कसाब की फांसी पर तत्काल अमल क्यों नहीं?
आज हमें अपने देश के कानून पर बहुत तरस आ रहा है और अफसोस हो रहा है कि ये अपने देश का कैसा कानून है जो अजमल आमिर कसाब जैसे आतंकी को भी फांसी की सजा के खिलाफ अपील करने का मौका देता है। जब एक अदालत ने उसे दोषी मानते हुए फांसी की सजा दे दी है तो फिर उसको समय देने का क्या मतलब है? क्या यह अपने देश के कानून का पंगूपन नहीं है जो एक आतंकी के साथ नरमी बरत रहा है। कम से कम हमारा तो ऐसा मानना है कि कसाब जैसे आतंकी को फांसी की सजा मिलते ही अदालत को फांसी का दिन तय करके फांसी देने का फरमान जारी कर देना था। अगर हमारे देश की अदालतें ऐसा करने में सक्षम नहीं हैं तो ऐसे कानून को बदल देना चाहिए जो सैकड़ों जानें लेने वाले आतंकी को भी रहम की अपील करने का अधिकार देता है।
इसमें कोई दो मत नहीं है कि अपने देश का कानून वास्तव में अंधा कानून ही है। अगर कानून अंधा नहीं है तो क्या उसे मुंबई हमले में मारे गए उन परिवारों की चीखें सुनाई देती हैं जो चीखें अपने परिजनों को खोने से लेकर आज तक गंूज रही है। इन परिवारों को उस एक दिन तो जरूर सकुन मिला होगा जिस दिन अदालत ने कसाब को फांसी की सजा सुनाई थी। लेकिन यह खुशी और सकुन एक ही दिन का था। एक दिन का इसलिए कि कसाब को फांसी की सजा ही सुनाई गई है सजा दी नहीं गई है। होना तो यह था कि अदालत न सिर्फ कसाब जैसे आतंकी को फांसी की सजा सुनाती, बल्कि यह भी तय कर देती कि उसे किस दिन फांसी दी जाएगी तो ज्यादा अच्छा होता। लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है, अपने देश के संविधान ने तो अदालतों के हाथ भी बांध रखे हैं। लेकिन सोचने वाली बात यह है कि कसाब को आम अपराधी नहीं है जिसने किसी मजबूरीवश किसी की हत्या की थी। अगर कोई अपराधी किसी मजबूरीवश किसी की हत्या करता है तो बात समझ आती है कि उसे ऊंची अदालतों में अपील करने का समय दिया जाए, इसी के साथ उसे राष्ट्रपति के सामने भी रहम की अपील का अधिकार दिया जाए। लेकिन क्या कसाब जैसे अपराधी को ऐसा मौका देना न्यायसंगत लगता है जिसके कारण एक-दो नही बल्कि 166 जानें गईं थीं। ऐसे अपराधी को तो तत्काल फांसी दे देनी चाहिए।
क्यों कर अपने देश में ऐसे अपराधियों के लिए कड़ा कानून नहीं बनाया जाता?
क्यों कर ऐेसे अपराधियों के साथ रहम के साथ पेश आते हैं?
क्यों नहीं ऐसे आतंकियों को सरे आम फांसी देने का कानून बनाया जाता?
आतंकियों के लिए संविधान में संशोधन करने में किस बात का डर है?
हमें लगता है कि अपने देश के संविधान की कमजोरी का फायदा उठाकर ही ऐसे अपराधी बच जाते हैं। जब अपने देश के प्रधानमंत्री के हत्यारों को यहां सजा मिलने में बरसों लग जाते हैं तो फिर आम जनों को मौत की नींद सुनाने वाले आतंकियों को सजा देने में देर हो रही है तो क्या बुरा हो रहा है। अगर कसाब जैसे अपराधी छूट भी जाए तो अपने संविधान निर्माताओं का क्या जाता है। हम तो बस पुराने संविधान का ही अनुशरण करना जानते हैं, कुछ नया करने की क्या जरूरत है। देश की जनता मरती है तो मरती रहे हमारी बला से। देश की जनता तो है ही मरने के लिए। इनके मरने से सत्ता में बैठे मंत्रियों की सेहत पर क्या फर्क पडऩे वाला है। किसी मंत्री का कोई रिश्तेदार थोड़े ही मरा है जो इनके पेट में दर्द होगा। आम आदमी की कीमत इनकी नजरों में वैसे भी कीड़ों-मकौड़ों से ज्यादा नहीं है।
इसमें कोई दो मत नहीं है कि अपने देश का कानून वास्तव में अंधा कानून ही है। अगर कानून अंधा नहीं है तो क्या उसे मुंबई हमले में मारे गए उन परिवारों की चीखें सुनाई देती हैं जो चीखें अपने परिजनों को खोने से लेकर आज तक गंूज रही है। इन परिवारों को उस एक दिन तो जरूर सकुन मिला होगा जिस दिन अदालत ने कसाब को फांसी की सजा सुनाई थी। लेकिन यह खुशी और सकुन एक ही दिन का था। एक दिन का इसलिए कि कसाब को फांसी की सजा ही सुनाई गई है सजा दी नहीं गई है। होना तो यह था कि अदालत न सिर्फ कसाब जैसे आतंकी को फांसी की सजा सुनाती, बल्कि यह भी तय कर देती कि उसे किस दिन फांसी दी जाएगी तो ज्यादा अच्छा होता। लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है, अपने देश के संविधान ने तो अदालतों के हाथ भी बांध रखे हैं। लेकिन सोचने वाली बात यह है कि कसाब को आम अपराधी नहीं है जिसने किसी मजबूरीवश किसी की हत्या की थी। अगर कोई अपराधी किसी मजबूरीवश किसी की हत्या करता है तो बात समझ आती है कि उसे ऊंची अदालतों में अपील करने का समय दिया जाए, इसी के साथ उसे राष्ट्रपति के सामने भी रहम की अपील का अधिकार दिया जाए। लेकिन क्या कसाब जैसे अपराधी को ऐसा मौका देना न्यायसंगत लगता है जिसके कारण एक-दो नही बल्कि 166 जानें गईं थीं। ऐसे अपराधी को तो तत्काल फांसी दे देनी चाहिए।
क्यों कर अपने देश में ऐसे अपराधियों के लिए कड़ा कानून नहीं बनाया जाता?
क्यों कर ऐेसे अपराधियों के साथ रहम के साथ पेश आते हैं?
क्यों नहीं ऐसे आतंकियों को सरे आम फांसी देने का कानून बनाया जाता?
आतंकियों के लिए संविधान में संशोधन करने में किस बात का डर है?
हमें लगता है कि अपने देश के संविधान की कमजोरी का फायदा उठाकर ही ऐसे अपराधी बच जाते हैं। जब अपने देश के प्रधानमंत्री के हत्यारों को यहां सजा मिलने में बरसों लग जाते हैं तो फिर आम जनों को मौत की नींद सुनाने वाले आतंकियों को सजा देने में देर हो रही है तो क्या बुरा हो रहा है। अगर कसाब जैसे अपराधी छूट भी जाए तो अपने संविधान निर्माताओं का क्या जाता है। हम तो बस पुराने संविधान का ही अनुशरण करना जानते हैं, कुछ नया करने की क्या जरूरत है। देश की जनता मरती है तो मरती रहे हमारी बला से। देश की जनता तो है ही मरने के लिए। इनके मरने से सत्ता में बैठे मंत्रियों की सेहत पर क्या फर्क पडऩे वाला है। किसी मंत्री का कोई रिश्तेदार थोड़े ही मरा है जो इनके पेट में दर्द होगा। आम आदमी की कीमत इनकी नजरों में वैसे भी कीड़ों-मकौड़ों से ज्यादा नहीं है।
6 टिप्पणियाँ:
अव्वल तो फांसी देने की इच्छा है नहीं और उस पर से कोई फांसी पर चढ़ाने वाला तो हो!!
एक विनम्र अपील:
कृपया किसी के प्रति कोई गलत धारणा न बनायें.
शायद लेखक की कुछ मजबूरियाँ होंगी, उन्हें क्षमा करते हुए अपने आसपास इस वजह से उठ रहे विवादों को नजर अंदाज कर निस्वार्थ हिन्दी की सेवा करते रहें, यही समय की मांग है.
हिन्दी के प्रचार एवं प्रसार में आपका योगदान अनुकरणीय है, साधुवाद एवं अनेक शुभकामनाएँ.
-समीर लाल ’समीर’
सही मुद्दा उठाया है आपने
व्यवस्था की अपनी दिक्कतें हैं राजकुमार जी।
फिर लोकतांत्रिक देश होना भी कम सिरदर्दी नहीं है।
यहां तो विश्व समुदाय भारतीय लोकतंत्र का लोहा मानता है। ऐसे में उस पूरी व्यवस्था को खंडित नहीं होने दिया जा सकता।
हालांकि मैं भी इस पक्ष में हूं कि कसाब को बिना वक्त दिए तत्काल फांसी होनी चाहिए।
आखिर संविधान के संशोधन में किस बात डर है?
राष्ट्रपति को भी समय सीमा होनी चाहिये (फांसी की सजा पाये अपराधियों की अर्जी पर) कि इतने दिन के अन्दर हां या ना कर दे।
प्रणाम स्वीकार करें
आप क्यों उतावले हुए जा रहे हैं भाई ?
क्यों कसाब को हीरो बनाने पे तुले हुए हैं !
एक ऐसे शख्स को मौत देने के लिए आप छटपटा रहे हैं जो यहाँ मरने के लिए ही आया था !
बाकी साथी जन्नत पहुँच गए .... अल्लाह मिया ढोलक लेकर अब कसाब की प्रतीक्षा कर रहे हैं !
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इनसे जीतना है तो इनको जिन्दा रखो ....जन्नत जाने से पहले ये मजहबी अंधे जहन्नुम तो अच्छी तरह देख लें !
इन सालों को तो कानूनी दांवपेंच में इतना उलझाओ कि इनका दिमाग काम करना बंद कर दे.... दिन भर सवाल पूछे जाएँ फिर खाली समय में आशाराम और मुरारी बापू के प्रवचन सुनाएँ जाएँ उसके बाद जब रात हो तो भगवती जागरण सुनाया जाए या लक्खा सिंह और चंचल की कैसेट चला दी जाए ... खाने के नाम पर खिचडी ही दी जाए !
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अगर कसाब को पालना इतना ही महंगा लग रहा है तो एक हाथ और एक पैर बेकार कर दिया जाए और छोड़ दें अपाहिज बनाकर ! जिस तरह कसाब ने आतंक का मैसेज सारी दुनिया को दिया उसी तरह हमको भी इन भटके हुए आतंकवादियों को मैसेज देना चाहिए !
ज्ञानदत्त और अनूप की साजिश को बेनकाब करती यह पोस्ट पढिये।
'संभाल अपनी औरत को नहीं तो कह चौके में रह'
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