इंसानियत भी खो दी है पत्रकारिता ने
आज की गला काट प्रतिस्पर्धा के चलते लगता है कि अब पत्रकारिता ने इंसानित से भी नाता तोड़ दिया है। एक अखबार से जुड़े किसी इंसान का निधन हो जाता है तो दूसरे अखबार वाले उसकी खबर को भी प्रकाशित करना जरूरी नहीं समझते हैं।
हम जिस अखबार दैनिक हरिभूमि में काम करते हैं उस अखबार के प्रमुख और आर्य समाजी, उद्योगपति चौधरी मित्रसेन आर्य का 27 जनवरी को निधन हो गया। उनके निधन का समाचार राजधानी के अखबारों से गायब रहा। एक अखबार नेशनल लूक को छोड़कर और किसी ने इस खबर को प्रकाशित करना जरूरी नहीं समझा। हम इस बात का उल्लेख यहां पर कदापि इसलिए नहीं कर रहे हैं कि यह हमारे अखबार के प्रमुख से जुड़े होने का मामला है। सवाल इस बात का नहीं है। सोचने वाली बात है कि क्या आज की गला काट प्रतिस्पर्धा में अखबार इतने अंधे हो चुके हैं कि उनको इंसानित से भी कोई लेना-देना नहीं है। वैसे इसमें कोई दो मत नहीं है कि वास्तव में अखबार इंसानित खो चुके हैं। चाहे वह किसी दूसरे अखबार से जुड़े किसी पत्रकार की हत्या का मामला हो या और कोई मामला हो।
छत्तीसगढ़ में हाल ही में दो पत्रकारों की हत्या हो चुकी है। बिलासपुर के एक पत्रकार सुशील पाठक के बाद ग्रामीण पत्रकार छुरा के उमेश राजपूत की हत्या हुई है। वे जिस अखबार दैनिक नई दुनिया से जुड़े हैं, उनके लिए पत्रकार की हत्या होना लगता है चिंतन का विषय नहीं है, वे अपने इस पत्रकार की हत्या के बाद ये बताने में लगे हैं कि वे पूर्णकालिक नहीं अंशकालिक पत्रकार थे। भाई पत्रकार तो पत्रकार होता है। इस मुद्दे पर हमारे पत्रकार मित्र अहफाज रसीद ने बहुत अच्छा लिखा है। उन्होंने पत्रकारिता की दुकान चलाने वालों को आड़े हाथों लिया है। अहफाज और उनके साथियों ने छुरा का दौरा भी किया। इसके लिए उनकी पूरी टीम साधुवाद की पात्र है। चलो हमारे कुछ पत्रकारों ने समय निकाल कर छुरा के मृतक पत्रकार के घर जाकर अपनी संवेदना तो दिखाई। जिस अखबार में पत्रकार मित्र उमेश राजपूत काम करते थे, उस अखबार के लोगों ने भी वहां जाना जरूरी नहीं समझा।
उमेश राजपूत की हत्या की खबर के साथ एक बात जरूरी अच्छी हुई कि इस खबर को इस बार कम से कम सभी अखबारों ने प्रकाशित किया। वरना इसके पहले सुशील पाठक की हत्या की खबर को भास्कर के प्रतिद्वंद्वी अखबार पत्रिका ने प्रकाशित करना जरूरी नहीं समझा था।
बहरहाल वास्तव में यह एक चिंतन का विषय है कि आज की पत्रकारिता की दिशा कहां जा रही है। देखा जाए तो पत्रकारिता पर पूरी तरह से अखबारों का प्रबंधन हावी हो गया है, बिना प्रबंधन की इजाजत के मजाल है कि कोई खबर प्रकाशित करने का काम किसी अखबार का संपादक और पत्रकार कर ले। लिखने को तो बहुत कुछ है, लेकिन शेष अगली बार लिखेंगे। फिलहाल इतना ही।
हम जिस अखबार दैनिक हरिभूमि में काम करते हैं उस अखबार के प्रमुख और आर्य समाजी, उद्योगपति चौधरी मित्रसेन आर्य का 27 जनवरी को निधन हो गया। उनके निधन का समाचार राजधानी के अखबारों से गायब रहा। एक अखबार नेशनल लूक को छोड़कर और किसी ने इस खबर को प्रकाशित करना जरूरी नहीं समझा। हम इस बात का उल्लेख यहां पर कदापि इसलिए नहीं कर रहे हैं कि यह हमारे अखबार के प्रमुख से जुड़े होने का मामला है। सवाल इस बात का नहीं है। सोचने वाली बात है कि क्या आज की गला काट प्रतिस्पर्धा में अखबार इतने अंधे हो चुके हैं कि उनको इंसानित से भी कोई लेना-देना नहीं है। वैसे इसमें कोई दो मत नहीं है कि वास्तव में अखबार इंसानित खो चुके हैं। चाहे वह किसी दूसरे अखबार से जुड़े किसी पत्रकार की हत्या का मामला हो या और कोई मामला हो।
छत्तीसगढ़ में हाल ही में दो पत्रकारों की हत्या हो चुकी है। बिलासपुर के एक पत्रकार सुशील पाठक के बाद ग्रामीण पत्रकार छुरा के उमेश राजपूत की हत्या हुई है। वे जिस अखबार दैनिक नई दुनिया से जुड़े हैं, उनके लिए पत्रकार की हत्या होना लगता है चिंतन का विषय नहीं है, वे अपने इस पत्रकार की हत्या के बाद ये बताने में लगे हैं कि वे पूर्णकालिक नहीं अंशकालिक पत्रकार थे। भाई पत्रकार तो पत्रकार होता है। इस मुद्दे पर हमारे पत्रकार मित्र अहफाज रसीद ने बहुत अच्छा लिखा है। उन्होंने पत्रकारिता की दुकान चलाने वालों को आड़े हाथों लिया है। अहफाज और उनके साथियों ने छुरा का दौरा भी किया। इसके लिए उनकी पूरी टीम साधुवाद की पात्र है। चलो हमारे कुछ पत्रकारों ने समय निकाल कर छुरा के मृतक पत्रकार के घर जाकर अपनी संवेदना तो दिखाई। जिस अखबार में पत्रकार मित्र उमेश राजपूत काम करते थे, उस अखबार के लोगों ने भी वहां जाना जरूरी नहीं समझा।
उमेश राजपूत की हत्या की खबर के साथ एक बात जरूरी अच्छी हुई कि इस खबर को इस बार कम से कम सभी अखबारों ने प्रकाशित किया। वरना इसके पहले सुशील पाठक की हत्या की खबर को भास्कर के प्रतिद्वंद्वी अखबार पत्रिका ने प्रकाशित करना जरूरी नहीं समझा था।
बहरहाल वास्तव में यह एक चिंतन का विषय है कि आज की पत्रकारिता की दिशा कहां जा रही है। देखा जाए तो पत्रकारिता पर पूरी तरह से अखबारों का प्रबंधन हावी हो गया है, बिना प्रबंधन की इजाजत के मजाल है कि कोई खबर प्रकाशित करने का काम किसी अखबार का संपादक और पत्रकार कर ले। लिखने को तो बहुत कुछ है, लेकिन शेष अगली बार लिखेंगे। फिलहाल इतना ही।
2 टिप्पणियाँ:
है यह विचारणीय प्रश्न |राजनेता को यदि छींक भी आ जाए तो बड़े बड़े अक्षरों में प्रथम पेज की न्यूज
बन जाती है |पर आम आदमी और उससे जुड़े लोग
कहीं नहीं नजर आते |नाही उनके सही समाचार भी प्रकाशित होते हैं |
आशा
gvaalaani bhaai is gndgi ko to hm kotaa men vrshon se jhel rhe hen koi trkib ise sudharne ki ho to hmen bhi btaana zrur . akhtar khan akela kota rajsthan
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