जनप्रनिधियों के लिए हिन्दी अविनार्य हो
हिन्दी का जिस तरह से राजनेता लगातार मजाक बना रहे हैं, उसके बाद अब यह जरूरी लगता है कि अपने देश में कम से कम ऐसा कानून बनाने की जरूरत है जिसमें जनप्रतिनिधियों के लिए हिन्दी अनिवार्य हो। जिसको हिन्दी नहीं आएगी, वह चुनाव लडऩे का ही पात्र नहीं होगा। ऐसा करने से जरूर उन अहिन्दी भाषायी राज्यों के नेताओं को परेशानी होगी, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अपने ही देश में अगाथा संगमा जैसी मंत्री भी हैं जो अहिन्दी भाषीय राज्य की होने के बाद भी हिन्दी में शपथ लेने में गर्व महसूस करती हैं। अगर आप सच्चे दिल से हिन्दुस्तानी हैं तो फिर आपको हिन्दी बोलने में कैसी शर्म। अगर आप सच में देश की सेवा करने के लिए जनप्रतिनिधि बनना चाहते हैं तो फिर हिन्दी सिखने में क्या जाता है। हिन्दी आपके काम ही आएगी। हिन्दी में आपको बोलता देखकर आपके राज्य की जनता भी आप पर गर्व ही करेगी।
संसद में एक मंत्री जयराम रमेश ने जिस तरह से हिन्दी का अपमान किया है उसके बाद यह बात जरूरी हो जाती है कि इस देश में अपने देश की सरकार को गंभीरता से सोचना चाहिए। देश के संविधान में हिन्दी न जानने वालों के लिए अंग्रेजी में बोलने की जो छूट दी गई है, उसका लगातार गलत फायदा उठाया जा रहा है और हिन्दी का अपमान करने का सिलसिला लगातार जारी है। कब तक, आखिर कब तक हिन्दी का अपमान बर्दाश्त किया जाता रहेगा। हिन्दी का अपमान करने वालों को सबक सिखाना जरूरी है। इसके लिए यह जरूरी है कि इस दिशा में पहला कदम बढ़ाने का काम केन्द्र सरकार करें। हमारा तो ऐसा मानना है कि अपने राजनेता ही हिन्दी का सबसे ज्यादा अपमान करते हैं। ऐसे में इनके लिए यह जरूरी हो जाता है कि इनको हिन्दी में बोलने के लिए बाध्य किया जाए। ये हिन्दी में बोलने के लिए बाध्य तभी होंगे जब संविधान में ऐसा कोई प्रावधान किया जाएगा। हमें ऐसा लगता है कि कम से कम जनप्रतिनिधयों के लिए तो हिन्दी को अनिवार्य कर देना चाहिए।
अगर अपने देश की विधानसभाओं के साथ संसद में ही हिन्दी से मतलब नहीं रहेगा तो फिर हिन्दी की परवाह कौन करेगा। जब संविधान बनाने वाले ही हिन्दी को हेय नजरों से देखेंगे तो फिर आम लोगों से आप कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वे राष्ट्रभाषा का मान करेंगे। जिनके हाथों में देश की कमान है, पहले तो उनको ही हिन्दी प्रेम दिखाना होगा। हिन्दी प्रेम दिखाने का काम कई मौका पर अगाथा संगमा जैसी नेताओं ने किया है। जब-जब ऐसे नेताओं ने हिन्दी प्रेम दिखाया है, उन पर सबने गर्व ही किया है। क्यों नहीं हर अहिन्दी भाषीय राज्य के नेता अगाथा संगमा का अनुशरण कर सकते हैं? इसमें कोई शर्म की बात तो नहीं है कि आप हिन्दी सिख रहे हैं या फिर हिन्दी में बोल रहे हैं। अगर कोई जापानियों, चीनियों या रूसियों को कहे कि वे अपनी भाषा में क्यों बोलते हैं तो क्या यह उचित होगा। जिस देश की जो भाषा है, उस भाषा में बोलना ही गर्व है, न कि किसी और देश की भाषा में बोलना। माना कि अपने देश में कई भाषाओं का संगम है, लेकिन इसका मतलब कदापि नहीं है कि आप उस राष्ट्रभाषा को ही भूल जाए जिसके कारण यह राष्ट्र है और इसका मान है। अंग्रेजी को सहभाषा के रूप में भारत में ही नहीं हर देश में प्रयोग में लाया जाता है, लेकिन इसका मलतब यह नहीं है कि दूसरे देश में लोग अपनी भाषा को छोड़कर अंग्रेजी के पीछे भागने लगे हैं जैसा अपने देश में हो रहा है।
कहा जाता है कि मान देने से ही मान मिलता है, अगर आप हिन्दी का मान ही नहीं करेंगे तो आपको मान कहां से मिलेगा। इतिहास गवाह है कि जब भी जिसने हिन्दी का मान किया है उसका मान बढ़ा ही न कि घटा है। अपने देश में अगाथा संगमा जैसे कई नेता हैं, वहीं कई अफसर भी हैं जो अहिन्दी भाषीय राज्यों के होने के बाद भी हिन्दी बोलने में गर्व महसूस करते हैं। अपने राज्य छत्तीसगढ़ के राज्यपाल ईएसएल नरसिम्हन हिन्दी भाषीय राज्य के न होने के बाद भी इतना अच्छी हिन्दी बोलते हैं कि उनको हिन्दी बोलते देखकर ही गर्व होता। ऐसे कई उदाहरण हैं। अगर इच्छाशक्ति हो तो किसी भी भाषा के व्यक्ति के लिए कम से कम हिन्दी कठिन नहीं हो सकती है। देश के हर नागरिक को यह संकल्प लेना चाहिए कि वह हिन्दी में बोलेगा। बेशक आप अहिन्दी भाषीय हैं, तो हिन्दी में न लिखें, पर बोलने में परेशानी नहीं होनी चाहिए। आईये आज ही संकल्प लें कि हम राष्ट्रभाषा का मान रखने के लिए न सिर्फ खुद हिन्दी में बोलेंगे बल्कि इसके लिए दूसरों को प्रेरित करने का काम करेंगे। अगर ऐसा हो जाए तो फिर कभी कोई हिन्दी का अपमान नहीं करेगा।
19 टिप्पणियाँ:
यह बात आपने ठीक लिखी है कि जनप्रतिनिधियों के लिए हिन्दी को अनिवार्य किया जाए।
अगर आप हिन्दी का मान ही नहीं करेंगे तो आपको मान कहां से मिलेगा।
-सत्य वचन...यही तो हमारी पहचान है.
अरे साब ये तो बहुत गंभीर मुद्दा है ..
संविधान में एक छोटा-सा संशोधन हो जाए तो स्वत: हिन्दी को उसका हक मिल जाएगा। हमारे संविधान में राजभाषा यानी राजकाज की भाषा का प्रावधान किया गया है और हिन्दी को राजभाषा घोषित भी किया गया है। लेकिन साथ ही यह भी जोड़ दिया गया है कि व्यवहार में राजभाषा के रूप में पहले की तरह अंग्रेजी का इस्तेमाल होता रहेगा। बस इसी साजिश को सुधारने की जरूरत है।
अगाथा संगमा जैसी मंत्रियों से प्रेरणा लेनी चाहिए।
हिन्दी का मान बढ़ाने का काम हर हिन्दुस्तानी को करना होगा।
बिल्कुल ठीक है। जिसे हिंदी नहीं आती उसे चुनाव लड़ने ही नहीं देना चाहिए।
मेरी बेटी का कहना है कि भले ही आगे पीछे ना बोलें यह, लेकिन शपथ तो कम से कम लें हिंदी में, जिससे इनकी प्रतिबद्धता जाहिर हो।
अगर इच्छाशक्ति हो तो किसी भी भाषा के व्यक्ति के लिए कम से कम हिन्दी कठिन नहीं हो सकती है। देश के हर नागरिक को यह संकल्प लेना चाहिए कि वह हिन्दी में बोलेगा।
यह बात तो सच है।
राष्ट्रभाषा का अपमान बर्दाश्त क्यों किया जाए। ऐसा करने वालों के लिए सजा का प्रावधान हो।
अंग्रेजी से परहेज नहीं है, पर हिन्दी की शर्त पर अंग्रेजी कबूल नहीं।
छत्तीसगढ़ के राज्यपाल नरसिम्हन भी अहिन्दी भाषीय राज्यों के लोगों के लिए प्रेरणा का काम कर सकते हैं।
क्षेत्रीय भाषाओं के कारण भी हिन्दी का नुकसान होता है .. लोग या तो क्षेत्रीय या फिर अंग्रेजी को ही तवज्जो देते हैं !!
आईये आज ही संकल्प लें कि हम राष्ट्रभाषा का मान रखने के लिए न सिर्फ खुद हिन्दी में बोलेंगे बल्कि इसके लिए दूसरों को प्रेरित करने का काम करेंगे। अगर ऐसा हो जाए तो फिर कभी कोई हिन्दी का अपमान नहीं करेगा।
चलो हमने भी संकल्प लिया
हिन्दी का जिस तरह से राजनेता लगातार मजाक बना रहे हैं, उसके बाद अब यह जरूरी लगता है कि अपने देश में कम से कम ऐसा कानून बनाने की जरूरत है जिसमें जनप्रतिनिधियों के लिए हिन्दी अनिवार्य हो।
ऐसा होना ही चाहिए
हिन्दी को अनिवार्य करना ही चाहिए
नेता कभी नहीं सुधर सकते गुरु
हिन्दी का जो नहीं करेगा मान उसकी ले लेंगे जान
कब तक, आखिर कब तक हिन्दी का अपमान बर्दाश्त किया जाता रहेगा। हिन्दी का अपमान करने वालों को सबक सिखाना जरूरी है।
इस बात से मैं भी सहमत हूं।
राजनेता हिन्दी का ही नहीं बल्कि देश का भी अपमान करने से बाज नहीं ्आते हैं। हिन्दी न बोलने वाले राजनेताओं का बहिष्कार किया जाए।
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