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मंगलवार, नवंबर 29, 2011

हर तरफ है गुंडों की सरकार

सदन के अंदर हो या बाहर
हर तरफ है गुंडों की सरकार
दोनों के ही कारनामों से
आम जनता हो गई है बेजार
किसमें है दम इनसे पा सके पार
क्योंकि इनके पास है पावर बेशुमार 
ये गुंडें अन्ना हो या रामदेव बाबा
सब पर जोर दिखाते हैं
देश का भला चाहने वालों
पर लाठियां चलवाते हैं
अपने देश में मलाई
विदेश में पहुंचाते हैं
देश के बाहर जाकर
खूब मौज उड़ाते हैं
आम जनता भले भूखी-प्यासी रहे
अपने कुत्तों को ये जूस पिलाते हैं
कभी तो भरेगा इनके पाप का घड़ा
फिर देखेंगे कौन गुंडा रहेगा खड़ा
(अभी-अभी एक ताजा कविता लिखी है, पेश है)

शनिवार, नवंबर 26, 2011

सुगंधित धान की ऊंचाई घटी

प्रदेश में सुगंधित धान की करीब एक दर्जन प्रजातियों की ऊंचाई कम करने की कवायद चल रही है। पहले चरण में ऊंचाई कम करने में सफलता मिली है, लेकिन जितनी ऊंचाई कम करने की योजना है उसमें सफलता मिलने में समय लगेगा।
सुगंधित धान की प्रजातियों में ऊंचाई ज्यादा होने के कारण उत्पादन प्रभावित हो रहा है। ऊंचाई के कारण उपयुक्त मात्रा में खाद भी डालने में परेशानी होती है। ऐसे में कृषि विश्वविद्यालय के अनुसंधान केंद्र में इस पर शोध किया जा रहा है।  वर्तमान में धान की ऊंचाई 150 से 160 सेमी के आप-पास है। इस ऊंचाई को 110 से 120 सेमी के आस-पास लाने के प्रयास के तहत पहले साल सुगंधित धान में जवा फूल, बादशाह भोग, विष्णु भोग, गंगा बारू, कपूर क्रांति, जीरा फूल सहित करीब एक दर्जन प्रजातियों की फसल लगाई गई थी।  पहले साल की फसल में ऊंचाई में कुछ कमी तो आई है, लेकिन इसे संतोषजनक नहीं कहा जा सकता है। जितनी ऊंचाई कम करने की योजना है, उस तक पहुंचने में कम से कम पांच से छह साल का समय लग जाएगा।
अभी तो कृषि विवि के अनुसंधान केंद्र के खेतों में ही कुछ 3 से 4 मीटर चौड़ा और 20 मीटर लंबाई में फसल लगाई गई थी। अब अगले साल से प्रदेश के कुछ जिलों जहां पर सुंगधित धान की खेती होती है, वहां फसलें लगाई जाएगीं। पहले फसलों को राज्य स्तर पर पहचान दिलाने के बाद राष्ट्रीय स्तर पर इसकी पहचान के प्रयास होंगे। ऊंचाई ज्यादा होने के कारण फसल गिर जाती है जिससे फसल का नुकसान होता है। जब शोध में सफलता मिल जाएगी तो किसानों को फसल से ज्यादा उत्पादन मिल सकेगा। अगले साल रायपुर के साथ बिलासपुर, रायगढ़, कवर्धा और अम्बिकापुर में फसल लगाने के प्रयास होंगे।

शुक्रवार, नवंबर 25, 2011

एक तमाचा तो नाकाफी है

एक थप्पड़ दिल्ली में ऐसा पड़ा कि अब इसकी गूंज पूरी दुनिया में सुनाई पड़ रही है। सुनाई पड़नी भी चाहिए। आखिर यह आम आदमी का थप्पड़ है, इसकी गूंज तो दूर तलक जानी ही चाहिए। कहते हैं कि जब आम आदमी तस्त्र होकर आप खोता है तो ऐसा ही होता है। आखिर कब तक आम जनों को ये नेता बेवकूफ बनाते रहेंगे और कीड़े-मकोड़े सम­ाते रहेंगे। अन्ना हजारे का बयान वाकई गौर करने लायक है कि क्या एक ही मारा। वास्तव में महंगाई को देखते हुए यह एक तमाचा तो नाकाफी लगता है।
इसमें कोई दो मत नहीं है कि आज देश का हर आमजन महंगाई की मार से इस तरह मर रहा है कि उनको कुछ सु­झता नहीं है। ऐसे में जबकि कुछ सम­झ नहीं आता है तो इंसान वही करता है जो उसे सही लगता है। और संभवत: उस आम आदमी हरविंदर सिंह ने भी वही किया जो उनको ठीक लगा। भले कानून के ज्ञाता लाख यह कहें कि कानून को हाथ में लेना ठीक नहीं है। लेकिन क्या कानून महज आम जनों के लिए बना है? क्या अपने देश के नेता और मंत्री कानून से बड़े हैं? क्यों कर आम जनों के खून पसीने की कमाई पर भ्रष्टाचार करके ये नेता मौज करते हैं। क्या भ्रष्टाचार करने वाले नेताओं के लिए कोई कानून नहीं है? हर नेता भ्रष्टाचार करके बच जाता है।
अब अपने देश के राजनेताओं को सम­झ लेना चाहिए कि आम आदमी जाग गया है, अब अगर ये नेता नहीं सुधरे तो हर दिन इनकों सड़कों पर पिटते रहने की नौबत आने वाली है। कौन कहता है कि महंगाई पर अंकुश नहीं लगाया जा सकता है। हकीकत तो यह है कि सरकार की मानसकिता ही नहीं है देश में महंगाई कम करने की। एक छोटा सा उदाहरण यह है कि आज पेट्रोल की कीमत लगातार बढ़ाई जा रही है। कीमत बढ़ रही है, वह तो ठीक है, लेकिन सरकार क्यों कर इस पर लगने वाले टैक्स को समाप्त  करने का काम नहीं करती है। एक इसी काम से महंगाई पर अंकुश लग जाएगा। जब पेट्रोल-डीजल पर टैक्स ही नहीं होगा तो यह इतना सस्ता हो जाएगा जिसकी कल्पना भी कोई नहीं कर सकता है। आज पेट्रोल और डीजल की कीमत का दोगुना टैक्स लगता है। टैक्स हटा दिया जाए तो महंगाई हो जाएगी न समाप्त।
पेट्रोल और डीजल की बढ़ी कीमतों की मांग ही आम जनों के खाने की वस्तुओं पर पड़ती है। माल भाड़ा बढ़ता है और महंगाई बेलगाम हो जाती है। जब महंगाई अपने देश में बेलगाम है तो एक आम इंसान बेलगाम होकर मंत्री का गाल लाल कर देता है तो क्या यह गलत है। एक आम आदमी के नजरिए से तो यह कताई गलत नहीं है।
थप्पड़ पर अन्ना हजारे के बयान पर विवाद खड़ा करने का भी प्रयास किया गया। उनका कहना गलत नहीं था, बस एक मारा। वास्तव में महंगाई की मार में जिस तरह से आम इंसान पिस रहा है, उस हिसाब से तो एक तमाचा नाकाफी है। 

गुरुवार, नवंबर 17, 2011

सब्जी की बोआई में ही कमाई

छत्तीसगढ़ की जलवायु इतनी अच्छी है कि यहां पर हर किस्म की फसल लगाई जा सकती है। छत्तीसगढ़ को भले धान का कटोरा कहा जाता है, लेकिन धान की पैदावार से किसानों की कमाई नहीं होती है। ऐसे में प्रदेश के किसानों को संपन्न बनाने के लिए उनको अब सब्जी भाजी वाली उद्यानिकी खेती पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए। सब्जियों की खेती से ही किसान पेशेवर हो पाएंगे। छत्तीसगढ़ की 50 प्रतिशत भूमि वैसे भी शुष्क खेती के लायक है।
राष्ट्रीय हार्टिकल्चर रिसर्च फाउंडेशन के पूर्व संचालक डॉ. यूबी पांडे ने कहा कि वे छत्तीसगढ़ के किसानों को सलाह देना चाहते हैं कि उनको धान की खेती के साथ अब उद्यानिकी की खेती की तरफ भी ध्यान देना चाहिए। यही खेती ऐसी है जिससे किसानों को कमाई हो सकती है। धान की खेती में किसान कमाई नहीं कर पाते हैं, बड़ी मुश्किल से आज उनके अपने खाने के लिए ही धान हो पाता है। श्री पांडे कहते हैं कि मैं छत्तीसगढ़ की जलवायु के बारे में जानता हूं। यहां हर किस्म की फसल आसानी से लगाई जा सकती है। वे कहते हैं कि क्यों कर नासिक का प्याज बंगलादेश जाता है। छत्तीसगढ़ के किसान चाहें तो यहां का प्याज विदेशों में जा सकता है। श्री पांडे कहते हैं कि प्रदेश के छोटे किसानों को तकनीकी रूप से मजबूत करके उनको उद्यानिकी की ज्यादा फसल लेने के लिए तैयार किया जा सकता है। वे बताते हैं कि देश में 2009 में 1290 लाख टन सब्जियों का उत्पादन हुआ था। पिछले साल यह उत्पादन 1350 लाख टन तक पहुंचा है। लेकिन इसके बाद भी उत्पादन में अभी और इजाफा जरूरी है। वे कहते हैं कि छत्तीसगढ़ की जलवायु को देखते हुए यहां प्याज का रिसर्च सेंटर होना चाहिए।
कौन सी फसल कहां लगाएं
प्रदेश की जलवायु और भौगोलिक स्थिति के मुताबिक कौन सी फसल के लिए कहां का स्थान उपयुक्त है, इसके बारे में इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय प्रबंध मंडल के सदस्य प्रोफेसर मनहर आडिल बताते हैं कि बस्तर संभाग की बात करें तो वहां की जलवायु के हिसाब से वहां पर काजू, कंदी फसलें इसमें जिमी कंद, अदरक, आलू, प्याज, लहसून की फसलें लगाई जाती हैं। सरगुजा, जशपुर, कोरिया का क्षेत्र पठारी क्षेत्र है इसमें चीकू, लीजी और सेब की फसल लगाई जाती है। मैदानी क्षेत्रों में कांकेर के बाद धमतरी, महासमुन्द, रायपुर, दुर्ग, राजनांदगांव और बिलासपुर हैं। यहां के लिए उपयुक्त फसलों में केला, नीबू, संतरा, जाम और आम है।

मंगलवार, नवंबर 15, 2011

बाड़ी परंपरा को जिंदा करें

आसमानी बारिश के साथ जिस तरह से जमीन में पानी की कमी हो गई है, उससे यह तय है कि अब शुष्क खेती पर ही ज्यादा ध्यान देना पड़ेगा। शुष्क खेती के लिए प्रदेश में बाड़ी परंपरा को फिर से जिंदा करने की जरूरत है।
ये बातें कृषि विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित राष्ट्रीय उद्यानिकी कार्यशाला की में सामने आई। एक समय वह था जब छत्तीसगढ़ का हर किसान खेतों में धान लगाने के साथ अपने घरों की बाड़ी में सब्जी-भाजी लगाने का काम करता था, लेकिन धीरे-धीरे यह परंपरा समाप्त सी हो गई है। कार्यक्रम के मुख्यअतिथि केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री चरणदास महंत ने कहा कि अपने छत्तीसगढ़ की प्रारंभ से यह परंपरा रही है कि यहां पर हमेशा से खेती-बाड़ी शब्द का प्रयोग किया जाता रहा है, लेकिन अब खेती तो रह गई है, लेकिन बाड़ियां विरान हो गई हैं। पर अब समय की जरूरत है कि बाड़ियों को जिंदा करना पड़ेगा। आज आसमान से किसानों को उतना पानी नहीं मिल पाता है जितना खेती के लिए चाहिए। नहरों के भी कंठ सुख से गए हैं। ऐसे में आज यह जरूरी है कि ऐसी खेती पर ध्यान दिया जाए जो कम पानी में होती है। कम पानी वाली खेती में सब्जी, फल, फूल ही आते हैं। भारत सरकार ने भी राष्ट्रीय उद्यानिकी मिशन प्रारंभ किया है ताकि पूरे देश में शुष्क खेती पर ज्यादा ध्यान दिया जा सके। छत्तीसगढ़ के लिए केंद्र ने पांच साल के लिए 413 करोड़ की राशि दी है।
राष्ट्रीय कृषि संस्थान जनवरी में
केंद्रीय मंत्री चरणदास महंत ने कहा कि उनके सामने प्रदेश के कृषि मंत्री चंद्रशेखर साहू ने दो राष्ट्रीय कृषि संस्थान खोलने की मांग रखी है। मैं वादा करता हूं कि कम से कम एक संस्थान तो जनवरी से प्रारंभ हो जाएगा। इसी के साथ उन्होंने कहा कि इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय में जितनी भी अनुसंधान केंद्र खुलने हैं उन सभी लंबित प्रस्तावों को एक बार लेकर विवि के कुलपति दिल्ली आ जाएं तो अगले माह संसद सत्र में सभी प्रस्ताव मंजूर करवा दिए जाएंगे। श्री महंत ने इस बात पर सहमति जताई कि सुरक्षित खेती के लिए किसानों को फेनिसिंग के लिए अनुदान मिलना चाहिए।
दिल्ली में छत्तीसगढ़ की शिमला मिर्च
प्रदेश के कृषि मंत्री चंद्रशेखर साहू ने कहा कि इसमें दो मत नहीं है कि छत्तीसगढ़ में उद्यानिकी खेती का रकबा बढ़ा है। राज्य में सब्जी-भाजी की खेती किस दिशा में इसका सबसे बड़ा सबूत यह कि दिल्ली के बाजारों बिकने वाली शिमला मिर्च की आधी पूर्ति छत्तीसगढ़ से होती है। उन्होंने कहा कि छत्तीसगढ़ की खेती को नई दिशा में ले जाने के लिए यहां उद्यानिकी खेती को बढ़ावा देने की जरूरत है।
50 प्रतिशत जमीन उद्यानिकी खेती के लायक
कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए कृषि विवि के कुलपति एसके पाटिल ने कहा कि प्रदेश में 40 से 50 प्रतिशत जमीन उद्यानिकी खेती के लिए उपयुक्त है। जरूरत है इस दिशा में किसानों को प्रोत्साहित करके की। कार्यशाला में आए राष्ट्रीय वैज्ञानिकों से किसान प्रोत्साहित होंगे। किसानों को साधन संपन्न भी बनाने की जरूरत है। कम पानी वाली फसलों पर ध्यान देना आज समय की जरूरत है।  छोटे किसानों के समूह बनाकर खेती करने से फायदा मिलेगा।
सरगुजा है लीचीगढ़
कार्यशाला में सरगुजा के किसान नानक सिंह ने बताया कि सरगुजा आज पूरी तरह से लीचीगढ़ हो गया है। मैं वहां पर बरसों से लीची की खेती कर रहा हूं। मप्र के मुख्यमंत्री रहे दिग्विजय सिंह ने मेरी नर्सरी की लीची खाने के बाद सरगुजा के लिए 60 लाख की मदद भिजवाई थी और सरगुजा को लीची जिला घोषित किया था। सरगुजा की लीची को देश के बाहर भी भेजा जा सकता है। इसके लिए योजना बनाने की जरूरत है। प्रचार-प्रसार के अभाव में सरगुजा की लीची को पहचान नहीं मिल पा रही है। रायपुर के किसान हैपी सिंबल ने बताया कि उनके पूर्वजों ने काजू की खेती प्रारंभ की थी, वे आज सब्जी, फल, फूल की खेती करते हैं। छत्तीसगढ़ की सब्जियों की महक लंदन तक पहुंच गई है। उन्होंने बताया कि उनके मामा लंदन में हैं जहां छत्तीसगढ़ की सब्जियों को भेजा जाता है। उन्होंने वादा किया कि उनकी कंपनी सरगुजा की लीची को भी विदेशी पहचान देने का काम करेगी।

शनिवार, नवंबर 12, 2011

राजनीति अब धंधेबाजों का खेल

आज अपने देश की राजनीति पूरी तरह से धंधेबाजों का खेल बनकर रह गई है। यह बात हम हवा में नहीं कह रहे हैं। आज अपने राज्य और देश का विकास चाहने वाले राजनेताओं की जरूरत नहीं रह गई है। अच्छे राजनेता राजनीति से किनारा कर गए हैं। अपने राज्य छत्तीसगढ़ के पूर्व वित्त मंत्री डॉ. रामचंद्र सिंह देव भी ऐसे नेता हैं जिन्होंने राजनीति की गंदगी को देखते हुए राजनीति से किनारा कर लिया है। उनसे बात करने का मौका मिला तो उनका यह दर्द उभर कर सामना आया। उन्होंने जो कुछ हमें बताया हम उनके शब्दों में ही पेश कर रहे हैं।
छत्तीसगढ़ में विकास का सपना लिए मैंने 1967 में पहला विधानसभा चुनाव रिकॉर्ड मतों से जीता था। मेरी जीत के पीछे मेरा नहीं बल्कि मेरे पिता डीएस सिंह देव का नाम था जिनके कारण मुझ जैसे अंजान को मतदाताओं ने सिर आंखों पर बिठाया था। यहां से शुरू हुए मेरे राजनीति के सफर के बाद मैंने छह बार चुनाव जीता। पांच बार कांग्रेस की टिकिट पर और एक बार निर्दलीय। लेकिन इधर राजनीति में जिस तरह से हालात बदले और आज राजनीति जिस तरह से व्यापार में बदल गई है उसके कारण ही मुझे सक्रिय राजनीति से किनारा करना पड़ा। राजनीति से भले मैंने संन्यास ले लिया है, लेकिन जब भी विकास की बात आती है तो मैं चाहे छत्तीसगढ़ हो या मप्र या फिर मेरा पुराना राज्य बंगाल, मैं सबके लिए  लड़ने हमेशा तैयार रहता हूं।
राजनीति में आने का पहला मकसद होता है अपने क्षेत्र और राज्य के विकास के लिए काम करना। मैंने अपने राजनीतिक जीवन में यही प्रयास किया, लेकिन जब मुझे लगने लगा कि अब राजनीति ऐसी नहीं रह गई जिसमें रहकर कुछ किया जा सके तो मैंने संन्यास लेने का फैसला कर लिया। आज का मतदाता वोट डालने के एवज में पैसा चाहता है। वैसे मैं आज भी कांग्रेस में हूं, लेकिन सक्रिय राजनीति से मेरा कोई नाता नहीं रह गया है। मैं वर्तमान में राजनीतिक हालात की बात करूं तो आज कांग्रेस हो या भाजपा दोनों पार्टियों में अस्थिरता का दौर चल रहा है। छत्तीसगढ़ राज्य के 11 सालों की यात्रा की बात करें तो कांग्रेस शासन काल के तीन साल तो राज्य की बुनियाद रखने में ही निकल गए। भाजपा सरकार के आठ सालों की बात करें तो इन सालों में भाजपा सरकार ने ऐसा कुछ नहीं किया है जिसको महत्वपूर्ण माना जा सके।
छत्तीसगढ़ बना तो इसकी आबादी दो करोड़ 5 लाख थी। छत्तीसगढ़ खनिज संपदा से परिपूर्ण राज्य है। यहां कोयला, लोहा, बाक्साइड, चूना, पत्थर भारी मात्रा में हैं। राज्य में इंद्रावती नदी से लेकर महानदी के कारण पानी की कमी नहीं है। इतना सब होने के बाद जिस तरह से राज्य का विकास होना था वह नहीं हो सका है। राज्य की 75 प्रतिशत आबादी गांवों में रहती है, लेकिन जहां तक विकास का सवाल है तो राज्य में दस प्रतिशत ही विकास किया गया है और वह भी शहरी क्षेत्रों में। राज्य में 35 लाख परिवार गरीबी रेखा के नीचे हैं। राज्य में उद्योग तो लगे लेकिन ये उद्योग प्राथमिक उद्योग ही रहे। प्राथमिक उद्योग से मेरा तात्पर्य यह है कि कच्चे माल को सांचे में ढालने का ही काम किया गया है। उच्च तकनीक का कोई उद्योग राज्य में स्थापित नहीं किया जा सका है। अपने राज्य की तुलना में हरियाणा और पंजाब में कोई खनिज संपदा नहीं है, फिर भी इन राज्यों में उद्योगों की स्थिति छत्तीसगढ़ से ज्यादा अच्छी है। छत्तीसगढ़ का कच्चा माल बाहर जा रहा है, यह स्थिति राज्य के लिए हानिकारक है।
छत्तीसगढ़ को धान का कटोरा कहा जाता है पर कृषि के लिए कुछ नहीं किया गया है। मैं इंडिया टूडे के एक सर्वे का उल्लेख करना चाहूंगा जिसमें देश के राज्यों में छत्तीसगढ़ को कृषि में 19वें स्थान पर रखा गया है। इसी तरह से अधोसंरचना में 19वां, निवेश में छठा, स्वास्थ्य में तीसरा सुक्ष्म अर्थव्यवस्था में 19वां और संपूर्ण विकास के मामले में देश में 16वें स्थान में रखा गया है। यह सर्वे भी साबित करता है कि राज्य में विकास नहीं हो सका है। जो 10 प्रतिशत विकास हुआ है, वह अमीरों का हुआ है।
मेरा ऐसा मानना है कि भाजपा विकास के सही मायने समझ ही नहीं सकी। भाजपा को कृषि, लघु उद्योग, हस्तशिल्प पर जोर देना था ताकि गांवों में रहने वाली 75 प्रतिशत आबादी का विकास होता। ऐसा क्यूं नहीं हुआ यह एक चिंता का विषय है। जिस तरह से राज्य में उद्योग आ रहे हैं और खनिज संपदा का दोहन कर रहे हैं उससे राज्य आने वाले 40-50 सालों में खोखला हो जाएगा। सरकार ने दो रुपए किलो चावल दिया, यह अच्छी बात है, लेकिन इससे आर्थिक विकास कहां हुआ? सरकार को गरीबी रेखा में जीवन यापन करने वालों को इस रेखा से बाहर करने की दिशा में काम करना था।
मैं अंत में अक्टूबर 2000 में मप्र के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को लिए गए अपने एक पत्र का उल्लेख करना चाहूंगा जिसमें मैंने उन्हें लिखा था कि  आपके पास तो बालाघाट का एक लांजी ही नक्सल प्रभावित क्षेत्र है, लेकिन छत्तीसगढ़ में बहुत ज्यादा क्षेत्र नक्सल प्रभावित है, अगर नक्सली क्षेत्र में सही विकास नहीं हुआ तो छत्तीसगढ़ नक्सलगढ़ हो जाएगा, आज लगता है कि मेरी यह भविष्यवाणी सच साबित हो गई है।

शनिवार, नवंबर 05, 2011

मीडिया कब पहचानेगा अपनी औकात

कहने को तो मीडिया को देश का चौथा स्तंभ कहा जाता है, लेकिन हमें नहीं लगता कि मीडिया वास्तव में देश का चौथा स्तंभ है। अगर वास्तव में इसको चौथा स्तंभ माना जाता तो इस स्तंभ के शिल्पकारों की हालत छुट भईये नेताओं से तो कम से कम ज्यादा होती। ऐसा हम हवा में नहीं कह रहे हैं। इस चौथे स्तंभ में काम करते हमें भी दो दशक हो रहे हैं और इन सालों में हमने तो यही जाना है कि वास्तव में मीडिया ने अब तक अपनी सही औकात को नहीं पहचाना है। हमें बहुत अफसोस होता जब मीडिया से जुड़े लोगों को हम छोटे से पुलिस वालों के सामने असहाय पाते हैं।
जब-जब देश में या किसी भी राज्य में कहीं भी किसी बड़े नेता या मंत्री की कोई सभा या कोई भी छोटा-बड़ा कार्यक्रम होता है तो उस समय मालूम होती है मीडिया की असली औकात। ऐसे कार्यक्रमों में सभा स्थल तक सभी नेता और मंत्रियों के वाहन तो जाते ही हैं, साथ ही इनके चमचों और छोटे-मोटे नेताओं को भी रोकने की हिम्मत सुरक्षा व्यवस्था में लगे पुलिस वाले नहीं दिखा पाते हैं। लेकिन मीडिया की बात आती है तो मीडिया कर्मियों को सभा स्थल के  काफी दूर (कई बार तो एक किलो मीटर तक)  रोक दिया जाता है और कहा जाता है कि अपने वाहन कहीं भी रखे और पैदल जाएं। ऐसे समय में हमें बहुत गुस्सा भी आता है और मीडिया कर्मियों की बेबसी पर तरस भी आता है। अब बेचारे मीडिया कर्मी को अपनी नौकरी करनी है उसे पुलिस वाले एक किलो मीटर क्या चार किलो मीटर भी दूर रोककर पैदल जाने कहेंगे तो जाना पड़ेगा। जाना इसलिए पड़ेगा क्योंकि पापी पेट का सवाल है। अगर आप सभा की रिपोर्टिंग करके नहीं जाएंगे तो अपनी नौकरी से हाथ भी धो सकते हैं।
यह परंपरा आज से नहीं बल्कि बरसों से चली आ रही है और इससे लड़ना कोई नहीं चाहता है। अक्सर हम किसी कार्यक्रम में जाते हैं तो वाहन को दूर रखने को लेकर कई बार पुलिस वालों से बहस हो जाती है, कई बार वाहन अंदर ले जाने की इजाजत मिल जाती है तो कई बार मजबूरी में वाहन काफी दूर रखना पड़ता है। लेकिन हमें कम से कम इस बात की संतुष्टि है कि हम विरोध तो करते हैं, लेकिन ज्यादातर मीडिया कर्मी विरोध ही नहीं करते हैं। संभवत: उनको लगता है कि विरोध करने का फायदा नहीं है। लेकिन हमें लगता है कि उनका ऐसा सोचना गलत है। अगर मीडिया कर्मी एक हो जाए तो एक दिन ऐसा जरूर आएगा जब उनको सफलता मिलेगी।
क्यों कर मीडिया कर्मियों के वाहन भी वहां तक नहीं जाने चाहिए जहां तक नेता-मंत्रियों या अन्य छुटभईये नेताओं के जाता हैं। क्या मीडिया कर्मियों की औकात उन छुट भईये नेताओं जितनी भी नहीं है तो सिर्फ नेताओं की चमचागिरी करते हैं। हम जानते हैं कि किसी भी कार्यक्रम का बहिष्कार करना मीडिया कर्मियों के बस में नहीं है क्योंकि आज के प्रतिस्पर्धा वाले दौर में यह इसलिए संभव नहीं है क्योंकि कोई न कोई तो कार्यक्रम को कवर कर ही लेगा। जो लोग बहिष्कार करने की हिम्मत दिखाएंगे उनको अपने संस्थानों के क्रोध का सामना करना पड़ेगा, संभव है किसी की नौकरी भी चली जाए, शायद यही वजह है कि लोग ऐसा साहस नहीं करते हैं।
हम बताना चाहते हैं कि अगर मीडिया कर्मी हिम्मत करते हैं तो उनको सफलता मिल सकती है। ऐसा हम इसलिए कह रहे हैं क्योंकि हमने ऐसा कई बार किया है और सफलता भी मिली है। हम बता दें कि छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह छत्तीसगढ़ ओलंपिक संघ के अध्यक्ष भी हैं। दो बार ओलंपिक संघ की बैठक में मीडिया को बैठक से दूर रखा गया तो हम लोगों ने इस बैठक का बहिष्कार किया। जब यह बात मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह तक पहुंची तो वे खुद हम लोगों तक न सिर्फ आए बल्कि उन्होंने छमा भी मांगी।
हमारे कहने का मतलब यह है कि अक्सर ऐसा होता है कि ऊपरी स्तर पर तो कुछ जानकारी नहीं होती है और नीचे वाले अफसर अपनी मर्जी से कोई भी फैसला कर लेते हैं। जब तक अपनी बात को ऊपर तक नहीं पहुंचाया जाएगा तो कैसे मालूम होगा कि क्या हो रहा है। इसी के साथ एक बात हम और कहना चाहते हैं कि आज मीडिया के कारण ही नेता और मंत्री हैं। ऐसा कौन सा नेता और मंत्री होगा जो मीडिया की सुर्खियों में नहीं रहना चाहता है। जब उनको इस बात का अहसास कराया जाएगा कि मीडिया को सम्मान देने पर ही कोई कार्यक्रम कवर होगा तो हमें नहीं लगता है कि मीडिया की बात नहीं मानी जाएगी। बस जरूरत है मीडिया को अपनी ताकत और औकात को पहचाने की। जिस दिन हम मीडिया कर्मी अपनी ताकत और औकात को समझ जाएंगे, उस दिन एक नए युग की शुरुआत होगी। मीडिया कर्मियों को सम्मान दिलाने की दिशा में मीडिया से जुड़े संस्थान को भी अपने संस्थानों के कर्मियों का साथ देना होगा।
हमें एक घटना याद है जो यह बताती है कि मीडिया की ताकत क्या है। मप्र के समय रायपुर के रेलवे स्टेशन में एक घटना में पुलिस की लाठियों से कई मीडिया कर्मी घायल हो गए थे। ऐसे में रायपुर के सभी अखबारों ने यह फैसला किया था कि सरकार की कोई भी खबर प्रकाशित नहीं की जाएगी। इस फैसले का असर यह हुआ कि उस समय मप्र के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को 24 घंटे के अंदर   रायपुर आना पड़ा और घटना के लिए उन्होंने न सिर्फ छमा मांगी बल्कि घायल हुए हर मीडिया कर्मी के घर जाकर उनसे मिले और उनको मुआवजा दिया गया। यह एक उदाहरण बताता है कि वास्तव में मीडिया चाहे तो सरकार को झुका सकता है, लेकिन ऐसा किया नहीं जाता है।

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