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सोमवार, जुलाई 13, 2009

100 काम चलाऊ टिप्पणियों पर एक अच्छी टिप्पणी भारी

ब्लाग बिरादरी में काफी समय से टिप्पणियों को लेकर कई तरह के सवाल उठ रहे हैं। दो दिन पहले आशीष खंडेलवाल जी की एक पोस्ट पढऩे के बाद सोचा कि चलो इस पर अब लिख ही दिया जाए। वैसे काफी समय से हम इस पर लिखने के बारे में सोच रहे थे, पर मन नहीं बना पा रहे थे। आशीष जी की पोस्ट के बाद मन उसी दिन लिखने का था, लेकिन रविवार के दिन काम से बाहर चले गए और आज सुबह ही लौटे हैं, तो सोचा कि अब इस विषय पर लिखने में विलंब करना ठीक नहीं है। हमारा ऐसा मानना है कि एक तो सभी को इस मानसिकता से उबरने की जरूरत है कि टिप्पणी दें और टिप्पणी लें। अगर हमें टिप्पणी के बदले में काम चलाऊ 100 टिप्पणियां मिल जाती हैं और बिना टिप्पणी दिए एक ऐसी टिप्पणी मिल जाती है, जिसमें हमारे लिखे किसी लेख का पूरा विश्लेषण है या फिर हमारी उन कमियों के बारे में गंभीरता से बताया गया है जिन कमियों को अगर दूर कर दिया जाता तो लेख और ज्यादा असरदार बनता, तो हम तो कम से कम इस एक टिप्पणी को उन 100 टिप्पणियों से भारी समझते हैं। इसको इस रूप में भी समझा जा सकता है कि कोई भी कलाकार सच्ची तारीफ का भूखा होता है न कि ऐसी तारीफ का जो राह चलते की जाती है। इसको आगे चलकर हम बताएंगे भी की कैसे।

न जाने क्यों कर ब्लाग बिरादरी में यह मानसिकता घर कर गई है कि टिप्पणी देने से ही टिप्णणी मिलती है। हमें भी कुछ ऐसा लगता है कि लोग इस मानसिकता के शिकार हो गए हैं। अगर इसमें वास्तव में सच्चाई है तो यह जरूरी है कि इस मानसिकता से उबरना ही होगा। वरना एक दिन ऐसा आएगा कि अच्छा लिखने वाले संभवत: इस हीनभावना से ग्रस्त होकर लिखना बंद कर देंगे कि उनको कोई टिप्पणी देने वाला नहीं है। अगर हम अपनी बात करें तो हमें कभी भी काम चलाऊ टिप्पणी देना पसंद नहीं आता है। हम अपने पत्रकारिता के काम में इतने ज्यादा व्यस्त रहते हैं कि काम के कारण हम ज्यादा लेखों को पढ़ भी नहीं पाते हैं। अब यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम ज्यादा लेख पढ़ नहीं पाते हैं। अगर हम भी सिर्फ इसलिए बिना लेखों को पढ़े टिप्पणी करने लगें कि हमें टिप्पणियां नहीं मिलेंगी तो हो सकता है कि हम उस लेख की मूल भावना को समझे बिना कोई टिप्पणी कर दें जिससे लेख लिखने वाले लेखक की भावना आहत हो जाए। अभी दो दिन पहले ही अनिल पुसदकर ने चर्चा करते हुए बताया था कि उनके एक लेख पर एक सज्जन ने बिना लेख पढ़े ही टिप्पणी कर दी थी। आदतन अनिल जी किसी टिप्पणी का जवाब नहीं देते हैं, पर उस टिप्पणी के जवाब में उन्होंने लिखा। यह एक उदाहरण है ऐसे न जाने कितने उदाहरण होंगे।

हमारे एक और ब्लाग खेलगढ़ में नहीं के बराबर टिप्पणियों आती हैं। इसका कारण भी शायद यही है कि हम ज्यादा टिप्पणियां नहीं कर पाते हैं। हमको जब कोई लेख अच्छा लगता है तो जरूर समय निकाल कर गंभीरता से उसको पढऩे के बाद टिप्पणी करते हैं। हम इस बात से बचने की कोशिश करते हैं कि यह लिखा जाए कि आपका लेख बहुत अच्छा है, आभार.. आपने अच्छा मुद्दा उठाया है.. आदि। ऐसी टिप्पणियों से लेखक का कितना मनोबल बढ़ता है, हम नहीं बता सकते हैं। लेकिन हमारा ऐसा मानना है कि ऐसी टिप्पणियां किसी लेखक के लिए कोई मायने नहीं रखती हैं। यह बात ठीक उसी तरह से है जिस तरह से एक कलाकार को एक सच्चा कद्रदान मिल जाए तो वह एक कद्रदान बहुत होता है। यहां पर हम एक फिल्म शराबी के साथ एक और जीता जागता उदाहरण देना चाहेंगे। शराबी में अमिताभ जब जयाप्रदा के डांस पर उनको दाद देते हैं तो उस दाद में उनके हाथों से खून निकल जाता है। इस दाद को कलाकार के रूप में जयाप्रदा सबसे बड़ी दाद मानती है। उनका कहना रहता है कि इस दाद में उनको हजारों तालियां की गूंज से ज्यादा गूंज सुनाई दी। यह तो थी फिल्म की बात अब आपको बताते हैं कि एक सच्ची घटना।

बात आज से करीब 20 साल पुरानी है। तब हम लोगों से अपने गृहनगर भाटापारा में संगीत का एक कार्यक्रम आयोजित किया था। इस कार्यक्रम में खैरागढ़ संगीत विवि के एक वायलिन वादक भी आए थे। रात को करीब एक बजे कार्यक्रम समाप्त होने के बाद हम चंद मित्रों के आग्रह उस उन वायलिन बजाने वाले कलाकार से हम लोगों के साथ महफिल सजाई और हम लोगों ने जिन भी गानों की फरमाइश की, उन गानों को उन्होंने सुनाने का काम किया। हम चार मित्र थे, जो बड़ी गंभीरता से उनके संगीत को सुन रहे थे। उनके संगीत में हम लोग इस कदर खो गए थे कि कब सुबह के पांच बज गए मालूम ही नहीं हुआ। समय का किसी को पता ही नहीं चला। उस दिन उन वायलिन वादक ने हम लोगों से कहा था कि हर कलाकार इस तरह से कद्र करने वालों का भूखा होता है। उन्होंने साफ कहा कि मुझे भारी महफिल से ज्यादा मजा आप चार लोगों के साथ बैठकर आया।

ये दो उदाहरण इस बात को साबित करते हैं कि हर कलाकार और लेखक अपनी कला और लेख की सच्ची तारीफ का भूखा होता है। हमें किसी की लिखी बात पसंद आती है, तभी हम वहां पर टिपप्णी करते हैं। ऐसे में यह मानसिकता पालना गलत है कि टिप्पणी दो और टिप्पणी लो। ऐसा करने का सीधा सा मतलब यह है कि आप टिप्पणी के भूखे हैं। वैसे टिप्पणी की भूख गलत नहीं है, लेकिन जब आप टिप्पणी के बदले टिप्पणी की भूख शांत करने की मानसिकता में रहते हैं तो यह गलत है। जरूरी नहीं है कि जिसके लेख में हमने टिप्पणी की है, उनको हमारा लेख पसंद आए ही, ऐसे में वह टिप्पणी नहीं करेगा, तो क्या इसका मतलब यह है कि हम अगली बार उनके अच्छे लेख पर टिप्पणी ही न करें। अगर हम ऐसा करते हैं तो यह न सिर्फ उन अच्छे लिखने वालों के साथ अन्याय है बल्कि हम अपने जमीर से भी गिरते हैं। भले आज का जमाना एक हाथ दे एक हाथ ले जैसा हो गया है, लेकिन इस भावना को बदलने की जरूरत है और यह भावना बदलनी ही चाहिए। हमें तो लगता है कि वास्तव में आज ब्लाग बिरादरी में यही प्रचलन हो गया कि टिप्पणी दे और टिप्पणी लें, वरना कई अच्छे लेख लिखने वालों के टिप्पणी बक्से खाली नहीं होते। हमें नहीं मालूम लोगों की मानसिकता में बदलवा आएगा या नहीं लेकिन हम ऐसा सोचते हैं कि मानसिकता का बदलना जरूरी है। वरना एक दिन वह आएगा जब अच्छे लिखने वालों का टोटा पड़ जाएगा। अब इससे पहले की अच्छे लेखर ब्लाग बिरादरी से किनारा कर लें उनको बचाने की मुहिम पर काम करना जरूरी है।

13 टिप्पणियाँ:

Unknown सोम जुल॰ 13, 01:42:00 pm 2009  

बहुत सटीक और सही उदाहरण दिए हैं, आपने कलाकार और लेखक में कोई अंतर नहीं होता है। हर कलाकार और लेखर सच्ची तारीफ का ही भूखा होता है।

Unknown सोम जुल॰ 13, 01:52:00 pm 2009  

इसमें संदेह नहीं है कि अगर कोई गंभारती से लेख पढ़कर टिप्पणी करता है तो वह टिप्पणी जरूर टिप्पणी ले, टिप्पणी दे जैसी टिप्पणियों पर भारी रहती है।

Arkjesh सोम जुल॰ 13, 02:06:00 pm 2009  

इस विषय में हमने भी कुछ अर्ज किया है |कॄपया गौर फ़रमायें

"हिन्दी ब्लॉगिंग में टिप्प्णी का महत्व"
http://arkjesh.blogspot.com/2009/07/blog-post_07.html

Unknown सोम जुल॰ 13, 02:15:00 pm 2009  

टिप्पणी देकर टिप्पणी लें कि मानसिकता से ऊबरना जरूरी है।

बेनामी,  सोम जुल॰ 13, 02:32:00 pm 2009  

न जाने क्यों लोग टिप्पणी के बदले टिप्पणी देने की मानसिकता पर चल रहे हैं।

asif ali,  सोम जुल॰ 13, 02:48:00 pm 2009  

अगर आपके लेख में दम है तो टिप्पणियां मिलेंगी जरूर।

बेनामी,  सोम जुल॰ 13, 02:56:00 pm 2009  

ये सच है कि बहुतेरी टिप्पणियाँ बिना पूरी पोस्ट पढ़े की जाती हैं

पी.सी.गोदियाल "परचेत" सोम जुल॰ 13, 03:01:00 pm 2009  

श्रीमानजी, आपने बहुत अच्छा लेख लिखा है , मेरे ब्लॉग पर भी पधारने का कष्ट करे, नहीं तो मेरी टिपण्णी आप पर उधार रहेगी, धन्यवाद !!

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" सोम जुल॰ 13, 05:12:00 pm 2009  

आपका कहना बिल्कुल सही है कि इस प्रकार की मानसिकता में बदलाव की बहुत आवश्यकता है. मेरे विचार से बहुत बढिया,अति सुन्दर,बहुत खूब जैसी कामचलाऊ टिप्पणी देने का एक कारण यह भी है कि कहीं न कहीं हम लोग इस आपसी छद्म संबंधों में बिगाड से डरते हैं। मन में ये भय रहता है कि कहीं हमने टिप्पणी में उनके लिखे से यदि असहमति जताई या फिर उनके लेखन में किसी कमी की ओर इशारा किया तो कहीं वो बदले में हमें टिप्पणी करना बन्द न कर दे। यूँ भी हिन्दी ब्लागरों में अभी इतनी परिपक्वता नहीं दिखाई देती कि वे अपनी आलोचना को बर्दाश्त कर सकें।

श्यामल सुमन सोम जुल॰ 13, 07:36:00 pm 2009  

अर्थपूर्ण टिप्पणी का हरदम पड़ता अलग प्रभाव।
चलतऊ टिप्पणी छोड़कर बदलें सभी स्वभाव।।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

Udan Tashtari सोम जुल॰ 13, 09:27:00 pm 2009  

सत्य वचन कहे. पूरा पढ़ कर टिप्पणी कर रहा हूँ. :)

Anil Pusadkar सोम जुल॰ 13, 11:11:00 pm 2009  

तुम काहे चिंता कर रहे हो टिपण्णीयों की।तुम तो बस लिखते जाओ धडाधड्।

Ashish Khandelwal मंगल जुल॰ 14, 10:37:00 am 2009  

हम्ममम.. बात में दम है.. आभार

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