हिन्दु बेटे के अंतिम दीदार के लिए कब्रिस्तान में खोला गया मुस्लिम मां का चेहरा
ब्लाग बिरादरी में इन दिनों हिन्दु और मुसलमानों को लेकर काफी कुछ लिखा जा रहा है। बहुत से लोग साम्प्रदायिकता का जहर फैलाने में लगे हैं। ऐसे में जबकि अनिल पुसदकर जी के ब्लाग में पंचर का किस्सा लिखा गया तो मुझे अचानक अपने एक बचपन के दोस्त शौकत अली के मां के इंतकाम का दिन याद आ गया। उनके इंतकाल में मैं काफी विलंब से पहुंचा था जिसकी वजह से कब्रिस्तान में मुझ हिन्दु बेटे लिए उस मुस्लिम मां का चेहरा सिर्फ मुझे दिखाने के लिए खोला गया था। यहां एक बात और बताना चाहूंगा कि इंसान का नसीब भी न जाने कैसा होता है जो उसको क्या-क्या रंग दिखाता है। एक तरफ मैं अपनी मां के अंतिम दर्शन नहीं कर पाया था तो दूसरी तरफ एक ऐसी मां के अंतिम दर्शन करने का मौका जरूर मिल गया जिसे हमने कभी मां से कम नहीं समझा।
अपने देश में हिन्दु और मुसलमानों के दोस्ती के कई किस्से हैं। इसमें कोई दो मत नहीं है कि हिन्दु और मुसलमान में भी भाई से ज्यादा मोहब्बत हो सकती है। कम से कम हम तो इस बात को इसलिए मानते हैं कि हमारे एक मुस्लिम परिवार से अपने घर जैसे रिश्ते बचपन से रहे हैं। हम अपने इन मित्र शौकत अली की दोस्ती का बयान पहले भी कर चुके हैं। जब हम लोग भाटापारा में रहते थे तब हमारे इन मित्र के साथ उनके दो छोटे भाईयों साकिर अली और आसिफ अली से भी हमारी दोस्ती थी। हमारी दोस्ती ऐसी थी कि रोज एक समय का खाना एक-दूसरे के घर में ही खाते थे। जब हमारे इन मित्र का परिवार रायपुर आकर रहने लगा तो कुछ समय बाद हम भी रायपुर आ गए थे। आज हमें रायपुर में रहते दो दशक से ज्यादा समय हो गया है।
बात उन दिनों की है जब हमारे मित्र की मां का अचानक इंतकाल हो गया। हमें खबर मिली की उनकी अंतिम यात्रा सुबह को करीब 11 बजे निकाली जाएगी। ठीक उसी समय हमें प्रेस के काम से जाना था, सो हमें वहां पहुंचने में समय लगा तो हम सीधे कब्रिस्तान पहुंच गए। ऐसे में वहां पर अंतिम संस्कार से पहले पूछा गया कि क्या घर का कोई सदस्य अंतिम दीदार के लिए बचा हुआ है, तो सभी से सिर्फ मेरा नाम लिया कि राजू देर से आया है, इसलिए अंतिम दीदार के लिए चेहरा खोला जाए। मां का चेहरा खोला गया तो हमारी आंखों में आंसू भरे आए। एक तो इसलिए कि हमें अपनी मां के अंतिम दर्शन का मौका नहीं मिला था। जब हमारी मां का निधन हुआ था तब हम जगदलपुर गए थे रिपोर्टिंग करने के लिए। जब तक हम अपने घर भाटापारा पहुंचते मौसम खराब होने के कारण हमारी मां का अंतिम संस्कार किया जा चुका था, हमें आज भी इस बात का अफसोस है कि हम अपनी मां के अंतिम दर्शन नहीं कर पाए थे। ऐसे में अपने दोस्त की मां के अंतिम दर्शन करके हमारी आंखे भर आईं थीं।
दूसरी बात यह कि हमें उस समय यह सोच कर खुशी भी हुई कि चलो यार जिस बचपन के दोस्त को अपने भाई जैसा माना उनके परिवार ने भी मुझे इतना सम्मान दिया कि घर का सदस्य समझकर मां के अंतिम दीदार के लिए उनका चेहरा खोला गया। वरना यह कताई जरूरी नहीं था क्योंकि उनके परिवार के हर व्यक्ति ने शव यात्रा से पहले ही उनके अंतिम दर्शन कर लिए थे। लेकिन नहीं सब जानते थे कि हमारा उन घर से कैसा रिश्ता है और कभी उस घर ने हमें अपने बेटे से कम नहीं समझा। ऐसे में भला कैसे हमें उन मां के अंतिम दर्शन से महरूम रखा जाता जिस मां के साय में हमारे दोस्त के साथ हमारा भी बचपन से लेकर जवानी तक का सफर गुजरा था।
ये एक सच्चाई है कि दिलों में प्यार हो तो कोई धर्म और मजहब की दीवार किसी को रोक नहीं सकती है। कोई भी धर्म और मजहब एक-दूसरे का मजाक उड़ाने का रास्ता नहीं बताते हंै फिर न जाने क्यों इन दिनों लोग धर्म के साथ खिलवाड़ करने का काम कर रहे हैं। इसका बंद होना जरूरी है। किसी के धर्म को छोटा दिखाने से कोई धर्म छोटा नहीं हो जाता है। जिस इंसान की मानसिकता छोटी होती है, वही ऐसी हरकतें करते हैं। ऐसी हरकतों पर विराम लगाते हुए आपस में भाई-चारे से रहना चाहिए। अपना देश ही विश्व में एक ऐसा देश है जहां पर हर जाति और धर्म के लोगों को समान रूप से रहने का और अपने धर्म को मानने का अधिकार है, फिर क्यों कर लोग दूसरे के धर्म में टांग अड़ाने का काम करते हैं। आप अपने धर्म का बखान करें आपको किसने रोका है, लेकिन यह बखान किसे दूसरे धर्म को नीचा दिखाते हुए करना सरासर गलत है।
16 टिप्पणियाँ:
धर्म हमें सीमित करता है और इंसानियत हमे जोड़ती और विस्तार करती है।
ye hui na baat.. saampradaayik sadbhaav wali post padh ke...
Jai Hind...
मेरा भी लंगोटिया यार एक मुस्लिम ही है और वह भी इन सब चीजों से बहुत परेशान रहता है पर वो भी यही कहता है कि एक अकेला चना भाड़ नहीं फ़ोड़ सकता है।
माँ, माँ होती है, अंतिम दर्शन का सौभाग्य आपको दूसरी बार में मिला, भगवान का आशीर्वाद है आपको..
अच्छी रचना। बधाई। आपकी इस रचना को पढ़कर एक बहुत पहले सुना शेर याद आ रहा है। पूरी तरह तो याद नहीं पर कुछ इस तरह था ---
एक दिन मैं घर से निकला, रास्ते सुनसान थे
एक तरफ थीं बस्तियां और एक तरफ शमशान थे
एक हड्डी पैर से लगी, उसके ये बयान थे
ऐ इंसान संभलो ज़रा, हम भी कभी इंसान थे।
धर्म का काम जोड़ना हुआ करता था...ये तो जीनीयस लोगों की खोज है कि इसे तोड़ने के लिए प्रयोग करने लगे
इंसानियत से अच्छा कोई धर्म नही राजकुमार।इंसान से अच्छी कोई जात नही और इंसानी रिश्तों से अच्छी कोई बात नही।
कोई भी धर्म और मजहब एक-दूसरे का मजाक उड़ाने का रास्ता नहीं बताते हंै फिर न जाने क्यों इन दिनों लोग धर्म के साथ खिलवाड़ करने का काम कर रहे हैं।
bilkul sahi kaha aapne...
aapki is post ne rula diya.... aansu chhalak aaye ....
इंसानियत से अच्छा कोई धर्म नही। इंसान से अच्छी कोई जात नही और इंसानी रिश्तों से अच्छी कोई बात नही। Anil bhaiya ki is baat se poori tarah sahmat.....
धर्म या खून के रिशतों से भी बढकर होते हैं मन के रिशते । भाव-भीना संस्मरण।
"जिस इंसान की मानसिकता छोटी होती है, वही ऐसी हरकतें करते हैं।"
सौ बात की एक बात!
Mujhe Lagta Hai Ye Kahani Jhoothi Hai
सर्व धर्म समभाव !!!
व्यक्तिगत जीवन में मैंने कभी अपने सम्बद्ध दोस्तों में भेद नहीं पाया है ! हम ईद साथ मनाते है तो वे भी हवन में आहुति देकर कलेवा बधवाते है! दरअसल वास्तविक हिन्दुस्तान ऐसा ही है !!
मिस्टर हम सफर उर्फ गंदी सोच वाले इंसान, यह कहानी नहीं हकीकत है और इससे जुड़े सारे लोग रायपुर में मौजूद है। यह तुम्हारी प्रोफाइल की तरह झूठे नहीं है, तुम अगर हकीकत हो और तुम्हारा कोई वजूद इस दुनिया में है तो चले आना रायपुर तुमको उन सारे लोगों से मिलवा दिया जाएगा, जो उस मुस्लिम परिवार के हैं, जो आज भी हमारे अजीज है। तुम जैसी गंदी सोच वाले इंसानों के कारण ही तो हिन्दु और मुसलमानों के बीच भेदभाव की खाई बढ़ रही है। जिसका खुद कोई वजूद नहीं होता है, वही दूसरों के वजूद पर सवाल खड़े करता है। दम है तो अपने असली वजूद के साथ सामने आओ और सच्चाई का सामना करो।
सलीम इसे क्या कहोगे अल्लाह सबको प्रेम का वरदान दे
इंसान का इंसान से हो भाईचारा,
यही पैग़ाम हमारा, यही पैग़ाम हमारा...
जय हिंद...
दो -तीन सिरफिरे छुट्टे सांड पिछले कुछ महीनों से अभिव्यक्ति के इस खुले मंच पर नफरत परोस रहे हैं .उनकी एक से एक भड़काऊ पोस्ट और टिप्पणियाँ आती है और उसके फलस्वरूप प्रतिक्रियात्मक टिप्पणियों व पोस्टों की बाढ़ सी आ जाती है . हर दिन ब्लॉगवाणी पर इस तथाकथित धर्म की लड़ाई वाली ५-६ पोस्ट सर्वाधिक पढ़े जाने वाले,टिप्पणी वाले ,पसंद वाली श्रेणी में छाये रहते है . क्या इस पर सोचने की जरुरत नहीं है ब्लॉगजगत को ? सोचिये सभी , क्यों न हम सभी इस तरह के मसले पर कुछ समय मौन रह कर देखें ? अवश्य हीं ऐसे लोग अपने कदम पीछे हटायेंगे .
क्या इस देश में साम्प्रदायिकता और सेक्युलरता हीं एक मसला बचा है जिस पर देश का सोचने -समझने वाला वर्ग अपनी कलम की स्याही खर्चता रहे ?
हालाँकि बहुत सारे लोग मौन के पक्ष में नहीं हैं और उन्हें जबाव देना चाहते हैं परन्तु क्या ऐसा करके हम अपना वक्त बर्बाद नहीं करते ?
अगर हमें अपने धर्म से इतना हीं प्यार है तो क्यों नहीं हम अपने पोस्ट में उससे जुड़े नये -नये बातों का उल्लेख करें ?
क्यों नहीं धर्म और संस्कृति से सम्बंधित शोध लेखन करें ,धर्म-दर्शन की सरल व्याख्या करें , जिससे आने वाली पीढ़ी को सरल-सुलभ ज्ञान मिल सके ?
देवेदी जी की बात से सहमत हूँ बहुत सार्गर्भित आलेख है शुभकामनायें
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