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गुरुवार, फ़रवरी 18, 2010

वफा का सिला

वो इस कदर हमसे कतरा कर चल दिए


उनकी बेरूखी देखकर हम दिल थामकर रह गए।।

दिए हैं जो जख्म हमें उसने सिए जाते नहीं

गम के आंसू अब पीए जाते नहीं।।

डुब गया है दिल यादों में उनकी इस कदर

कटता ही नहीं अब तन्हा जिंदगी का सफर।।

छोड़कर ही जब साथ चल दिए हमसफर

फिर काटे कैसे जिंदगी का लंबा सफर।।

जिसे हमने खुदा की तरह ही पुजा

वहीं समझने लगी हैं हम अब दुजा।।

वफा का क्या खुब हमें सिला मिला

कांटों से हमारा दामन भर गया।

(नोट: यह कविता हमारी 20 साल पुरानी डायरी से ली गई है)

4 टिप्पणियाँ:

निर्मला कपिला गुरु फ़र॰ 18, 08:23:00 am 2010  

वफा तकलीफ देय तो होती ही है बहुत अच्छी लगी रचना शुभकामनायें

ब्लॉ.ललित शर्मा गुरु फ़र॰ 18, 08:34:00 am 2010  

जिसे हमने खुदा की तरह ही पुजा
वहीं समझने लगी हैं हम अब दुजा।।

यही सत्य है-जब खटारा राजदुत की जगह कोई चमाचम होंडा वाला मिल जाता है तब्।

Udan Tashtari गुरु फ़र॰ 18, 08:54:00 am 2010  

वाह!! डायरी और पढ़्वाई जाये..आनन्द आया!

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