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रविवार, जुलाई 26, 2009

रक्षक ही बना भक्षक

अचानक

राह के मध्य

भीड़ का हुजूम देखकर

उत्सुकतावश

हम उस और चल पड़े

देखा, नजारा बड़ा अजीब था

एक भयानक शक्ल-सूरत वाला गुंडा

एक असहाय अबला पर जोर आजमा रहा था

शायद उसे कहीं अपने साथ ले जाकर मनमानी करना चाहता था

वह अबला


आंसू भरी आंखों से

मदद की फरियाद कर रही थी


पर, भीड़ बिना टिकट का तमाशा देखने में लीन थी

अचानक

एक पुलिस वाला उधर आ निकला

उसने गुंडे को डरा-धमकाकर

कुछ ले-देकर चलता किया

फिर उस अबला को लेकर थाने की और चल पड़ा

हमारा कवि मन

अबला का हाल जानने के लिए उसके पीछे चल पड़ा

पुलिस वाला

अबला को लेकर थाने में घुस गया

हम बाहर खड़े काफी देर तक इंतजार करते रहे

अचानक

वह अबला थाने से दौड़ती हुई बाहर आई

और

वह उस ओर दौड़ी जिस तरफ रेलवे की लाइन थी

हम उसका इरादा भांप

उसके पीछे भागे

पर, हमें उस तक पहुंचने में कुछ देर हो गई

और, वह अबला अपने मकसद में कामयाब हो गई

ट्रेन के नीचे आकर वह इस दुनिया से कूच कर गई

लेकिन

उसके फटे कपड़े अब भी उसके साथ हुए

अत्याचार की कहानी बता रहे थे

और उसकी लाश के टुकड़े

कानून के रक्षकों के हंसी उड़ा रहे थे

(पटना की घटना को देखते हुए हमें यह बरसों पुरानी लिखी कविता याद आई जिसे हमने यहां पेश किया है)

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