हमने खाया था एक अनुसूचित जाति परिवार के घर में खाना
बात काफी पुरानी है, संभवत: करीब 30 साल पुरानी। यह बात तब की है जब पांचवीं क्लास में पढ़ते थे। हमारे ख्याल से आज से तीन दशक पहले गांवों में छूआ-छूत की तूती बोलती थी। ऐसे में किसी अनुसूचित जाति परिवार के घर पर खाना खाने के बारे में कोई सोच नहीं सकता था। लेकिन हमने उस समय छोटी सी उम्र में एक अनुसूचित जाति परिवार के घर पर खाना खाया था, जब कोई वहां जाने को तैयार नहीं था।
यह प्रसंग आज इसलिए याद आ गया है कि हमने कल की एक पोस्ट लिखी है कि कैसे हमें आज भी एक गांव में छूआ-छूत देखने को मिला। तो मित्रों हम बता रहे हैं कि बात आज से करीब तीन दशक पहले की है जब पांचवीं क्लास में पढ़ते थे। तब लोग रायपुर जिले के एक गांव पलारी में रहते थे। हमारे स्कूल की खेलों की टीम एक गांव कुसमी में खेलने के लिए गई थी। उस जमाने में आज जैसे सुविधाएं नहीं थी कि खिलाडिय़ों के खाने के लिए अलग मेस हो। ऐसे में जब किसी भी गांव में खेल होते थे तो दो-दो, चार-चार बच्चों को गांवों के एक-एक घर में खाने के लिए भेजा जाता था। जब बच्चों को घरों में खाने के लिए भेजा जा रहा था तो वहां पर शिक्षकों ने कुछ अनुसूचित जाति परिवार के घरों में भी बच्चों को खाने के लिए भेजना चाहा, पर कोई बच्चा तैयार नहीं हो रहा था, ऐसे में हमने अपने शिक्षक से कहा कि सर हमें जहां भी भेजेंगे हम चले चाएंगे। तब हमने एक अनुसूचित जाति परिवार के घर में जाकर खाना खाया।
हम बता दें कि हमें हमारे परिवार में कभी भी ऊंच-नीच और छूआ-छूत के बारे में कुछ नहीं कहा गया, सभी को एक मानने की शिक्षा हमें हमारे परिवार से मिली। यह एक वाक्या नहीं है। ऐसे में हमें एक और वाक्या याद आ रहा है, जब 9वीं क्लास में पढ़ते थे, तब हम लोगों की एक किराने की दुकान दुर्ग जिले के टेमरी गांव में थी, वहां पर हमारी दुकान के सामने में एक गरीब अनुसूचित जाति परिवार रहता था, इसी परिवार के घर में हम लोगों ने एक कमरा लिया था जहां पर हम लोग खाना बनाते थे। हम अपने दो भाईयों के साथ दुकान का काम करने के साथ खाना भी बनाते थे, और पढ़ाई भी करते थे। हम अक्सर उस परिवार से पूछते थे कि क्या सब्जी बनी है। ऐसे में वहां से एक ही जवाब मिलता था कि हम लोग कहां सब्जी बना सकते हैं, इसी के साथ वे अक्सर कहते थे कि क्यों ऐसा रोज पूछते हैं हम गरीबों का खाना वैसे भी कोई खाना पसंद नहीं करते हैं। लेकिन हमने एक बार नहीं कई बार उनके साथ बैठकर उसना चावल और अकरी की दाल खाई। इस के बाद हम जब भी अकेले रहते थे तो उनको ही कोई सब्जी और चावल देते थे और उनसे खाना बनवाकर उसके साथ बैठकर खाते थे।
हम बता दें कि हमारे मन में बचपन से लेकर आज तक किसी भी तरह की छूआ-छूत और ऊंच-नीच की भावना नहीं रही है। हमने हमेशा सबको एक नजर से देखा है। हमारा ऐसा मानना है कि सभी को ऐसा सोचना चाहिए। किसी की जात क्या यह पैमाना होती है कि उसे समाज से अलग रखा जाए। अगर कोई इंसान छोटी जात में पैदा हुआ है तो इसके पीछे उस इंसान का क्या दोष है। क्या इंसान बड़ी जात में पैदा होकर अच्छा बनने का ठेका लेकर आता है। हमें नहीं लगता है कि छोटी जात के इंसान अच्छे और सभ्य नहीं होते हैं, हमने कई अनुसूचित जाति परिवार को बड़ी जात वालों से भी ज्यादा सभ्यता और शालीनता से रहते देखा है। अब आप ही फैसला करें कि क्या छूआ-छूत और ऊंच-नीच की भावना सही है।
यह प्रसंग आज इसलिए याद आ गया है कि हमने कल की एक पोस्ट लिखी है कि कैसे हमें आज भी एक गांव में छूआ-छूत देखने को मिला। तो मित्रों हम बता रहे हैं कि बात आज से करीब तीन दशक पहले की है जब पांचवीं क्लास में पढ़ते थे। तब लोग रायपुर जिले के एक गांव पलारी में रहते थे। हमारे स्कूल की खेलों की टीम एक गांव कुसमी में खेलने के लिए गई थी। उस जमाने में आज जैसे सुविधाएं नहीं थी कि खिलाडिय़ों के खाने के लिए अलग मेस हो। ऐसे में जब किसी भी गांव में खेल होते थे तो दो-दो, चार-चार बच्चों को गांवों के एक-एक घर में खाने के लिए भेजा जाता था। जब बच्चों को घरों में खाने के लिए भेजा जा रहा था तो वहां पर शिक्षकों ने कुछ अनुसूचित जाति परिवार के घरों में भी बच्चों को खाने के लिए भेजना चाहा, पर कोई बच्चा तैयार नहीं हो रहा था, ऐसे में हमने अपने शिक्षक से कहा कि सर हमें जहां भी भेजेंगे हम चले चाएंगे। तब हमने एक अनुसूचित जाति परिवार के घर में जाकर खाना खाया।
हम बता दें कि हमें हमारे परिवार में कभी भी ऊंच-नीच और छूआ-छूत के बारे में कुछ नहीं कहा गया, सभी को एक मानने की शिक्षा हमें हमारे परिवार से मिली। यह एक वाक्या नहीं है। ऐसे में हमें एक और वाक्या याद आ रहा है, जब 9वीं क्लास में पढ़ते थे, तब हम लोगों की एक किराने की दुकान दुर्ग जिले के टेमरी गांव में थी, वहां पर हमारी दुकान के सामने में एक गरीब अनुसूचित जाति परिवार रहता था, इसी परिवार के घर में हम लोगों ने एक कमरा लिया था जहां पर हम लोग खाना बनाते थे। हम अपने दो भाईयों के साथ दुकान का काम करने के साथ खाना भी बनाते थे, और पढ़ाई भी करते थे। हम अक्सर उस परिवार से पूछते थे कि क्या सब्जी बनी है। ऐसे में वहां से एक ही जवाब मिलता था कि हम लोग कहां सब्जी बना सकते हैं, इसी के साथ वे अक्सर कहते थे कि क्यों ऐसा रोज पूछते हैं हम गरीबों का खाना वैसे भी कोई खाना पसंद नहीं करते हैं। लेकिन हमने एक बार नहीं कई बार उनके साथ बैठकर उसना चावल और अकरी की दाल खाई। इस के बाद हम जब भी अकेले रहते थे तो उनको ही कोई सब्जी और चावल देते थे और उनसे खाना बनवाकर उसके साथ बैठकर खाते थे।
हम बता दें कि हमारे मन में बचपन से लेकर आज तक किसी भी तरह की छूआ-छूत और ऊंच-नीच की भावना नहीं रही है। हमने हमेशा सबको एक नजर से देखा है। हमारा ऐसा मानना है कि सभी को ऐसा सोचना चाहिए। किसी की जात क्या यह पैमाना होती है कि उसे समाज से अलग रखा जाए। अगर कोई इंसान छोटी जात में पैदा हुआ है तो इसके पीछे उस इंसान का क्या दोष है। क्या इंसान बड़ी जात में पैदा होकर अच्छा बनने का ठेका लेकर आता है। हमें नहीं लगता है कि छोटी जात के इंसान अच्छे और सभ्य नहीं होते हैं, हमने कई अनुसूचित जाति परिवार को बड़ी जात वालों से भी ज्यादा सभ्यता और शालीनता से रहते देखा है। अब आप ही फैसला करें कि क्या छूआ-छूत और ऊंच-नीच की भावना सही है।
5 टिप्पणियाँ:
अस्प्रिश्यता निवारण मे सहायक
बढिया पोस्ट
छुआछूत की भावना को किसी भी हालत में जायज ठहराना मूर्खता का ही प्रदर्शन होगा.
हम आपको बताना चाहते हैं कि आज महात्मा गांधी होते तो इस पोस्ट को पढ़कर और आपके बारे में जानकर बहुत खुश होते। हमारा मानना है कि बापू ने देश में अंहिसां को प्रतिस्थापित करने और साथ ही जातिपांति तोड़ने का जो अभियान चलाया उसे आप जैसे लोग ही आगे बढ़ा पा रहे हैं। हम मानते हैं कि आप पिछले तीस साल से जिस यज्ञ में लगे हैं उसका फायदा देश को अवश्य ही मिलेगा।
आप जैसी महान विभूतियों को हमारा प्रणाम, महानता की इस लौ को जलाये रखें।
khushi hui aapke vichar jaankar.
एक सार्थक लेख आपका!इस बिमारी को कब का ख़त्म हो जाना चाहिए था?कृपया यहाँ भी देखे एक बार....
http://hardeeprana.blogspot.com/2010/03/blog-post_09.html
कुंवर जी,
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