केन्द्र सरकार का कसूर-जो नक्सली समस्या बनी नासूर
छत्तीसगढ़ की नक्सली समस्या को अब जाकर केन्द्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने गंभीर मुद्दा माना है और कहा है कि इस समस्या से निपटने में सरकारें नाकाम रही हैं। चिदंबरम साहब सरकारें नहीं बल्कि केन्द्र सरकार कहें। सच्चाई यही है कि अगर केन्द्र सरकार ने इस मुद्दे को प्रारंभ से ही गंभीरता से लिया होता तो आज यह समस्या नासूर का रूप नहीं लेती। हमें कम से कम छत्तीसगढ़ की नक्सली समस्या के बारे में इतना मालूम है कि इस समस्या से केन्द्र सरकार को आज से नहीं बल्कि पिछले तीन दशकों से आगाह किया जाता रहा है, पर केन्द्र से इस पर कभी भी गंभीरता से ध्यान नहीं दिया। पुलिस के एक आला अधिकारी जो बस्तर में लंबे समय तक रहे हैं अगर उनकी बातें मानें तो उनका साफ कहना है कि बस्तर में पिछले तीस सालों में जितने भी पुलिस अधीक्षक रहे हैं उनका रिकॉर्ड निकाल कर देख लिया जाए तो यह बात साफ होती है कि बस्तर में जिस समय नक्सलियों ने पैर पसारने प्रारंभ किए थे, तभी से केन्द्र को इसकी रिपोर्ट लगातार भेजी जाती रही है, पर केन्द्र सरकार ने कभी इस मुद्दे पर ध्यान देना जरूरी नहीं समझा।
राजनांदगांव जिले में हुई सबसे बड़ी नक्सली समस्या के बाद जहां प्रदेश की नक्सली समस्या पर रमन सरकार गंभीर नजर आ रही है, वहीं केन्द्र सरकार को भी अब लगने लगा है कि सच में यह समस्या गंभीर है। इसके पहले तक तो लगता है कि केन्द्र सरकार छत्तीसगढ़ की नक्सली समस्या को केवल छत्तीसगढ़ की समस्या मानकर ही चल रही थी। वैसे देखा जाए तो छत्तीसगढ़ को अलग हुए अभी एक दशक भी नहीं हुआ है, और छत्तीसगढ़ में नक्सली समस्या कम से कम तीन दशक पुरानी है। इन तीन दशकों में शायद ही ऐसा कोई साल और बस्तर का ऐसा कोई एसपी होगा जिसने इस समस्या के बारे में केन्द्र सरकार को अवगत नहीं कराया होगा। छत्तीसगढ़ से पहले मप्र के गृह विभाग और अब छत्तीसगढ़ के गृह विभाग ने लगातार केन्द्र के पास इस समस्या की रिपोर्ट भेजी है। बस्तर में लंबे समय तक पुलिस अधीक्षक रहने वाले एक एसपी का दावा है कि बस्तर में आज तक जितने भी एसपी रहे हैं, उनमें से ऐसा कोई नहीं होगा जिसने नक्सली समस्या के बारे में केन्द्र तक रिपोर्ट नहीं भिजवाई होगी। अगर तीन दशक पहले जब बस्तर में नक्सली पैर पसार रहे थे, उस समय केन्द्र सरकार ने इस दिशा में ध्यान दिया होता तो आज छत्तीसगढ़ में यह समस्या विकराल रूप में सामने नहीं आती। छत्तीसगढ़ अलग होने के बाद भी लगातार केन्द्र को इस बारे में बताया जाता रहा, पर केन्द्र सरकार तो राजनीति में उलझी रही और इस समस्या पर ध्यान नहीं दिया गया। जब प्रदेश में जोगी सरकार आई तो केन्द्र में भाजपा गठबंधन की सरकार थी। और जब प्रदेश में भाजपा की सरकार है, तो आज जहां केन्द्र में कांग्रेस गठबंधन की सरकार है, वहीं इसके पहले भी कांग्रेस गठबंधन की सरकार थी। जब बस्तर में नक्सलियों ने बसेरा करना शुरू किया था, तब भी केन्द्र में कांग्रेस की सरकार थी। कुल मिलाकर देखा जाए तो केन्द्र की कांग्रेस सरकार ही नक्सली समस्या के लिए दोषी नजर आती है।
छत्तीसगढ़ में हालात ये हैं कि यहां के कांग्रेसी प्रदेश की भाजपा सरकार को इसके लिए दोषी मानने का कोई मौका नहीं गंवा रहे हैं। राजनांदगांव की घटना के बाद तो कांग्रेसियों ने प्रदेश में राष्ट्रपति शासन तक लगाने की मांग कर दी है। ये कांग्रेसी अपने केन्द्र की सरकार से यह सवाल क्यों नहीं करते हैं कि जब लगातार केन्द्र के पास इस समस्या के प्रारंभ से ही रिपोर्ट जाती रही है तो सरकार ने इस दिशा में ध्यान क्यों नहीं दिया। क्या विपक्ष में बैठने का मलतब यही होता है कि आप सत्ता में बैठी पार्टी पर चाहे जैसा भी हो दोष लगा दे। हमारा यहां पर कताई भाजपा की सरकार का पक्ष लेने का मकसद नहीं है। लेकिन राजनीति से ऊपर उठकर कांग्रेस को सोचने की जरूरत है कि वास्तव में इस समस्या के लिए असली दोषी कौन है। अगर कांग्रेसी इस समस्या से प्रदेश को मुक्त कराने की सच्ची भावना रखते हैं तो पहले केन्द्र सरकार से जरूर यह सवाल करें कि क्यों कर केन्द्र सरकार ने अब तक इस समस्या के समाधान का रास्ता नहीं निकाला है। माना कि प्रदेश में भाजपा की सरकार के आने के बाद नक्सली घटनाओं में बेतहासा इजाफा हुआ है, लेकिन यह भी सत्य है कि नक्सलियों को मार गिराने का काम भी पुलिस ने भाजपा शासन में ही बहुत किया है। यहां पर आंकड़े बताने की जरूरत नहीं है। अजीत जोगी के शासनकाल में कितने नक्सली मारे गए ये बात कांग्रेसी भी अच्छी तरह से जानते हैं। यदा-कदा दबी जुबान में ही सही यही कहा जाता रहा है कि जब प्रदेश में जोगी सरकार थी, तब उसका नक्सलियों से मौन समझौता था जिसके कारण जहां नक्सली घटनाएं कम हुईं, वहीं नक्सलियों का मारने का काम पुलिस ने नहीं किया।
कुल मिलाकर बात यह है कि एक तरफ कांग्रेसी नक्सली समस्या के लिए भाजपा को दोषी मान रहे हैं तो दूसरी तरफ भाजपाई कांग्रेस की केन्द्र सरकार को दोषी मान रहे हैं। भाजपा के दावे में इसलिए दम है क्योंकि केन्द्र के पास शुरू से नक्सली समस्या की रिपोर्ट भेजी जाती रही है और केन्द्र ने कुछ नहीं किया है। अब जबकि यह समस्या पूरी तरह से नासूर बन गई है तो यह वक्त एक-दूसरे पर आरोप लगाने का नहीं बल्कि इस समस्या को जड़ से समाप्त करने का है। इसके लिए देश के दोनों बड़े राजनीतिक दलों को राजनीति से ऊपर उठकर काम करना होगा तभी नक्सली समस्या से मुक्ति मिल सकेगी। अगर यूं ही दोनों दल लड़ते रहे तो नक्सली आतंक का कभी भी अंत नहीं हो सकेगा।
9 टिप्पणियाँ:
कसूर तलाशने से काम नहीं चलेगा। वास्तविक कसूर उस व्यवस्था का है जो असमान विकास करती है। यह न हो तो नक्सलवाद को अवसर ही कहाँ था। सरकारें तब चेतती हैं जब जख्म नासूर बन जाता है। अब भी केवल पुलिस और फौज से यह समस्या हल नहीं होने की। असमान विकास की स्थिति की समाप्ति और नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के आदिवासियों के लिए रोजगार के अधिक अवसर दे कर ही इस समस्या को हल किया जा सकेगा।
ये तो पते की बात बताई आपने की केन्द्र के पास तीन दशक से रिपोर्ट जा रही है और सरकार कुछ नहीं कर रही है।
राजनीतिक पार्टियों को केवल अपनी रोटियां सेकने से मतलब रहता है। दूसरी पार्टियों पर आरोप लगाना ही तो इनका पेशा है।
चिदंबरम साहब सरकारें नहीं बल्कि केन्द्र सरकार कहें। सच्चाई यही है कि अगर केन्द्र सरकार ने इस मुद्दे को प्रारंभ से ही गंभाीरता से लिया होता तो आज यह समस्या नासूर का रूप नहीं लेती।
ये बात को बिलकुल ठीक कही है आपने
जोगी शासनकाल में सच में नक्सली समस्या ज्यादा नहीं थी। यह सोचने वाली बात है कि आखिर कारण क्या था। क्या सच में नक्सलियों से ऐसी कोई सांठ-गांठ थी, यह बड़ा यक्ष प्रश्न है।
तीस साल का समय कम नहीं होता है। केन्द्र सरकार क्या अब तक सो रही थी।
नक्सलियों ने निपटना क्या किसी राज्य सरकार के बस में है। केन्द्र की मदद के बिना कैसे इस समस्या से निपटा जा सकता है।
चोर-चोर मौसेरे भाई।
अनिल जी से सहमत
एक टिप्पणी भेजें