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शनिवार, अगस्त 01, 2009

चाहे जाए आम जनों की रोज जान-बस विपक्ष का न घटे मान

छत्तीसगढ़ में सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी को कांग्रेस ने विधानसभा के मानसून सत्र में पूरे सत्र भर नक्सली समस्या पर घेरे रखा। विपक्ष ने जिस तरह से इस समस्या को लेकर महज सत्ता पक्ष को घेरने का काम किया और लगातार यह प्रयास किया जाता रहा है कि मुख्यमंत्री डॉ। रमन सिंह इस्तीफा दे दें और प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगा दिया जाए, उससे यह सोचने पर मजबूर होना पड़ा है कि क्या विपक्ष का काम सिर्फ और सिर्फ विरोध करना है। क्या देश की इस सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस का यह फर्ज नहीं है कि वह छत्तीसगढ़ को नक्सली समस्या से निजात दिलाने का काम करे? क्या छत्तीसगढ़ में राष्ट्रपति शासन लगने से नक्सल समस्या का अंत हो जाएगा? क्या युवक कांग्रेसियों द्वारा विधानसभा घेरने से नक्सली आम जनों और पुलिस वालों को मारना बंद कर देंगे? जब विपक्ष की ऐसी हरकतों से कुछ होने वाला नहीं है तो फिर क्यों कर विपक्षी अपनी ऊर्जा को ऐसे व्यर्थ कामों में जाया करने का काम करते हैं। क्यों नहीं वे ऐेसा कोई रास्ता सुझाते जिससे नक्सली समस्या का अंत हो सके। वे रास्ता नहीं सूझाते इसका मतलब साफ है कि उनके पास खुद ऐसे किसी रास्ते की जानकारी नहीं है, जिससे नक्सली समस्या का अंत हो सके। तो फिर क्यों कर वे बिना वजह उस समस्या के समाधान का राग अलापने का काम कर रहे हैं जिस समस्या से मुक्ति का रास्ता खुद उनको मालूम नहीं है। क्या आप विपक्ष में बैठे हैं तो इसका मतलब आप हर बात का विरोध करने के लिए ही बैठे हैं। अगर हमारे देश के विपक्षी सुधर जाए तो देश की आधी समस्याओं का अंत ऐसे ही हो जाए। लेकिन विपक्षियों को तो अपने मान की पड़े रहती है, उसको इस बात से क्या मतलब की रोज आम जनों की जान जाए तो जाए उनकी बला से।

नक्सली समस्या आज छत्तीसगढ़ की ही नहीं बल्कि पूरे देश की सबसे बड़ी समस्या है। इस समस्या का अंत कैसे हो इसके लिए निश्चित ही एक साझे प्रयास की जरूरत है। इस बात को देर से ही सही पर अब केन्द्र में बैठी यूपीए की सरकार समझ गई है। कांग्रेस के गठबंधन वाली केन्द्र सरकार को जब यह बात समझ आ गई है तो फिर छत्तीसगढ़ की विपक्षी कांग्रेस पार्टी को यह बात क्यों समझ में नहीं आती है कि किसी भी राज्य सरकार के बुते की बात नक्सली समस्या का अंत करना नहीं है। वैसे हमें तो लगता है कि कांग्रेस को यह बात अच्छी तरह से मालूम है कि भाजपा हो या चाहे और कोई पार्टी अकेले के दम पर नक्सली समस्या का अंत नहीं कर सकती है। ऐसे में होना तो यह चाहिए कि कांग्रेस को सत्ताधारी पार्टी का साथ इस विकराल समस्या के निपटने में देना चाहिए। लेकिन लगता है कि यही पर कांग्रेस का विपक्षी होने का अहम सामने आ जाता है।

सोचने वाली बात यह है कि क्या विपक्षी होने का मतलब महज विरोध करना है। अपने देश में तो राजनीति के इतिहास में संभवत: विपक्ष का मतलब केवल विरोध ही होता है। भले विपक्ष को यह मालूम रहता है कि सत्ताधारी पार्टी जो काम कर रही है, वह अच्छा है, पर विपक्ष विरोध करने से बाज नहीं आता है। सत्ता में बैठी सरकार चाहे कितना भी अच्छा बजट पेश कर ले लेकिन कभी विपक्ष उसकी तारीफ करने वाला नहीं है। कारण फिर वही भई वे विपक्षी है, अगर पक्षीय बात करेंगे तो विपक्षी कैसे कहलाएंगे। ऐसे समय में विपक्ष की उस सोच पर प्रश्न चिंह लग जाता है कि जब विधान सभा या लोकसभा के सत्र को एक दिन पहले समाप्त करने पर विपक्ष सहमत हो जाता है। छत्तीसगढ़ में ही मानसून सत्र को एक दिन पहले समाप्त करने पर विपक्ष सहमत हो गया। तब विपक्ष विरोध क्यों नहीं करता है कि एक दिन पहले सत्र क्यों समापत किया जा रहा है। तब संभवत: विपक्ष को भी मालूम रहता है कि एक दिन में कोई पहाड़ टूटने वाला नहीं है। कहने का मलतब यह है कि विपक्ष जानता सब है, पर जानकर भी अनजान बनने का काम करता है। क्या यही विपक्ष है?

सोचने वाली बात यह है कि क्या अपने देश की राजनीतिक पार्टियां इस मानसिकता से ऊबर नहीं पाएंगी कि वे विपक्षी है और केवल विरोध करेंगे। अगर अपने देश की राजनीतिक पार्टियां केवल एक इसी मानकिसता से ऊबर जाए कि वे विपक्ष में बैठे हैं और हर बात का विरोध करना ही उनका धर्म है तो अपने देश की बहुत सारी समस्याओं का अंत ऐसे ही हो जाए। लेकिन नहीं ऐसा करने से विपक्षी पाटियों की शान में बट्टा लग जाएगा। अब भी समय है, इन पार्टियों को अगर सच में देश की चिंता है तो उनको मानसिकता बदल लेनी चाहिए। लेकिन हमें लगता नहीं है कि कभी अपने देश की राजनीतिक पार्टियां अपनी मानसिकता बदल सकती है। मानसिकता इसलिए नहीं बदल सकती है क्योंकि यह हकीकत है कि किसी भी पार्टी को देश और देश के आम जनों की समस्याओं से कोई लेना-देना नहीं है। इनको तो बस अपनी राजनीति से मतलब है। अब इनको अपनी राजनीति के लिए चाहे आम जनों की लगातार बलि चढ़ानी पड़े तो इनकी सेहत पर क्या फर्क पडऩा है। शायद इसीलिए अपने देश में एक नारा आम है कि हर कोई परेशान फिर भी मेरा भारत महान। इसमें एक लाइन यह भी जोड़ सकते हैं कि चाहे जाए आम जनों की रोज जान बस विपक्ष का न घटे मान।

11 टिप्पणियाँ:

Unknown शनि अग॰ 01, 08:14:00 am 2009  

राजनीति पार्टियों की मानसिकता पर कड़ा प्रहार किया है आपने, इतने अच्छे लेख के लिए साधुवाद

बेनामी,  शनि अग॰ 01, 08:21:00 am 2009  

कांग्रेस में दम होता तो छत्तीसगढ़ में जोगी शासन काल में नक्सलियों को मदद क्यों दी जाती। नक्सलियों के असली मददगार तो यही है।

lalit kumar,  शनि अग॰ 01, 08:34:00 am 2009  

विपक्ष अपनी मानकिसता में जकड़े हुए इस देश को खोखला करने का काम कर रहा है।

Unknown शनि अग॰ 01, 09:04:00 am 2009  

विपक्षी सुधर जाए तो देश ही न सुधर जाएगा।

Unknown शनि अग॰ 01, 09:37:00 am 2009  

विपक्ष अगर पक्ष की बात से सहमत हो जाए तो फिर वह विपक्ष कैसे रहेगा बंधु

mohan,  शनि अग॰ 01, 10:10:00 am 2009  

अच्छी बातों से किनारा करने का नाम ही विपक्ष होता है।

बेनामी,  शनि अग॰ 01, 11:41:00 am 2009  

नक्सली समस्या पर राजनीति करना सबसे अधिक घटियापन है। ऐसी ओछी राजनीति से बचना चाहिए।

satish,  शनि अग॰ 01, 11:51:00 am 2009  

विपक्षी अपनी रोटियां सेकने के अलावा कुछ नहीं करते हैं।

Unknown शनि अग॰ 01, 11:57:00 am 2009  

क्या देश की इस सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस का यह फर्ज नहीं है कि वह छत्तीसगढ़ को नक्सली समस्या से निजात दिलाने का काम करे? क्या छत्तीसगढ़ में राष्ट्रपति शासन लगने से नक्सल समस्या का अंत हो जाएगा? क्या युवक कांग्रेसियों द्वारा विधानसभा घेरने से नक्सली आम जनों और पुलिस वालों को मारना बंद कर देंगे?

बहुत सही सवाल है इनका जवाब दें कांग्रेस

बेनामी,  शनि अग॰ 01, 12:51:00 pm 2009  

राजनीतिक पार्टियों का बस चले को देश को बेच खाएं

asok sahu,  शनि अग॰ 01, 01:09:00 pm 2009  

मानसिकता इसलिए नहीं बदल सकती है क्योंकि यह हकीकत है कि किसी भी पार्टी को देश और देश के आम जनों की समस्याओं से कोई लेना-देना नहीं है। इनको तो बस अपनी राजनीति से मतलब है। अब इनको अपनी राजनीति के लिए चाहे आम जनों की लगातार बलि चढ़ानी पड़े तो इनकी सेहत पर क्या फर्क पडऩा है।

१०० फीसदी सच बात है

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