कारगिल के मोर्चे पर जाना चाहते थे रफीक
कारगिल युद्ध के समय एक बार देश की सेवा करने का मौका हाथ लगा था। मैंने वहां जाने के लिए रायपुर के जिलाधीश को पत्र भी दिया, लेकिन अफसोस की मुझे यह सौभाग्य नहीं मिल सका। मेरा ऐसा मानना है कि देश के हर नागरिक में देश प्रेम का जज्बा होना चाहिए, और किसी न किसी रूप मे देश की सेवा करनी चाहिए। वैसे मैं एक एथलीट के रूप में देश की सेवा करने का काम बरसों से कर रहा हूं।
ये विचार रखते हैं, 77 साल के एथलीट मो. रफीक शाद। शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में खेल शिक्षक के रूप में 1995 तक सेवाएं देने के बाद जब वे रिटायर हुए तो भी उसमें देश के लिए लगातार कुछ न कुछ करने के अरमान थे। जब 1999 में भारत-पाक में कारगिल युद्ध हुआ और पूरे देश में यह अपील की गई जो भी नागरिक अपनी सेवाएं युद्ध के मोर्चे पर देना चाहते हैं वे दे सकते हैं, तो मो. रफीक ने भी रायपुर के जिलाधीश एमके राउत को 11 जून 1999 को एक पत्र लिखकर कारगिल जाने की इच्छा व्यक्त की। लेकिन यह श्री रफीक का दुर्भाग्य था कि उनको वहां जाने का मौका नहीं मिला। वे बताते हैं देश प्रेम का पाठ तो उन्होंने बचपन से अपने घर में पढ़ा है। हमारे घर में सभी क्रांतिकारी विचारधारा के लोग थे। मेरी बहन देश के आजाद होने से पहले दिल्ली से प्रकाशित होने वाले अखबार खातुन मसरीख में लिखा करती थीं। देश के आजाद होने से पहले के रायपुर को याद करते हुए वे बताते हैं कि मुझे याद है उस समय मैं मुश्किल से 9-10 साल का था, वह विश्व युद्ध का वक्त था, मोतीबाग के आस-पास ज्यादा आबादी नहीं थी, वहां पर जहां बड़े-बड़े गड्ढे खोद दिए गए थे, वहीं बड़े-बडे नाले बनाए गए थे। यह सब बमबारी से बचने के लिए किया गया था। उन दिनों बहुत ज्यादा दहशत का माहौल रहता था। मुझे आज भी याद है जब देश आजाद हुआ था तो अपने शहर में भी आजादी का जश्न जोर-शोर से मना था।आजादी के बाद को याद करते हुए मो. रफीक बताते हैं कि उनकी बहन का निकाह पाकिस्तान में हो हुआ था, वह करांची में शिक्षिका थीं, पत्रकारिता तब भी उन्होंने नहीं छोड़ी थी। पाक सरकार के खिलाफ बोलने का मौका वह चूकती नहीं थीं। सरकार के खिलाफ बोलने के कारण ही उनको अपनी नौकरी गंवानी पड़ी थी।
अपने खेल जीवन के बारे में मो. रफीक बताते हैं कि यूं तो बचपन से ही खेलों से नाता रहा है। बैजनाथपारा में बचपन बीता है। वहां पर उस समय फुटबॉल और हॉकी का ही दौर चलता था। मैंने भी हॉकी खूब खेली। एक बार 1954 में नागपुर में हुई राष्ट्रीय हॉकी में मप्र की तरफ से खेलने का मौका मिला। हॉकी के बाद एथलेटिक्स से नाता जोड़ा। इस खेल में वेटरन वर्ग में मुझे ज्यादा सफलता मिली है। 1980 से एक एथलीट के रूप में खेल रहा हूं। अब तक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय एशियन मास्टर्स चैंपियनशिप को मिलाकर करीब 77 पदक जीते हैं। इस साल 2011 में मलेशिया में मास्टर एशियन चैंपियनशिप में खेलकर आया हूं। वहां 100 और 200 मीटर में दौड़ा, किस्मत ने साथ नहीं दिया और मैं पदक से चूक गया। मुझे चौथे स्थान से संतोष करना पड़ा। मो. रफीक बताते हैं कि उन्होंने 1984 में 200 मीटर में 24 सेकेंड का जो रिकॉर्ड बनाया था, वह अब तक कायम है।
श्री रफीक को इस बात का मलाल है कि अपने राज्य में सिंथेटिक ट्रेक नहीं है। वे कहते हैं कि छत्तीसगढ़ में होने वाले 37वें राष्ट्रीय खेलों में प्रदेश के खिलाड़ियों को पदकों तक पहुंचाना है तो पहले सिंथेटिक ट्रेक बनाए और ज्यादा से ज्यादा स्पर्धाओं का आयोजन करें। 1969 में पटियाला से एनआईएस कोर्स करने वाले श्री रफीक अपने राज्य के खिलाड़ियों को तैयार करना चाहते हैं। वे कहते हैं कि सरकार उनको मौका दे तो वे राज्य के लिए पदक विजेता खिलाड़ी तैयार कर सकते हैं। खेलों में उनकी उपलब्धि को देखते हुए प्रदेश सरकार ने उनको 2007 में खेल विभूति सम्मान से नवाजा है।
ये विचार रखते हैं, 77 साल के एथलीट मो. रफीक शाद। शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में खेल शिक्षक के रूप में 1995 तक सेवाएं देने के बाद जब वे रिटायर हुए तो भी उसमें देश के लिए लगातार कुछ न कुछ करने के अरमान थे। जब 1999 में भारत-पाक में कारगिल युद्ध हुआ और पूरे देश में यह अपील की गई जो भी नागरिक अपनी सेवाएं युद्ध के मोर्चे पर देना चाहते हैं वे दे सकते हैं, तो मो. रफीक ने भी रायपुर के जिलाधीश एमके राउत को 11 जून 1999 को एक पत्र लिखकर कारगिल जाने की इच्छा व्यक्त की। लेकिन यह श्री रफीक का दुर्भाग्य था कि उनको वहां जाने का मौका नहीं मिला। वे बताते हैं देश प्रेम का पाठ तो उन्होंने बचपन से अपने घर में पढ़ा है। हमारे घर में सभी क्रांतिकारी विचारधारा के लोग थे। मेरी बहन देश के आजाद होने से पहले दिल्ली से प्रकाशित होने वाले अखबार खातुन मसरीख में लिखा करती थीं। देश के आजाद होने से पहले के रायपुर को याद करते हुए वे बताते हैं कि मुझे याद है उस समय मैं मुश्किल से 9-10 साल का था, वह विश्व युद्ध का वक्त था, मोतीबाग के आस-पास ज्यादा आबादी नहीं थी, वहां पर जहां बड़े-बड़े गड्ढे खोद दिए गए थे, वहीं बड़े-बडे नाले बनाए गए थे। यह सब बमबारी से बचने के लिए किया गया था। उन दिनों बहुत ज्यादा दहशत का माहौल रहता था। मुझे आज भी याद है जब देश आजाद हुआ था तो अपने शहर में भी आजादी का जश्न जोर-शोर से मना था।आजादी के बाद को याद करते हुए मो. रफीक बताते हैं कि उनकी बहन का निकाह पाकिस्तान में हो हुआ था, वह करांची में शिक्षिका थीं, पत्रकारिता तब भी उन्होंने नहीं छोड़ी थी। पाक सरकार के खिलाफ बोलने का मौका वह चूकती नहीं थीं। सरकार के खिलाफ बोलने के कारण ही उनको अपनी नौकरी गंवानी पड़ी थी।
अपने खेल जीवन के बारे में मो. रफीक बताते हैं कि यूं तो बचपन से ही खेलों से नाता रहा है। बैजनाथपारा में बचपन बीता है। वहां पर उस समय फुटबॉल और हॉकी का ही दौर चलता था। मैंने भी हॉकी खूब खेली। एक बार 1954 में नागपुर में हुई राष्ट्रीय हॉकी में मप्र की तरफ से खेलने का मौका मिला। हॉकी के बाद एथलेटिक्स से नाता जोड़ा। इस खेल में वेटरन वर्ग में मुझे ज्यादा सफलता मिली है। 1980 से एक एथलीट के रूप में खेल रहा हूं। अब तक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय एशियन मास्टर्स चैंपियनशिप को मिलाकर करीब 77 पदक जीते हैं। इस साल 2011 में मलेशिया में मास्टर एशियन चैंपियनशिप में खेलकर आया हूं। वहां 100 और 200 मीटर में दौड़ा, किस्मत ने साथ नहीं दिया और मैं पदक से चूक गया। मुझे चौथे स्थान से संतोष करना पड़ा। मो. रफीक बताते हैं कि उन्होंने 1984 में 200 मीटर में 24 सेकेंड का जो रिकॉर्ड बनाया था, वह अब तक कायम है।
श्री रफीक को इस बात का मलाल है कि अपने राज्य में सिंथेटिक ट्रेक नहीं है। वे कहते हैं कि छत्तीसगढ़ में होने वाले 37वें राष्ट्रीय खेलों में प्रदेश के खिलाड़ियों को पदकों तक पहुंचाना है तो पहले सिंथेटिक ट्रेक बनाए और ज्यादा से ज्यादा स्पर्धाओं का आयोजन करें। 1969 में पटियाला से एनआईएस कोर्स करने वाले श्री रफीक अपने राज्य के खिलाड़ियों को तैयार करना चाहते हैं। वे कहते हैं कि सरकार उनको मौका दे तो वे राज्य के लिए पदक विजेता खिलाड़ी तैयार कर सकते हैं। खेलों में उनकी उपलब्धि को देखते हुए प्रदेश सरकार ने उनको 2007 में खेल विभूति सम्मान से नवाजा है।
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