बेकार, बेजान लकडिय़ों में जान डालती हैं सुनीता
लकडिय़ों को जब मैं जलते हुए देखती थी, या फिर जब बारिश के पानी में किसी पेड़ की डालियों, जड़ और फूल- पत्तों को देखती थी तो मुझे ऐसा लगता था कि ये सब मुझसे कुछ कहना चाहते हैं। ऐसे में मैंने इन बेजान और बेकार समझी जानी वाली लकडिय़ों को तराशने के लिए इनमें रंगों का प्रयोग करना प्रारंभ किया। जब मैं यह काम बचपन में करती थी तो मुझे नहीं मालूम था कि मेरे बचपन का यह शौक एक दिन बड़े होने पर मुझे एक अलग पहचान देने वाला है। लेकिन इसने मुझे आज एक अलग पहचान दी है। मुझे इस राह तक पहुंचाने का काम किया है मेरे बच्चों और पति ने जिनके कहने पर मैंने अपनी कला को पहली बार घर से बाहर निकालने का काम किया है।
छत्तीसगढ़ में ही पहली बार आकर मैं किसी मेले में अपनी कला का प्रदर्शन कर रही हूं। ये बातें यहां पर चर्चा करते हुए राजधानी के मोतीबाग में चल रहे क्राफ्ट मेले में आईं भोपाल की सुनीता सक्सेना ने कहीं। इस मेले में जैसे ही लोग प्रवेश करते हैं तो उनको सुनीता सक्सेना की कलाकृतियां आकर्षित कर लेती हैं। सुनीता बताती हैं कि जब वह काफी छोटी थीं तो उस समय जब वह चूल्हे में किसी लकड़ी को जलते हुए देखती थीं तो उनको ऐसा लगता था कि वास्तव में यह लकड़ी जलने के लिए नहीं है बल्कि इस बेजान लकड़ी में जान डालने की जरूरत है। बस फिर क्या था सुनीता जलती हुई लकड़ी को बाहर निकाल लेती और उस लकड़ी में बिना कुछ किए उसके मूल रूप में ही ऐसा रंग भर देती कि उस लकड़ी को देखने के बाद यह नहीं कहा जा सकता कि यह लकड़ी कभी जलने के लिए चूल्हे में डाली गई थी। इसी तरह से जब वह बारिश के दिनों में कही बाहर रहती तो उनको पेड़ों की लकडिय़ों पर गिरते पानी में भी कुछ कला नजर आती। इसी तरह से पेड़ों पर लगे फूलों के साथ डालियों में भी जान डालने की इच्छा होती और वह इन सबको को एकत्रित करके इनमें रंगों से जान डालने का काम करती। बकौल सुनीता जब पेड़ों में फूल लगते रहते हैं तो प्रारंभिक अवस्था में अगर फूलों को तोड़ दिया जाए तो वे फूलों चूंकि उस समय काफी सक्त रहते हैं ऐसे में उन फूलों में रंगों का प्रयोग करना आसान होता है। ऐसे फूल जहां मुरझाते नहीं हैं, वहीं इनके टूटने का भी डर नहीं रहता है। सुनीता बताती हैं कि वह पहले यह सब अपने शौक से करती थीं और अपनी बनाई कला कृतियों को या तो घर में सजाती थीं या फिर कोई दोस्त या रिश्तेदार उनकी कलाकृति को पसंद करता तो उनको तोहफे में दे देती थीं। इधर जब सुनीता की शादी हुई तो भी उनका शौक नहीं छूटा। शादी के बाद जब उनके बच्चे हुए और ये बच्चे आज जबकि बड़े हो गए हैं और दोनों बच्चे जिसमें एक लड़का और लकड़ी इंजीनियर हैं तो इन्होंने ही अपनी मां की कला को घर से बाहर लाने का काम किया। इनकी प्रेरणा के साथ पति अजय सक्सेना ने भी जब उनका उत्साह बढ़ाया तो अंतत: उन्होंने अपनी कला को बाहर लाने का फैसला किया। सबसे पहले तो उनकी कला को भोपाल में ही प्रदर्शित किया गया। भोपाल में उनकी कला को जानने वाले काफी लोग हैं। ऐसे में जबकि भोपाल में उनकी कला की पूछ परख होने लगी तो उनकी बेटी बकूल ने अपनी मां को सुझाव दिया कि वह अपना पंजीयन कला केन्द्र में करवा लें। ऐसे में बकूल ने ही एक माह पहले उनका पंजीयन भोपाल डिजाइन एंड रिसर्च सेंटर में करवाया तो उनको मालूम हुआ कि रायपुर में एक क्राफ्ट मेला लगा है। ऐसे में उन्होंने अपनी मां को जिद करके रायपुर भेजने का काम किया। सुनीता बताती हैं कि वास्तव में वह यहां आकर काफी खुश हैं। उनका कहना है कि उनको नहीं मालूम था कि वास्तव में रायपुर में कला के इतने पारखी हैं। उन्होंने बताया कि वह पहली बार किसी ऐसे मेले में आई हैं। सुनीता का कहना है कि उन्होंने यहां पर जगार मेले के बारे में सुना है अगली बार वह इसमें आने की तमन्ना रखती हैं।
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