और शाम को ठंड़ी चाय के आदि हो गए हैं। खबरें मिलती हैं कि एक ढाबे में एक आला अधिकारी क्राइम रिपोर्टरों को काकटेल पार्टी दे रहे हैं। यह सब रूटीन है, अगर आप क्राइम रिपोर्टर हैं और पीने का शौक रखते हैं तो आप भी आमंत्रित हैं, काकटेल पार्टी में। अब जनाब आप पुलिस वालों की दारू पिएंगे और उनका खाना खाएंगे तो फिर उनके खिलाफ लिखेंगे कैसे? लिखेंगे तो आप वही न जो पुलिस वाले बताएंगे। आपके अपने सोर्स तो ऐसे हैं नहीं कि आपको पुलिस वालों से ज्यादा जानकारी मिल सके। अगर ऐसे सोर्स रखने का दम आपमें है, तो जरूर पुलिस वाले भी आपके आगे-पीछे घुमेंगे। आज स्थिति यह है कि आज किसी रिपोर्टर को पुलिस से कोई जानकारी चाहिए होती है तो वह पुलिस वालों के आगे-पीछे कई दिनों तक घुमता है तब जाकर जानकारी मिलती है। कारण साफ है, आपकी नीयत और काम करने का तरीका दोनों साफ नहीं है। आप में अगर दम है तो पुलिस का कोई भी आला अफसर आपके एक इशारे पर सारा काम छोड़कर आपके द्वारा मांगी गई जानकारी हाजिर कर देगा। लेकिन पुलिस वाले जानते हैं कि आज के रिपोर्टरों में दम नहीं है। ऐसे में वे आपकी क्यों सुनने लगे।

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शनिवार, जुलाई 25, 2009

नेताओं को सुरक्षा क्या मौत से बचा लेगी?

अपने देश के नेताओं को आम जनता से कोई लेना-देना नहीं है। उनको तो बस अपनी सुरक्षा की पड़ी है। अरे भाई ऐसा काम ही क्यों करते हो कि इतने दुश्मन हो गए हैं आपके कि आपको कदम-कदम पर सुरक्षा की जरूरत पड़ती है। जिसे देखो उसे जेड़ प्लस सुरक्षा की दरकार लगती है। लेकिन सोचने वाली बात यह है कि क्या सुरक्षा इस बात की गारंटी है कि नेताजी की मौत नहीं होगी? जब देश के पूर्व प्रधानमत्रियों श्रीमती इंदिरा गांधी और राजीव गांधी को भी सुरक्षा मौत से नहीं बचा सकी, तो फिर कैसे बाकी लोग अपनी किस्मत में लिखी मौत से बच सकते हैं। जब मौत आनी है तो आएगी ही, तो फिर क्यों देश की जनता के धन का दुरुपयोग नेताओं की सुरक्षा में किया जाए। इनकी सुरक्षा के एवज में तो जनता को लाठियां भी खानी पड़ती हैं। लगता है कि अपने देश के नेताओं को सुरक्षा के लिए अगर जनता से भिक्षा भी मंगवानी पड़ी तो वे बाज नहीं आएंगे। वैसे भी नेताओं के सामने जनता की औकात भिखारियों से ज्यादा कुछ नहीं है। जिनको हम लोग जनप्रतिनिधि बनाकर मंत्री की कुर्सी पर बिठाते हैं उनके पास ही हमारी समस्याओं के लिए समय नहीं रहता है। तो ऐसे में जनता भिखारी हुई कि नहीं जो मंत्रियों के दरबार में जाकर अपने छोटे से काम के लिए फरियाद करती है और मंत्री जी खुश हुए तो भीख में दे देते हैं, काम करवाने का आश्वासन। ये महज आश्वासन की भीख ही होती है, काम की गारंटी की नहीं।

देश की सबसे बड़ी संसद में नेताओं की सुरक्षा के मामले में सरकार के हारने की खबर के बाद एक बार फिर से नेताओं की सुरक्षा को लेकर सवाल खड़ा हो गया कि आखिर नेताओं को इतनी ज्यादा सुरक्षा की जरूरत क्यों पड़ती है? क्यों नहीं सारे नेताओं की सुरक्षा को हटा दिया जाता है। क्या किसी को आज तक सुरक्षा मौत से बचा सकी है। क्या देश के पूर्व प्रधानमंत्रियों श्रीमती इंदिरा गांधी
और
राजीव गांधी को सुरक्षा नहीं दी गई थी। लेकिन उनकी मौत हो गई। किस तरह से इंदिरा गांधी को उनके ही सुरक्षा सैनिकों से मार गिराया था, यह बात सब जानते हैं। इसी तरह से राजीव गांधी का क्या हाल हुआ था, बताने की जरूरत नहीं है। तो जब सुरक्षा मौत से बचने की गारंटी है ही नहीं तो फिर क्यों देश की जनता के खून -पसीने की कमाई को मुफ्त में ऐसे नेताओं की सुरक्षा में बर्बाद किया जाता है, जिन नेताओं को अपने स्वार्थ के आगे कुछ नहीं दिखता है। क्या नेताओं ने कभी भी जनता की उन परेशानियों की तरफ ध्यान दिया है जो परेशानिया उनकी सुरक्षा को लेकर होती हैं। जब भी कोई वीआईपी किसी भी शहर में जाता है तो वहां की जनता उनकी सुरक्षा को लेकर किए जाने वाले इंतजाम से किस तरह से परेशान रहती है, बताने की जरूरत नहीं है।


एक तरफ नेताओं की सुरक्षा को लेकर आमजन परेशान रहते हैं तो दूसरी तरफ आमजनों की किसी भी परेशानी से नेताओं को कोई मतलब नहीं रहता है। अगर आपके शहर, कालोनी में कोई भी परेशानी है तो नेताजी को इसके लिए समय ही नहीं है। हाल ही में राजधानी की एक कालोनी में आवास मंत्री राजेश मूणत एक भवन का उद्घाटन करने गए थे, तो वहां पर कालोनी की महिलाएं उनके सामने अपनी समस्याएं लेकर पहुंचीं, तो मंत्री जी के पास उनकी समस्याएं सुनने के लिए समय ही नहीं था। लगातार अनुरोध के बाद भी जब मंत्री जी कालोनी का मुआयना करने के लिए तैयार नहीं हुए तो वहां पर उपस्थित एक लड़की को बहुत ज्यादा गुस्सा आ गया और वह भिड़ गर्इं मंत्री के साथ। मंत्री को उस लड़की ने इतनी ज्यादा खरी-खोटी सुनाई कि मंत्री भी पानी-पानी हो गए। मंत्री को उस लड़की ने यहां तक कह दिया कि आपके पास फीता काटने के लिए समय है, पर कालोनी की समस्याओं को देखने के लिए समय नहीं है।

वास्तव में यह शर्मनाक है कि जिन मंत्री को जनता वोट देकर इस लायक बनाती है कि वह मंत्री की कुर्सी पर बैठ सकें, वही मंत्री कुर्सी पाने के बाद उसी जनता की समस्याओं से ही नहीं बल्कि उनसे भी किनारा कर लेते हैं। दाद देनी होगी उस लड़की की हिम्मत की जिसने बिना यह सोचे राजेश मूणत जैसे मंत्री से भिडऩे का काम किया कि उनके चंगु-मंगु उस लड़की का कुछ भी कर सकते हैं। जब उस लड़की ने मंत्री को झाड़ा तो वहां पर उपस्थित मंत्री की चमची एक महिला ने लड़की को चुप करवाने की बहुत कोशिश की, पर वाह रे लड़की उसने किसी की बात नहीं सुनी। जिस लड़की ने मंत्री तक को फटकार दिया, उस लड़की का कालोनी वालों ने साथ नहीं दिया और यह कहने लगे कि तुम्हारी वजह से देखना अब कालोनी का काम नहीं होगा। लेकिन हुआ इसके उल्टा दूसरे दिन ही कालोनी का नालियां की सफाई होने लगी। आज वास्तव में ऐसी ही साहसी लड़कियों की जरूरत है जो राजेश मूणत जैसे हर मंत्री को सबक सिखाने का काम कर सकें।

जब तक नेता और मंत्रियों को जनता सबक सिखाने का काम नहीं करेगी, ये लोग अपने को जनता का अन्नदाता समझने की भूल करते रहेंगे। क्यों नहीं इनकी सुरक्षा वापस लेने के लिए आंदोलन किए जाते हैं? क्यों नहीं इनकी सुरक्षा को लेकर होने वाली परेशानियों को लेकर मोर्चा निकाला जाता है? अगर हम लोग आज भी नहीं सुधरे तो एक दिन ऐसा भी आ सकता है जब नेताओं की सुरक्षा के लिए जनता को भीख मांगनी पड़ जाए। बहुत हो गई नेता और मंत्रियों की गुलामी अब इससे आजाद होने के लिए एक अलख जगाने की जरूरत है। संसद में नेता सुरक्षा को लेकर सरकार को घेरते हैं और अपनी सरकार भी ऐसे है कि उनके सामने झूक जाती है। अब सरकार को तो झूकना ही है क्योंकि सरकार में भी तो ऐसे ही स्वार्थी मंत्री भरे पड़े हैं। न जाने अपने इस देश का क्या होगा।

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शुक्रवार, जुलाई 24, 2009

चलो सिंग लड़ाए-चलो सिंग लड़ाए हम..







हम जब कल रात को अपनी दैनिक हरिभूमि प्रेस के पास चाय पीने के लिए गए तो देखा दो सांड आपस में चलो सिंग लड़ाए-चलो सिंग लड़ाए हम का खेल, खेल रहे हैं। ऐसे में हमने तत्काल अपने फोटोग्राफर मनोज साहू को फोन किया और उनको इन दृश्यों को कैमरे में कैद करने को कहा। वैसे भी काफी कम ऐसे मौके आते हैं जब सांड रोड़ में इस तरह से मोहब्बत से लड़ते नजर आते हैं।

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जनप्रनिधियों के लिए हिन्दी अविनार्य हो

हिन्दी का जिस तरह से राजनेता लगातार मजाक बना रहे हैं, उसके बाद अब यह जरूरी लगता है कि अपने देश में कम से कम ऐसा कानून बनाने की जरूरत है जिसमें जनप्रतिनिधियों के लिए हिन्दी अनिवार्य हो। जिसको हिन्दी नहीं आएगी, वह चुनाव लडऩे का ही पात्र नहीं होगा। ऐसा करने से जरूर उन अहिन्दी भाषायी राज्यों के नेताओं को परेशानी होगी, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अपने ही देश में अगाथा संगमा जैसी मंत्री भी हैं जो अहिन्दी भाषीय राज्य की होने के बाद भी हिन्दी में शपथ लेने में गर्व महसूस करती हैं। अगर आप सच्चे दिल से हिन्दुस्तानी हैं तो फिर आपको हिन्दी बोलने में कैसी शर्म। अगर आप सच में देश की सेवा करने के लिए जनप्रतिनिधि बनना चाहते हैं तो फिर हिन्दी सिखने में क्या जाता है। हिन्दी आपके काम ही आएगी। हिन्दी में आपको बोलता देखकर आपके राज्य की जनता भी आप पर गर्व ही करेगी।

संसद में एक मंत्री जयराम रमेश ने जिस तरह से हिन्दी का अपमान किया है उसके बाद यह बात जरूरी हो जाती है कि इस देश में अपने देश की सरकार को गंभीरता से सोचना चाहिए। देश के संविधान में हिन्दी न जानने वालों के लिए अंग्रेजी में बोलने की जो छूट दी गई है, उसका लगातार गलत फायदा उठाया जा रहा है और हिन्दी का अपमान करने का सिलसिला लगातार जारी है। कब तक, आखिर कब तक हिन्दी का अपमान बर्दाश्त किया जाता रहेगा। हिन्दी का अपमान करने वालों को सबक सिखाना जरूरी है। इसके लिए यह जरूरी है कि इस दिशा में पहला कदम बढ़ाने का काम केन्द्र सरकार करें। हमारा तो ऐसा मानना है कि अपने राजनेता ही हिन्दी का सबसे ज्यादा अपमान करते हैं। ऐसे में इनके लिए यह जरूरी हो जाता है कि इनको हिन्दी में बोलने के लिए बाध्य किया जाए। ये हिन्दी में बोलने के लिए बाध्य तभी होंगे जब संविधान में ऐसा कोई प्रावधान किया जाएगा। हमें ऐसा लगता है कि कम से कम जनप्रतिनिधयों के लिए तो हिन्दी को अनिवार्य कर देना चाहिए।

अगर अपने देश की विधानसभाओं के साथ संसद में ही हिन्दी से मतलब नहीं रहेगा तो फिर हिन्दी की परवाह कौन करेगा। जब संविधान बनाने वाले ही हिन्दी को हेय नजरों से देखेंगे तो फिर आम लोगों से आप कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वे राष्ट्रभाषा का मान करेंगे। जिनके हाथों में देश की कमान है, पहले तो उनको ही हिन्दी प्रेम दिखाना होगा। हिन्दी प्रेम दिखाने का काम कई मौका पर अगाथा संगमा जैसी नेताओं ने किया है। जब-जब ऐसे नेताओं ने हिन्दी प्रेम दिखाया है, उन पर सबने गर्व ही किया है। क्यों नहीं हर अहिन्दी भाषीय राज्य के नेता अगाथा संगमा का अनुशरण कर सकते हैं? इसमें कोई शर्म की बात तो नहीं है कि आप हिन्दी सिख रहे हैं या फिर हिन्दी में बोल रहे हैं। अगर कोई जापानियों, चीनियों या रूसियों को कहे कि वे अपनी भाषा में क्यों बोलते हैं तो क्या यह उचित होगा। जिस देश की जो भाषा है, उस भाषा में बोलना ही गर्व है, न कि किसी और देश की भाषा में बोलना। माना कि अपने देश में कई भाषाओं का संगम है, लेकिन इसका मतलब कदापि नहीं है कि आप उस राष्ट्रभाषा को ही भूल जाए जिसके कारण यह राष्ट्र है और इसका मान है। अंग्रेजी को सहभाषा के रूप में भारत में ही नहीं हर देश में प्रयोग में लाया जाता है, लेकिन इसका मलतब यह नहीं है कि दूसरे देश में लोग अपनी भाषा को छोड़कर अंग्रेजी के पीछे भागने लगे हैं जैसा अपने देश में हो रहा है।

कहा जाता है कि मान देने से ही मान मिलता है, अगर आप हिन्दी का मान ही नहीं करेंगे तो आपको मान कहां से मिलेगा। इतिहास गवाह है कि जब भी जिसने हिन्दी का मान किया है उसका मान बढ़ा ही न कि घटा है। अपने देश में अगाथा संगमा जैसे कई नेता हैं, वहीं कई अफसर भी हैं जो अहिन्दी भाषीय राज्यों के होने के बाद भी हिन्दी बोलने में गर्व महसूस करते हैं। अपने राज्य छत्तीसगढ़ के राज्यपाल ईएसएल नरसिम्हन हिन्दी भाषीय राज्य के न होने के बाद भी इतना अच्छी हिन्दी बोलते हैं कि उनको हिन्दी बोलते देखकर ही गर्व होता। ऐसे कई उदाहरण हैं। अगर इच्छाशक्ति हो तो किसी भी भाषा के व्यक्ति के लिए कम से कम हिन्दी कठिन नहीं हो सकती है। देश के हर नागरिक को यह संकल्प लेना चाहिए कि वह हिन्दी में बोलेगा। बेशक आप अहिन्दी भाषीय हैं, तो हिन्दी में न लिखें, पर बोलने में परेशानी नहीं होनी चाहिए। आईये आज ही संकल्प लें कि हम राष्ट्रभाषा का मान रखने के लिए न सिर्फ खुद हिन्दी में बोलेंगे बल्कि इसके लिए दूसरों को प्रेरित करने का काम करेंगे। अगर ऐसा हो जाए तो फिर कभी कोई हिन्दी का अपमान नहीं करेगा।

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गुरुवार, जुलाई 23, 2009

अंग्रेजी बोलने में समझते हैं शान-हिन्दी बोलने में लगता है अपमान

न जाने क्यों अपनी राष्ट्रभाषा की दुर्गति करने पर हर कोई आमदा नजर आता है। खासकर अपने देश के नेता और मंत्री तो लगता है हिन्दी को कुछ समझते ही नहीं हैं। इनमें इतना ज्यादा गुरूर है कि हिन्दी को नीचा दिखाने का कोई मौका नहीं गंवाना चाहते हैं। हमें तो लगता है कि इनको अंग्रेजी बोलने में ही शान महसूस होती है और हिन्दी बोलने में अपमान लगता है। अरे भाई हिन्दी से इतनी ही खींज है तो फिर क्यों रहते हैं हिन्दुस्तान में? अगर हिन्दी जानते हुए भी आप हिन्दी नहीं बोलते हैं तो यह राष्ट्रभाषा का अपमान है। ऐसे किसी भी नेता-मंत्री, अफसर या चाहे वो कोई भी हो उन पर तो देश द्रोह का मामला चलाना चाहिए। जिसे देखो हिन्दी को कमजोर समझकर उनका अपमान किए जा रहा है। इनको बोलने वाला कोई नजर ही भी नहीं आता है। अरे भाई नजर आए भी कैसे। जो लोग देश के कर्णधार बने बैठे हैं वहीं तो हिन्दी का ज्यादा अपमान कर रहे हैं।

ससंद में एक मंत्री जयराम रमेश के अंग्रेजी प्रेम ने बवाल खड़ा किया तो एक बार फिर ये कम से कम हमें तो हिन्दी का अपमान होने पर बहुत ज्यादा दर्द हुआ। न जाने क्यों कर ये नेता और मंत्री अंग्रेजी की गुलामी से आजाद होना नहीं चाहते हैं। इनको लगता है कि अगर वे हिन्दी में बोलेंगे ेतो लोग उनको कम पढ़ा लिखा समझेंगे। क्या पढ़े-लिखे होने का पैमाना अंग्रेजी ही है। अपने देश में आज से नहीं बरसों से अंग्रेजी का हौवा इस तरह से खड़ा किया गया है कि सब अंग्रेजी के मोह में फंस गए हैं। आज हर शहर और गांव में अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों की बाढ़ आ गई है। आज एक गरीब किसान हो या फिर मजदूरी करने वाला, वह भी यही सोचता है कि अपने बच्चे को अंग्रेजी में शिक्षा दिलानी है। यह एक बड़ा ही दुखद पहलू है कि जिस देश की राष्ट्रभाषा हिन्दी है वहां पर हिन्दी में अपने बच्चों को पढ़ाने की कोई नहीं सोचता है। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण भी है, और वह कारण है कि अपने देश में सरकारी के साथ निजी नौकरियों में उन्हीं को प्राथमिकता दी जाती है जिनको अंग्रेजी आती है। अब ऐसे में कोई क्या कर सकता है, एक तो अपने देश में बेरोजगारी इतनी ज्यादा है कि जिसकी कोई सीमा नहीं है। ऐसे में हिन्दी माध्मय से पढऩे वालों को नौकरी कैसे मिल सकती है। आज यही वजह है कि हर कोई चाहता है कि उनका बच्चा भी अंग्रेजी माध्यम से पढ़े ताकि उसको नौकरी मिल सके। अगर अपने देश में अंग्रेजी के स्थान पर हिन्दी पर ध्यान दिया जाता और हर नौकरी में हिन्दी को अनिवार्य माना जाता तो ऐसी स्थिति नहीं होती।

हम याद करें आज से कोई तीन दशक पहले का जमाना जब हम लोग स्कूल में पढ़ते थे, तब छठी क्लास में जाकर ए, बी, सी, डी पढऩे को मिलती थी। लेकिन आज नर्सरी के बच्चे की स्कूली किताबें देखकर सिर चकरा जाएगा। हमारा अंग्रेजी से कोई विरोध नहीं है। लेकिन हिन्दी की शर्त पर अंग्रेजी को रखा जाना नितांत गलत है। अपनी राष्ट्रभाषा को किनारे लगा कर आज अंग्रेजी को अनिवार्य इस तरह से कर दिया गया है कि लगता है कि अंग्रेजी ही हमारी राष्ट्रभाषा हो गई है। तो क्या यह अपनी राष्ट्रभाषा का अपमान नहीं है। जिसे देखो बस हिन्दी के पीछे पड़ा है नहा-धोकर। हिन्दी को लोग आज अछूता कन्या की तरह समझने लगे हैं। एक तरफ जहां अपने देश में ही हिन्दी को पराया कर दिया गया है, वहीं दूसरे कई देशों में हिन्दी को अनिवार्य कर दिया गया है। विदेशों में हिन्दी के जानकारों की पूछ-परख बढ़ गई है तो क्या यह सब अपने देश के मंत्रियों और नेताओं को नजर नहीं आता है। क्या देश के कर्णधार इससे सबक लेना जरूरी नहीं समझते हैं। हमें तो ऐसा लगता है कि जिस तरह से देश को अंग्रेजों की गुलामी से आजाद कराने के लिए लंबी लड़ाई लडऩी पड़ी थी, उसी तरह से हिन्दी को भी अंग्रेजी की गुलामी से आजाद करने की लिए एक लंबी लड़ाई की जरूरत है।

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बुधवार, जुलाई 22, 2009

रमन के साहस को नमन


प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने अचानक उस मदनवाड़ा में पहुंच कर साहस का काम किया, जहां पर नक्सलसियों ने एक एसपी के साथ 35 से ज्यादा पुलिस वालों को अपना निशाना बनाया था। रमन सिंह ने यह साहसिक काम महज इसलिए किया ताकि उनके प्रदेश की पुलिस का हौसला बढ़ सके और वह नक्सलियों से डटकर मुकाबला कर सकें। रमन सिंह के इस साहस को इसलिए नमन किया जाना चाहिए, क्योंकि उन्होंने उस नक्सली क्षेत्र का दौरा भले सुरक्षा के साये में किया, पर उन्होंने बुलेट प्रूफ जैकेट पहनना जरूरी नहीं समझा। ठीक ऐसा ही उनके पहले गृहमंत्री ननकी राम कंवर ने किया था। गृहमंत्री के साथ गए डीजीपी विश्व रंजन ने तब जरूर बुलेट प्रूफ जैकेट का सहारा लिया था। इसमें कोई दो मत नहीं है कि भाजपा शासन में नक्सली घटनाओं में बेतहाशा इजाफा हुआ है, लेकिन यह भी सच है कि भाजपा शासन में ही नक्सलियों के खिलाफ मुहिम भी ज्यादा चली है। जोगी शासन में नक्सलियों के खिलाफ मुहिम की बात नहीं की जा सकती है।

राजनांदगांव जिले के जिस मानपुर क्षेत्र के मदनवाड़ा क्षेत्र में नक्सलियों ने प्रदेश की सबसे बड़ी घटना को अंजाम दिया था, उस स्थान का दौरा मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह कर सकते हैं, यह तो किसी ने नहीं सोचा था। लेकिन अचानक उन्होंने विधानसभा का सत्र प्रारंभ होने से पहले वहां पहुंचकर सबको आश्चर्य में डाल दिया। मुख्यमंत्री न सिर्फ उस क्षेत्र में गए और वहां का दौरा करके पुलिस से हालात के बारे में जानकारी ली, बल्कि वे उस क्षेत्र में बिना बुलेट प्रूफ जैकेट के गए जो वास्तव में साहस का काम है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि मुख्यमंत्री प्रदेश में ऐसे-ऐसे काम कर रहे हैं जिसकी वजह से उनके दुश्मन भी उनके कायल होते जा रहे हैं। अब यह बात अलग है कि विरोधी पार्टी कांग्रेस को चूंकि विपक्ष का काम करना है तो वह तो उनके अच्छे कामों में भी कमियां निकालने का काम करेगी ही। जब मुख्यमंत्री ने मदनवाड़ा का दौरा करके पुलिस का हौसला बढ़ाने का काम किया तो इस दौरे को कांग्रेसियों ने इस रूप में लिया कि मुख्यमंत्री वहां डर के कारण गए थे, क्योंकि विधानसभा में उनको इस बात का डर था कि जब विपक्षी उनको इस मुद्दे पर घेरेंगे तो वे क्या जवाब देंगे। मुख्यमंत्री को विपक्षियों ने विधानसभा में घेरने का काम पहले दिन ही किया और उनसे इस्तीफा भी मांगा।

यहां पर एक बार फिर से मुख्यमंत्री ने यह बताया कि वास्तव में वे कितना अच्छा सोचते हैं। उन्होंने विपक्ष से कहा कि यह समय राजनीति करने का नहीं बल्कि एक साथ मिलकर उस नक्सली समस्या से निपटने का है जिसके कारण प्रदेश में हाहाकार मचा है। मुख्यमंत्री का यह कहना ठीक भी है। वे कहते हैं कि अगर कांग्रेस के पास नक्सली समस्या से निपटने का कोई सुझाव है तो बताए। लेकिन हकीकत तो यह है कि कांग्रेस को तो बस विपक्ष की राजनीति करनी है। उसके पास नक्सली समस्या से निपटने का कोई गुर होता तो वह बताती। अरे अजीत जोगी के शासन काल में तो कभी नक्सलियों पर लगाम कसने का काम किया ही नहीं गया तो फिर कांग्रेसियों के पास उनसे निपटने के लिए क्या सलाह हो सकती है।

जोगी शासन काल के बारे में तो यही कहा जाता है कि उस सरकार का नक्सलियों के साथ न जाने ऐसा कौन सा मौन समझौता था जिसके कारण नक्सली काफी कम वारदातें करते थे। लेकिन रमन सरकार के आने के बाद नक्सलियों ने आतंक मचाने का काम किया है। आज स्थिति यह है कि उनका आतंक बढ़ते ही जा रहा है। उनका आतंक बढ़ रहा है तो उसके पीछे एक ही कारण नजर आता है कि जब-जब उनके खिलाफ कार्रवाई होती है तो वे बौखला जाते हैं और आतंक मचाने का काम करते हैं। नक्सली सरकार से न निपट पाने की खींज बेगुनाहों का खून बहाकर उतारते हैं। वास्तव मे अगर कांगे्रेसियों में अगर थोड़ी भी नैतिकता है तो वे राजनीति से ऊपर उठकर रमन सरकार के साथ मिलकर नक्सलियों से निपटने में सरकार का साथ दें।

क्या कांग्रेसी इस बात की गारंटी दे सकते हैं कि प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगाने से नक्सली समस्या का अंत हो जाएगा। अगर ऐसा होने की गारंटी रहे तो जरूर रमन सिंह जैसे मुख्यमंत्री अपना पद छोडऩे को भी तैयार हो जाएंगे। हमारा यहां पर कताई रमन सरकार का गुणगान करने का मकसद नहीं है, लेकिन रमन सिंह ने जिस तरह का साहस दिखाया है, क्या कभी अजीत जोगी ने अपने शासन में दिखाया था? हम सिर्फ औैर सिर्फ हकीकत तो बयान करने का काम कर रहे हैं। ऐसे में अगर कोई यह समझता है कि हम रमन सरकार की महिमा का बखान कर रहे हैं तो हमें इससे क्या। हम तो छत्तीसगढ़ के रहवासी होने के नाते बस इतना चाहते हैं कि इस राज्य से नक्सली समस्या का अंत होना चाहिए, बस। इसके लिए सरकार के साथ अगर विपक्ष मिलकर काम करें तो इससे अच्छा कुछ हो ही नहीं सकता है।

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मंगलवार, जुलाई 21, 2009

है कोई टोनही से मुक्ति दिलाने वाला

छत्तीसगढ़ का प्रचलित ज्यौहार हरेली कल है। इस त्यौहार को जहां किसान फसलों के त्यौहार के रूप में मानते हैं और अपने कृषि उपकरणों की पूजा करते हैं, वहीं यह भी मान्यता है कि यही वह दिन होता है जब वह शैतानी शक्ति जिसे सब टोनही कहते हैं विचरण करने के लिए निकलती है। इसी के साथ इस दिन को तांत्रिकों के लिए अहम दिन माना जाता है। इस दिन तांत्रिक तंत्र साधना करने का काम करते हैं। भले इसे अंधविश्वास कहा जाता है, लेकिन यह एक कटु सत्य है कि टोनही जैसी चीज का अस्तित्व होता है। ऐसा साफ तौर पर ग्रामीणों का कहना है। इनका कहना है कि अगर किसी को इसे देखना है तो वह छत्तीसगढ़ आ सकता है। वैसे ये देश के हर कोने में हैं। लेकिन छत्तीसगढ़ में इसके बारे में ज्यादा किस्से हैं। एक तरफ ग्रामीण टोनही के होने का दावा करते हैं तो दूसरी तरफ इसको अंध विश्वास बताया जाता है। ग्रामीण इसको अंध विश्वास बताने वालों से कहते हैं कि क्यों नहीं वे उन स्थानों पर जाने की हिम्मत करते हैं जहां पर टोनही के बारे में कहा जाता है कि वह विचरण करती है। अगर है कोई ऐसा बंदा जो टोनही से मुक्ति दिला सकता है तो वहां जाए और बताए कि टोनही हकीकत नहीं बल्कि महज अंधविश्वास है।

सावन की रिमझिम फुहारों को देखकर यूं तो सबका मन खुश हो जाता है, पर सबसे ज्यादा खुशी किसानों को होती है क्योंकि सावन न आए तो बारिश न हो और बारिश न हो तो किसान खेती कैसे करेंगे। सावन के महीने में ही किसानों का सबसे बड़ा पर्व हरेली आता है। इस पर्व के दिन किसान अपने हल, बैलों के साथ कृषि सामानों की पूजा अर्चना करते हैं। और अच्छी फसल होने की कामना के साथ देवी-देवाताओं की पूजा करते हैं। हरेली के दिन का बच्चों को खासकर ज्यादा इंतजार रहता है। यह त्यौहार चूंकि बारिश के मौसम में होता है, ऐसे में बचे गेड़ी में चलते हैं। गेड़ी उसको कहते हैं जिसमें बड़े-बड़े दो बांसों को रखा जाता है और दोनों बांसों में पैर रखने के स्थान बनाए जाते हैं। इसके बाद इसमें चढ़कर बच्चे चलते हैं तो उनके पैर कीचड़ में गंदे नहीं होते हैं। इसी दिन छत्तीसगढ़ के पारंपरिक व्यजन भी बनाए जाते हैं। मीठा चिले के साथ आटे के भजिए बनाए जाते हैं। यह त्यौहार कल यानी 22 जुलाई के दिन है।

एक तरफ जहां हरेली का पर्व खुशियां लेकर आता है, वहीं दूसरी तरफ इस पर्व का खौफ भी बहुत ज्यादा गांवों में क्या शहरों में भी रहता है। अक्सर शहर में रहने वालों को भी उनके परिजन हिदायत देते हैं कि आज घर जल्दी आ जाना यानी रात को 12 बजे से पहले आ जाना क्योंकि रात को 12 बजे के बाद टोनहियों के निकलने का समय रहता है। इसे भले अंध विश्वास का नाम दिया जाता रहा है, पर यह बात सच है कि छत्तीसगढ़ में टोनही का खौफ बहुत ज्यादा है। इसको किसी ने देखा है या नहीं हमें नहीं मालूम लेकिन हमने जरूर कुछ मौका पर इनको दूर से देखा है। अब दूर से देखी गई वह चीज टोनही थी, इसका दावा हम भी नहीं कर सकते हैं। लेकिन टोनही के बारे में जिस तरह से हमें भी बचपन से लेकर अब तक जो जानकारी मिली है, उसके आधार पर ही हम कह रहे हैं कि शायद वह टोनही थी। हमने टोनहियों के साथ एक लंबे सफर की दास्ता एक बार लिखी भी है।

बहरहाल तंत्र-मंत्र से कोई इंकार नहीं कर सकता है कि तंत्र-मंत्र जैसी शक्ति होती है। इसी के सहारे लोगों के जीवन से खेलने का काम ऐसा जादू-टोना करने वाले करते हैं। हरेली के दिन के बारे में कहा जाता है कि इस दिन जरूर तंत्र साधना करने वाले हर तांत्रिक चाहे उसे टोनही कहा जाता हो, टोनहा कहा जाता हो या फिर और कहा जाता हो, सब रात को जरूर निकलते हैं । टोनही का अस्तित्व जानने के लिए यहां के अंध निर्मलन समिति ने हमेशा प्रयास किए हैं और लोगों को इस अंधविश्वास से मुक्ति दिलाने की पहल की है। लेकिन लोग यह मानने को तैयार ही नहीं हैं कि टोनही एक अंध विश्वास है। छत्तीसगढ़ में टोनही के इतने ज्यादा किस्से हैं कि लगता है किसी के कहने से लोगों मानने वाले नहीं हैं कि टोनही कोई हकीकत नहीं बल्कि मिथ्या धारणा है। टोनही के बारे में जानने वाले ग्रामीणों की मानें तो वे दावा करते हैं कि इसको अंधविश्वास मानने वाले जाकर शमशान में क्यों नहीं देखते हैं कि टोनही होती है या नहीं? या फिर खेतों की उन सुनसान पकडंडिय़ों में क्यों नहीं जाते हैं जहां के बारे में कहा जाता है कि टोनही वहां वितरण करती है। ऐसे स्थानों पर जाने में तो टोनही को अंधविश्वास साबित करने की कोशिश करने वालों को भी डर लगता है। फिर कैसे माना जाए कि टोनही अंध विश्वास है। इन ग्रामीणों की बातें भी अपने स्थान पर सत्य है। आज तक किसी भी ऐसे व्यक्ति ने वास्तव में ऐसे स्थानों में जाने की हिम्मत नहीं दिखाई है। अगर कोई ऐसा बंदा है और ऐसा साहस कर सकें तो शायद ग्रामीणों को टोनही से मुक्ति मिल जाए। तो कौन है वह बंदा जो इतना साहस कर सकता है। अगर कोई है तो जरूर वह छत्तीसगढ़ आकर इन ग्रामीणों को इस अंधविश्वास से मुक्ति दिलाने की एक पहल करे ताकि लोग टोनही के जाल से मुक्त हो सकें।

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सोमवार, जुलाई 20, 2009

मास्टर जी आप तो फुल माइंड हैं


एक मास्टर जी स्कूल में हमेशा कुछ भी उलटे-सीधे सवाल करते थे। क्लास का हर छात्र उनके उल्टे-सीधे सवालों से परेशान रहता था। एक बार उनके एक सवाल पर राजु ने ऐसा जवाब दिया कि मास्टर जी लाजवाब हो गए। देखिए मास्टर जी का सवाल-


बच्चों एक ट्रेन एक घंटे में रायपुर से भिलाई का सफर तय करती है तो मेरी उम्र बताओ?


सारे बच्चे सोच में पड़ गए कि यार ट्रेन के रायपुर से भिलाई तक एक घंटे में जाने से मास्टर जी उम्र का क्या संबंध हो सकता है।


तभी राजु से हाथ उठाया और कहा मास्टर जी मैं बता सकता हूं।

मास्टर जी ने कहा बताओ।


राजु ने तपाक से कहा- सर, 40 साल।

मास्टर जी आश्चर्य में पड़ गए और बोले अरे तुम्हें कैसे मालूम चला कि मैं 40 साल का हूं।

राजु ने कहा- क्या है न मास्टर जी, मेरा एक भाई हॉफ माइंड है और वह 20 साल का है। मैंने सोचा कि आप तो फुल माइंड हैं इसलिए 40 साल के होंगे।

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रविवार, जुलाई 19, 2009

पाइका से निखारेंगे खेलों को


प्रदेश की खेल मंत्री सुश्री लता उसेंडी ने कहा कि प्रदेश में खेलों को निखारने का काम पाइका योजना के माध्यम से किया जाएगा। इस योजना से हर गांव में खेलों की सुविधाएं हो जाएंगी। इस योजना को प्रदेश में लागू करने के लिए छत्तीसगढ़ सरकार गंभीरता से काम कर रही है। केन्द्रीय खेल मंत्री एमएस गिल ने भी हम लोग विभाग के अधिकारियों के साथ जाकर मिले हैं और छत्तीसगढ़ में खेलों के विकास के लिए केन्द्र से मदद मांगी गई है। वहां से भी पूरी मदद देने का आश्वासन दिया गया है।


ये बातें खेल मंत्री लता उसेंडी ने डिग्री कॉलेज में राज्य नेटबॉल चैंपियनशिप के उद्घाटन अवसर पर कहीं। उन्होंने कहा कि प्रदेश में खेलों के विकास के लिए प्रदेश सरकार नई-नई योजनाओं पर काम कर रही है। केन्द्र सरकार की पाइका योजना पर प्रदेश में गंभीरता से काम चल रहा है। इस योजना के लिए केन्द्र से बजट भी मिल गया है। हमारी सरकार ने तो पहले ही इसके लिए २ करोड़ ६६ लाख का बजट पा कर दिया है। उन्होंने बताया कि केन्द्रीय मंत्री एमएल गिल से मिलने वह खुद खेल सचिव सुब्रत साहू और खेल संचालक जीपी सिंह के साथ गई थी। वहां पर श्री गिल से छत्तीसगढ़ में खेलों के विकास पर गंभीर चर्चा हुई है। उन्होंने साई की सारी योजनाओं का लाभ भी छत्तीसगढ़ को देने की बात कही है। उनको यहां आमंत्रित भी किया गया है। वे छत्तीसगढ़ आने को सहमत है। केन्द्रीय खेल मंत्री को छत्तीसगढ़ सरकार की प्रतिभा खोज योजना के बारे में पूरी जानकारी दी गई। इस योजना ने उनको बहुत ज्यादा प्रभावित किया है। उन्होंने बताया कि इस योजना का लाभ हर खेल के खिलाडिय़ों को मिलेगा। इस योजना से प्रदेश की गांवों में छुपी हुई प्रतिभाएँ सामेन आएंगी।


राष्ट्रीय खेलों की मेजबानी लेंगे


सुश्री उसेंडी ने कहा कि उनका विभाग प्रदेश में २०१४ के राष्ट्रीय खेलों की मेजबानी लेने के प्रयास में है। इसके लिए जैसे ही योजना बनाई गई तो मुख्यमंत्री डॉ। रमन सिंह ने इस पर तुरंत सहमति जताई और कहा कि मेजबानी ली जाए। उन्होंने बताया कि अब बजट में मेजबानी लेने के लिए जो दो करोड़ पचास लाख की राशि लगनी है उसका प्रावधान किया जाएगा और मेजबानी लेने में कोई कसर नहीं छोंड़ेगे। उन्होंने नेटबॉल के मैदान के लिए कहा कि खिलाडिय़ों के लिए मैदान की व्यवस्था की जाएगी। उन्होंने बताया कि वैसे भी प्रदेश सरकार राज्य के खेल मैदानों को सुरक्षित रखने के लिए एक विधेयक विधानसभा में लाने वाली है। खेल मंत्री ने खिलाडिय़ों से कहा कि हारने वाली टीम जब अगली बार यहां खेलने आए तो वह इस पर जरूर ध्यान दे कि वह किस कारण से हारी थी। अगर हार के कारणों को आप दूर करने में सफल होंगे तो सफलता आपको जरूर मिलेगी।


मेजबानी के लिए विद्याचरण की मदद लेंगे


कार्यक्रम में उपस्थित पूर्व मंत्री और नेटबॉल संघ के अध्यक्ष विधान मिश्रा ने कहा कि छत्तीसगढ़ को राष्ट्रीय खेलों की मेजबानी मिल सके इसके लिए ओलंपिक संघ के आजीवन अध्यक्ष विद्याचरण शुक्ल की भी मदद ली जाएगी। अगर श्री शुक्ल का आर्शीवाद रहा तो मेजबानी मिल ही जाएगी। उन्होंने खेल मंत्री सुश्री उसेंडी की तारीफ करते हुए कहा कि उनके खेल मंत्री बनने के बाद पहली बार प्रदेश में राष्ट्रीय खेलों की मेजबानी लेने की अहम पहल की गई है। उनकी पहल को बेकार जाने नहीं दिया जाएगा।


सरकार और खेल संघों का लक्ष्य एक


खेल संचालक जीपी सिंह ने कहा कि प्रदेश सरकार और खेल संघों का एक मात्र लक्ष्य खेलों की विकास करना है। ऐसे में छत्तीसगढ़ देश का ऐसा पहला राज्य है जिसने खेल संघों के साथ मिलकर सब जूनियर और जूनियर स्तर की राज्य चैंपियनशिप का आयोजन हर खेल में करने का काम किया है। उन्होंने कहा कि ये दोनों वर्ग ऐसे हैं जिन वर्गों की प्रतिभाओं को निखारा जा सकता है। उन्होंने कहा कि प्रदेश में किसी भी खेल संघ के पदाधिकारियों और खिलाडिय़ों को कोई भी परेशानी हो तो वे उनसे भी सीधे आकर खेल संचालनालय में मिल सकते हैं।


कार्यक्रम में उपस्थित नेटबॉल संघ के महासचवि संजय शर्मा ने नेटबॉल के बारे में जानकारी देते हुए बताया कि २०१० के कामनवेल्थ खेलों के लिए भारत की संभावित टीम में छत्तीसगढ़ की तीन खिलाडिय़ों प्रीति बंछोर, नेहा बजाज और शकुंतला पटेल को रखा गया है। कार्यक्रम का संचालन संयुक्त संचालक ओपी शर्मा ने किया।

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दिल से उनकी याद ही न जाए तो क्या करें?


चाहा उन्हें हमने दिल से पर
रास न आई उसे हमारी मोहब्बत तो क्या करें।

दुवाओं में मेरी असर तो है प्रिंस
पर उन पर असर न हो तो क्या करें।

बात एक दिन की हो तो रास्ता बदल लें
पर वो रोज रास्ते में आए तो क्या करें।


याद में उनकी तारे गिना किए रात भर
अब दिन में भी तारे नजर आए तो क्या करें।

नींदे बहुत की खराब उनकी खातिर
पर उनको रहम न आए तो क्या करें।

नींद तो किसी तरह आ ही जाती है प्रिंस
पर वो ख्वाबों में भी आए जाए तो क्या करें।

हमने तो वफाएं ही की थी प्रिंस
पर वफा के बदले वेवफाई मिले तो क्या करें।

रोए बहुत हम याद में उनकी
पर उनको तरस न आए तो क्या करें।


बहुत सोचा भूलाकर देखें उन्हें
पर दिल से उनकी याद ही न जाए तो क्या करें।

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शनिवार, जुलाई 18, 2009

अरे कोई तो बताओ ट्रेन क्यों नहीं चल रही थी

बात उन दिनों की है जब हम कॉलेज में पढ़ते थे। तब हम भाटापारा से रायपुर पढऩे आते थे। हम लॉ कॉलेज में थे। सो क्लास रात को लगती थी। ऐसे में हम लोग रात को 10 बजे 29 डाउन मुंबई-हावड़ा एक्सप्रेस से रोज भाटापारा जाते थे। एक दिन रात को जब हम लोग रेलवे स्टेशन पहुंचे और ट्रेन में बैठ गए तो काफी समय हो गया फिर भी ट्रेन चलने का नाम नहीं ले रही थी। रायपुर में ट्रेन का स्टापेज महज 10 मिनट का था, पर आधा घंटा होने के बाद भी ट्रेन नहीं चली तो हम लोग ट्रेन से नीचे आए और जानना चाहा कि माजरा क्या है। माजरा तो हमारी भी समझ में नहीं आया। देखा कि सामने सिग्नल भी हरा है, पीछे ट्रेन का गार्ड लगातार हरी झंड़ी हिला रहा था, लेकिन इसके बाद भी ट्रेन थी कि आगे बढ़ ही नहीं रही थी। बहुत दिमाग खपाने के बाद भी कुछ समझ में नहीं आया तो हम लोग जाकर ट्रेन में सो गए और सोचा कि चलो यार जब ट्रेन को चलना होगा तो चलेगी क्यों कर सिर खपाए कि ट्रेन क्यों नहीं चल रही है। ट्रेन ने न चलने का कारण बाद में मालूम हुआ कि ट्रेन आखिर क्यों नहीं चल रही थी। अगर आपको कुछ समझ आया हो तो जरूर बताए कि आखिर ट्रेन क्यों नहीं चल रही थी।

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शुक्रवार, जुलाई 17, 2009

केन्द्र सरकार का कसूर-जो नक्सली समस्या बनी नासूर

छत्तीसगढ़ की नक्सली समस्या को अब जाकर केन्द्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने गंभीर मुद्दा माना है और कहा है कि इस समस्या से निपटने में सरकारें नाकाम रही हैं। चिदंबरम साहब सरकारें नहीं बल्कि केन्द्र सरकार कहें। सच्चाई यही है कि अगर केन्द्र सरकार ने इस मुद्दे को प्रारंभ से ही गंभीरता से लिया होता तो आज यह समस्या नासूर का रूप नहीं लेती। हमें कम से कम छत्तीसगढ़ की नक्सली समस्या के बारे में इतना मालूम है कि इस समस्या से केन्द्र सरकार को आज से नहीं बल्कि पिछले तीन दशकों से आगाह किया जाता रहा है, पर केन्द्र से इस पर कभी भी गंभीरता से ध्यान नहीं दिया। पुलिस के एक आला अधिकारी जो बस्तर में लंबे समय तक रहे हैं अगर उनकी बातें मानें तो उनका साफ कहना है कि बस्तर में पिछले तीस सालों में जितने भी पुलिस अधीक्षक रहे हैं उनका रिकॉर्ड निकाल कर देख लिया जाए तो यह बात साफ होती है कि बस्तर में जिस समय नक्सलियों ने पैर पसारने प्रारंभ किए थे, तभी से केन्द्र को इसकी रिपोर्ट लगातार भेजी जाती रही है, पर केन्द्र सरकार ने कभी इस मुद्दे पर ध्यान देना जरूरी नहीं समझा।

राजनांदगांव जिले में हुई सबसे बड़ी नक्सली समस्या के बाद जहां प्रदेश की नक्सली समस्या पर रमन सरकार गंभीर नजर आ रही है, वहीं केन्द्र सरकार को भी अब लगने लगा है कि सच में यह समस्या गंभीर है। इसके पहले तक तो लगता है कि केन्द्र सरकार छत्तीसगढ़ की नक्सली समस्या को केवल छत्तीसगढ़ की समस्या मानकर ही चल रही थी। वैसे देखा जाए तो छत्तीसगढ़ को अलग हुए अभी एक दशक भी नहीं हुआ है, और छत्तीसगढ़ में नक्सली समस्या कम से कम तीन दशक पुरानी है। इन तीन दशकों में शायद ही ऐसा कोई साल और बस्तर का ऐसा कोई एसपी होगा जिसने इस समस्या के बारे में केन्द्र सरकार को अवगत नहीं कराया होगा। छत्तीसगढ़ से पहले मप्र के गृह विभाग और अब छत्तीसगढ़ के गृह विभाग ने लगातार केन्द्र के पास इस समस्या की रिपोर्ट भेजी है। बस्तर में लंबे समय तक पुलिस अधीक्षक रहने वाले एक एसपी का दावा है कि बस्तर में आज तक जितने भी एसपी रहे हैं, उनमें से ऐसा कोई नहीं होगा जिसने नक्सली समस्या के बारे में केन्द्र तक रिपोर्ट नहीं भिजवाई होगी। अगर तीन दशक पहले जब बस्तर में नक्सली पैर पसार रहे थे, उस समय केन्द्र सरकार ने इस दिशा में ध्यान दिया होता तो आज छत्तीसगढ़ में यह समस्या विकराल रूप में सामने नहीं आती। छत्तीसगढ़ अलग होने के बाद भी लगातार केन्द्र को इस बारे में बताया जाता रहा, पर केन्द्र सरकार तो राजनीति में उलझी रही और इस समस्या पर ध्यान नहीं दिया गया। जब प्रदेश में जोगी सरकार आई तो केन्द्र में भाजपा गठबंधन की सरकार थी। और जब प्रदेश में भाजपा की सरकार है, तो आज जहां केन्द्र में कांग्रेस गठबंधन की सरकार है, वहीं इसके पहले भी कांग्रेस गठबंधन की सरकार थी। जब बस्तर में नक्सलियों ने बसेरा करना शुरू किया था, तब भी केन्द्र में कांग्रेस की सरकार थी। कुल मिलाकर देखा जाए तो केन्द्र की कांग्रेस सरकार ही नक्सली समस्या के लिए दोषी नजर आती है।

छत्तीसगढ़ में हालात ये हैं कि यहां के कांग्रेसी प्रदेश की भाजपा सरकार को इसके लिए दोषी मानने का कोई मौका नहीं गंवा रहे हैं। राजनांदगांव की घटना के बाद तो कांग्रेसियों ने प्रदेश में राष्ट्रपति शासन तक लगाने की मांग कर दी है। ये कांग्रेसी अपने केन्द्र की सरकार से यह सवाल क्यों नहीं करते हैं कि जब लगातार केन्द्र के पास इस समस्या के प्रारंभ से ही रिपोर्ट जाती रही है तो सरकार ने इस दिशा में ध्यान क्यों नहीं दिया। क्या विपक्ष में बैठने का मलतब यही होता है कि आप सत्ता में बैठी पार्टी पर चाहे जैसा भी हो दोष लगा दे। हमारा यहां पर कताई भाजपा की सरकार का पक्ष लेने का मकसद नहीं है। लेकिन राजनीति से ऊपर उठकर कांग्रेस को सोचने की जरूरत है कि वास्तव में इस समस्या के लिए असली दोषी कौन है। अगर कांग्रेसी इस समस्या से प्रदेश को मुक्त कराने की सच्ची भावना रखते हैं तो पहले केन्द्र सरकार से जरूर यह सवाल करें कि क्यों कर केन्द्र सरकार ने अब तक इस समस्या के समाधान का रास्ता नहीं निकाला है। माना कि प्रदेश में भाजपा की सरकार के आने के बाद नक्सली घटनाओं में बेतहासा इजाफा हुआ है, लेकिन यह भी सत्य है कि नक्सलियों को मार गिराने का काम भी पुलिस ने भाजपा शासन में ही बहुत किया है। यहां पर आंकड़े बताने की जरूरत नहीं है। अजीत जोगी के शासनकाल में कितने नक्सली मारे गए ये बात कांग्रेसी भी अच्छी तरह से जानते हैं। यदा-कदा दबी जुबान में ही सही यही कहा जाता रहा है कि जब प्रदेश में जोगी सरकार थी, तब उसका नक्सलियों से मौन समझौता था जिसके कारण जहां नक्सली घटनाएं कम हुईं, वहीं नक्सलियों का मारने का काम पुलिस ने नहीं किया।

कुल मिलाकर बात यह है कि एक तरफ कांग्रेसी नक्सली समस्या के लिए भाजपा को दोषी मान रहे हैं तो दूसरी तरफ भाजपाई कांग्रेस की केन्द्र सरकार को दोषी मान रहे हैं। भाजपा के दावे में इसलिए दम है क्योंकि केन्द्र के पास शुरू से नक्सली समस्या की रिपोर्ट भेजी जाती रही है और केन्द्र ने कुछ नहीं किया है। अब जबकि यह समस्या पूरी तरह से नासूर बन गई है तो यह वक्त एक-दूसरे पर आरोप लगाने का नहीं बल्कि इस समस्या को जड़ से समाप्त करने का है। इसके लिए देश के दोनों बड़े राजनीतिक दलों को राजनीति से ऊपर उठकर काम करना होगा तभी नक्सली समस्या से मुक्ति मिल सकेगी। अगर यूं ही दोनों दल लड़ते रहे तो नक्सली आतंक का कभी भी अंत नहीं हो सकेगा।

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गुरुवार, जुलाई 16, 2009

नक्सलियों से एक कदम आगे की सोच वाले अफसर

छत्तीसगढ़ में इस बार हुई सबसे बड़ी नक्सली घटना की गूंज छत्तीसगढ़ से लेकर दिल्ली तक है। इसी के साथ पुलिस की कार्यप्रणाली पर भी सवाल उठ रहे हैं। इसमें कोई दो मत नहीं है कि नक्सलियों की सोच के सामने पुलिस अधिकारियों की सोच लगातार बौनी साबित हो रही है और नक्सली बाजी मार ले रहे हैं। लेकिन प्रदेश में ऐसे पुलिस अधिकारी भी हैं जिनकी सोच नक्सलियों से एक कदम आगे है। हमारे एक मित्र जब बस्तर में पुलिस अधीक्षक थे तो उनकी सोच के कारण ही जहां वे खुद नक्सली हमले में शहीद होने से बचे थे, वहीं उनकी इसी सोच ने कई जवानों की जान बचाई थी। उनका नेटवर्क आज भी इतना तगड़ा है कि उनके पास राजधानी में बैठे-बैठे बहुत सारी जानकारियां आ जाती हैं।
राजनांदगांव के मानपुर इलाके में जिस तरह से नक्सलियों ने एक एसपी के साथ कई जवानों को अपना शिकार बना उस घटना ने पुलिस प्रशासन की पोल खोल दी है कि उनका नेटवर्क कितना खराब है। इस घटना को लेकर हर तरफ राज्य सरकार के साथ पुलिस के निकम्मेपन के ही चर्चे हैं। इसमें कोई दो मत नहीं है कि अपने राज्य की पुलिस कम से कम नक्सलियों से निपटने में पूरी तरह से नाकाम रही है। एक सच यह भी है कि जबसे प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी है, तब से नक्सली और ज्यादा बेकाबू हो गए हैं। अब इसका कारण चाहे जो भी रहो हो। चाहे इसके पीछे सलवा जुडूम को सरकार का समर्थन रहा हो या फिर यह कि जब प्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी, तो सरकार और नक्सलियों में एक मौन समझौता था। अब यह समझौता सरकार बदलने के बाद रहा नहीं। बहरलहाल यहां पर बात यह नहीं है कि नक्सलियों की सरकार से क्यों नहीं बनती है। बात यह है कि क्या अपने पुलिस प्रशासन के पास ऐसे अफसर नहीं हैं जिनकी सोच नक्सलियों से आगे जाती हो, तो इसका जवाब है कि ऐसे अफसर हैं। लेकिन उनको कुछ करने का मौका नहीं दिया जाता है, जो अफसर अच्छा करने की सोचते हैं उनको वहां रहने नहीं दिया जाता है। आज स्थिति यह है कि अब कोई ऐसा अफसर नक्सली क्षेत्र में जाना नहीं चाहता है।

हमें याद है हमारे एक मित्र जो कि कुछ साल पहले बस्तर में एसपी थे तो उनकी कार्यप्रणाली ने उनको जहां वहां पर काफी लोकप्रिय बनाया वहीं उनकी कार्यप्रणाली से नक्सली भी दहशत में रहते थे। एक घटना के बारे में उन्होंने एक दिन बताया था कि उनको एक गांव में नक्सलियों के आने की सूचना मिली। ऐसे में वे खुद फोर्स लेकर गांव की तरफ गए। उस गांव में जाने का एक ही रास्ता था। ऐसे में अपने कप्तान साहब ने यह योजना बनाई कि पूरी फोर्स एक साथ गांव में नहीं जाएगी। दो दल बनाए गए और एक दल के साथ एसपी साहब गांव में गए और दूसरे दल को कहा कि वे उनके कहने के बाद ही गांव में आएंगे। जब पहला दल गांव में घुसा तो वहां जहां एक तरफ नक्सलियों ने उन पर फायरिंग कर दी, वहीं बाहर बैठे नक्सलियों ने लेंड माइंस बिछा रखी थी। नक्सलियों ने तो समझा कि यह दल बिल में फंस गया है और फायरिंग के जवाब में अगर यह दल गांव के बाहर गया तो उड़ा दिया जाएगा। लेकिन एसपी साहब की योजना ने काम किया और उन्होंने दूसरे दल को सारी जानकारी दे दी। ऐसे में लगातार घंटों फायरिंग के बाद नक्सलियों को मोर्चा छोड़कर भागना पड़ा। बाद में पुलिस दल ने उस लेंड माइंस को निष्क्रिय किया और गांव से बाहर आए। अगर एसपी साहब सारे दल बल के साथ गांव के अंदर चले जाते तो नक्सलियों की सोच के मुताबिक उस दिन उन एसपी साहब और सारे जवानों का काम तमाम हो जाता। लेकिन नक्सलियों की योजना को कप्तान साहब की योजना ने फेल कर दिया।

इस नक्सली मुठभेड़ के बारे में उन्होंने यह भी बताया था कि जब फायरिंग हो रही थी और वे सामने में थे तो एक जवान उनके पास एक बुलेट प्रूफ जैकेट लेकर आया और कहा कि साहब इसको पहन लो, लेकिन अपने कप्तान साहब ने वह जैकेट नहीं पहना और उसी जवान को पहने रहने के लिए कहा। साथ ही यह भी कहा कि यार अगर में यह जैकेट पहन भी लेता हूं और किसी गोली पर मेरा नाम लिखा होगा तो वह सीधे माथे पर भी लग सकती है। अब यह अपने आप में सोचने वाली बात है कि जिस टीम के कप्तान की सोच ऐसी होगी तो उस टीम के जवानों में तो जोश आना ही है।

अपने उन पुलिस कप्तान की अगुवाई में बस्तर में नक्सलियों के खिलाफ काफी काम हुए। उनके कारण ही गांव में एक महिला डॉक्टर ने जाकर लगातार नक्सली घटनाओं में आहत या फिर बीमार गांव वालों का लगातार इलाज किया। उनकी कार्यप्रणाली ने ही उनको इतना लोकप्रिय बनाया कि उनका नेटवर्क इतना तगड़ा हो गया कि उनके पास किसी भी गांव में अगर नक्सली फटक भी जाते थे तो उनको इसकी खबर तुरंत लग जाती थी। बस्तर से वापस आने के कई साल बाद भी उनका नेटवर्क वहां बैठे अफसरों से ज्यादा तगड़ा है। हमने खुद कई बार देखा है कि उनके पास कैसे सूचनाएं आती हैं। एक बार उसके साथ उनके दफ्तर में बैठे तो बस्तर के कुछ लोग उनसे मिलने आए तभी उनके सामने पुराने दिनों को याद करते हुए उन्होंने इस घटना का उल्लेख किया था। आज नक्सलियों की बढ़ती वारदातों को रोकने के लिए हमें लगता है कि ऐसे ही अफसरों की जरूरत है जो अपने जवानों में जोश भर सकें और उन अदिवासियों के लिए ऐसा कुछ करें जिससे वे उनको अपना रक्षा समझे और उन तक हर सूचना पहुंचाने का काम करें।

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बुधवार, जुलाई 15, 2009

नेशनल सुपर क्राफ्ट छत्तीसगढ़ में


उबड़-खाबड़ खतरनाक रास्ता और तेज रफ्तार से एक साथ कई बाइक चली जा रही हैं। सामने एक बड़ा सा टीले जैसा ब्रेकर बना हुआ है, उसके ऊपर जाने के बाद बाइक हवा में कई फीट ऊपर चली जाती है और बाइक सवार अपने बेहतरीन संतुलन से बाइक को नीचे ले आते हैं। ऐसे कई ब्रेकर रास्ते में आते हैं और हर ब्रेकर में बाइक हवा में छलांग लगाकर फिर से जमीन पर आकर दौडऩे लगती है। यह किसी फिल्म का सीन नहीं है, बल्कि हकीकत है जो सुपर क्राफ्ट बाइक रेसिंग में होती है। और इसी हकीकत से दो-चार होने का मौका छत्तीसगढ़ वासियों को बहुत जल्द मिलने वाला है। यहां पर प्रदेश मोटर संघ ने नेशनल सुपर क्राफ्ट चैंपियनशिप करवाने का फैसला किया है। यह चैंपियनशिप छत्तीसगढ़ को मिल भी गई है। यह आयोजन यहां पर ५ से १५ अक्टूबर के बीच में किया जाएगा। इस आयोजन के लिए बस सरकार ने अनुदान की दरकार है। इसके पूरा होते ही यहां पर इसकी तैयारियों जोर-शोर से प्रारंभ हो जाएंगी। वैसे तीन साल पहले यहां पर ऐसी ही राष्ट्रीय स्तर की मोटर बाइक रेसिंग हो चुकी है। लेकिन तब चैंपियनशिप डर्ट ट्रैक की हुई थी।

मोटर बाइक की रोमांचक रेसिंग का मजा अब तक छत्तीसगढ़ के खेल प्रेमी टीवी पर ही लेते रहे हैं। वैसे एक बार यह पर तीन साल पहले जब २००६ में साइंस कॉलेज में मोटर बाइक रेसिंग का आयोजन किया गया था तो इस आयोजन को देखकर लोग दंग रह गए थे। कारण साफ है अब तक बाइक के जिन स्टंड को लोग फिल्मों में या फिर टीवी पर देखते रहे हैं वो साक्षात सामने हो तो रोमांचित होना लाजिमी है। उस समय साइंस कॉलेज के मैदान में जब यह आयोजन किया गया तो वहां पर पैर रखने की जगह नहीं थी। छत्तीसगढ़ के हर कोने से इस आयोजन को देखने के लिए खेल प्रेमी आए थे।

यह आयोजन डर्ट ट्रैक का था। इसमें जिस रास्ते से मोटर बाइक सवारों को गुजरना रहता है कि वह इतना ज्यादा खराब रहता है कि सामान्य मोटर बाइक सवार उस पर चल ही नहीं सकते हैं। इसी के साथ रास्ते काफी घुमादार रहते हैं। तेज गति की बाइक जब मोड़ के पास आती है तो बाइक सवार के संतुलन की असली परीक्षा होती है। जब मोड़ पर बाइक सवार की गाड़ी के चक्कों से मिट्टी की परत उखड़ जाती है तो देखने वाले दर्शक दांतों तले उंगलिया दबा लेते हैं। यह तो है डर्ट ट्रैक का रोमांचक। लेकिन इस बार राजधानी में जिस सुपर क्राफ्ट बाइक रेसिंग का मेला लगने वाला है, उसके रोमांच मात्र की कल्पना से मन रोमांचित हो जाता है। इस सुपर क्राफ्ट रेसिंग में बाइक का हवा में छलांग लगाना देखना कितना रोमांचकारी हो सकता है यह बताने की जरूरत नहीं है। इसी सुपर क्राफ्ट का रोमांच छत्तीसगढ़ में लाने की योजना पर प्रदेश मोटर स्पोट्र्स संघ ने बनाई है। वैसे तो यह आयोजन पिछले साल ही हो जाता, पर पैसों की कमी के कारण ऐसा नहीं हो सका। संघ ने फिर इसको २००९ के प्रारंभ में करने की योजना बनाई, तब भी योजना फेल हो गई। इसके बाद अब जाकर तीसरी बार यह योजना बनाई गई है और इसको अक्टूबर में कराने की योजना है। फेडरेशन ऑफ इंडिया मोटर स्पोट्र्स ने इसकी मंजूरी भी दे दी है। इस बारे में संपर्क करने पर प्रदेश संघ के महासचिव उज्जवल दीपक ने बताया कि संघ को सुपर क्राफ्ट की मेजबानी मिल गई है।

आयोजन पर आएगा १३ लाख का खर्च


सुपर क्राफ्ट चैंपियनशिप पर कम से कम १३ लाख रुपए का खर्च अनुमानित है। पिछले आयोजन में करीब १० लाख का खर्च आया था। लेकिन इस बार चूंकि सुपर क्राफ्ट चैंपियनशिप है तो इस चैंपियनशिप में आने वाले बाइक सवार भी काफी ऊंचे दर्जे के होंगे। देश के करीब १०० जाबांज बाइक सवार आएंगे। जो भी बाइक सवार आएंगे उनकी बाइक कम से कम ८ से १० लाख की होगी। ये बाइक ५०० सीसी तक की होगी। सारे सवारों को मैच फीस भी देनी पड़ती है, फिर इनके रहने और खाने का खर्च भी उठाना पड़ेगा। इसी के साथ ट्रैक तैयार करने में काफी खर्च आया है। एक अनुमान के मुताबिक साइंस कॉलेज के मैदान पर ही फिर से आयोजन किया जाता है तो यहां पर कम से कम २०० ट्रेक मिट्टी डालनी पड़ेगी। फेडरेशन को भी शुल्क देना पड़ता है। इसी के साथ फेडरेशन का जिस आइल की गल्फ कंपनी से अनुबध है उसको भी पैसे देने पड़ते हैं।

मुख्यमंत्री से ५ लाख के अनुदान की उम्मीद


इस रोमांचक आयोजन के लिए प्रदेश संघ मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह से पांच लाख रुपए के अनुदान की उम्मीद कर रहा है। मुख्यमंत्री श्री सिंह राजनांदगांव की हॉकी के लिए जहां पांच लाख का अनुदान देते हैं, वहीं राजधानी में होने वाली एथलेटिक क्लब की हॉकी और हिन्द स्पोर्टिंग फुटबॉल के आयोजन के साथ खेलों के आयोजन को खुले दिल से मदद करते हैं। ऐसे में प्रदेश संघ का सोचना है कि छत्तीसगढ़ में एक ऐसे आयोजन के लिए जो काफी रोमांचक होगा और आज तक नहीं हुआ है, मुख्यमंत्री जरूर इसके १३ लाख के बजट को देखते हुए पांच लाख की मदद तो करेंगे ही। संघ से जुड़े लोग कहते हैं कि इतनी मदद होने से ही आयोजन संभव हो सकेगा अन्यथा पिछली बार की तरह इस बार भी मामला खटाई में पड़ सकता है। इस बार संघ के पदाधिकारियों ने मुख्यमंत्री डा. सिंह से मिलकर उनको आयोजन की पूरी जानकारी देने के साथ मदद मांगने का मन बनाया है।

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मंगलवार, जुलाई 14, 2009

मत बेचो मां को


एक दुस्वप्न देखता हूं

अपने ही भाई

मां को मार रहे हैं

उसके शरीर के

टुकड़े-टुकड़े कर रहे हैं

किन्तु मां

शांत, धैर्यपूर्ण मुद्रा में

उन्हें दुवाएं ही दे रही हैं

अचानक

मैं चौक उठता हूं

ये स्वप्न कहां

ये तो सच्चाई है

अपने ही भाई

भारत माता को

टुकड़ों में बांटने पर तुले हैं

अपने अंधे स्वार्थ की खातिर

विदेशियों के हाथों

बेचना चाहते हैं मां को

अरे पापियों

मत बेचो मां को

बड़ी मुश्किल से तो आजाद हुईं हैं

ये फिर जंजीरों का बोझ

सह न पाएगी

यदि जकड़ी गई फिर जंजीरों में

तो यह आजाद न हो पाएगी

(यह कविता हमने करीब 20 साल पहले लिखी थी, लेकिन आज भी हालात वही हैं बदले नहीं हैं)

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सोमवार, जुलाई 13, 2009

100 काम चलाऊ टिप्पणियों पर एक अच्छी टिप्पणी भारी

ब्लाग बिरादरी में काफी समय से टिप्पणियों को लेकर कई तरह के सवाल उठ रहे हैं। दो दिन पहले आशीष खंडेलवाल जी की एक पोस्ट पढऩे के बाद सोचा कि चलो इस पर अब लिख ही दिया जाए। वैसे काफी समय से हम इस पर लिखने के बारे में सोच रहे थे, पर मन नहीं बना पा रहे थे। आशीष जी की पोस्ट के बाद मन उसी दिन लिखने का था, लेकिन रविवार के दिन काम से बाहर चले गए और आज सुबह ही लौटे हैं, तो सोचा कि अब इस विषय पर लिखने में विलंब करना ठीक नहीं है। हमारा ऐसा मानना है कि एक तो सभी को इस मानसिकता से उबरने की जरूरत है कि टिप्पणी दें और टिप्पणी लें। अगर हमें टिप्पणी के बदले में काम चलाऊ 100 टिप्पणियां मिल जाती हैं और बिना टिप्पणी दिए एक ऐसी टिप्पणी मिल जाती है, जिसमें हमारे लिखे किसी लेख का पूरा विश्लेषण है या फिर हमारी उन कमियों के बारे में गंभीरता से बताया गया है जिन कमियों को अगर दूर कर दिया जाता तो लेख और ज्यादा असरदार बनता, तो हम तो कम से कम इस एक टिप्पणी को उन 100 टिप्पणियों से भारी समझते हैं। इसको इस रूप में भी समझा जा सकता है कि कोई भी कलाकार सच्ची तारीफ का भूखा होता है न कि ऐसी तारीफ का जो राह चलते की जाती है। इसको आगे चलकर हम बताएंगे भी की कैसे।

न जाने क्यों कर ब्लाग बिरादरी में यह मानसिकता घर कर गई है कि टिप्पणी देने से ही टिप्णणी मिलती है। हमें भी कुछ ऐसा लगता है कि लोग इस मानसिकता के शिकार हो गए हैं। अगर इसमें वास्तव में सच्चाई है तो यह जरूरी है कि इस मानसिकता से उबरना ही होगा। वरना एक दिन ऐसा आएगा कि अच्छा लिखने वाले संभवत: इस हीनभावना से ग्रस्त होकर लिखना बंद कर देंगे कि उनको कोई टिप्पणी देने वाला नहीं है। अगर हम अपनी बात करें तो हमें कभी भी काम चलाऊ टिप्पणी देना पसंद नहीं आता है। हम अपने पत्रकारिता के काम में इतने ज्यादा व्यस्त रहते हैं कि काम के कारण हम ज्यादा लेखों को पढ़ भी नहीं पाते हैं। अब यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम ज्यादा लेख पढ़ नहीं पाते हैं। अगर हम भी सिर्फ इसलिए बिना लेखों को पढ़े टिप्पणी करने लगें कि हमें टिप्पणियां नहीं मिलेंगी तो हो सकता है कि हम उस लेख की मूल भावना को समझे बिना कोई टिप्पणी कर दें जिससे लेख लिखने वाले लेखक की भावना आहत हो जाए। अभी दो दिन पहले ही अनिल पुसदकर ने चर्चा करते हुए बताया था कि उनके एक लेख पर एक सज्जन ने बिना लेख पढ़े ही टिप्पणी कर दी थी। आदतन अनिल जी किसी टिप्पणी का जवाब नहीं देते हैं, पर उस टिप्पणी के जवाब में उन्होंने लिखा। यह एक उदाहरण है ऐसे न जाने कितने उदाहरण होंगे।

हमारे एक और ब्लाग खेलगढ़ में नहीं के बराबर टिप्पणियों आती हैं। इसका कारण भी शायद यही है कि हम ज्यादा टिप्पणियां नहीं कर पाते हैं। हमको जब कोई लेख अच्छा लगता है तो जरूर समय निकाल कर गंभीरता से उसको पढऩे के बाद टिप्पणी करते हैं। हम इस बात से बचने की कोशिश करते हैं कि यह लिखा जाए कि आपका लेख बहुत अच्छा है, आभार.. आपने अच्छा मुद्दा उठाया है.. आदि। ऐसी टिप्पणियों से लेखक का कितना मनोबल बढ़ता है, हम नहीं बता सकते हैं। लेकिन हमारा ऐसा मानना है कि ऐसी टिप्पणियां किसी लेखक के लिए कोई मायने नहीं रखती हैं। यह बात ठीक उसी तरह से है जिस तरह से एक कलाकार को एक सच्चा कद्रदान मिल जाए तो वह एक कद्रदान बहुत होता है। यहां पर हम एक फिल्म शराबी के साथ एक और जीता जागता उदाहरण देना चाहेंगे। शराबी में अमिताभ जब जयाप्रदा के डांस पर उनको दाद देते हैं तो उस दाद में उनके हाथों से खून निकल जाता है। इस दाद को कलाकार के रूप में जयाप्रदा सबसे बड़ी दाद मानती है। उनका कहना रहता है कि इस दाद में उनको हजारों तालियां की गूंज से ज्यादा गूंज सुनाई दी। यह तो थी फिल्म की बात अब आपको बताते हैं कि एक सच्ची घटना।

बात आज से करीब 20 साल पुरानी है। तब हम लोगों से अपने गृहनगर भाटापारा में संगीत का एक कार्यक्रम आयोजित किया था। इस कार्यक्रम में खैरागढ़ संगीत विवि के एक वायलिन वादक भी आए थे। रात को करीब एक बजे कार्यक्रम समाप्त होने के बाद हम चंद मित्रों के आग्रह उस उन वायलिन बजाने वाले कलाकार से हम लोगों के साथ महफिल सजाई और हम लोगों ने जिन भी गानों की फरमाइश की, उन गानों को उन्होंने सुनाने का काम किया। हम चार मित्र थे, जो बड़ी गंभीरता से उनके संगीत को सुन रहे थे। उनके संगीत में हम लोग इस कदर खो गए थे कि कब सुबह के पांच बज गए मालूम ही नहीं हुआ। समय का किसी को पता ही नहीं चला। उस दिन उन वायलिन वादक ने हम लोगों से कहा था कि हर कलाकार इस तरह से कद्र करने वालों का भूखा होता है। उन्होंने साफ कहा कि मुझे भारी महफिल से ज्यादा मजा आप चार लोगों के साथ बैठकर आया।

ये दो उदाहरण इस बात को साबित करते हैं कि हर कलाकार और लेखक अपनी कला और लेख की सच्ची तारीफ का भूखा होता है। हमें किसी की लिखी बात पसंद आती है, तभी हम वहां पर टिपप्णी करते हैं। ऐसे में यह मानसिकता पालना गलत है कि टिप्पणी दो और टिप्पणी लो। ऐसा करने का सीधा सा मतलब यह है कि आप टिप्पणी के भूखे हैं। वैसे टिप्पणी की भूख गलत नहीं है, लेकिन जब आप टिप्पणी के बदले टिप्पणी की भूख शांत करने की मानसिकता में रहते हैं तो यह गलत है। जरूरी नहीं है कि जिसके लेख में हमने टिप्पणी की है, उनको हमारा लेख पसंद आए ही, ऐसे में वह टिप्पणी नहीं करेगा, तो क्या इसका मतलब यह है कि हम अगली बार उनके अच्छे लेख पर टिप्पणी ही न करें। अगर हम ऐसा करते हैं तो यह न सिर्फ उन अच्छे लिखने वालों के साथ अन्याय है बल्कि हम अपने जमीर से भी गिरते हैं। भले आज का जमाना एक हाथ दे एक हाथ ले जैसा हो गया है, लेकिन इस भावना को बदलने की जरूरत है और यह भावना बदलनी ही चाहिए। हमें तो लगता है कि वास्तव में आज ब्लाग बिरादरी में यही प्रचलन हो गया कि टिप्पणी दे और टिप्पणी लें, वरना कई अच्छे लेख लिखने वालों के टिप्पणी बक्से खाली नहीं होते। हमें नहीं मालूम लोगों की मानसिकता में बदलवा आएगा या नहीं लेकिन हम ऐसा सोचते हैं कि मानसिकता का बदलना जरूरी है। वरना एक दिन वह आएगा जब अच्छे लिखने वालों का टोटा पड़ जाएगा। अब इससे पहले की अच्छे लेखर ब्लाग बिरादरी से किनारा कर लें उनको बचाने की मुहिम पर काम करना जरूरी है।

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रविवार, जुलाई 12, 2009

ये स्टुडेंट कनशेसन क्या है?


एक दिन यूं ही कुछ पत्रकार मित्रों के साथ बैठे थे तो वहां पर कुछ नवोदित पत्रकार साथी भी थे। ऐसे में नए पत्रकार पूछने लगे कि भईया कोई स्टोरी बताईए न कोई खबर नहीं है। ऐसे में हमें एक समय में फिल्मों में मिलने वाले स्टुडेंट कनसेशन की याद आई तो हमने उस पत्रकार को सुझाया कि एक बढिय़ा स्टोरी स्टुडेंट कनसेशन पर बन सकती है। हमारे इतने कहते ही वे जनाब बोल पड़े कि भईया ये स्टुडेंट कनसेशन क्या है? हमने सोचा यार जब इसको यही नहीं मालूम की स्टुडेंट कनसेशन क्या है तो यह बंदा खबर क्या बनाएगा। हमने फिर उसे विस्तार से समझाया कि स्टुडेंट कनसेशन क्या है। हम आज यहां पर उसी कनसेशन की बात करने वाले हैं।

हमें याद है अपने स्कूल और कॉलेज का जमाना। जब उस समय कोई भी छात्र 8वीं क्लास में पहुंचता था, या कोई छात्र 11वीं पास करके कॉलेज जाता था (उस समय 12वीं क्लास नहीं होती थी) तो सबसे पहला काम वह यही करता था कि अपने स्कूल या कॉलेज में अपना आई कार्ड बनवाता था। उस समय यह कार्ड मात्र फिल्म देखने के काम आता था। हर सिनेमा हॉल में स्टुडेंट कनसेशन के लिए एक अलग से खिड़की होती थी और यह खिड़की कोई भी फिल्म लगने के पांचवें दिन से खुलती थी। तब इस खिड़की पर भी भारी भीड़ होती थी। तब स्टुडेंट कनसेशन रात के दो शो में ही मिलता था। रविवार के दिन सभी शो में यह कनसेशन छात्रों को मिलता था। हमें याद है जब हम भाटापारा में रहते थे तो हम लोग सिनेमा हॉल में जुगाड़ करके पहले ही दिन यह कनसेशन ले लेते थे।

आज से करीब दो दशक पहले स्टुडेंट कनसेशन का काफी बोलबाला था। लेकिन अब इस कनसेशन के बारे में स्टुडेंट जानते ही नहीं हंै। आज कॉलेज के आई कार्ड लायब्रेरी से किताबे लेने के लिए बनते हैं। यह एक अच्छी बात है, लेकिन स्टुडेंट कनसेशन भी तो छात्रों का हक है। इस समय जबकि महंगाई का जमाना है तो इसका महत्व और ज्यादा है। लेकिन लगता है कि आज के जमाने में पढऩे वाला युवा इतना ज्यादा संपन्न हो गया है कि उनको ऐसे किसी कनसेशन की दरकार ही नहीं है। आज तो किसी सिनेमा हॉल में कनसेशन के लिए कोई अलग से खिड़की भी नहीं है। आज के स्टुडेंट सिनेमा हॉल से ज्यादा मल्टीप्लेक्स मार्केट के सिनेमा हॉल में फिल्म देखना पसंद करते हैं। पहले युवाओं के पास इतने पैसे ही नहीं होते थे कि वे दो रुपए का टिकट लेकर फिल्म देख सकें। ऐसे में 80 या 90 पैसे का कनसेशन टिकट लेकर फिल्म देखने के लिए फिल्म के पांच दिनों के होने का बेताबी से इंतजार करते थे। आज युवा 100 रुपए से भी ज्यादा का टिकट लेकर पहले ही दिन फिल्म देखना पसंद करते हैं। एक बात और यह भी है कि आज सिनेमा हॉल में फिल्म देखने का क्रेज भी कम हो गया है। युवा अपने ग्रुप के साथ एक साथी के घर पर बैठकर कम्प्यूटर या फिर टीवी पर फिल्म देखना ज्यादा पसंद करते हैं।

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शनिवार, जुलाई 11, 2009

रायपुर में सजी ब्लागरों की महफिल

रवि रतलामी के साथ राजकुमार ग्वालानी।

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में मप्र के जाने-माने ब्लागर रवि शंकर श्रीवास्तव यानी रवि रतलामी का आना हुआ तो इसी बहाने रायपुर के प्रेस क्लब में उनके साथ ब्लागरों की एक छोटी सी महफिल सजी। इस महिफल में शिरकत करने वाले हमारे यानी राजतंत्र और खेलगढ़ के ब्लागर राजकुमार ग्वालानी , प्रेस क्लब के अध्यक्ष और अमीर धरती-गरीब लोग के ब्लागर भाई अनिल पुसदकर , भिलाई के जाने-माने ब्लागर बीएस पाबला और हमर छत्तीसगढ़ के ब्लागर संजीव तिवारी के साथ आवारा-बंजारा के ब्लागर संजीत त्रिपाठी के साथ एक और ब्लागर मित्र सचिन भी शामिल हुए। इस महफिल में लंबे समय तक ब्लागर मित्रों ने एक-दूसरे से जानकारियों का आदन-प्रदान किया। इस अवसर पर एक बार फिर से रायपुर में छत्तीसगढ़ और मप्र के ब्लागरों का एक परिचय सम्मेलन कराने पर चर्चा की गई। इस सम्मेलन का आयोजन जल्द किया जाएगा।





रवि रतलामी के साथ राजकुमार ग्वालानी, सचिन, संजीव तिवारी और संजीत त्रिपाठी।

रवि रतलामी प्रेस से मिलिए कार्यक्रम में साथ में हैं प्रेस क्लब अध्यक्ष अनिल पुसदकर और महासचिव गोकुल सोनी
संजीव तिवारी, रवि रतलामी, अनिल पुदसदकर और बीएस पाबला


रवि रतलामी जी मोबाइल पर बतियाते हुए

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