राज ठाकरे को हिन्दी से नफरत क्यों?
यह बात समझ से परे हैं कि अपनी ही राष्ट्रभाषा हिन्दी से राज ठाकरे को आखिर इतनी नफरत क्यों हैं। अपनी क्षेत्रीय भाषा से कोई दीवानगी की हद तक भले प्यार करे लेकिन इसका यह मतलब तो कदापि नहीं होता है कि आप इसके एवज में राष्ट्रभाषा का लगातार अपमान करें। अगर अपनी राष्ट्रभाषा का सम्मान करना नहीं जानते हैं तो फिर आपका अपनी क्षेत्रीय भाषा के प्रति प्यार किस काम का। राज ठाकरे का मराठी प्रेम तो उसी तरह से है जैसा पाकिस्तान का अपना देश प्रेम है। पाक को जिस तरह से भारतीय हमेशा दुश्मन लगते हैं, उसी तरह से राज ठाकरे तो भी हिन्दी हमेशा से दुश्मन ही लगी है। अगर ठाकरे ने ऐसा ही प्यार हिन्दी के प्रति दिखाया होता और अंग्रेजी से नफरत करते तो उनका मान पूरे देश में होता। अब भी समय है उनको अपना रास्ता बदलकर हिन्दी का विरोध करने की बजाए अंग्रेजी का विरोध करना चाहिए।
इन दिनों पूरे देश में राज ठाकरे के मनसे विधायकों द्वारा विधानसभा में किए गए कृत्य पर बवाल मचा हुआ है। यह सोचने वाली ही नहीं बल्कि एक गंभीर बात है कि राज ठाकरे की पार्टी ये क्या कर रही है। क्यों कर हिन्दी का इतना ज्यादा विरोध किया जा रहा है। जिस अंग्रेजी भाषा का विरोध होना चाहिए, उसका विरोध करने की हिम्मत क्यों नहीं दिखा रहे हैं मनसे के लोग? हिन्दी तो अपनी राष्ट्रभाषा है फिर उससे आखिर इतनी नफरत क्यों? क्या महाराष्ट्र को एक तरह से राज ठाकरे ने पाकिस्तान बना दिया है कि यहां कोई हिन्दू कदम नहीं रख सकता है। अगर कोई कदम रखेगा तो उसका सर कलम कर दिया जाएगा। इतनी नफरत तो पाकिस्तान में भी हिन्दूओं के प्रति नहीं है जितनी नफरत मनसे में हिन्दी के प्रति नजर आती है। हिन्दी से नफरत करके आखिर क्या साबित करना चाहते हैं मनसे के लोग। क्या महाराष्ट्र को देश से अलग करने की साजिश की जा रही है? अगर नहीं तो फिर हिन्दी के प्रति यह रवैय्या क्यों है? इसका जवाब किसके पास है।
अपनी क्षेत्रीय भाषा से आप बेशक प्यार नहीं बल्कि दीवानगी की हद तक प्यार करें। लेकिन इसका यह मतलब कदापि नहीं होना चाहिए कि आप अपनी राष्ट्रभाषा का ही अपमान करते रहे। अगर आप राष्ट्रभाषा का अपमान कर रहे हैं तो फिर वंदेमातरम् का विरोध करने वालों और आप में क्या फर्क रह जाता है। फिर तो वंदेमातरम् का विरोध भी सही माना जाना चाहिए। जिस तरह से मनसे के लोगों को हिन्दी से कोई मतलब नहीं है वैसे ही मुस्लिम कौम के कुछ लोगों को वंदेमातरम् से मतलब नहीं है। ऐसे में तो एक दिन हर कोई देश की अस्मत से खिलवाड़ करने लगेगा और अपना-अपना राग अलापेगा कि उसे यह पसंद नहीं है। क्या देश की राष्ट्रभाषा, राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत अब लोगों की पसंद पर निर्भर रहेंगे? देश की अस्मत से खिलवाड़ करने वालों को बर्दाश्त करना जायज नहीं है।
अपने मनसे के लोग तो देश के संविधान और कानून से ऊपर हो गए हैं। एक तरफ राष्ट्रभाषा का अपमान करने के बाद उनके माथे पर शिकन नहीं है तो दूसरी तरफ खुले आम ऐलान किया जाता है कि अबू आजमी की सड़क पर पिटाई की जाएगी। क्या अपने देश का कानून इतना ज्यादा नपुंशक हो गया है कि खुले आम चुनौती देने वालों के खिलाफ भी कुछ नहीं किया जा सकता है। अगर यही हाल रहा तो देश में जो थोड़ा बहुत कानून बचा है, उसका भी अंत हो जाएगा और देश को अराजक होने से कोई नहीं बचा पाएगा।
13 टिप्पणियाँ:
राज ठाकरे को आपने अंग्रेजी की खिलाफत करने की सही सलाह दी है। इस पर अमल करके वे देश के हीरो बन सकते हैं।
जब जनप्रतिनिधि ही राष्ट्रभाषा का अपमान करेंगे तो दूसरो से क्या उम्मीद कर सकते हैं।
ऐसा है जनाव कि राज ठाकरे को अपने सिवाय किसी से भी मुह्हबत नहीं ! इन निहायत बेवकूफ और महामूर्ख मराठियों, जिन्होंने उसे फूक में चडाया है, को कौन समझाए कि जो, अपने उस चचा का नहीं हो सका जिसने उसे उगली पकडाकर राजनीति में खडा होना सिखाया, राजनीति की ABCD सिखाई, तो वो मराठियों का कहाँ से होगा ?
क्षेत्रीयता की आग पूरे देश में लगी हुई है। आज ये मराठी के नाम पर हल्ला मचा रहे हैं कल मुम्बई, नासिक में भी भेद करेंगे। मैं राजस्थान के उदयपुर में रहती हूँ, इसके पूर्व मेरा घर जयपुर था। लेकिन जब मैं उदयपुर आयी, तब से आज तक मैं यही सुनती आयी हूँ कि हम उदयपुर वाले ऐसे हैं, वैसे हैं और जयपुर वाले एकदम निकृष्ट। अलगाववादी प्रवृत्ति हमारे देश में पनपती जा रही है और इसे स्थानीय स्तर पर सहयोग मिलता है। हमने अंग्रेजों को अपनाया और अपने ही राजाओं का विरोध किया, हमने अंग्रेजी को अपनाया और अपनी ही भाषा हिन्दी का विरोध किया। यह मानसिकता गुलामी की है। राज ठाकरे या उन जैसे लोग कितना भी स्वयं को राष्ट्रवादी कह लें लेकिन वे अखण्डता के स्थान पर खण्ड-खण्ड में विश्वास करने वाले लोग हैं। जब तक महाराष्ट्र की जनता उनका खुला विरोध नहीं करेगी ऐसी समस्याएं समाप्त नहीं होगी। कल बाल ठाकरे थे, आज राज है तो कल और कोई होगा। हमें सभी को राष्ट्र का महत्व समझाना होगा।
हमेशा की तरह, देश की लगभग "हर समस्या की माँ" यानी कांग्रेस ही इसके पीछे है, पहले उसने इस मिनी भिंडरावाले को पैदा किया और अब भी उसे हवा दे रही है, क्योंकि उसे इसके जरिये सेना-भाजपा को पटकना है… यही खेल उसने सालों पहले पंजाब में खेला था… लेकिन जब जनता ही मूर्ख हो जो महंगाई, किसानों की आत्महत्या और आतंकवादी हमले के बावजूद कांग्रेस को जिता लाती है तब हमें क्या पड़ी है… मरने दो… दस साल में महाराष्ट्र की वाट लग गई है और अगले 5 साल में और भी साफ़ हो जायेगा…। मामले का दूसरा पक्ष ये भी है कि जब लोकसभा-विधानसभा चुनावों में साफ़ दिखाई दे रहा है कि विकास की बात करके भी विपक्ष चुनाव नहीं जीत पा रहा तब उसे ऐसा रास्ता पकड़ना ही उचित लगता है… मीडिया और वामपंथियों ने मिलकर भाजपा-संघ के प्रति दुष्प्रचार करके उसे कमजोर किया, अब पूरे देश का मध्यवर्ग इसके नतीजे भुगत रहा है… शरद पवार बयान दे-देकर महंगाई बढ़ाये जा रहे हैं और मीडिया को आज भी मोहन भागवत क्या कर रहे हैं इसमें अधिक इंट्रेस्ट है…, और यही मीडियाई मूर्ख अब चिल्ला रहे हैं कि "विपक्ष मजबूत होना चाहिये…" तथा अब तो वामपंथियों को भी कांग्रेस का बढ़ता वर्चस्व सताने लगा है…। राज ठाकरे एक "महारोग" का सिर्फ़ एक लक्षण भर है… देश के लिये असली कैंसर कांग्रेस है…
नहीं-नहीं। राजठाकरे को हिंदी से नहीं इंसानों से नफरत है।
राष्ट्रभाषा का अपमान बर्दाश्त नहीं होना चाहिए। ऐसे लोग पर तत्काल कड़ी कार्रवाई जरूरी है।
आपने बहुत अच्छा लिखा बधाई, आपकी पोस्ट से मैं भारत की 15 भाषाओं (जो हर नोट पर लिखी होती हैं, और मेरी नजर में उनमें भाई बहिन का रिशता है) में से एक उर्दू के लिये आवाज उठाना चाहता हूं, जैसा कि आप जानते हैं ब्लागवाणी मुझे अर्थात साइबर कैरानवी को अपनी मेम्बरशिप नहीं देता अब वह हमारी भारतीय भाषा के भी विरूद्ध हो गया है,यह अपने लेबल बाक्स में इस भारतीय भाषा को गलत इमले से दे रहा है
देंखें ब्लागवाणी के बाक्स में 'उर्दू कविता' किया लिखा है,
ऐसे लिखा है, ''ऊदू कविता''
बेबाकी तथा साफगोई का बयान
यह हमारे संविधान निर्माताओं एवं राजनेताओं के ढुल-मुल रवैये का ही परिणाम है कि आज राष्ट्रभाषा की ऐसी दुर्गति हो रही है । जो राष्ट्रभाषा का सम्मान न करें ऐसे राजनैतिक दलों की मान्यता समाप्त कर दी जानी चाहिये ।
कुछ नहीं नफरत की राजनीति है और क्या ।
न हिन्दी न मराठी । नफरत के बीज बोकर वोट की फसल काटना ।
राजकुमार जी, लेख का मूल भाव ठीक है। लेकिन हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा नहीं है।
हुजूर राष्ट्रभाषा नहीं है हिन्दी, सरकार और संविधान की नजर में।
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