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शनिवार, अगस्त 29, 2009

एक कमरे में गुजारे 33 साल-खेलों से मोहब्बत का कमाल

मुश्ताक अली प्रधान यह नाम है छत्तीसगढ़ की खेल बिरादरी से जुड़े उस इंसान का जिन्होंने खेल को अपना सारा जीवन समर्पित कर दिया है। ४० साल से हॉकी के साथ फुटबॉल से जुड़े इस खिलाड़ी ने अपने जीवन के ३३ साल शेरा क्लब के एक कमरे में ही बीता दिए और शादी भी नहीं की। मुश्ताक के सिर पर खेल का जुनून सवार है। ११ साल की उम्र से खेल की शुरुआत करके आज तक बस खेल के लिए काम कर रहे हैं। एक तरह से उन्होंने खेल से शादी कर ली है। अपने खेल जीवन में उन्होंने कितने खिलाड़ी तैयार किए हैं यह तो उनको भी याद नहीं है।


प्रदेश में राजधानी के शेरा क्लब का नाम हर खिलाड़ी और खेल प्रेमी काफी सम्मान से लेता है। इस क्लब की नींव रखने वाले मुश्ताक अली प्रधान हैं जो क्लब के एक कमरे में ३३ साल से रह रहे हैं और खिलाडिय़ों को तराशने का काम कर रहे हैं। मुश्ताक अली पुराने दिनों के बारे में पूछने पर यादों में खो जाते हैं और बताते हैं कि कैसे उन्होंने अपने खेल जीवन की शुरुआत की थी। महज ११ साल की उम्र में उनको खेलने का जुनून चढ़ा जो आज तक कायम है।

छीन के पेड़ से हॉकी बनाकर खेलते थे

मुश्ताक पूछने पर बताते हैं कि आज से करीब ४० साल पहले की बात है १९६९ में उन्होंने महज १३ साल की उम्र में खेल से नाता जोड़ा। वे बताते हैं कि उनके घर के पास बैजनाथ पारा में मैदान में सीनियर खिलाड़ी खेलते थे। इसी के साथ उनके तीन बड़े भाई रौशन अली, असरफ अली और कौसर अली फुटबॉल खेलते थे। शुरू में खेल की शुरुआत मुश्ताक ने फुटबॉल ने न करते हुए हॉकी से की। वे बताते हैं कि उस समय हॉकी स्टिक १५ रुपए की आती थी, पर किसी खिलाड़ी के पास इतने पैसे नहीं होते थे। ऐसे में हम लोग छीन के पेड़ की लकडिय़ों को काटकर उसको हॉकी स्टिक की शक्ल देकर उससे रोड़ में ही हॉकी खेलते थे। उनके हाथ पहली बार हॉकी स्टिक तब लगी जब वे स्कूल की टीम से खेले। वे बताते हैं कि उनको जो हॉकी स्टिक मिली थी, वह २० रुपए की थी। यह स्टिक पाकर मैं बहुत खुश हुआ था। बकौल मुश्ताक उनकी किस्मत अच्छी रही कि उनका खेल देखकर उनको सीनियर अपने साथ खिलाते थे, वरना सीनियर किसी भी जूनियर को अपने साथ नहीं खिलाते थे।

बैजनाथ पारा, छोटा पारा, बैरनबाजार था हॉकी का गढ़

पुराने दिनों के बारे में मुश्ताक बताते हैं कि उन दिनों हॉकी खिलाडिय़ों के मामले में बैजनाथ पारा, छोटा पारा और बैरनबाजार का ही नाम लिया जाता था। यहां के हॉकी खिलाड़ी ही छाए रहते थे। वे बताते हैं कि उस समय वे नेताजी स्टेडियम में २० चक्कर लगाने के बाद ही अभ्यास करते थे। लेकिन आज के खिलाडिय़ों की बात की जाए तो खिलाडिय़ों में दम ही नहीं है। आज किसी खिलाड़ी को मैदान में पांच चक्कर लगाने के लिए कह दिया जाए तो नहीं लगा पाते हैं। आज के खिलाडिय़ों में पहले की तुलना में १० प्रतिशत भी दम नहीं है। उस समय सभी खिलाड़ी इसलिए मेहनत करते थे क्योंकि उस समय उनमें यह डर रहता था कि अगर वे मेहनत नहीं करेंगे तो उनको टीम में स्थान नहीं मिलेगा। आज की स्थिति की बात करें तो आज खिलाडिय़ों को ऐसे ही रख लिया जाता है। आज फुटबॉल की बात करें तो जिस को किक मारने आ जाती है उनको टीम में रख लिया जाता है। सबसे खराब स्थिति स्कूली खेलों की है। यहां पर बस खाना पूर्ति होती है।

१८ साल की उम्र में छोड़ दिया घर

क्लब के एक कमरे में ३३ साल बिताने वाले मुश्ताक पूछने पर बताते हैं कि उन्होंने १८ साल की उम्र में एक छोटी सी बात पर घर छोड़ दिया फिर कभी घर का रूख नहीं किया। वैसे वे परिवार के सुख-दुख में सदा साथ रहते हैं, पर रहने के नाम से कभी नहीं लौटे। काफी पूछने पर उन्होंने बताया कि एक दिन हमारी भाभी की मां से किसी बात को लेकर बहस हो गई और मुङो मां का अपमान बर्दाश्त नहीं हुआ तो मैंने ही घर छोड़ दिया। वे बताते हैं कि चार भाई और चार बहनों का उनका परिवार रहा है। भाई अपना व्यापार करते हैं और बहनों में तीन बहनों का विवाह मुंबई में हुआ है। एक बहन रायपुर में है। मुश्ताक ने एक सवाल के जवाब में बताया कि अच्छे परिवार से होने के बाद भी उनकी खेलों से ऐसी लगन लगी कि उन्होंने खेल को ही अपना जीवन समर्पित कर दिया।

एक फुटबॉल से साल भर खेलते थे

फुटबॉल के बारे में पूछने पर उन्होंने बताया कि हॉकी के साथ उन्होंने फुटबॉल से भी नाता प्रारंभ से जोड़ा था। उस जमाने में ४० रुपए की एक बॉल आती थी। इस बॉल से साल भर खेलना पड़ता था क्योंकि ४० रुपए की बॉल खरीदना आसान नहीं रहता था। बॉल को कई बार मोची के पास जाकर सिलवाते थे। कई बार मोची भी परेशान हो जाता था कि कितनी बार बॉल को सिलवाएंगे। मुश्ताक बताते हैं कि फुटबॉल वे लोग सालेम स्कूल के पीछे वाले मैदान में और हॉकी नेताजी स्टेडियम में खेलते थे। जूतों के बारे में वे बताते हैं कि उस समय पीटी शूज १०-१२ रुपए के आते थे। इनमें इतना दम नहीं होता था। ये महज कुछ ही महीनों में फट जाते थे। ऐसे में जूते लेने के बाद उसके तले में मोटा रबर लगावा देते थे। ऐसे में ये जूते साल भर चल जाते थे।

प्रदेश को दिए कई खिलाड़ी

एक सवाल के जवाब में वे बताते हैं कि यह बताना तो मुश्किल है कि ४० साल के खेल जीवन में उन्होंने कितने खिलाड़ी तैयार किए हैं। मुश्ताक बताते हैं कि ३४ साल से शेरा क्लब चल रहा है और इसमें पहले हॉकी और फुटबॉल दोनों खेल होते थे। पर अब सिर्फ फुटबॉल चल रहा है। वे बताते हैं कि अंतरराष्ट्रीय खिलाडिय़ों में मृणाल चौबे के साथ तनवीर जमाल, राजेश मांडवी, जुनैद अहमद और नवेद जमाल को उन्होंने प्रशिक्षण दिया है जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेल हैं। इसी के साथ महिला खिलाडिय़ों में नीता डुमरे को भी प्रारंभ में प्रशिक्षण दिया। इसके अलावा भारत की संभावित टीम में रहीं अंजुम रहमान, सुनीता सेन को प्रशिक्षण दिया था।

5 टिप्पणियाँ:

Unknown शनि अग॰ 29, 07:48:00 am 2009  

खेलों से मोहब्बत करने वाले ऐसे इंसानों के कारण ही तो अपने देश में खेलों को पूजा जाता है।

guru शनि अग॰ 29, 08:09:00 am 2009  

कमाल का बंदा है गुरु

Unknown शनि अग॰ 29, 08:36:00 am 2009  

खेल दिवस के दिन खेलों से जुड़ी बहुत अच्छी स्टोरी बनाई है आपने, बधाई

sanjay pal,  शनि अग॰ 29, 09:16:00 am 2009  

हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद जी के जन्म के दिन आपने छत्तीसगढ़ के हॉकी के दीवाना की दास्तां बयान करके अच्छा काम किया है, आभार

Unknown शनि अग॰ 29, 09:57:00 am 2009  

खेलों से मोहब्बत करने वाले ऐसे इंसान को सलाम करते हैं

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