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रविवार, जुलाई 26, 2009

क्राइम रिपोर्टर या पुलिस के दलाल

मीडिया में इस समय क्राइम रिपोर्टिंग करने वाले रिपोर्टरों की छवि बिलकुल ठीक नहीं है। इनको एक तरह से पुलिस का दलाल कहा जाने लगा है। एक वह समय था जब क्राइम रिपोर्टर से पुलिस वाले खौफ खाते थे, लेकिन आज के क्राइम रिपोर्टरों में दम ही नहीं है कि वे पुलिस के खिलाफ कुछ लिख सकें। अगर वे ऐसा कुछ करते हैं तो उनको डर रहता है कि उनको खबरें ही नहीं मिलेंगी। इसी के साथ उनको यह भी डर रहता है कि अगर उनको किसी को छुड़ाना होगा तो पुलिस वाले उनकी बात नहीं सुनेंगे और उनकी दलाली बंद हो जाएगी। कुल मिलाकर आज के क्राइम रिपोर्टर रिपोर्टिंग नहीं पुलिस का रोजनामचा लिख रहे हैं और उनकी दलाली कर रहे हैं।

आज एक अखबार में अनारा गुप्ता वाले मामले में एक लेख पढऩे को मिला। वास्तव में इस लेख में जिस तरह से क्राइम रिपोर्टरों के बारे में लिखा गया था, वह सौ फीसदी सच है। आज के क्राइम रिपोर्टर सच में पुलिस के पीछे चलने वाले गुलाम से ज्यादा कुछ नहीं हैं। आज किसी क्राइम रिपोर्टर की अपनी कोई सोच नहीं रह गई है। पुलिस वाले जो उनको बता देते हैं, वही उनके लिए खबर है। कोई भी किसी खबर पर मेहनत ही नहीं करना चाहता है। आज कल तो कम से कम अपने छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में यह परंपरा हो गई है कि शाम को रोज पुलिस कंट्रोल रूम में सारे अखबारों के रिपोर्टरों को बुलाया जाता है और चाय की चुश्कियों के बीच उनको दिन भर में हुई घटनाओं का एक-एक पर्चा थमा दिया जाता है। रिपोर्टर वो पर्चा लेकर आ जाते हैं और वही सब बातें लिख देते हैं जो पुलिस अपने रोजनामचे में लिखती है। किसी रिपोर्टर की किसी घटना में थोड़ी से रूचि होती है तो वह उसके बारे में कुछ विस्तार से जानने का प्रयास करता है, पर यह विस्तार ऐसा नहीं होता है जिससे यह लगे कि रिपोर्टर पुलिस से एक कदम आगे की जानकारी रखता है।

हमें याद है जब हम लोग आज से करीब दो दशक पहले क्राइम रिपोर्टिंग करते थे। यह तो वह जमाना था जब न तो मोबाइल की सुविधा थी और न ही कोई दूसरी। फिर भी हम लोगों का नेटवर्क इतना तगड़ा था कि कोई भी घटना होते ही प्रेस में या फिर घर पर फोन आ जाता था और हम सीधे कूच कर जाते थे घटना स्थल की और ताकि देख सकें कि वास्तव में माजरा क्या है। घटना को देखने के बाद पुलिस से जो जानकारी मिलती थी वो और खुद हम जो जानकारी एकत्रित करते थे, वो मिलाकर खबर बनाते थे। कई मौका पर ऐसा हुआ कि पुलिस को हमारी जानकारी के आधार पर जांच करने में सफलता मिली। हमें आज भी याद है जब हमने राजीव गांधी के हत्यारे शिवरासन के बारे में खबर प्रकाशित की थी, तो उस खबर पर 8 पुलिस वाले निलंबित हो गए थे। इस खबर के बारे में हम पहले काफी विस्तार से लिख चुके हैं। हमने अपने शहर में अनिल पुसदकर जैसे भी क्राइम रिपोर्टर देखें हैं जिनके लेखन से हमेशा पुलिस में दहशत रही है। क्या उनको कभी किसी पुलिस वाले ने खबर न बताने की हिम्मत की? अनिल जी भी इसलिए दमदारी से लिखते थे कि उनको कोई पुलिस ने पैसे तो खाने नहीं रहते थे, न ही अपना कोई काम करना रहता था। हमें याद है कि हम जब क्राइम रिपोर्टिंग करते थे तो हम कभी भी किसी थाने में जाकर किसी थाने के प्रभारी के पास जाकर नहीं बैठे। हमारी दोस्ती सिपाहियों से ज्यादा रही। असल में खबरें बताने का काम यही करते हैं।

आज के क्राइम रिपोर्टरों की बात करें तो कोई भी रिपोर्टर एसपी से नीचे की बात नहीं करता है। एसपी अगर खबरें बताने लगे तो उनका ही निकाला हो जाएगा पुलिस विभाग से। एसपी तो बस आपको चाय पिला सकते हैं। और आज के रिपोर्टर सुबह को चाय और शाम को ठंड़ी चाय के आदि हो गए हैं। खबरें मिलती हैं कि एक ढाबे में एक आला अधिकारी क्राइम रिपोर्टरों को काकटेल पार्टी दे रहे हैं। यह सब रूटीन है, अगर आप क्राइम रिपोर्टर हैं और पीने का शौक रखते हैं तो आप भी आमंत्रित हैं, काकटेल पार्टी में। अब जनाब आप पुलिस वालों की दारू पिएंगे और उनका खाना खाएंगे तो फिर उनके खिलाफ लिखेंगे कैसे? लिखेंगे तो आप वही न जो पुलिस वाले बताएंगे। आपके अपने सोर्स तो ऐसे हैं नहीं कि आपको पुलिस वालों से ज्यादा जानकारी मिल सके। अगर ऐसे सोर्स रखने का दम आपमें है, तो जरूर पुलिस वाले भी आपके आगे-पीछे घुमेंगे। आज स्थिति यह है कि आज किसी रिपोर्टर को पुलिस से कोई जानकारी चाहिए होती है तो वह पुलिस वालों के आगे-पीछे कई दिनों तक घुमता है तब जाकर जानकारी मिलती है। कारण साफ है, आपकी नीयत और काम करने का तरीका दोनों साफ नहीं है। आप में अगर दम है तो पुलिस का कोई भी आला अफसर आपके एक इशारे पर सारा काम छोड़कर आपके द्वारा मांगी गई जानकारी हाजिर कर देगा। लेकिन पुलिस वाले जानते हैं कि आज के रिपोर्टरों में दम नहीं है। ऐसे में वे आपकी क्यों सुनने लगे।

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