मीडिया कब पहचानेगा अपनी औकात
कहने को तो मीडिया को देश का चौथा स्तंभ कहा जाता है, लेकिन हमें नहीं लगता कि मीडिया वास्तव में देश का चौथा स्तंभ है। अगर वास्तव में इसको चौथा स्तंभ माना जाता तो इस स्तंभ के शिल्पकारों की हालत छुट भईये नेताओं से तो कम से कम ज्यादा होती। ऐसा हम हवा में नहीं कह रहे हैं। इस चौथे स्तंभ में काम करते हमें भी दो दशक हो रहे हैं और इन सालों में हमने तो यही जाना है कि वास्तव में मीडिया ने अब तक अपनी सही औकात को नहीं पहचाना है। हमें बहुत अफसोस होता जब मीडिया से जुड़े लोगों को हम छोटे से पुलिस वालों के सामने असहाय पाते हैं।
जब-जब देश में या किसी भी राज्य में कहीं भी किसी बड़े नेता या मंत्री की कोई सभा या कोई भी छोटा-बड़ा कार्यक्रम होता है तो उस समय मालूम होती है मीडिया की असली औकात। ऐसे कार्यक्रमों में सभा स्थल तक सभी नेता और मंत्रियों के वाहन तो जाते ही हैं, साथ ही इनके चमचों और छोटे-मोटे नेताओं को भी रोकने की हिम्मत सुरक्षा व्यवस्था में लगे पुलिस वाले नहीं दिखा पाते हैं। लेकिन मीडिया की बात आती है तो मीडिया कर्मियों को सभा स्थल के काफी दूर (कई बार तो एक किलो मीटर तक) रोक दिया जाता है और कहा जाता है कि अपने वाहन कहीं भी रखे और पैदल जाएं। ऐसे समय में हमें बहुत गुस्सा भी आता है और मीडिया कर्मियों की बेबसी पर तरस भी आता है। अब बेचारे मीडिया कर्मी को अपनी नौकरी करनी है उसे पुलिस वाले एक किलो मीटर क्या चार किलो मीटर भी दूर रोककर पैदल जाने कहेंगे तो जाना पड़ेगा। जाना इसलिए पड़ेगा क्योंकि पापी पेट का सवाल है। अगर आप सभा की रिपोर्टिंग करके नहीं जाएंगे तो अपनी नौकरी से हाथ भी धो सकते हैं।
यह परंपरा आज से नहीं बल्कि बरसों से चली आ रही है और इससे लड़ना कोई नहीं चाहता है। अक्सर हम किसी कार्यक्रम में जाते हैं तो वाहन को दूर रखने को लेकर कई बार पुलिस वालों से बहस हो जाती है, कई बार वाहन अंदर ले जाने की इजाजत मिल जाती है तो कई बार मजबूरी में वाहन काफी दूर रखना पड़ता है। लेकिन हमें कम से कम इस बात की संतुष्टि है कि हम विरोध तो करते हैं, लेकिन ज्यादातर मीडिया कर्मी विरोध ही नहीं करते हैं। संभवत: उनको लगता है कि विरोध करने का फायदा नहीं है। लेकिन हमें लगता है कि उनका ऐसा सोचना गलत है। अगर मीडिया कर्मी एक हो जाए तो एक दिन ऐसा जरूर आएगा जब उनको सफलता मिलेगी।
क्यों कर मीडिया कर्मियों के वाहन भी वहां तक नहीं जाने चाहिए जहां तक नेता-मंत्रियों या अन्य छुटभईये नेताओं के जाता हैं। क्या मीडिया कर्मियों की औकात उन छुट भईये नेताओं जितनी भी नहीं है तो सिर्फ नेताओं की चमचागिरी करते हैं। हम जानते हैं कि किसी भी कार्यक्रम का बहिष्कार करना मीडिया कर्मियों के बस में नहीं है क्योंकि आज के प्रतिस्पर्धा वाले दौर में यह इसलिए संभव नहीं है क्योंकि कोई न कोई तो कार्यक्रम को कवर कर ही लेगा। जो लोग बहिष्कार करने की हिम्मत दिखाएंगे उनको अपने संस्थानों के क्रोध का सामना करना पड़ेगा, संभव है किसी की नौकरी भी चली जाए, शायद यही वजह है कि लोग ऐसा साहस नहीं करते हैं।
हम बताना चाहते हैं कि अगर मीडिया कर्मी हिम्मत करते हैं तो उनको सफलता मिल सकती है। ऐसा हम इसलिए कह रहे हैं क्योंकि हमने ऐसा कई बार किया है और सफलता भी मिली है। हम बता दें कि छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह छत्तीसगढ़ ओलंपिक संघ के अध्यक्ष भी हैं। दो बार ओलंपिक संघ की बैठक में मीडिया को बैठक से दूर रखा गया तो हम लोगों ने इस बैठक का बहिष्कार किया। जब यह बात मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह तक पहुंची तो वे खुद हम लोगों तक न सिर्फ आए बल्कि उन्होंने छमा भी मांगी।
हमारे कहने का मतलब यह है कि अक्सर ऐसा होता है कि ऊपरी स्तर पर तो कुछ जानकारी नहीं होती है और नीचे वाले अफसर अपनी मर्जी से कोई भी फैसला कर लेते हैं। जब तक अपनी बात को ऊपर तक नहीं पहुंचाया जाएगा तो कैसे मालूम होगा कि क्या हो रहा है। इसी के साथ एक बात हम और कहना चाहते हैं कि आज मीडिया के कारण ही नेता और मंत्री हैं। ऐसा कौन सा नेता और मंत्री होगा जो मीडिया की सुर्खियों में नहीं रहना चाहता है। जब उनको इस बात का अहसास कराया जाएगा कि मीडिया को सम्मान देने पर ही कोई कार्यक्रम कवर होगा तो हमें नहीं लगता है कि मीडिया की बात नहीं मानी जाएगी। बस जरूरत है मीडिया को अपनी ताकत और औकात को पहचाने की। जिस दिन हम मीडिया कर्मी अपनी ताकत और औकात को समझ जाएंगे, उस दिन एक नए युग की शुरुआत होगी। मीडिया कर्मियों को सम्मान दिलाने की दिशा में मीडिया से जुड़े संस्थान को भी अपने संस्थानों के कर्मियों का साथ देना होगा।
हमें एक घटना याद है जो यह बताती है कि मीडिया की ताकत क्या है। मप्र के समय रायपुर के रेलवे स्टेशन में एक घटना में पुलिस की लाठियों से कई मीडिया कर्मी घायल हो गए थे। ऐसे में रायपुर के सभी अखबारों ने यह फैसला किया था कि सरकार की कोई भी खबर प्रकाशित नहीं की जाएगी। इस फैसले का असर यह हुआ कि उस समय मप्र के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को 24 घंटे के अंदर रायपुर आना पड़ा और घटना के लिए उन्होंने न सिर्फ छमा मांगी बल्कि घायल हुए हर मीडिया कर्मी के घर जाकर उनसे मिले और उनको मुआवजा दिया गया। यह एक उदाहरण बताता है कि वास्तव में मीडिया चाहे तो सरकार को झुका सकता है, लेकिन ऐसा किया नहीं जाता है।
जब-जब देश में या किसी भी राज्य में कहीं भी किसी बड़े नेता या मंत्री की कोई सभा या कोई भी छोटा-बड़ा कार्यक्रम होता है तो उस समय मालूम होती है मीडिया की असली औकात। ऐसे कार्यक्रमों में सभा स्थल तक सभी नेता और मंत्रियों के वाहन तो जाते ही हैं, साथ ही इनके चमचों और छोटे-मोटे नेताओं को भी रोकने की हिम्मत सुरक्षा व्यवस्था में लगे पुलिस वाले नहीं दिखा पाते हैं। लेकिन मीडिया की बात आती है तो मीडिया कर्मियों को सभा स्थल के काफी दूर (कई बार तो एक किलो मीटर तक) रोक दिया जाता है और कहा जाता है कि अपने वाहन कहीं भी रखे और पैदल जाएं। ऐसे समय में हमें बहुत गुस्सा भी आता है और मीडिया कर्मियों की बेबसी पर तरस भी आता है। अब बेचारे मीडिया कर्मी को अपनी नौकरी करनी है उसे पुलिस वाले एक किलो मीटर क्या चार किलो मीटर भी दूर रोककर पैदल जाने कहेंगे तो जाना पड़ेगा। जाना इसलिए पड़ेगा क्योंकि पापी पेट का सवाल है। अगर आप सभा की रिपोर्टिंग करके नहीं जाएंगे तो अपनी नौकरी से हाथ भी धो सकते हैं।
यह परंपरा आज से नहीं बल्कि बरसों से चली आ रही है और इससे लड़ना कोई नहीं चाहता है। अक्सर हम किसी कार्यक्रम में जाते हैं तो वाहन को दूर रखने को लेकर कई बार पुलिस वालों से बहस हो जाती है, कई बार वाहन अंदर ले जाने की इजाजत मिल जाती है तो कई बार मजबूरी में वाहन काफी दूर रखना पड़ता है। लेकिन हमें कम से कम इस बात की संतुष्टि है कि हम विरोध तो करते हैं, लेकिन ज्यादातर मीडिया कर्मी विरोध ही नहीं करते हैं। संभवत: उनको लगता है कि विरोध करने का फायदा नहीं है। लेकिन हमें लगता है कि उनका ऐसा सोचना गलत है। अगर मीडिया कर्मी एक हो जाए तो एक दिन ऐसा जरूर आएगा जब उनको सफलता मिलेगी।
क्यों कर मीडिया कर्मियों के वाहन भी वहां तक नहीं जाने चाहिए जहां तक नेता-मंत्रियों या अन्य छुटभईये नेताओं के जाता हैं। क्या मीडिया कर्मियों की औकात उन छुट भईये नेताओं जितनी भी नहीं है तो सिर्फ नेताओं की चमचागिरी करते हैं। हम जानते हैं कि किसी भी कार्यक्रम का बहिष्कार करना मीडिया कर्मियों के बस में नहीं है क्योंकि आज के प्रतिस्पर्धा वाले दौर में यह इसलिए संभव नहीं है क्योंकि कोई न कोई तो कार्यक्रम को कवर कर ही लेगा। जो लोग बहिष्कार करने की हिम्मत दिखाएंगे उनको अपने संस्थानों के क्रोध का सामना करना पड़ेगा, संभव है किसी की नौकरी भी चली जाए, शायद यही वजह है कि लोग ऐसा साहस नहीं करते हैं।
हम बताना चाहते हैं कि अगर मीडिया कर्मी हिम्मत करते हैं तो उनको सफलता मिल सकती है। ऐसा हम इसलिए कह रहे हैं क्योंकि हमने ऐसा कई बार किया है और सफलता भी मिली है। हम बता दें कि छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह छत्तीसगढ़ ओलंपिक संघ के अध्यक्ष भी हैं। दो बार ओलंपिक संघ की बैठक में मीडिया को बैठक से दूर रखा गया तो हम लोगों ने इस बैठक का बहिष्कार किया। जब यह बात मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह तक पहुंची तो वे खुद हम लोगों तक न सिर्फ आए बल्कि उन्होंने छमा भी मांगी।
हमारे कहने का मतलब यह है कि अक्सर ऐसा होता है कि ऊपरी स्तर पर तो कुछ जानकारी नहीं होती है और नीचे वाले अफसर अपनी मर्जी से कोई भी फैसला कर लेते हैं। जब तक अपनी बात को ऊपर तक नहीं पहुंचाया जाएगा तो कैसे मालूम होगा कि क्या हो रहा है। इसी के साथ एक बात हम और कहना चाहते हैं कि आज मीडिया के कारण ही नेता और मंत्री हैं। ऐसा कौन सा नेता और मंत्री होगा जो मीडिया की सुर्खियों में नहीं रहना चाहता है। जब उनको इस बात का अहसास कराया जाएगा कि मीडिया को सम्मान देने पर ही कोई कार्यक्रम कवर होगा तो हमें नहीं लगता है कि मीडिया की बात नहीं मानी जाएगी। बस जरूरत है मीडिया को अपनी ताकत और औकात को पहचाने की। जिस दिन हम मीडिया कर्मी अपनी ताकत और औकात को समझ जाएंगे, उस दिन एक नए युग की शुरुआत होगी। मीडिया कर्मियों को सम्मान दिलाने की दिशा में मीडिया से जुड़े संस्थान को भी अपने संस्थानों के कर्मियों का साथ देना होगा।
हमें एक घटना याद है जो यह बताती है कि मीडिया की ताकत क्या है। मप्र के समय रायपुर के रेलवे स्टेशन में एक घटना में पुलिस की लाठियों से कई मीडिया कर्मी घायल हो गए थे। ऐसे में रायपुर के सभी अखबारों ने यह फैसला किया था कि सरकार की कोई भी खबर प्रकाशित नहीं की जाएगी। इस फैसले का असर यह हुआ कि उस समय मप्र के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को 24 घंटे के अंदर रायपुर आना पड़ा और घटना के लिए उन्होंने न सिर्फ छमा मांगी बल्कि घायल हुए हर मीडिया कर्मी के घर जाकर उनसे मिले और उनको मुआवजा दिया गया। यह एक उदाहरण बताता है कि वास्तव में मीडिया चाहे तो सरकार को झुका सकता है, लेकिन ऐसा किया नहीं जाता है।
1 टिप्पणियाँ:
प्रसंसनीय विचार ,बहुत खूब ...........
href="http://kosirgraminmitra.blogspot.com/"> कोसीर... ग्रामीण मित्र !
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