राष्ट्रभाषा को बचाने के लिए फ्रांसीस क्रांति की जरूरत
अपनी राष्ट्रभाषा हिन्दी को लेकर अपने देश के साहित्यकारों में ही बहुत ज्यादा मतभेद हैं। कोई यह मानता है कि हिन्दी भाषा का अंत नहीं हो सकता है तो कोई कहता है कि हिन्दी मर रही है। ऐसे में जबकि सबके अपने-अपने मत हैं तो भला कैसे अपनी राष्ट्रभाषा का भला हो सकता है। साहित्यकार और छत्तीसगढ़ के पूर्व डीजीपी विश्व रंजन मानना है कि अपने देश में भी राष्ट्रभाषा को बचाने के लिए फ्रांसीस क्रांति की जरूरत है। विश्व रंजन ने एक किस्सा सुनाया कि जब वे काफी बरसों पहले फ्रांस गए थे तो वहां पर एक टैक्सी में बैठे। ड्राईवर को अंग्रेजी आती थी, इसके बाद भी उन्होंने साफ कह दिया कि वे अंग्रेजी में बात नहीं करेंगे और अंग्रेजी में उनको जिस स्थान के लिए जाने कहा गया वहां ले जाने वह तैयार नहीं हुआ।
कहने का मतलब यह है कि फ्रांस जैसे देशों ने अपनी राष्ट्रभाषा को बचाने के लिए अंग्रेजी का बहिष्कार करने का काम किया। लेकिन सोचने वाली बात यह है कि क्या अपने देश भारत में फ्रांस जैसी क्रांति संभव है? हमें नहीं लगता है कि भारत में ऐसा संभव हो सकता है। अपने देश में जिस तरह से लोग अंग्रेजी की गुलामी में जकड़े हुए हैं, उससे उनको मुक्त करना अंग्रेजों की गुलामी से देश को मुक्त कराने से भी ज्यादा कठिन लगता है। अंग्रेज तो भारत छोड़कर चले गए, लेकिन उनकी भाषा की गुलामी से आजादी का मिलना संभव नहीं है।
भले अंग्रेजी से आजादी न मिले, लेकिन इतना जरूर करने की जरूरत है कि अपनी राष्ट्रभाषा का अपमान तो न हो। यहां तो अपने देश में कदम-कदम पर अपनी राष्ट्रभाषा का अपमान होता है। लोगों को अंग्रेजी बोलने में गर्व महसूस होता है। जो अंग्रेजी नहीं जानता है उसे लोग गंवार ही समझ ही लेते हैं। हमारी नजर में तो जिसे अपनी राष्ट्रभाषा का मान रखना नहीं आता है, उससे बड़ा कोई गंवार नहीं हो सकता है। वास्तव में हमें फ्रांस जैसे देशों से सबक लेने की जरूरत है। भले आप अंग्रेजी का बहिष्कार करने की हिम्मत नहीं दिखा सकते हैं, लेकिन अपनी राष्ट्रभाषा का मान रखने की हिम्मत तो दिखा ही सकते हैं। अगर आप हिन्दी जानते हुए भी हिन्दी नहीं बोलते हैं तो क्या राष्ट्रभाषा का अपमान नहीं है। अगर कहीं पर अंग्रेजी बोलने की मजबूरी है तो बेशक बोलें। लेकिन जहां पर आपको सुनने और समझने वाले 80 प्रतिशत से ज्यादा हिन्दी भाषीय हों वहां पर अंग्रेजी में बोलने का क्या कोई मतलब होता है। लेकिन नहीं अगर हम अंग्रेजी नहीं बोलेंगे तो हमें पढ़ा-लिखा कैसे समझा जाएगा। आज पढ़े-लिखे होने के मायने यही है कि जिसको अंग्रेजी आती है, वही पढ़ा-लिखा है, जिसे अंग्रेजी नहीं आती है, उसे पढ़ा-लिखा समझा नहीं जाता है।
विश्व रंजन ने एक बात और कही कि आज अपने देश में हिन्दी को मजबूत करने के लिए स्कूल स्तर से ध्यान देने की जरूरत है। लेकिन यहां भी सोचने वाली बात यह है कि स्कूल स्तर से कैसे ध्यान देना संभव है। आज हर पालक अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूलों में ही भेजना चाहता है। यहां पर पालकों की सोच को बदलने की जरूरत है, जो संभव नहीं लगता है। हमारा ऐसा मानना है कि हिन्दी को बचाने के लिए स्कूल स्तर की बात तभी संभव हो सकती है जब किसी भी नौकरी में अंग्रेजी की अनिवार्यता के स्थान पर हिन्दी को अनिवार्य किया जाएगा। आज हर नौकरी की पहली शर्त अंग्रेजी है, ऐसे में पालक तो जरूर चाहेंगे कि उनके बच्चों का भविष्य सुरक्षित हो और जब अंग्रेजी में ही भविष्य नजर आएगा तो लोगों का अंग्रेजी के पीछे भागना स्वाभाविक है। अंग्रेजी से मुक्ति के लिए फ्रांसीस क्रांति की नहीं जागरूकता क्रांति की जरूरत है। अब यह कहा नहीं जा सकता है कि यह जागरूकता कब और कैसे आएगी।
कहने का मतलब यह है कि फ्रांस जैसे देशों ने अपनी राष्ट्रभाषा को बचाने के लिए अंग्रेजी का बहिष्कार करने का काम किया। लेकिन सोचने वाली बात यह है कि क्या अपने देश भारत में फ्रांस जैसी क्रांति संभव है? हमें नहीं लगता है कि भारत में ऐसा संभव हो सकता है। अपने देश में जिस तरह से लोग अंग्रेजी की गुलामी में जकड़े हुए हैं, उससे उनको मुक्त करना अंग्रेजों की गुलामी से देश को मुक्त कराने से भी ज्यादा कठिन लगता है। अंग्रेज तो भारत छोड़कर चले गए, लेकिन उनकी भाषा की गुलामी से आजादी का मिलना संभव नहीं है।
भले अंग्रेजी से आजादी न मिले, लेकिन इतना जरूर करने की जरूरत है कि अपनी राष्ट्रभाषा का अपमान तो न हो। यहां तो अपने देश में कदम-कदम पर अपनी राष्ट्रभाषा का अपमान होता है। लोगों को अंग्रेजी बोलने में गर्व महसूस होता है। जो अंग्रेजी नहीं जानता है उसे लोग गंवार ही समझ ही लेते हैं। हमारी नजर में तो जिसे अपनी राष्ट्रभाषा का मान रखना नहीं आता है, उससे बड़ा कोई गंवार नहीं हो सकता है। वास्तव में हमें फ्रांस जैसे देशों से सबक लेने की जरूरत है। भले आप अंग्रेजी का बहिष्कार करने की हिम्मत नहीं दिखा सकते हैं, लेकिन अपनी राष्ट्रभाषा का मान रखने की हिम्मत तो दिखा ही सकते हैं। अगर आप हिन्दी जानते हुए भी हिन्दी नहीं बोलते हैं तो क्या राष्ट्रभाषा का अपमान नहीं है। अगर कहीं पर अंग्रेजी बोलने की मजबूरी है तो बेशक बोलें। लेकिन जहां पर आपको सुनने और समझने वाले 80 प्रतिशत से ज्यादा हिन्दी भाषीय हों वहां पर अंग्रेजी में बोलने का क्या कोई मतलब होता है। लेकिन नहीं अगर हम अंग्रेजी नहीं बोलेंगे तो हमें पढ़ा-लिखा कैसे समझा जाएगा। आज पढ़े-लिखे होने के मायने यही है कि जिसको अंग्रेजी आती है, वही पढ़ा-लिखा है, जिसे अंग्रेजी नहीं आती है, उसे पढ़ा-लिखा समझा नहीं जाता है।
विश्व रंजन ने एक बात और कही कि आज अपने देश में हिन्दी को मजबूत करने के लिए स्कूल स्तर से ध्यान देने की जरूरत है। लेकिन यहां भी सोचने वाली बात यह है कि स्कूल स्तर से कैसे ध्यान देना संभव है। आज हर पालक अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूलों में ही भेजना चाहता है। यहां पर पालकों की सोच को बदलने की जरूरत है, जो संभव नहीं लगता है। हमारा ऐसा मानना है कि हिन्दी को बचाने के लिए स्कूल स्तर की बात तभी संभव हो सकती है जब किसी भी नौकरी में अंग्रेजी की अनिवार्यता के स्थान पर हिन्दी को अनिवार्य किया जाएगा। आज हर नौकरी की पहली शर्त अंग्रेजी है, ऐसे में पालक तो जरूर चाहेंगे कि उनके बच्चों का भविष्य सुरक्षित हो और जब अंग्रेजी में ही भविष्य नजर आएगा तो लोगों का अंग्रेजी के पीछे भागना स्वाभाविक है। अंग्रेजी से मुक्ति के लिए फ्रांसीस क्रांति की नहीं जागरूकता क्रांति की जरूरत है। अब यह कहा नहीं जा सकता है कि यह जागरूकता कब और कैसे आएगी।
1 टिप्पणियाँ:
शायद पहले भी यह लेख यहाँ पढ़ चुका हूँ।
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