राजनीति के साथ हर विषय पर लेख पढने को मिलेंगे....

सोमवार, मई 31, 2010

जेल जाओगे... बड़ा मजा आएगा

एक अंग्रेज भारत आया और हिन्दी सीखने के लिए एक नाई की दुकान में गया।
नाई से उसने अंग्रेजी में कहा मुझे हिन्दी सीखा देंगे।
नाई ने कहा इसमें क्या बड़ी बात है, मैं तुम्हें सीखा देता हूं। जैसे मैं बोलू वैसे बोलते जाना।
नाई ने कहा- मैंने किया।
अंग्रेज ने कहा- मैंने किया।
नाई ने कहा कि- मनोरंजन के लिए किया।
अंग्रेज ने कहा- मनोरंजन के लिए किया।
नाई ने कहा- बड़ा मजा आएगा।
अंग्रेज ने कहा-बड़ा मजा आएगा।
नाई ने कहा कि अब बाकी कल सीखेंगे।
अंग्रेज होटल चले गया जहां वहा ठहर था। वहां एक हत्या हो गई थी और पुलिस आई थी। पुलिस सभी से पूछ-ताछ कर रही थी।
पुलिस ने अंग्रेज से पूछा कि ये सब किसने किया तो अंग्रेज ने अपनी  हिन्दी जताने के लिए कह दिया कि- मैंने किया।
पुलिस ने पूछा कि किस लिए किया तो अंग्रेज ने कहा- मनोरंजन के लिए।
पुलिस ने कहा कि चल बेटा जेल जाएगा तो मालूम होगा कि कैसे मनोरंजन होता है तो अंग्रेज ने कहा- बड़ा मजा आएगा।

नोट- यह चुटकुला हमें हमारी बिटिया स्वप्निल राज ग्वालानी ने मोबाइल में रिकॉर्ड करके सुनाया, उसकी आवाज में यह बड़ा अच्छा लगा। कोशिश करेंगे की उसकी आवाज में इसे हम बाद में पेश कर सके।

Read more...

रविवार, मई 30, 2010

अंग्रेजी से मुक्ति के लिए फ्रांसीस क्रांति की नहीं जागरूकता क्रांति की जरूरत

अपनी राष्ट्रभाषा हिन्दी को लेकर अपने देश के साहित्यकारों में ही बहुत ज्यादा मतभेद हैं। कोई यह मानता है कि हिन्दी भाषा का अंत नहीं हो सकता है तो कोई कहता है कि हिन्दी मर रही है। ऐसे में जबकि सबके अपने-अपने मत हैं तो भला कैसे अपनी राष्ट्रभाषा का भला हो सकता है। नामी साहित्यकारों के जो मत जानने को मिले उसमें भी यही बात सामने आई कि आखिर आज अपनी राष्ट्रभाषा के साथ क्या हो रहा है।  हम यहां पर फिलहाल साहित्यकार और छत्तीसगढ़ के डीजीपी विश्व रंजन की बात रख रहे हैं। उनका ऐसा मानना है कि अपने देश में भी राष्ट्रभाषा को बचाने के लिए फ्रांसीस क्रांति की जरूरत है। विश्व रंजन ने एक किस्सा सुनाया कि जब वे काफी बरसों पहले फ्रांस गए थे तो वहां पर एक टैक्सी में बैठे। ड्राईवर को अंग्रेजी आती थी, इसके बाद भी उन्होंने साफ कह दिया कि वे अंग्रेजी में बात नहीं करेंगे और अंग्रेजी में उनको जिस स्थान के लिए जाने कहा गया वहां ले जाने वह तैयार नहीं हुआ।
कहने का मतलब यह है कि फ्रांस जैसे देशों ने अपनी राष्ट्रभाषा को बचाने के लिए अंग्रेजी का बहिष्कार करने का काम किया। लेकिन सोचने वाली बात यह है कि क्या अपने देश भारत में फ्रांस जैसी क्रांति संभव है? हमें नहीं लगता है कि भारत में ऐेसा संभव हो सकता है। अपने देश में जिस तरह से लोग अंग्रेजी की गुलामी में जकड़े हुए हैं, उससे उनको मुक्त करना अंग्रेजों की गुलामी से देश को मुक्त कराने से भी ज्यादा कठिन लगता है। अंग्रेज तो भारत छोड़कर चले गए, लेकिन उनकी भाषा की गुलामी से आजादी का मिलना संभव नहीं है।
भले अंग्रेजी से आजादी न मिले, लेकिन इतना जरूर करने की जरूरत है कि अपनी राष्ट्रभाषा का अपमान तो न हो। यहां तो अपने देश में कदम-कदम पर अपनी राष्ट्रभाषा का अपमान होता है। लोगों को अंग्रेजी बोलने में गर्व महसूस होता है। जो अंग्रेजी नहीं जानता है उसे लोग गंवार ही समझ ही लेते हैं। हमारी नजर में तो जिसे अपनी राष्ट्रभाषा का मान रखना नहीं आता है, उससे बड़ा कोई गंवार नहीं हो सकता है। वास्तव में हमें फ्रांस जैसे देशों से सबक लेने की जरूरत है। भले आप अंग्रेजी का बहिष्कार करने की हिम्मत नहीं दिखा सकते हैं, लेकिन अपनी राष्ट्रभाषा का मान रखने की हिम्मत तो दिखा ही सकते हैं। अगर आप हिन्दी जानते हुए भी हिन्दी नहीं बोलते हैं तो क्या राष्ट्रभाषा का अपमान नहीं है। अगर कहीं पर अंग्रेजी बोलने की मजबूरी है तो बेशक बोलें। लेकिन जहां पर आपको सुनने और समझने वाले 80 प्रतिशत से ज्यादा हिन्दी भाषीय हों वहां पर अंग्रेजी में बोलने का क्या कोई मतलब होता है। लेकिन नहीं अगर हम अंग्रेजी नहीं बोलेंगे तो हमें पढ़ा-लिखा कैसे समझा जाएगा। आज पढ़े-लिखे होने के मायने यही है कि जिसको अंग्रेजी आती है, वही पढ़ा-लिखा है, जिसे अंग्रेजी नहीं आती है, उसे पढ़ा-लिखा समझा नहीं जाता है।
विश्व रंजन ने एक बात और कही कि आज अपने देश में हिन्दी को मजबूत करने के लिए स्कूल स्तर से ध्यान देने की जरूरत है। लेकिन यहां भी सोचने वाली बात यह है कि स्कूल स्तर से कैसे ध्यान देना संभव है। आज हर पालक अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूलों में ही भेजना चाहता है। यहां पर पालकों की सोच को बदलने की जरूरत है, जो संभव नहीं लगता है। हमारा ऐसा मानना है कि हिन्दी को बचाने के लिए स्कूल स्तर की बात तभी संभव हो सकती है जब किसी भी नौकरी में अंग्रेजी की अनिवार्यता के स्थान पर हिन्दी को अनिवार्य किया जाएगा। आज हर नौकरी की पहली शर्त अंग्रेजी है, ऐसे में पालक तो जरूर चाहेंगे कि उनके बच्चों का भविष्य सुरक्षित हो और जब अंग्रेजी में ही भविष्य नजर आएगा तो लोगों का अंग्रेजी के पीछे भागना स्वाभाविक है। अंग्रेजी से मुक्ति के लिए फ्रांसीस क्रांति की नहीं जागरूकता क्रांति की जरूरत है।  अब यह कहा नहीं जा सकता है कि यह जागरूकता कब और कैसे आएगी।

Read more...

शनिवार, मई 29, 2010

मत करो टांग खिंचाई-होती है जग हंसाई


हम ब्लाग बिरादरी में पिछले एक साल से ज्यादा समय से देख रहे हैं कि यहां भी टांग खिंचाई हो रही है। ब्लाग जगत में टांग खिंचाई हो रही है  तो उसके पीछे कारण यही है कि लोग एक-दूजे को भाई जैसा नहीं मानते हैं। हमारा मानना है कि अगर भाई-चारे से रहा जाए तो न होगी टांग खिंचाई और न ही होगी जग हंसाई। यहां लोग आग लगाकर तमाशा देखने का काम करते हैं। ऐसे में एक परिवार की तरह रहने की जरूरत है। एकता में ही ताकत होती है यह बात बताने की जरूरत नहीं है।
हम भी जब से ब्लाग बिरादरी से जुड़े हैं तभी से देख रहे हैं कि यहां भी कम टांग खिंचाई नहीं होती है। हालांकि हम यह बात बहुत अच्छी तरह से जानते हैं कि हमारे लिखने से कुछ ज्यादा होने वाला नहीं है लेकिन फिर भी एक उम्मीद है कि अगर हमारे कुछ लिखने से कोई एक भी अपना भाई यह सोचता है कि वास्तव में यार टांग खिंचाई से क्या हासिल होता है तो यह हमारे लिए खुशी की बात होगी।
हम अगर कुछ लिख रहे हैं तो जरूरी नहीं है कि वह हर किसी को पसंद आए। क्योंकि सबकी अपनी-अपनी पसंद होती है। ऐसे में जबकि हमें किसी का लिखा पसंद नहीं आता है और पढऩे के बाद अगर बहुत ज्यादा खराब भी लगता है तो अपना विरोध दर्ज कराने के लिए हमें शालीन भाषा और शब्दों का प्रयोग करना चाहिए। अगर हमारी भाषा में शालीनता होगी और शब्दों में कोई गलत बात नहीं होगी तो संभव है कि उन गलत लिखने वाले अपने भाई को कुछ समझ आ जाए और उन्हें अहसास हो जाए कि उन्होंने कुछ तो ऐसा लिखा है जिससे किसी के दिल को चोट लगी है। ऐसा अहसास अगर उन लिखने वाले को हो जाए तो मानकर चलिए कि आपके शब्दों ने जादू कर दिया है। इसके विपरीत अगर आप कड़े शब्दों में विरोध करते हैं तो हो सकता है उन शब्दों का असर उन लिखने वाले पर भी ठीक वैसा हो जैसा असर आप पर उनकी लिखी किसी बात से हुआ है।
हमारे कहने का मलतब यह है कि यहां पर लिखने की स्वतंत्रता सभी को है तो किसी के लिखने का किसी भी तरह से गलत विरोध क्यों करना। विरोध भी ऐसा कि जिससे लगे कि टांग खिंचाई हो रही है। अपना हिन्दी ब्लाग परिवार छोटा सा परिवार है, इस परिवार में प्यार और स्नेह से रहने की जरूरत है। अगर परिवार का कोई छोटा गलती करें तो उसे बड़े प्यार से समझा सकते हैं और कोई बड़ा गलती करें तो उसे छोटे भी ससम्मान समझा सकते हैं। इसके बाद भी अगर कोई नहीं समझता है तो उसे परिवार से बाहर मान लिया जाए, ठीक उसी तरह से जिस तरह से एक परिवार अपने कपूत को अपने से अलग मान लेता है।
अगर ऐसा हो जाए तो फिर क्यों कर होगी किसी की टांग खिंचाई और फिर कभी नहीं होगी अपने हिन्दी ब्लाग परिवार की जग हंसाई। तो आईए मित्रों आज एक संकल्प लें कि किसी की लिखी बात का विरोध हम शालीनता से करेंगे।
अगर आप हमारी बातों से सहमत हों तो अपने विचारों से जरूर अवगत करवाएं।

Read more...

शुक्रवार, मई 28, 2010

समीर लाल और अजय झा ने नहीं निभाया वादा

अपने ब्लाग जगत के बिग-बी यानी समीर लाल और अजय कुमार झा जी ने नए साल में छत्तीसगढ़ आने का वादा किया था, पर ये वादा इन्न्होंने नहीं निभाया। समीर लाल जी तो जबलपुर आकर लौट गए पर छत्तीसगढ़ नहीं आएं। न जाने क्यों उन्होंने छत्तीसगढ़ के ब्लागरों का दिल तोड़ा।
जब पिछले साल हमारी समीर लाल जी के साथ दिल्ली वाले अजय कुमार झा से बात हुई थी तो दोनों ने नए साल में छत्तीसगढ़ आने का वादा किया था। नए साल में हमने समीर लाल जी से उनके उस फोन नंबर पर संपर्क करने का प्रयास किया था जिस नंबर से उन्होंने हमें एक बार फोन किया था, पर वह नंबर नहीं लगा और उनसे बात नहीं हो सकी। लेकिन हमारी एक पोस्ट में फिर से उन्होंने यह बात लिखी थी कि वे जल्द आने वाले हैं। समीर भाई कनाडा से भारत तो जरूर आएं पर वे छत्तीसगढ़ नहीं आएं। अब वे यहां क्यों नहीं आएं इसका जवाब तो वे ही दे सकते हैं। समीर जी के साथ ही अपने अजय झा भी आने वाले थे, पर वे भी नहीं आएं। हम अपने इन दोनों मित्रों से जानना चाहते हैं कि इन्होंने आखिर किस कारण से अपना वादा नहीं निभाया

Read more...

गुरुवार, मई 27, 2010

क्या टिप्पणी का विजेट कभी ठीक नहीं होगा

काफी समय से हम देख रहे हैं कि ब्लागों में टिप्पणी का विजेट खराब हो गया है। इसके पहले जब यह विजेट खराब हुआ था तो आशीष खंडेलवाल ने इसे ठीक करने में मदद की थी, लेकिन लगता है कि अब आशीष जी भी इस दिशा में कुछ नहीं कर पा रहे हैं। क्या गुगल भी इसे ठीक करने में सक्षम नहीं है। हमें यह समझ नहीं आ रहा है कि आखिर इतना लंबा समय होने के बाद भी इस तरफ कोई कैसे ध्यान नहीं दे रहा है।
हमारे ब्लाग जगत में तो ऐसा माना जाता है कि एक से एक तकनीकी जानकार हैं। लेकिन इधर लंबे समय से टिप्पणी के विजेट के खराब होने के बाद भी इसे ठीक नहीं किया जा रहा है। क्या अपने सारे तकनीकी जानकार हार मान कर बैठ गए हैं और साथ ही अपने गुगल बाबा भी हार मान बैठे हैं।

क्या हमें कोई बता सकता है कि यह विजेट आखिर ठीक कैसे होगा। और ठीक होगा भी या नहीं? 

Read more...

बुधवार, मई 26, 2010

कितना समय लगता है आपको एक पोस्ट तैयार करने में

लंबे समय से मन में विचार आ रहा था कि अपने ब्लाग बिरादरी के मित्रों  से यह पूछा जाए कि वे कितने समय में एक पोस्ट तैयार करते हैं। ऐेसा विचार इसलिए आया क्योंकि जहां तक हमारा सवाल है तो हमें एक पोस्ट को तैयार करने में महज 10 मिनट का समय लगता है। इतना कम समय इसलिए लगता है क्योंकि हम बरसों से जहां कम्प्यूटर पर काम कर रहे हैं, वहीं हमें रोज अखबार के लिए पूरे एक पेज की खबरें बनानी पड़ती हैं। ये खबरें हम सहज रूप से महज दो घंटे के अंदर न सिर्फ लिख लेते हैं, बल्कि इन खबरों को पेज में लगा भी देते हैं।
ब्लाग जगत में आने के बाद अगर हम इतनी तेजी से लिख सके हैं तो इसके पीछे का राज यह है कि हमारे लिए किसी भी विषय पर कुछ भी लिखना महज एक खेल से ज्यादा नहीं रहा है। हमारे दिमाग में कोई भी विषय आने की ही देर रहती है, विषय आने के बाद सबसे पहले हम हेडिंग के बारे में सोचते हैं, हेडिंग बनते ही तैयार हो जाता है हमारा मैटर महज 10 मिनट में। हम इतने कम समय में इसलिए लिख पाते हैं क्योंकि हम कम्प्यूटर में उस जमाने से काम कर रहे हैं जब कम्प्यूटर में वैरी टाइपर का जमाना था। इन दिनों जब हम रायपुर के समाचार पत्र दैनिक अमृत संदेश में काम करते थे तो वहां पर कम्प्यूटर पर हमें मैटर तो चलाना नहीं पड़ता था, लेकिन सिटी की खबरों की रीडिंग जरूर करनी पड़ती थी, ताकि कोई गलती न हो। उस समय कम्प्यूटर एक बड़ी सी टेबल पर लगे रहते थे, इस टेबल के नीचे ही कम्प्यूटर का मैटर फिल्मों में टाइप होता था और इन फिल्मों को डार्करूम में ले जाकर आपरेटर ठीक उसी तरह से धोकर लाते थे, जैसे फोटो की फिल्में धुलती हैं, इन्हीं फिल्मों से पेज बनते थे। तब बटर पेपर का जमाना नहीं था। बटर पेपर वाले सारे कम्प्यूटर तो 1990 के बाद आए हैं।
बहरहाल इतने समय से कम्प्यूटर पर काम करने के साथ अखबार में काम करने की वजह से हमें लिखने में कोई परेशानी नहीं होती है। हम अपने ब्लागर मित्रों को एक बात और बता दें कि हमने कभी टाइपिंग का कोई प्रशिक्षण नहीं लिया है, बस रीडिंग करते-करते ही टाइप करना सीख गए। एक खास बात और यह कि हम टाइपिंग करते समय अपनी महज तीन उंगलियों का ही प्रयोग करते हैं और काफी तेजी से लिख लेते हैं। इन उंगलियों में एक उंगली ही सीधे हाथ की और दो उंगलियां दूसरे हाथ की प्रयोग में लाते हैं। महज तीन उंगलियों से जब हम तेजी से मैटर टाइप करते हैं तो हमारे साथी पत्रकारों के साथ आपरेटर भी आश्चर्य में पड़ जाते हैं। वे पूछते हैं कि आप तीन उंगलियों में मैटर कैसे चला लेते हैं, तब हम उनको कहते हैं कि इंसान को जितनी भी उंगलियों से मैटर टाइप करने में सहज लगे करना चाहिए। अगर आप सोचेंगे कि दोनों हाथों की सारी उंगलियां काम करें तो आप कभी टाइपिंग नहीं कर पाएंगे।
खैर हमने तो यह बता दिया कि कैसे हमें 1000 से 1500 शब्दों की एक पोस्ट लिखने में महज 10 मिनट का समय लगता है, अब हम अपने ब्लागर मित्रों से जानना चाहते हैं कि आप लोग एक पोस्ट लिखने में कितना समय लगाते हैं। संकोच न हो तो जरूर बताएं। अपनी बातों को मित्रों से साझा करने में प्यार और स्नेह बढ़ता है।

Read more...

मंगलवार, मई 25, 2010

अध्यक्ष-सचिव का कार्यकाल तय करने वाला नियम जल्द लागू हो

प्रदेश के कई खेल संघ चाहते हैं कि राज्य में खेल संघों के अध्यक्ष और सचिव के कार्यकाल तय करने वाला नियम जल्द लागू हो। महाराष्ट्र में इस नियम के लागू होने के बाद यहां के खेल संघों का ऐसा मानना है कि प्रदेश की खेलमंत्री लता उसेंडी को इस दिशा में पहल करते हुए यह नियम लागू करवाने की पहल करनी चाहिए। वैसे खेल विभाग ने केन्द्रीय मंत्रालय द्वारा नियम लागू करते ही इस नियम को राज्य में लागू करने के लिए एक प्रस्ताव बनाकर प्रदेश के मंत्रालय को भेज दिया है। 
भारतीय ओलंपिक संघ भले केन्द्रीय खेल मंत्रालय के खेल संघों पर लगाम लगाने वाले नियम को खारिज कर चुका है और आईओए के इस फैसले  से प्रदेश का ओलंपिक संघ सहमत भी है। लेकिन जहां तक प्रदेश के खेल संघों का सवाल है तो खेल संघों में इस बात को लेकर एक राय नहीं है। कुछ खेल संघों को छोड़कर ज्यादातर खेल संघों के अध्यक्ष और सचिव इस पक्ष में हैं कि यह नियम लागू होना ही चाहिए। वालीबॉल संघ के सचिव मो. अकरम खान ने एक बार फिर से कहा कि वे पहले ही कह चुके हैं कि यह नियम बिलकुल ठीक है और वे इस नियम को राज्य में लागू करवाने के पक्ष में हैं। उनका कहना है कि अगर आज यह नियम लागू हो और कल हमारे संघ का चुनाव होता है तो वे अपना पद छोडऩे के लिए तैयार हैं।

कैरम संघ के सचिव विजय कुमार भी कहते हैं कि खेल संघों के लिए यह  नियम ठीक है। हम लोग भी बरसों से संघ के पद का बोङा लेकर परेशान हैं। हम लोग अपनी खुशी से पद पर नहीं हैं। अब इसका क्या किया जाए कि संघ में हमें योग्य मानकर बार-बार चुन लिया जाता है। अगर संघ में नए लोग आएंगे तो जरूर संघ का फायदा होगा। फिर हम लोग तो संघ की मदद करने के लिए बैठे ही हैं। कराते संघ के अजय साहू कहते हैं कि खेल संघों के पदों पर लगातार बने रहने का मतलब नहीं है। बदलाव तो होना ही चाहिए। फुटबॉल संघ से जुड़े मुश्ताक अली प्रधान कहते हैं कि केन्द्र सरकार ने जो कदम उठाया है, वह कदम वास्तव में सराहनीय है। बरसों से संघों पर कब्जा जमाकर बैठे पदाधिकारियों को अपने पद का मोह त्यागकर दूसरों को मौका देना चाहिए। अगर संघों के पदाधिकारियों की तरह खिलाड़ी भी यह सोचे कि वही खेलते रहेंगे तो नए खिलाडिय़ों को मौैका कैसे मिलेगा। खेल संघों के पदाधिकारियों को भी खेल भावना का परिचय देते हुए संघों के पदों का मोह छोड़ देना चाहिए। फुटबॉल संघ के दिवाकर थिटे कहते हैं कि हमारे राज्य फुटबॉल संघ में हमेशा बदलाव हुआ है और अध्यक्ष और सचिव बदलते रहे हैं। बिना बदलाव के संघ को मजबूत नहीं किया जा सकता है।

प्रदेश ओलंपिक संघ के संरक्षक और नेटबॉल संघ के अध्यक्ष विधान मिश्रा का मानना है कि केन्द्र सरकार ने जो नियम बनाया है तो उस नियम के पीछे कारण है। वास्तव में राष्ट्रीय खेल संघों के पदों पर बरसों से पदाधिकारी जम हुए हैं। उन्होंने एक बार फिर से कहा कि इस नियम के छत्तीसगढ़ में लागू होने से कोई फर्क पडऩे वाला नहीं है। हमारे राज्य में खेल संघों के बीच ऐसा भाई-चारा है कि यहां तो किसी भी तरह का विवाद नहीं होगा। इसी के साथ उन्होंने कहा कि हमारे राज्य के खेल संघों के पदाधिकारी तो संघों की अदला-बदली भी कर सकते हैं। इससे जहां नए खेलों का अनुभव मिलेगा, वहीं जो पदाधिकारी खेलों का भला कना चाहते हैं वे खेलों का भला करने का काम कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि यह बात तय है कि इस नियम से खेल माफिया का काम करने वालों को जरूर परेशानी हो सकती है। श्री मिश्रा ने साफ कहा कि क्यों कर अपने राज्य के खेल संघों के पदाधिकारी दुबले होने का काम कर रहे हैं। हमने राज्य में ऐसे कितने संघ हैं जिनके पदाधिकारियों को सरकारी खर्च पर विदेश यात्रा पर जाने का मौका मिलता है। उन्होंने कहा कि अपने राज्य के संघों के पदाधिकारियों को तो देश में ही टीमों के साथ मौका नहीं मिल पाता है। उन्होंने कहा कि इस नियम से राष्ट्रीय संघों के पदाधिकारियों के पेट में जरूर दर्द हो रहा है जिसके कारण इसका विरोध हो रहा है। टेबल टेनिस संघ के अध्यक्ष शरद शुक्ला कहते हैं कि हमारे संघ में भी लगातार पदाधिकारी बदलते रहे हैं। संघों में एक ही पद पर बने रहना का मतलब नहीं होता है।
ज्यादातर खेल संघों के पदाधिकारी कहते हैं कि इस नियम को प्रदेश में लागू करवाने के लिए खेलमंत्री लता उसेंडी को पहल करनी चाहिए। उन्होंने अगर ऐसा कर दिया इसमें कोई दो मत नहीं है कि उनका नाम खेल जगत के इतिहास में दर्ज हो जाएगा। खेलमंत्री को खेल संघों के पदाधिकारियों ने सलाह देते हुए कहा कि उनको इस नियम को जल्द लागू करवाने के लिए मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह से बात करनी चाहिए।
ओलंपिक चार्टर का उल्लंघन नहीं
खेलों के जानकारों ने एक बार फिर दावा किया है कि भारतीय ओलंपिक संघ ओलंपिक  चार्टर के उल्लंघन होने की गलत दुहाई दे रहा है। अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक चार्टर में अध्यक्ष का कार्यकाल १२ साल और सचिव का कार्यलय ८ साल तय किया गया है। जानकार साफ कहते हैं कि केन्द्रीय खेल मंत्री एमएस गिल ने अगर यह नियम लागू करवाया है तो कुछ सोच समङा कर ही करवाया है। केन्द्रीय खेल मंत्रालय ने भी अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक चार्टर का अवलोकन कर लिया है। अब यह बात अलग है कि भारतीय ओलंपिक संघ के पदाधिकारी खेल संघों को गुमराह करने के लिए यह बात कह रहे हैं कि ओलंपिक चार्टर का उल्लंघन किया जा रहा है।

Read more...

सोमवार, मई 24, 2010

सात किलो मीटर का होगा कारवां

राजधानी के शहीद भगत सिंह चौक से लेकर स्पोर्ट्स कॉम्पलेक्स  तक करीब सात किलो मीटर के रास्ते में 9 अगस्त को एक ऐतिहासिक  नजारा होगा जब यहां पर प्रदेश के राज्यपाल, मुख्यमंत्री के साथ सारे मंत्रियों और अंतरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय खिलाड़ियों के साथ खेल संघों से जुड़े पदाधिकारी कामनवेल्थ की बैटन को लेकर दौड़ेंगे। इस दिन होने वाले आयोजन के लिए प्रदेश के खेल विभाग ने जो तैयारी की है उस तैयारी से कामनवेल्थ बैटन रिले समिति के सदस्य संतुष्ट हैं। समिति के दो सदस्यों ने आज राजधानी के वरिष्ठ खेल अधिकारी राजेन्द्र डेकाटे से आयोजन के बारे में दो घंटे तक चर्चा करके पूरी जानकारी ली। इसके पहले सदस्य सोमवार को राजनांदगांव और दुर्ग-भिलाई की तैयारियों को देखकर आए हैं।
दिल्ली में इस साल होने वाले कामनवेल्थ खेलों की मशाल यानी बैटन के छत्तीसगढ़ आगमन पर यहां राजधानी के साथ राजनांदगांव और दुर्ग-भिलाई में होने वाले आयोजन का जायजा लेने के लिए कामनवेल्थ समिति से आए दो सदस्यों योगेन्द्र दोहन और शिवांस भट्टनागर ने राजधानी के वरिष्ठ खेल अधिकारी राजेन्द्र डेकाटे से चर्चा करके राजधानी में होना वाली बैटन रिले की पूरी जानकारी ली। समिति के सदस्यों को बताया गया कि राजधानी में करीब सात किलो मीटर की रिले का आयोजन किया गया है। इस आयोजन में प्रदेश के राज्यपाल शेखर दत्त के साथ मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह सहित सभी मंत्रियों, महापौर और कुछ विधायकों को शामिल किया गया है। वीआईपी द्वारा जहां रिले का प्रारंभ किया जाएगा, वहीं समापन भी वीआईपी के हाथों होगा। अभी यह पूरी तरह से तय नहीं है कि इसकी वास्तविक रूपरेखा क्या होगी। लेकिन प्रारंभिक तौर पर जो तैयारी की गई है, उसको देखा जाए तो रिले का प्रारंभ खेलमंत्री लता उसेंडी के साथ शिक्षा मंत्री बृजमोहन अग्रवाल से करवाने की योजना है। अब जहां तक समापन का सवाल है तो समापन में राज्यपाल शेखर दत्त के साथ मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह को मुख्य रूप से रखा गया है। रिले का प्रारंभ जहां शहीद भगत सिंह चौक से होगा, वहीं समापन स्पोर्ट्स कॉम्पलेक्स के  आउटडोर या इंडोर स्टेडियम में होगा। रिले के प्रारंभ में वीआईपी के बाद बैटन को तय किए गए अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय खिलाड़ी जिनको राज्य के खेल पुरस्कार मिले हैं उनके हाथों में दिया जाएगा। करीब 15 खेल संघों को चिंहित किया गया है। हर खेल संघ के लिए करीब 250 मीटर की दूरी तय की गई है। करीब पांच किलो मीटर का फासला खेल संघों के पदाधिकारियों के साथ खिलाड़ी तय करेंगे। रास्ते में 15 स्थानों पर खेल संघों के लिए पाइंट बनाए जाएंगे जहां पर वे अपने खिलाड़ियों के साथ रहेगे। अंतिम 500 मीटर में राज्य के दूसरे जिलों से आए खिलाड़ी बैटन लेकर दौड़ेंगे। सबसे अंत में बैटन मुख्यमंत्री के बाद राज्यपाल के हाथों में जाएगी।
निर्धारित ड्रेस ही आएगी दिल्ली से
खेल अधिकारी से चर्चा में समिति के सदस्यों ने एक बात साफ तौर पर कही कि राजधानी रायपुर के लिए तय की गई 60 धावकों की संख्या के मुताबिक ही वहां से कामनवेल्थ की ड्रेस आएगी। इससे ज्यादा ड्रेस भेजना संभव नहीं होगा। इन्होंने कहा कि अगर धावक ज्यादा होते हैं तो उनको किस तरह से समायोजित करना है, वह यहां का खेल विभाग देखेगा। इन्होंने कहा कि विभाग चाहे तो खिलाड़ियों की ड्रेस बदल कर दौैड़ा सकता है, या फिर यहां पर उसी तरह की ड्रेस बनाव ली जाए। इन्होंने कहा कि प्रदेश का खेल विभाग संख्या बढ़ाने के लिए आयोजन समिति के पास अपना प्रस्ताव भेज सकता है।
बैटन की आगमन 8 अगस्त को होगा
छत्तीसगढ़ में बैटन का आगमन दिल्ली से विमान द्वारा 8 अगस्त को करीब 11 बजे होगा। विमानतल से जोरदार स्वागत के बाद उसको यहां लाया जाएगा। राजधानी में रिले का आयोजन दोपहर को एक से दो बजे के बीच होगा। रिले में करीब चार घंटे का समय लगेगा और फिर समापन कार्यक्रम होगा। रात को सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होंगे। दूसरे दिन 10 अगस्त को बैटन अपने दल के साथ राजनांदगांव के लिए रवाना होगी। सुबह 8 बजे यहां से रवाना होकर 10 बजे राजनांदगांव पहुंचने के बाद वहां पर 11 बजे से 1 बजे के बीच रिले का आयोजन होगा। राजनांदगांव में रिले का आयोजन करीब पांच किलो मीटर होगा। वहां से लंच के बाद दल दुर्ग के लिए दो बजे रवाना होकर तीन बजे पहुंचेगा और फिर वहां पर 3.30 बजे रिले का प्रारंभ होगा। रिले का समापन 5.30 बजे होगा। इसके बाद रात में बैटन को भिलाई में ही रखा जाएगा। 11 अगस्त को भिलाई से बैटन को सुबह विमान की उपलब्धतता के हिसाब से माना लाया जाएगा। इस बीच में विमानतल और रायपुर के बीच में वृक्षारोपण का भी कार्यक्रम होगा। दिल्ली से बैटन दल में 14 सदस्य आएंगे।
सुरक्षा धावक भी साथ होंगे
रिले के दौरान बैटन लेकर दौड़ने वाले घावकों के साथ दो से चार सुरक्षा धावक भी दौड़ेंगे। रिले के मार्ग में सबसे पहले मीडिया के एक या दो वाहन होंगे। इसके बाद बैटन धावक और फिर इसके पीछे वाहनों का एक बड़ा काफिल होगा। इस काफिले में सुरक्षा अधिकारियों के साथ एम्बुलेंस की भी व्यवस्था होगी। दिल्ली से आए सदस्यों ने करीब एक दर्जन वाहनों की मांग रखी है।
तैयारी ठीक है
दिल्ली से आए योगेन्द्र और शिवांस ने पूछने पर बताया कि वे यहां की तैयारी से पूरी तरह से संतुष्ट हैं। उन्होंने कहा कि उनको रायपुर के साथ भिलाई-दुर्ग के रास्ते में कोई परेशानी नजर नहीं आई है, राजनांदगांव में एक स्थान पर उनको ऐसा लग रहा है कि वहां पर वाहनों के काफिले को परेशानी हो सकती है। इसके बारे में वहां के अधिकारियों को बता दिया गया है। इसी के साथ राजधानी के खेल अधिकारी श्री डेकाटे से भी इस बात पर ध्यान देने के लिए कहा गया है। इन्होंने पूछने पर बताया कि बैटन धावकों के लिए पहली प्राथमिकता अर्जुन पुरस्कार, द्रोणाचार्य, खेल रत्न के साथ ओलंपियन, एशियाड, विश्व कप में खेलने वाले अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी हैं। इसके अलावा राज्य जिन खिलाड़ियों को तय करें। इन्होने बताया कि खिलाड़ियों के अलावा दूसरे क्षेत्रों में विशेष पहचान रखने वालों को भी शामिल किया जा सकता है। किनको शामिल करना है, वह राज्य सरकार तय करेगी।

Read more...

रविवार, मई 23, 2010

हमारे कम्प्यूटर ने तोड़ दिया दम-जल्द ठीक करवा लिए इसलिए नहीं है गम

घर से फोन आया कि न जाने क्या हो गया है घर के सारे के सारे इलेक्ट्रानिक सामानों की जान जा रही है। सबसे पहले कूलर, फिर कम्प्यूटर, टीवी और फिर पंखों के साथ कई सीएफएल उड़ गए। ये सब बिजली वालों की मेहरबानी से हुआ। अचानक घरों में 220 वोल्ट के स्थान पर 440 वोल्ट की सप्लाई आ गई और हमारी कालोनी के कई घरों के न जाने कितने इलेक्ट्रानिक सामानों की जान चली गई।
बात दो दिन पुरानी है। हम खेल विभाग में समाचार के लिए गए हुए थे कि अचानक घर से फोन आया कि कूलर में चिंगारी निकलने के बाद कम्प्यूटर में एक विस्फोट जैसा हुआ और कम्प्यूटर भी बंद हो गया। इस घटनाक्रम से हमारे बच्चे स्वप्निल राज ग्वालानी और सागर राज ग्वालानी बहुत डर गए थे। हम तुरंत घर पहुंचे। वैसे हमारी समझ मेें आ गया था कि आज बिजली वालों का कहर हमारे घर पर गिरा है। जब हम घर पहुंचे तो हमने जैसे ही किसी भी कमरे का सीएफएल चालू किया, वह उड़ गया। हमारे दो पंखें भी उड़ चुके थे। फ्रिज श्रीमती जी की सतर्कता के कारण बच गया। उनको लगा कि शायद इसका भी नंबर आ सकता है ऐसे में उन्होंने उसको बंद करके उसका स्विच निकाल दिया जिसके कारण वह बच गया।
अब ऐसे में जहां हमने सबसे पहला काम कूलर बनाने वाले मिस्त्री को बुलाने का किया, वहीं कम्प्यूटर इंजीनियर को भी बुलावा लिया। हमारे लिए फिलहाल ये दो प्रमुख सामान थे जिनके बिना रहना संभव नहीं था। कूलर वाले ने आकर जहां तुरंत कूलर का एगजाज बदल दिया, वहीं कम्प्यूटर वाले ने आकर कम्प्यूटर को एक घंटे में ही ठीक कर दिया। कम्प्यूटर के साथ हमारा साउंड बाक्स भी उड़ गया है जो अब तक नहीं बन पाया है। वैसे हमारे टीवी का डीटीएच भी उड़ गया है। उसको हम फिलहाल इसलिए ठीक नहीं करवा रहे हैं क्योंकि हमारे बालक की अभी परीक्षा है। उसका हाथ टूट गया था ऐसे में वह चार पेपर नहीं दे पाया था, ऐसे में उसको जून में परीक्षा देनी है।
हमने जब अचानक घरों के सामान के उडऩे का कारण पता लगाया तो मालूम हुआ कि जिस ट्रासंफार्मर से हमारे घर के साथ ही अनेकों घरों में सप्लाई गई है उस का तेल पूरी तरह से सूख गया था जिसके कारण घरों में 220 के स्थान पर 440 वोल्ट की सप्लाई चली गई और कई घरों के इलेक्ट्रानिक उपकरणों के बारह बज गए। हमने जहां इस खबर को अपने अखबार में हरिभूमि में प्रमुखता से छपवाया, वहीं अब हम लोग इस तैयारी में है कि अपने नुकसान की भरपाई के लिए बिजली विभाग के खिलाफ उपभोक्ता फोरम जाएं। कालोनी में जिनके घरों में नुकसान हुआ है उनसे बात हो रही है। बात होने के बाद फैसला किया जाएगा कि क्या करना है।
जहां हमें एक तरफ घर के सामानों के नुकसान होने का गम है, वहीं इस बात की खुशी है कि हमने अपने कम्प्यूटर को तुरंत ठीक करवा लिया और हमें ब्लाग जगत से ज्यादा समय के लिए दूर नहीं रहना पड़ा।

Read more...

शनिवार, मई 22, 2010

मुझे तो फी-मेल भी पसंद नहीं

एक मित्र से दूसरे ने पूछा- यार तुम्हें मेल पसंद है क्या? मेरे पास तो बहुत ज्यादा मेल आते हैं। इतने ज्यादा आते हैं कि मैं रात-दिन परेशान हो जाता हूं।

दूसरे ने कहा- न बाबा न.. अपनी ऐसी कोई आदत नहीं है, मुझे तो फी-मेल भी पसंद नहीं आती है, तुम तो फिर मेल की बात कर रहे हो। मैं वैसा नहीं हूं।

पहले ने गुस्से में कहा- अबे न जाने तू क्या समझ रहा है, मैं इंटरनेट ने आने वाले ई-मेल की बात कर रहा हूं।

दूसरा- तो ऐसा बोल न बे, तू मेल कहेंगे तो मैं क्या समझूंगा। वैसे भी आज कल कोर्ट ने भी इसकी मंजूरी दे रखी है।

Read more...

शुक्रवार, मई 21, 2010

टिप्पणी पांच दिखती है एक, बहुत नाइंसाफी है ये...

हमारी कल की पोस्ट मूछों वाला ब्लागर लापता में एक समय जब पांच टिप्पणियां आईं थी, तब ब्लागवाणी में तो ये पांच दिख रही थी, लेकिन राजतंत्र को खोलने पर एक ही टिप्पणी नजर आ रही थी। पांच टिप्पणी चिट्ठा जगत में भी नजर आ रही थी। आखिर ये कैसा गोल-माल होता है समझ से परे है। हमने कई बार राजतंत्र को रिफे्रश करके देखा लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ा। काफी समय बाद सारी टिप्पणियां नजर आईं।

Read more...

गुरुवार, मई 20, 2010

बड़ी मूछों वाला ब्लागर लापता

ब्लाग बिरादरी में बहुत ज्यादा नाम कमाने वाले एक बेहद लोकप्रिय, फेमस और अति प्रसिद्ध मूछों वाले ब्लागर के कल अचानक लापता होने की खबर मिली है। हम कल से उनको तलाश रहे हैं। कई ब्लागरों के फोन खटखटाने के बाद आज अचानक सुबह-सुबह एक ब्लागर का फोन आया कि इस ब्लागर को राजस्थान में घुसपैठ करते देखा गया है।

कल रात की बात है अचानक हमारा मोबाइल बजा और रिंगटोन बज उठी.. बेपनाह प्यार है आजा, तेरा इंतजार है आजा.. हमने जैसे ही मोबाइल उठाया उधर से जानी पहचानी आवाज आई..
साई राम-राम
हमने कहा राम-राम
उधर से पूछा गया- कहां हैं?
हमने कहा प्रेस में।
हमने पूछा आप कहां हैं, आवाज साफ नहीं आ रही है।
उधर से कहा गया- बैलगाड़ी में।
हमने कहा यार ये बैलगाड़ी में कहां जा रहे हैं।
उधर से कहा गया- भईया बैलगाड़ी में नहीं रेलगाड़ी में हैं और कहां जा रहे हैं अभी बता नहीं सकते हैं।
हमने पूछा- क्यों?
उधर से कहा गया- यार बहुत दिनों से मन उचट गया है सोचा कि चलो हम भी मिस्टर इंडिया बन जाते हैं और कुछ दिनों के लिए गायब हो जाते हैं, आप जैसे मित्रों में दम होगा तो हमें खोज ही लेंगे।
हमने कहा ठीक है मित्र हम तो खोज ही लेंगे। वैसे आप बताना चाहे तो कम से कम इतना बता सकते हैं कि किधर जाने वाली बैलगाड़ी.. अरे यार हमारा मतलब है रेलगाड़ी में बैठे हैं।
उधर से कहा गया कि ये बता दिया तो फिर तो खोज ही लेंगे न, और हमारे मूछों वाले भाई साहब ने फोन कट कर दिया।
हमने सोचा यार कहीं कोई मजाक तो नहीं कर रहे हैं अपने मूछों वाले भाई।
हमने उनका मोबााइल लगाया तो कवरेज एरिये से बाहर मिला।
ऐसे मेंं हमने संभावित स्थानों से बारे में सोचते हुए कई मित्रों को फोन  करते बता दिया कि एक बिगडै़ल मूछों वाले ब्लागर उनके इलाके में घुसपैठ कर सकते हैं जरा सावधान रहे और नजर आते ही हमें सूचना दें।
आज सुबह-सुबह हमारे एक मुखबिर ब्लागर का फोन आया कि भाई साहब आपके मूछों वाले ब्लागर को राजस्थान में घुसपैठ करते देखा गया है।
हमने मूछों वाले ब्लागर का फोन लगाया तो उन्होंने फोन उठाया और बताया कि आपको सही सूचना मिली है, हम फिलहाल राजस्थान में हैं। हमने पूछा आगे कहीं पाकिस्तान जाने का तो इरादा नहीं है न बार्डर पार करके। उधर से जवाब आया- यार क्या अपने देश में जगह की कमी है क्या जो ऐसे देश में जाने के बारे में सोचेंगे, जहां जाने के बारे में सोचना ही हमें पाप लगता है।
हमने पूछा तो फिर आखिर अगले कदम पर कहां सेंघ मारने वाले हैं। उधर से कहा गया कि आपके मुखबिर तो बता दी देंगे।
हमने कहां कि हमें तो सूचना मिल ही गई है कि आप अब दिल्ली पर चढ़ाई करने वाले हैं, क्या यह सच है।
उधर से कहा गया कि सच भी हो सकता है।
तो मित्रों हम दिल्ली के ब्लागर मित्रों को बता देना चाहते हैं कि हमारे मूछों वाले ब्लागर कभी भी दिल्ली धमक सकते हैं, आप लोग सचेत रहे और उनके दिखते ही हमें भी सूचना जरूर दें ताकि हम उनकी खोज में दुबले होने से बच जाए।
अगर अब तक हमारे ब्लागर मित्र इन मूछों वाले ब्लागर को नहीं पहचान पाए हैं तो हम उनकी पहचान भी बताए देते हैं।
हमारे ये ब्लागर मित्र हैं छत्तीसगढ़ के रायपुर जिले के अभनपुर के ललित शर्मा जिनकी मूछों के बारे में कहा जाता है कि अगर मूछें हों तो ललित शर्मा जैसी वरना न हों। हम बता दें कि अगर अपने बिग-बी यानी अमिताभ बच्चन भी अगर शर्मा जी की मूछें देख लें तो वे यह कहना भूल जाएंगे कि मूछें हों को नथूलाल जैसी वरना न हों।
चो चलिए मित्रों आपकी सूचना का इंतजार रहेगा। देखें कि आपके बेपनाह प्यार का पैगाम हमारे बेपनाह प्यार है आजा .. की रिंग टोन वाले मोबाइल पर कब आता है।
मूछों वाले ब्लागर को देखते ही हमें इस नंबर 098267-11852 पर सूचना दें..

Read more...

बुधवार, मई 19, 2010

ग्रामीण खिलाडिय़ों से सरोकार ही नहीं

प्रदेश के ज्यादातर खेल संघों का ग्रामीण खिलाडिय़ों से कोई सरोकार ही नहीं है। छत्तीसगढ़ बनने के दस साल बाद भी राष्ट्रीय स्तर पर खेलने जाने जाने वाली टीमों में चंद शहरों के खिलाडिय़ों को ही स्थान दिया जाता है। संभवत: ग्रामीण खिलाडिय़ों की उपेक्षा से प्रदेश सरकार के साथ केन्द्र सरकार भी अनभिज्ञ नहीं है यही वजह है कि केन्द्र सरकार ने पायका योजना के माध्यम से ग्रामीण खिलाडिय़ों को एक मंच देने की पहल की है। प्रदेश में पहले चरण में अब ९८२ गांवों के खिलाडिय़ों को राष्ट्रीय स्तर पर अपनी प्रतिभा दिखाने का मौका मिलेगा।
छत्तीसगढ़ बनने के बाद यहां के ग्रामीण खिलाडिय़ों को इस बात की उम्मीद थी कि कम से कम अब उनके साथ अपने राज्य में पक्षपात नहीं होगा और उनको भी शहरी खिलाडिय़ों की तरह बराबर राष्ट्रीय स्तर पर खेलने जाने का मौका मिलेगा। ग्रामीण खिलाडिय़ों की इस बात को उस समय और बल मिला था जब प्रदेश की खेलनीति में ग्रामीण खिलाडिय़ों पर ध्यान देने की बात की गई थी। इसके बाद गांव के खिलाडिय़ों को पूरी उम्मीद थी कि उनके साथ जरूर न्याय होगा। लेकिन आज राज्य बनने के १० साल बाद भी ग्रामीण प्रतिभाएं राष्ट्रीय स्तर पर खेलने के लिए तरस रही हंै। यह बात कम से कम खेल संघों के साथ तो जरूर लागू है। ग्रामीण खिलाडिय़ों को थोड़ा बहुत स्कूली स्पर्धाओं में खेलने का मौका जरूर मिल जाता है। लेकिन खेल संघों की बात करें तो खेल संघों की जब टीमें बनती हैं तो इन टीमों में चंद शहरों के ही खिलाड़ी होते हैं।
रायपुर-भिलाई में बंट गए खेल संघ
राज्य बनने के बाद प्रदेश में इस समय खेल विभाग से मान्यता प्राप्त ३३ खेल संघ हैं। इन खेल संघों में एक ताइक्वांडो को छोड़ दिया जाए तो बाकी खेल संघ रायपुर और भिलाई में बंटे हुए हैं। भिलाई में ही ज्यादातर राज्य खेल संघों के कार्यालय और पदाधिकारी हैं। ऐसे में जब भी राज्य की टीमों का चयन होता है तो उन टीमों में ज्यादातर खिलाड़ी भिलाई के ही होते हैं। जिन खेल संघों की कमान रायपुर के पदाधिकारियों के पास हैं, उन टीमों में रायपुर के खिलाडिय़ों की भरमार होती है। इन टीमों में भी भिलाई के खिलाडिय़ों को न चाहते हुए इसलिए स्थान देना पड़ता है कि जब भी राज्य स्पर्धा का आयोजन होता है तो उस स्पर्धा में मुकाबला रायपुर और भिलाई के बीच होता है। इसी के साथ भिलाई में सुविधाएं ज्यादा होने के कारण निश्चित रूप से वहां के खिलाड़ी रायपुर के खिलाडिय़ों से ज्यादा अच्छे होते हैं। रायपुर और भिलाई के बाद टीमों में राजनांदगांव के खिलाडिय़ों को स्थान मिलता है। वहां पर भी खेल की कुछ सुविधाएं के साथ कई खेल संघों से जुड़े पदाधिकारी वहां हैं। इसी के साथ वहां पर साई का एक प्रशिक्षण केन्द्र भी है। इन तीन शहरों के अलावा कभी कभार किसी खेल की टीम में बिलासपुर, रायगढ़, महासमुन्द या धमतरी के इका-दुका खिलाड़ी को मौका मिल जाता है। अगर आदिवासी क्षेत्र बस्तर और अम्बिकापुर की बात की जाए तो यहां के खिलाडिय़ों को कोई टीम में लेना ही नहीं चाहता है।
कागजों में भी खेल संघ
कई खेल संघों के तो आदिवासी जिलों बस्तर और सरगुजा में खेल संघ भी नहीं हैं।  जहां पर जिला संघ हैं, वे महज कागजों में चल रहे हैं। कागजों में खेल संघ बनाने की इसलिए मजबूरी है कि खेल विभाग से मान्यता लेने के लिए ११ जिलों में जिला खेल संघों का होना जरूरी है। इसी के साथ खेल विभाग से मिलने वाली एक लाख की प्रेरणा निधि के लिए भी कागजों  में खेल संघ बनाए गए हैं। प्रेरणा निधि के लिए यह अनिवार्य है कि राष्ट्रीय स्पर्धा में सफलता पाने वाली टीम में कम से कम सात जिलों के खिलाड़ी  हों। ऐसे में जिन खेलों को प्रेरणा निधि मिलने की उम्मीद रहती है ऐसे खेलों की टीमों में कागजों में ही सात जिलों के खिलाडिय़ों को दर्शाने का काम किया जाता है। इसी के साथ यह भी जरूरी रहता है कि राज्य स्पर्धा में  कम से ८ जिलों की टीमें खेलें।
फर्जी टीमें भी बनती हैं
राज्य स्पर्धा में कम से कम ८ जिलों की टीमों की खेलने की अनिवार्यता के चलते खेल विभाग से अनुदान लेने के लिए कई खेल संघों के पदाधिकारी दूसरे जिलों के नाम से फर्जी टीमें बनाकर स्पर्धा में खिलाने का काम करते हैं ताकि उनको अनुदान मिल सके। अब तो राज्य का खेल विभाग ही राज्य स्तर की सब जूनियर और जूनियर स्पर्धाओं का आयोजन कर रहा है तो कम से कम ऐसी फर्जी टीमों पर अंकुश लगा है। लेकिन सीनियर वर्ग की स्पर्धा में अनुदान लेने के लिए यह काम आज भी किया जाता है।
पायका ने दी ग्रामीण खिलाडिय़ों को राह
प्रदेश में दस साल से उपेक्षित खिलाडिय़ों को अब केन्द्र सरकार की पायका योजना ने एक नई राह दिखाई है। इस योजना के कारण अब प्रदेश के ग्रामीण खिलाडिय़ों को राष्ट्रीय स्तर पर आने का मौका मिल रहा है। वैसे तो पूर्व में भी ग्रामीण खिलाडिय़ों के लिए राज्य के साथ राष्ट्रीय स्तर पर हर खेल की स्पर्धाएं होती थीं, लेकिन इन स्पर्धा में भी ग्रामीण की बजाए शहरी खिलाडिय़ों को रखा लिया जाता था, लेकिन पायका योजना में ऐसा होना संभव नहीं है क्योंकि इसमें पंचायत स्तर से लेकर विकासखंड फिर जिला स्तर और फिर राज्य स्तर के बाद टीमों को राष्ट्रीय स्तर पर खेलने जाना है।  पायका योजना में हर गांव के लिए क्रीड़ाश्री भी बनाए गए हैं ताकि वे अपने-अपने गांवों की प्रतिभाओं को सामने लाने का काम कर सके। प्रदेश में पहले चरण में ९८२ गांवों को पायता से जोड़ा गया है। न गांवों के खिलाडिय़ों को अब राष्ट्रीय स्तर पर अपनी प्रतिभा दिखाने का मौका मिलेगा।

Read more...

मंगलवार, मई 18, 2010

नक्सलियों के खूनी खेल की जिंदा तस्वीरें

छत्तीसगढ़ में एक बार फिर से नक्सलियों ने कल शाम को खूनी खेल खेला। पहली बार नक्सलियों ने आम जनों को निशाना बनाते हुए एक यात्री बस उड़ा दी। इस घटना में 50 जानें गई हैं। इनमें 36 एसपीओ और 14 नागरिक शामिल हैं। दंतेवाड़ा जिले के सुकमा मार्ग के भूसाराम में हुई घटना की कुछ जिंदा तस्वीरों को हम यहां पर हरिभूमि के सौजन्य से प्रस्तुत कर रहे हैं। ज्यादा कुछ लिखने की जरूरत नहीं है। नक्सलियों की इस घटना ने यह साबित कर दिया है कि नक्सली अब आतंकवादियों की राह पर चल पड़े हैं और आम जनों को निशाना बनाकर नागरिकों में दहशत फैलाने का काम कर रहे हैं। सरकार को अब इस दिशा में गंभीरता से सोचने की जरूरत है।

Read more...

सोमवार, मई 17, 2010

हम भी बन गए चर्चाकार- ललित शर्मा का चमत्कार

हमें ब्लाग 4 वार्ता में पिछले एक सप्ताह से लगातार चर्चा कर रहे हैं। चर्चा करने में हमें भी मजा आने लगा है। हमें चर्चाकार बनाने का सारा श्रेय भाई ललित शर्मा को जाता है। उनकी प्रेरणा से ही हम चर्चा करने लगे हैं। आज हमें लगता है कि हम अकेले भी सब कर सकते हैं।
जब ललित शर्मा ने ब्लाग जगत को एक चर्चा मंच देने के लिए ब्लाग 4 वार्ता का आगाज किया था और हमें भी एक दिन चर्चा करने के लिए इसमें आमंत्रित किया था, तब हमें लगता था कि यार चर्चा करना तो बड़ा कठिन काम है इसको हम अपने व्यस्त समय में कैसे कर पाएंगे। हमने जब अपने मन की बात शर्मा जी को बताई थी तो उन्होंने अपने चिरपरिचित अंदाज में कहा था कि साई इसमें परेशान होने की जरूरत नहीं है, मेरे पास एक ऐसा चत्मकारिक फार्मूला है जिससे चर्चा करने में न सिर्फ आपको आसानी होगी, बल्कि मजा भी आएगा। उन्होंने जब रायपुर आकर हमें इस फार्मूले से अवगत करवाया था, तो हम भी दंग रह गए थे। आज उसी फार्मूले के दम पर हम लगातार चर्चा करने में सफल हो रहे हैं।
इधर जब हमने ब्लाग 4 वार्ता को खाली जाते देखा था तो हमें अच्छा नहीं लगा था कि शर्मा जी का तैयार किया एक ब्लाग पौधा मुरझा रहा है, ऐसे में हमने उनसे कह दिया था कि जिस दिन कोई चर्चा करने वाला न हो हमें बता दिया करे। ऐसे में शर्मा जी ने कहा कि जिस दिन भी लगे कोई चर्चा ड्राफ्ट में नहीं है आप बेशक चर्चा कर दिया करें। ऐेसे में हम हमने पिछले सप्ताह एक दिन का छोड़कर छह दिन चर्चा की। एक दिन गिरीश बिलौरे जी ने चर्चा की थी। आज भी हमें इस पोस्ट के बाद चर्चा को अंजाम देना है। यहां पर हमें एक बात याद आ रही है कि जब छत्तीसगढ़ से चिट्ठा चर्चा प्रारंभ करने की बात पिछले साल हुई थी तो हमारे एक वरिष्ठ ब्लागर मित्र ने एक तरह से उलहाना दिया था कि यहां के ब्लागर इतने परिपक्व नहीं हंै कि चिट्ठा चर्चा को अच्छी तरह से अंजाम दे सके। यह बात किसी को बुरी लगी हो या न लगी हो लेकिन हमें जरूर लगी थी। उसी दिन हमने भी सोचा था कि यार हम भी जरूर इस चिट्ठा चर्चा वाली बला को देखेंगे कि आखिर ये है क्या। हमें आज इस बात की खुशी है कि आज हम भी चर्चाकार बन गए हैं और हम आज यह कहने में सक्षम हैं कि हम अकेले ही एक चर्चा मंच चला सकते हैं। वैसे ऐसा ही दम अपने ललित शर्मा में है और उन्होंने यह दम दिखाया भी है और हम चर्चा करना सिखाया भी है।
हमारे ब्लागर मित्र जरूर बताएं कि हम चर्चा करने में कितने सफल हो रहे हैं। आपके विचारों का इंतजार रहेगा।

Read more...

रविवार, मई 16, 2010

समाज के ठेकेदारों ने ले ली एक पत्नी की जान

अपने राज्य छत्तीसगढ़ में साहू समाज के कुछ ठेकेदारों ने एक असहाय पति से जहां उनकी पत्नी छिन ली, वहीं चार बच्चों के सिर से मां का साया उठा लिया। इन पत्नी का कसूर यह था कि उसने अपने गोत्र के आदमी से विवाह कर लिया था। अगर विवाह कुछ समय पहले हुआ रहता तो एक बार मामला समझ में आता कि चलो अभी कुछ नहीं बिगड़ा है। लेकिन विवाह के 25 साल बाद इस दंपति को जब समाज के ठेकेदारों से भाई-बहन की तरह रहने के लिए मजबूर किया तो अंत में दुखी पत्नी ने अपनी जान ही दे दी। अब इस परिवार के सामने भूखे मरने की नौबत आ गई है क्योंकि घर चलाने का काम मृतक महिला ही करती थी।
यह मामला हुआ गुरुर के एक गांव चिरचारी मेंं। इस गांव के मनोहर साहू का 25 साल पहले अपने ही गोत्र की कचरा बाई से विवाह हुआ था। विवाह के पूरे 25 साल बिताने के बाद अचानक समाज के ठेकेदारों ने इस दंपति को भाई-बहन की तरह रहने के लिए फरमान जारी कर दिया। इस दंपित का एक पुत्र और तीन पुत्रियां हैं। इनमें से दो पुत्री और एक पुत्र नाबालिग हैं। इस परिवार का सारा खर्च चलाने का जिम्मा कचरा बाई पर था। मनोहर लाल चूंकि दमे के मरीज हैं, ऐसे में वे काम नहीं कर पाते हैं। कचरा बाई सब्जी बेचकर अपने परिवार को चलाती थीं। समाज के ठेकेदारों ने समाज की बैठक बुलाकर जहां इस गरीब दंपति पर दस हजार रुपए का जुर्माना ठोंक दिया, वहीं फरमान जारी कर दिया कि तुम लोग पति-पत्नी की तरह नहीं सकते हो। तुम लोगों को भाई-बहन की तरह रहना होगा क्योंकि तुम लोग एक ही गोत्र के हो। इस फरमान से दुखी पत्नी ने खाना-पीना छोड़ दिया और अंत में उसने जहर खाकर अपनी जान दे दी।
सोचने वाली बात यह है कि जब यह दंपित पिछले 25 साल से साथ रह रही थी तब समाज के ठेकेदारों को क्यों कर आपत्ति नहीं हुई। उस समय ये ठेकेदार कहां गए थे जब इनका विवाह हुआ था। माना कि एक गोत्र में विवाह नहीं होता है, लेकिन अगर किसी ने ऐसा कर लिया था तो उसे उसी समय रोकना था। अगर उस समय नहीं रोका गया तो फिर 25 साल बाद उनको भाई-बहन की तरह रहने के लिए मजबूर करना कहां का न्याय है। समाज के ठेकेदारों की वजह से आज एक अहसाय पति को अपनी पत्नी और गरीब और बेबस बच्चों को अपनी मां खोनी पड़ी है। क्या ये समाज के ठेकेदार इस असहाय परिवार का खर्च उठाने की हिम्मत दिखा सकते हैं। अगर आप किसी के लिए कुछ कर नहीं सकते हैं तो फिर किसी का बिगाडऩे का आपको क्या हक है।

Read more...

शनिवार, मई 15, 2010

पहचान कौन....

बस्तर यात्रा में हमें तीरथगढ़ के गेट पर एक बंदा बैठा मिला। जब हम कार रखने के बाद गेट के पास गए तो मालूम हुआ कि वह बंदा असली नहीं नकली था। वास्तव में बस्तर की कलाकारी का जवाब नहीं है। इस कलाकारी का एक नमूना है ये तस्वीर।

Read more...

शुक्रवार, मई 14, 2010

क्या सेना में दम है नक्सलियों से निपटने का

छत्तीसगढ़ की नक्सली समस्या के विकराल होते रूप के बाद पहली बार छत्तीसगढ़ के गृहमंत्री ननकीराम कंवर ने भी यह बात कह दी है कि इस समस्या से निपटने के लिए सेना का सहारा लेना पड़ेगा। अब तक तो इस बारे में विपक्षी ही कहते रहे हैं, पर खुद गृहमंत्री यह मानने लगे हैं कि नक्सलियों से निपटना पुलिस के बस में नहीं है। लेकिन सोचने वाली बात यह है कि क्या नक्सल समस्या सेना के बुलाने से समाप्त हो जाएगी। इसका सीधा सा जवाब है कि सेना के बस में नक्सलियों से निपटना है ही नहीं। ऐसा हम कोई हवा में नहीं कह रहे हैं। बस्तर में लंबे समय तक रहने वाले पुलिस के एक आला अधिकारी का कहना है कि सेना और पुलिस की कार्रवाई में बहुत अंतर है। सेना आतंकवादियों से तो एक बार निपट सकती है, पर नक्सलियों से निपटना उसके बस में नहीं है।
छत्तीसगढ़ में नक्सल समस्या को लेकर केन्द्र सरकार तो पिछले कुछ समय से गंभीर दिख रही है। केन्द्र सरकार इस समस्या को समाप्त करना चाहती है ऐसा उसका कहना है। लेकिन हमें तो नहीं लगता है कि केन्द्र सरकार इस समस्या के प्रति गंभीर है। अगर ऐसा होता तो यह समस्या इतने विकराल रूप में कभी सामने नहीं आती। हमने पहले भी लिखा है, एक बार फिर से याद दिलाने चाहेंगे कि छत्तीसगढ़ में जब नक्सलियों ने पैर पसारने प्रारंभ किए थे, तब से लेकर अब तक लगातार केन्द्रीय गृह मंत्रालय के पास जानकारी भेजी जाती रही है, पर केन्द्र सरकार ने इस दिशा में गंभीरता दिखाई ही नहीं। केन्द्र सरकार के साथ पहले मप्र और अब छत्तीसगढ़ की सरकार भी गंभीर नहीं लगती है। हर सरकार के नुमाईदें महज हवा में बातें करते हैं कि नक्सलियों का नामो-निशा मिटा देंगे। अरे भई कैसे मिटा देंगे कोई योजना है? नहीं तो फिर कैसे मिटा देंगे, कुछ बताएंगे। इसका जवाब नहीं है खाली बयानबाजी करनी है तो कर रहे हैं। अपने देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी इस तरह का राग अलापते हैं। छत्तीसगढ़ के गृहमंत्री ननकी राम कंवर भी ऐसा कह चुके हैं। इस बार ननकी राम ने यह कह दिया है कि नक्सल समस्या से निपटने के लिए सेना को बुलाना चाहिए। उनके इस बयान से यह बात तय है कि अब उनको भी अपने राज्य की पुलिस पर भरोसा नहीं रहा है।

केन्द्रीय और राज्य के मंत्री बयान तो दे देते हैं और सरकारें कुछ नहीं करती हैं। इनके बयानों का असर यह होता है कि नक्सली खफा हो जाते हैं और कहते हैं कि अरे तुम क्या हम लोगों का नामों निशा मिटा दोगे हम लोग तुम लोगों को मिटा देंगे और करने लगते हैं बेगुनाहों का खून। मंत्रियों और अफसरों के जब-जब बयान आएं हैं, उन बयानों के बदले में नक्सलियों ने हमेशा बेगुनाहों का खून बहाया ही है। अरे भाई अगर कुछ करने का मादा है तो चुपचाप उसी तरह से करो न जैसे नक्सली करते हैं। नक्सलियों ने निपटने के लिए उनके जैसी सोच चाहिए।

अब राजनीति देखिए कि कहा जा रहा है कि बस्तर को सेना के हवाले कर दिया जाए। यह बात आज से नहीं काफी समय से कांग्रेसी करते रहे हैं। लेकिन सोचने वाली बात यह है कि क्या सेना में इतना दम है कि वह नक्सलियों का सफाया कर सकती है। सेना का काम नक्सलियों ने निपटने का नहीं है। बस्तर में लंबे समय तक रहने वाले पुलिस के आला अधिकारी की बातें मानें तो सेना की अपनी अलग कार्यप्रणाली है, उनके बस में नक्सलियों से निपटना नहीं है। उनको ऐसा प्रशिक्षण ही नहीं दिया जाता है कि नक्सलियों से वे दो-दो हाथ कर सकें। इन अफसर महोदय ने बताया कि बस्तर में कुछ समय पहले सीआरपीएफ की फोर्स रखी गई थी, यह फोर्स वहां पर तीन माह तक रहकर भी कुछ नहीं कर पाई। इस फोर्स को जब कही भेजा जाता था तो इनकी सुरक्षा के लिए पुलिस वाले जाते थे। अब ऐसे में यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि सेना नक्सलियों से निपट सकती है। नक्सलियों पर बस्तर में एक नागा बटालियन भारी पड़ी थी, पर उसको हटा दिया गया। इस बटालियन के जवानों पर कई तरह के आरोप भी लगे थे।

कुल मिलाकर नक्सली समस्या से पुलिस वाले ही मुक्ति दिला सकते हैं। इसके लिए जरूरत यह है कि एक तो पुलिस को मजबूत किया जाए और दूसरे बस्तर में ऐसे अधिकारियों को रखा जाए जो वास्तव में पुलिस के जवानों का मनोबल बढ़ा सके। जबरिया बस्तर भेजे जाने वाले जवान और अधिकारी कभी भी नक्सलियों का सामना नहीं कर सकते हैं। सरकार को तलाशने होंगे ऐसे अफसर और जवान जो नक्सलियों से लोहा लेने की इच्छा रखते हों। अब ये अधिकारी और जवान चाहे छत्तीसगढ़ के हों या फिर देश के किसी भी कोने के हों।

Read more...

गुरुवार, मई 13, 2010

कसाब की फांसी पर तत्काल अमल क्यों नहीं?

आज हमें अपने देश के कानून पर बहुत तरस आ रहा है और अफसोस हो रहा है कि ये अपने देश का कैसा कानून है जो अजमल आमिर कसाब जैसे आतंकी को भी फांसी की सजा के खिलाफ अपील करने का मौका देता है। जब एक अदालत ने उसे दोषी मानते हुए फांसी की सजा दे दी है तो फिर उसको समय देने का क्या मतलब है? क्या यह अपने देश के कानून का पंगूपन नहीं है जो एक आतंकी के साथ नरमी बरत रहा है। कम से कम हमारा तो ऐसा मानना है कि कसाब जैसे आतंकी को फांसी की सजा मिलते ही अदालत को फांसी का दिन तय करके फांसी देने का फरमान जारी कर देना था। अगर हमारे देश की अदालतें ऐसा करने में सक्षम नहीं हैं तो ऐसे कानून को बदल देना चाहिए जो सैकड़ों जानें लेने वाले आतंकी को भी रहम की अपील करने का अधिकार देता है।
इसमें कोई दो मत नहीं है कि अपने देश का कानून वास्तव में अंधा कानून ही है। अगर कानून अंधा नहीं है तो क्या उसे मुंबई हमले में मारे गए उन परिवारों की चीखें सुनाई देती हैं जो चीखें अपने परिजनों को खोने से लेकर आज तक गंूज रही है। इन परिवारों को उस एक दिन तो जरूर सकुन मिला होगा जिस दिन अदालत ने कसाब को फांसी की सजा सुनाई थी। लेकिन यह खुशी और सकुन एक ही दिन का था। एक दिन का इसलिए कि कसाब को फांसी की सजा ही सुनाई गई है सजा दी नहीं गई है। होना तो यह था कि अदालत न सिर्फ कसाब जैसे आतंकी को फांसी की सजा सुनाती, बल्कि यह भी तय कर देती कि उसे किस दिन फांसी दी जाएगी तो ज्यादा अच्छा होता। लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है, अपने देश के संविधान ने तो अदालतों के हाथ भी बांध रखे हैं। लेकिन सोचने वाली बात यह है कि कसाब को आम अपराधी नहीं है जिसने किसी मजबूरीवश किसी की हत्या की थी। अगर कोई अपराधी किसी मजबूरीवश किसी की हत्या करता है तो बात समझ आती है कि उसे ऊंची अदालतों में अपील करने का समय दिया जाए, इसी के साथ उसे राष्ट्रपति के सामने भी रहम की अपील का अधिकार दिया जाए। लेकिन क्या कसाब जैसे अपराधी को ऐसा मौका देना न्यायसंगत लगता है जिसके कारण एक-दो नही बल्कि 166 जानें गईं थीं। ऐसे अपराधी को तो तत्काल फांसी दे देनी चाहिए।
क्यों कर अपने देश में ऐसे अपराधियों के लिए कड़ा कानून नहीं बनाया जाता?
क्यों कर ऐेसे अपराधियों के साथ रहम के साथ पेश आते हैं?
क्यों नहीं ऐसे आतंकियों को सरे आम फांसी देने का कानून बनाया जाता?
आतंकियों के लिए संविधान में संशोधन करने में किस बात का डर है?

हमें लगता है कि अपने देश के संविधान की कमजोरी का फायदा उठाकर ही ऐसे अपराधी बच जाते हैं। जब अपने देश के प्रधानमंत्री के हत्यारों को यहां सजा मिलने में बरसों लग जाते हैं तो फिर आम जनों को मौत की नींद सुनाने वाले आतंकियों को सजा देने में देर हो रही है तो क्या बुरा हो रहा है। अगर कसाब जैसे अपराधी छूट भी जाए तो अपने संविधान निर्माताओं का क्या जाता है। हम तो बस पुराने संविधान का ही अनुशरण करना जानते हैं, कुछ नया करने की क्या जरूरत है। देश की जनता मरती है तो मरती रहे हमारी बला से। देश की जनता तो है ही मरने के लिए। इनके मरने से सत्ता में बैठे मंत्रियों की सेहत पर क्या फर्क पडऩे वाला है। किसी मंत्री का कोई रिश्तेदार थोड़े ही मरा है जो इनके पेट में दर्द होगा। आम आदमी की कीमत इनकी नजरों में वैसे भी कीड़ों-मकौड़ों से ज्यादा नहीं है।

Read more...

बुधवार, मई 12, 2010

1300 पोस्ट भी हो गई पूरी

हमारे ब्लाग राजतंत्र और खेलगढ़ को मिलाकर हमारी 1300 पोस्ट पूरी हो गई है। 1300 पोस्ट तक का सफर हमने एक साल और दो माह में  यानी करीब 14 माह में पूरा किया है।
हमने ब्लाग जगत में पिछले साल जब फरवरी से कदम रखा था तब हमें मालूम नहीं था कि हमें ब्लाग लेखन का ऐसा नशा लग जाएगा कि हम लिखते चले जाएंगे और ब्लाग बिरादरी हम पर प्यार बरसते जाएगी। लेकिन ऐसा हुआ है और आज हमने ब्लाग लेखन में 1300 पोस्ट का आंकड़ा भी पार कर लिया है। हमने खेलगढ़ में जहां अब तक आठ सौ का आंकड़ा पार करते हुए 845 पोस्ट लिखी है, वहीं राजतंत्र में हमने आज की पोस्ट को मिलाकर 461 पोस्ट लिखी है। एक बार हम फिर बता दें कि हमारे ब्लाग राजतंत्र को एक साल में सबसे ज्यादा लोकप्रियता मिली है। कल की तारीख में हमारा यह ब्लाग चिट्ठा जगत की सक्रियता सूची में 33वें स्थान पर था। हमारे इस ब्लाग को 37,000  पाठक मिले हैं। हमने ब्लाग जगत में दो ब्लागों के साथ इस साल से ब्लाग 4 वार्ता में चर्चा करने का काम भी ललित शर्मा के साथ प्रारंभ किया है। हमें इस बात की खुशी है कि हमारी चर्चा को भी ब्लाग बिरादरी ने पसंद किया है और हमें ब्लागरों का पूरा स्नेह और प्यार मिला है। उम्मीद करते हैं कि आगे भी हमें ऐसा ही प्यार मिलते रहेगा। इसी उम्मीद के साथ लेते हैं विदा कल तक के लिए। कल फिर एक नई पोस्ट के साथ आप सबके सामने होंगे।

Read more...

मंगलवार, मई 11, 2010

पदकों की नहीं राह-कुर्सी की चाह

छत्तीसगढ़ की मेजबानी में होने वाले ३७वें राष्ट्रीय खेलों में मेजबान  को ज्यादा से ज्यादा पदक कैसे मिले इसकी योजना किसी खेल संघ के पास नहीं हैं, लेकिन इन खेलों के लिए बनने वाले समिति में हर कोई कुर्सी पाने के जुगाड़ में है। कुर्सी को लेकर ही प्रदेश ओलंपिक संघ और खेल विभाग में ठन भी गई है। ओलंपिक संघ के साथ जहां एक तरफ भिलाई के खेल संघ खड़े हैं, तो वहीं रायपुर के खेल संघ कुर्सी के मोह के बिना ही राष्ट्रीय खेलों की तैयारी में अपना योगदान देने के लिए कमर कसे हुए हैं।
२०१३-१३ में होने वाले ३७वें राष्ट्रीय खेलों का जिम्मा छत्तीसगढ़ को मिला है। इन खेलों के आयोजन को ऐतिहासिक बनाने के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह के आव्हान के बाद खेल विभाग इस दिशा में अभी से तैयारी करने के लिए जुट गया है। खेल विभाग ने इसी तैयारी के तहत रविवार को प्रदेश के खेल संघों की बैठक खेलमंत्री लता उसेंडी की अध्यक्षता में बुलाई थी। इस बैठक में किसी भी खेल संघ के पदाधिकारी ने इस बात को लेकर बात नहीं की कि किस तरह से मेजबान को पदक तालिका में अहम स्थान मिल सकता है। बैठक में प्रदेश ओलंपिक संघ के सचिव बशीर अहमद खान को बस इस बात की चिंता रही कि उनके संघ को आयोजन समिति और सचिवालय में अहम स्थान मिल सके। इस बात को लेकर बैठक में विवाद की भी स्थिति बनी।
योजना बनाने दो माह पहले पत्र भेजा है
खेल संचालक जीपी सिंह को भी इस बात की नाराजगी है कि खेल संघों को दो माह पहले पत्र भेजे जाने के बाद अब तक किसी भी खेल संघ ने ऐसी कोई योजना पेश नहीं की है कि प्रदेश को किस तरह से राष्ट्रीय खेलों में ज्यादा पदक मिल सकते हैं। उन्होंने कहा कि हमारा विभाग हर तरह की मदद करने के लिए तैयार है, लेकिन कोई खेल संघ तो सामने आए और बताए कि उसके पास ऐसी योजना है और उनके पास इतने प्रतिभाशाली खिलाड़ी है और इनको ये सुविधाएं चाहिए।
हर खेल के लिए कोच बुलाने तैयार हैं
खेल संचालक का कहना है कि हमारा विभाग छत्तीसगढ़ को ज्यादा से ज्यादा पदक मिल सके इसके लिए हर तरह की सुविधाओं के साथ हर खेल के लिए बाहर से कोच बुलाने के लिए भी तैयार है। लेकिन कोई पहल तो हो। उनको इस बात का अफसोस है कि कोई खेल संघ बाहर से कोच बुलाने की बात तो नहीं करता है, बस प्रशिक्षण शिविर में खिलाडिय़ों को दिए जाने वाले भत्ते को बढ़ाने की बात करता है। खेल संचालक कहते हैं कि अगर जरूरत होगी तो भत्ता भी बढ़ाया जाएगा, लेकिन हमारी पहली प्राथमिकता पदकों के लिए योजना बनाना है। उन्होंने कहा कि हमारे पास  कोई भी खेल संघों खिलाडिय़ों की सूची लेकर आता है और यह बात तय हो जाती है कि इन खिलाडिय़ों में पदक दिलाने का दम है तो उनको देश की किसी भी अकादमी में प्रशिक्षण के लिए भेजने का जिम्मा खेल विभाग का है।
टीम का चयन अभी से करना जरूरी
वास्तव में खेल संघों में पदकों के लिए योजना बनाने का दम नहीं है, यह बात साबित हो गई है। अगर ऐसा नहीं होता तो कोई तो खेल संघ सामने आता। छत्तीसगढ़ की मेजबानी में होने वाले खेलों के लिए यह जरूरी है कि अभी से हर खेल के लिए कम से कम २० से ३० खिलाडिय़ों की संभावित टीम तैयार की जाए। इस टीम में सब जूनियर और जूनियर वर्ग के ऐसे प्रतिभाशाली खिलाडिय़ों को रखने की जरूरत है जिनकी उम्र १६ साल से ज्यादा न हो। यह बात तय है कि छत्तीसगढ़ में होने वाले राष्ट्रीय खेलों के आयोजन में चार से छह साल का समय लगेगा। ऐसे में अगर अभी से ज्यादा उम्र के खिलाडिय़ों को रख लिया जाएगा तो इनका प्रदर्शन इतना दमदार नहीं रह पाएगा। जिस तरह से विदेशों में ओलंपिक की तैयारी दीर्घकालीन योजना बनाकर की जाती है, उसी तर्ज पर राष्ट्रीय खेलों के लिए योजना बनाने से ही सफलता मिलेगी
खेल संघों में एका नही
राष्ट्रीय खेलों की आयोजन समिति में ओलंपिक संघ को प्रतिनिधित्व दिए जाने पर खेल संघों में ही एका नहीं है। यहां पर फिर से एक बात सामने आई कि भिलाई के खेल संघों और रायपुर के खेल संघों के पदाधिकारियों की सोच अलग-अलग है। एक तरफ जहां भिलाई के खेल संघ कुर्सी चाहते हैं, तो वहीं दूसरी तरफ रायपुर के खेल संघ बस काम चाहते हैं। रविवार की बैठक में एक बात यह भी सामने आई कि ओलंपिक संघ की अगुवाई में कई खेल संघों के अध्यक्ष और सचिव खेलगांव में अपने-अपने लिए बंगले चाहते हैं। अभी खेल गांव बसा नहीं है और उसे अभी से बांटने की तैयारी हो रही है।

Read more...

सोमवार, मई 10, 2010

पाबला जी का आया फोन-नहीं बदली है उनकी टोन

रविवार को छुट्टी के दिन सुबह को करीब 10.30 बजे बीएस पाबला जी का फोन आया। उधर से जानी-पहचानी टोन में आवाज आई।
राजकुमार जी क्या हाल है?
हमने कहा ठीक है पाबला जी।
उन्होंने अपनी मधुर टोन में कहा- कोई नाराजगी है क्या?
हमने कही नहीं तो।
उन्होंने हंसते हुए कहा कि जब से नई गाड़ी (बाइक) ली है, तब से नजर आना तो दूर बात भी नहीं हो रही है।
हमने कहा कि काम की व्यस्तता ज्यादा है।
उन्होंने कहा- तब तो ठीक है।
हमने पूछा कि कैसे याद किया?
उन्होंने बताया कि आज रविवार है तो हम भिलाई-दुर्ग के ब्लागर शाम को महफिल सजा रहे हैं सोचा आपको याद कर लिया जाए, क्योंकि आप तो पलक झपकते ही भिलाई पहुंच जाते हैं।
हमने कहा बात तो ठीक है, पर हम अभी मित्रों से साथ काम से बाहर जा रहे हैं, इस बार को आना संभव नहीं होगा। अगली बार जरूर महफिल में शरीक होंगे।
पाबला जी ने कहा ठीक है।
इसमें कोई दो मत नहीं है कि काफी समय से हम लोगों की महफिल जम नहीं पा रही है। अब इसके पीछे जहां छत्तीसगढ़ में पड़ रही ताबड़तोड़़ गर्मी भी एक कारण है, तो वहीं एक कारण यह भी है कि हम लोगों में से किसी को समय मिलता है तो किसी को नहीं। ऐसे में महफिल का फोरम पूरा नहीं हो रहा है। जैसे ही महफिल का फोरम पूरा होगा सज जाएगी यारों की महिफल।
कोशिश करते हैं कि जल्द से जल्द किसी रविवार को सभी यार खाली रहे और सज जाए एक महफिल और गुजरे शाम सुहानी फिर लिखें सब मिलकर महफिल की कहानी।

Read more...

रविवार, मई 09, 2010

मां के अंतिम दर्शन ही नहीं कर पाया..

मां तुने दिया हमको जन्म
तेरा हम पर अहसान है
तेरे ही करम से
दुनिया में हमारा नाम है
ओ मेरी प्यारी मां
तुझे सत्-सत् प्रणाम है


वह 7 फरवरी 2003 का दिन था जब हम जगदलपुर में राष्ट्रीय महिला खेलों की रिपोर्टिंग करने गए थे। सुबह-सुबह हमारे समाचार पत्र दैनिक देशबन्धु (उस समय हम वहीं काम करते थे, आज हम दैनिक हरिभूमि में हैं) से जुड़े जगदलपुर के ब्यूरो चीफ पवन दुबे ने होटल में आकर हमें खबर दी कि हमारी माता जी की तबीयत और ज्यादा खराब हो गई है। उनका इतना कहना ही काफी था, हम अपना रोना रोक नहीं पाए क्योंकि हमें समझ आ गया था कि हमारी माताजी की तबीयत ज्यादा खराब नहीं हुई है, बल्कि उनका स्वर्गवास हो गया क्योंकि हम जब घर से निकले थे तो माता जी की तबीयत वैसे भी ज्यादा खराब थी और हम जानते थे, कि वह ज्यादा दिनों की मेहमान नहीं हैं। हमें न जाने क्यों खटक भी रहा था कि हम बाहर जाएंगे और हमारी मां हमारा साथ छोड़ देंगी। हमें उनके जाने से ज्यादा इस बात का अफसोस है कि हम उनके अंतिम दर्शन ही नहीं कर पाए।

हमें जगदलपुर में सुबह को जैसे ही करीब छह बजे खबर मिली हम वहां से आंधे घंटे में निकल पड़े। हम वहां अपनी बाइक से गए थे। हमारे पास उस समय मोबाइल जैसी सुविधा नहीं थी। हम जगलपुर का 330 किलो मीटर का सफर तय करके पहले रायपुर फिर वहां से 85 किलो मीटर का सफर तय करके भाटापारा पहुंचना था। हमने अनुमान लगाकर रास्ते से अपने घर भाटापारा फोन करके बता दिया था कि हम किसी भी कीमत पर दोपहर को तीन बजे तक पहुंच जाएंगे। हमने उस दिन पहली बार बाइक को 100 की रफ्तार में चलाया था। उस दिन शायद हमारी मां के निधन पर आसमान भी रो पड़ा था। एक तरफ हल्की बारिश हो रही थी तो दूसरी तरफ हमारी आंखों के आंसू भी रूकने का नाम नहीं ले रहे थे। इसी हालत में हम बाइक चलाते हुए बिना रूके करीब 12.30 बजे रायपुर पहुंचे और यहां घर आने के बाद यहां से भाटापारा के लिए निकल पड़े। हम अपने वादे के मुताबिक भाटापारा तीन बजे से पहले ही पहुंच गए। हमने रायपुर आकर घर में सूचना भी दे दी थी कि हम रायपुर पहुंच गए हैं अब भाटापारा पहुंचने में महज दो घंटे का ही समय लगना है।
लेकिन वाह री किस्मत। हम वहां समय पर पहुंचे लेकिन इसके बाद भी हमारी मां का अंतिम संस्कार किया जा चुका था। हमें बहुत गुस्सा आया। हमने अपने परिवार में सभी से इस बात को लेकिन खूब झगड़ा किया कि हमारा इंतजार क्यों नहीं किया गया। सभी ने कहा कि मौसम खराब होने के कारण ऐसा किया गया। इसी के साथ भाईयों ने इस बात का तर्क दिया कि समाज वालों को 11 बजे ही बुला लिया गया था। हमने कहा कि अगर समाज वाले नहीं रहते तो भी हम चार भाई हैं हमें लोग ही काफी थे, क्या समाज वाले मुझे अब अपनी मां के अंतिम दर्शन करवा सकते हैं। हमें समाज के ऐसे ठेकेदारों पर भी गुस्सा आया जो एक बेटे की भावनाओं को समझे बिना ऐसा कृत्य कर बैठे। वैसे इसके पहले हमने अपना सारा गुस्सा अपनी पत्नी पर उतारा था कि उन्होंने क्यों ले जाने दिया हमारी मां को, जबकि उनकी कोई गलती नहीं थी। उन्होंने भी बहुत कोशिश की थी कि हमारे आने का इंतजार किया जाए, लेकिन इंतजार नहीं किया गया।
हमें आज भी इस बात का अफसोस है कि हम अपनी मां के अंतिम दर्शन नहीं कर पाए। इस बात का हमें ताउम्र अफसोस रहेगा कि क्यों कर हम अपनी बीमार मां को छोड़कर रिपोर्टिंग करने चले गए थे। बहरहाल कहते हैं कि न जिसकी किस्मत में जो लिखा रहता है, वही होता है, सो हमारे साथ भी ऐसा हुआ। शायद हमारी ही किस्मत खराब थी जो हम अपनी मां के अंतिम दर्शन नहीं कर पाए, इसके लिए अब चाहे जो भी दोषी रहा हो, लेकिन सबसे बड़ा दोष तो हमारी किस्मत का था। हो सकता है कि हमने ही कभी अपनी मां का दिल दुखाया हो जिसकी हमें ऐसा सजा मिली। भगवान कभी किसी दुश्मन को भी ऐसी सजा मत दे इस बात की दुआ हम आज मदर्स डे पर करते हैं। इसी के साथ हम अपने सभी मित्रों को यह सलाह देते हैं कि दुनिया में कभी भी किसी भी कीमत पर कम से कम अपनी मां का दिल का दुखाने का काम न करें, ऐसा करने वालों के साथ कुछ भी हो सकता है। इस दुनिया में कहते हैं कि मां से बढ़कर कोई नहीं होती है, मां के दम पर ही तो हम इस दुनिया में आते हैं।

Read more...

शनिवार, मई 08, 2010

रोज 59 महिलाओं से दुष्कर्म और 111 से होती है छेड़छाड़

कहने को आज अपने देश में महिलाओं को बराबरी का दर्जा दे दिया गया है लेकिन लगता नहीं है कि ऐसा हो पाया है। महिलाओं के साथ लगातार होने वाली घटनाएं यह बताती हैं कि महिलाएं आज भी अत्याचार की आग में जल रही हैं। एक जानकारी के मुताबिक अपने देश में हर रोज जहां 59 महिलाओं के साथ बलात्कार होते हैं, वहीं 63 का अपहरण होता है और 111 छेड़छाड़ की शिकार होती हैं। आज आधुनिक बन चुके भारतीय समाज में हर घंटे एक युवती की देहज के कारण हत्या होती है। पिछले छह सालों में महिलाओं के साथ होने वाली घटनाओं में लगातार इजाफा हुआ है। जो आंकड़े सामने आए हैं वो वास्तव में चिंतनीय है। न जाने अपना समाज आज कहां जा रहा है। क्या कभी वास्तव में अपने समाज में नारी को सही दर्जा मिल पाएगा और उनका भी सम्मान पुरुषों के बराबर होगा।
अचानक एक खबर पर नजरें पड़ीं तो हमारा दिमाग भी घुम गया कि अपने देश में यह क्या हो रहा है। इन आंकड़ों पर नजरें पडऩे से पहले हम तो यही समझते थे कि अपने देश में आज नारी पहले से ज्यादा सम्मानीय और सुरक्षित हैं। लेकिन लगता है कि हम भ्रम में जी रहे थे। संभवत: और लोग भी ऐसे होंगे जिनको यह भ्रम होगा कि आज नारी का सम्मान समाज में पहले से ज्यादा हो रहा है। इसमें कोई दो मत नहीं है कि नारी अपने को समाज में साबित करने के लिए लगातार संघर्ष कर रही है और इसमें सफल भी हो रही है, लेकिन भारत के पुरुष प्रधान समाज में लगता है कि पुरुषों की मानसिकता नारी को आगे लाने की नहीं है। तभी तो आज अपने देश में हर रोज जहां 59 महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाएं हो रही हैं, वहीं 63 युवतियों का अपहरण हो रहा है। इसी के साथ कम से कम 111 किशोरियां, युवतियां और महिलाएं छेड़छाड़ की शिकार हो रही हैं।
आज लगता है कि अपना देश बहुत आधुनिक हो गया है। इसमें कोई दो मत नहीं है कि हमारे देश का समाज खुलेपन में तो आधुनिक हो गया है लेकिन लालच के मामले में आज भी सभी इसमें जकड़े हुए हैं। ऐसा इसलिए कहना पड़ रहा है कि आज भी दहेज जैसी प्रथा से हमारे समाज का मोह भंग नहीं हुआ है। आज अपने देश में हर घंटे औसतन एक युवती को दहेज के कारण अपनी जान गंवानी पड़ती है।
महिलाओं के साथ होने वाले अपराध की बात करें तो अपराध का आंकड़ा 2004 के बाद लगातार बढ़ते गया है। इस साल महिलाओं के साथ होने वाले अपराध की संख्या 154333 थी। अगले साल यानी 2005 में यह संख्या 155553 हो गई। 2006 में यह आंकड़ा 16 लाख के पार हो गया और 164765 तक पहुंच गया। 2007 में यह आंकड़ा 18 लाख के पार हो गया और 185312 हो गया। 2008 में आंकड़ों के सारे रिकॉर्ड पार हो गए। इस साल 195856 मामले दर्ज किए गए। इसके बाद के आंकड़ों की जानकारी तो नहीं मिल पाई है, लेकिन इतना तय है कि 2009 में ये आंकड़े 20 लाख को पार गए होंगे।
सोचने वाली बात है कि अगर हर साल 20 लाख महिलाओं के साथ अन्याय और अत्याचार हो रहा है तो हम कैसे कह सकते हैं कि हमने नारी को बराबरी का दर्जा दे दिया है। भले संसद में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण दे दिया गया है, लेकिन इससे क्या महिलाओं के साथ  होने वाले अपराधों पर अंकुश लग सकता है। जब तक महिलाओं के साथ होने वाले अपराध में इजाफा होते रहेगा हम कैसे कह सकते हैं कि हमने महिलाओं को बराबरी का दर्जा दे दिया है। संसद में बैठे नेता और मंत्रियों को इस बात की चिंता पहले करनी चाहिए कि महिलाओं के साथ होने वाले अपराधों पर कैसे अंकुश लगाया जाए।

Read more...

शुक्रवार, मई 07, 2010

जय बजरंग बली...

हनुमान जी...यानी बजरंग बली... यानी की संकट मोचक की ये तस्वीरें हमने बस्तर से लौटते समय कांकेर और धमतरी के बीच पड़े एक गांव के तालाब किनारे खींचीं थीं। हनुमान जी की इतना विशाल मूर्ति देखने के बाद हम अपने आप को रोक नहीं सके और कार रोककर फोटो खींच लीं।

Read more...

गुरुवार, मई 06, 2010

कुर्सी का मोह भारी पड़ेगा

प्रदेश के खेल संघों के अध्यक्ष और सचिव ने अगर अपनी कुर्सी का मोह नहीं छोड़ा तो यह बात तय है कि केन्द्र सरकार का नया कानून यहां लागू होते ही उनको इस मोह का भारी खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। खेल विभाग ऐसे संघों की नियमानुसार मान्यता समाप्त कर देगा और इसी के साथ उनको मिलने वाला अनुदान बंद हो जाएगा। भले केन्द्र के नए कानून का राष्ट्रीय स्तर के खेल संघ विरोध कर रहे हैं, पर केन्द्र सरकार के कदम को कई खेल संघों के पदाधिकारियों के साथ खेल विभाग के अधिकारी भी सही कदम मानते हैं। केन्द्र के नियम को राज्य में लागू करने के लिए प्रदेश सरकार को पत्र भी लिखा जा चुका है।
प्रदेश के खेल संघों के पदाधिकारियों में इस समय केन्द्र सरकार के नए नियम के कारण दहशत का माहौल है। यह दशहत इसलिए है कि प्रदेश के खेल विभाग ने भी इस नियम को राज्य में लागू करने का मन बना लिया है। वैसे तो यह नियम वैसे भी राज्य में लागू माना जाना चाहिए क्योंकि जानकारों का ऐसा कहना है कि राष्ट्रीय स्तर के खेल संघों को मान्यता देने के जो मापदंड हैं वही राज्य के खेल संघों पर लागू होते हैं। लेकिन खेल संचालक जीपी सिंह किसी भी तरह का कोई संशय रखना नहीं चाहते हैं ऐसे में उन्होंने प्रदेश सरकार के पास नए कानून को लागू करने के लिए पत्र भेज दिया है।
इसमें कोई दो मत नहीं है कि राज्य में केन्द्र सरकार का नया कानून लागू हो जाएगा। इस कानून के बारे में खेल संघों द्वारा यह गलतफहमी फैलाने का प्रयास किया जा रहा है कि यह ओलंपिक चार्टर का उल्लंघन है। इस बारे में खेल विभाग के एक जानकार आला अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि एक तो यह किसी भी तरह से अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक संघ के चार्टर का उल्लंघन नहीं है। दूसरी सबसे बड़ी बात यह है कि सरकार किसी भी खेल संघ को इसके लिए बाध्य नहीं कर रही है कि वे अपने संघ में अध्यक्ष को १२ साल और सचिव को ८ साल से ज्यादा समय के लिए न रखे। उन्होंने कहा कि सरकार ने यह नियम बनाया है तो इस नियम को मानने वाले खेल संघों को ही सरकार से मान्यता मिलेगी। जो खेल संघ इस नियम का पालन नहीं करेंगे उनको मान्यता नहीं दी जाएगी। अगर संघ की मान्यता नहीं होगी तो उनको किसी भी तरह की सरकारी मदद नहीं मिलेगी और उनका अनुदान बंद कर दिया जाएगा। इस अधिकारी का कहना है कि हमारे राज्य के मान्यता नियमों में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि सरकार द्वारा तय किए गए नियमों को खेल संघों का मानना होगा जो खेल संघ ऐेसा नहीं करेंगे उनको मान्यता नहीं मिल पाएगी। उन्होंने बताया कि किसी भी खेल संघ को मान्यता देने से पहले आवेदन में इस को लिखित में लिया जाता है कि वे खेल विभाग के नियम और शर्तों को मानेंगे।
लाखों का खर्च कैसे करेंगे
अगर खेल विभाग ऐसे संघों की मान्यता समाप्त कर देता है जिनके अध्यक्ष और सचिव कुर्सी छोडऩे के लिए तैयार नहीं होते हैं तो ऐसे खेल संघों का खर्च कैसे चलेगा। एक अनुमान के मुताबिक राज्य का हर मान्यता प्राप्त खेल संघ खेल विभाग से साल भर में तीन से पांच लाख का अनुदान लेते हैं। कुछ खेल संघों को उद्योगों ने भी गोद ले रखा है।
खेल संघ भी पब्लिक अथार्टी
प्रदेश में तो वैसे भी खेल संघों को पब्लिक अथार्टी के दायरे में लाया जा चुका है। प्रदेश के सभी खेल संघों को खेल विभाग ने सूचना के अधिकार के तहत सूचना अधिकारी रखने के लिए कई बार पत्र लिखे हैं। ओलंपिक संघ को भी एक बार फिर से खेल विभाग पत्र लिख रहा है। केन्द्र सरकार ने भी अब राष्ट्रीय खेल संघों को पब्लिक अथार्टी के दायरे में लाने का काम किया है और इसकी सूचना जारी कर दी है।

Read more...

बुधवार, मई 05, 2010

ये है कूबेरपति बनने का फार्मूला

आम जनता को खाकपति बनाकर कूबेरपति बनने का फार्मूला कई लोग टीवी चैनल और मोबाइल के जरिए अपना रहे हैं। ये लोग आस्था के नाम पर लोगों को प्रभावित कर तरह-तरह के ख्याब दिखाकर लूटने का काम कर रहे हैं और अपने देश के पढ़े-लिखे गंवार लोग आसानी से इनके झांसे में आ रहे हैं। हमारे मोबाइल पर जहां एक मैसेज यह आया कि आप एकमूखी रूद्राक्ष महज 15 सौ रुपए में खरीद सकते हैं, वहीं हमने इंटरटेन टीवी चैनल पर कल ही कूबेर कुंजी का एक विज्ञापन देखा जिसमें लोगों को बेवकूफ बनाकर ये कुंजी बेचने का पूरा सामान किया गया था।
कल दोपहर को हम खाना खाने के लिए घर गए तो इंटरटेन टीवी चैनल पर एक विज्ञापन चल रहा था। इस विज्ञापन में एक सरदार जी बता रहे थे कि कैसे उनको कूबेर कुंजी धारण करने के बाद फायदा हुआ और वे आज अपना पांचवां ट्रक खरीदने जा रहे हैं। इसी तरह से और कई लोगों को दिखाया गया कि कैसे वे कूबेर कुंजी धारण करने के बाद सफल हुए हैं और उन पर कूबेर महाराज प्रसन्न हो गए हैं। इस कूबेर कुंजी को धारण करने की सलाह टीवी पर आए हर आदमी ने दी। इनकी सलाह पर अमल करने वाले न जाने अपने देश में कितने होंगे। लेकिन यह सोचने वाली बात है कि क्या किसी भी तरह की कोई कुंजी धारण करने से ही आदमी कूबेरपति या लखपति बन सकता है। हम तो इतना जानते हैं कि ऐसी कुंजी धारण करने वाले लखपति बने या न बने लेकिन यह तय है कि इस कुंजी को बेचने वाले जरूर अब तक लखपति नहीं बल्कि कुबेरपति बन चुके हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो टीवी पर इतने लंबे समय तक विज्ञापन दिखाने का खर्च भला वो लोग कैसे उठाते। कुंजी बेचने वाले इसकी कीमत 3850 रुपए बताते हैं। अब यह बात भी तय है कि इतनी कीमत वाली कुंजी कोई आम आदमी तो खरीद नहीं सकता है। इसको खरीदने वाले वैसे भी पैसे वाले होंगे। यहां एक बात यह भी है कि वैसे भी पैसे की भूख उनको ही ज्यादा रहती है जिनके पास पैसा ज्यादा रहता है। ऐसे लोगों के लिए महज 3850 रुपए खर्च करना कोई बड़ी बात नहीं है और यह बात संभवत: ऐसी कुंजी बनाने वाले भी जानते हैं तभी तो वे लगातार ऐसे लोगों को बेवकूफ बनाने का काम कर रहे हैं। इस कुंजी को बेचने के लिए ऐसे लोग आस्था का भी सहारा रे रहे हैं और लोगों को बेवकूफ बनाने के लिए कहते हैं कि शास्त्रों में भी लिखा है कि कूबेर को ही शिव से ऐसी चाबी दी थी। यानी की कूबेर बनने के लिए कूबेर की कुंजी की एक मात्र रास्ता है। अपने देश में एक बात तो तय है कि यहां पर आपको किसी को लुटना है तो धर्म और आस्था से ज्यादा आसान रास्ता और कोई नहीं हो सकता है।
एक तरफ जहां हमने कल टीवी पर कूबेर कुंजी का विज्ञापन देखा, वहीं हमारे मोबाइल पर एक एसएमएस आया कि एक मूखी रूद्राक्ष महज 15 सौ रुपए में खरीदे। इसके फायदे भी गिनाए गए। अब यह बात अलग है कि हम ऐसे किसी एसएमएस और विज्ञापन के पीछे नहीं भीगते हैं, लेकिन बहुत से लोग हैं जो ऐसे विज्ञापन और एसएमएस के पीछे भागते हैं और ठगी का शिकार हो जाते हैं। 

Read more...

मंगलवार, मई 04, 2010

अब छिनेंगी कुर्सियां

छत्तीसगढ़ के राज्य खेल संघों में बैठे मठाधीशों पर भी अब पद छोडऩे की गाज गिरने वाली है। प्रदेश के ३३ मान्यता प्राप्त खेल संघों में से आधे से ज्यादा पर अध्यक्ष और सचिव बरसों से काबिज हैं। अब इनको अपने पद छोडऩे ही पड़ेंगे। केन्द्र सरकार द्वारा लागू किए गए कानून को यहां पर लागू किया जाएगा। वैसे तो मान्यता नियमों पर नजरें डालने से यह कानून स्वत: ही यहां लागू हो जाता है, पर इसके बाद भी खेल संचालक  ने प्रदेश सरकार को इस कानून को लागू करने के लिए सरकार को पत्र लिखने की बात कही है।
देश के राष्ट्रीय खेल संघों पर कई दशकों से काबिज मठाधीशों को हटाने के लिए केन्द्र सरकार के खेल मंत्री एमएस गिल की पहल पर १९७५ के कानून में संशोधन किया गया है। अब नए कानून के मुताबिक राष्ट्रीय खेल संघों के अध्यक्ष १२ साल और सचिव ८ साल से ज्यादा समय तक पदों पर नहीं रह सकते हैं। इस नए कानून के कारण जहां कई राष्ट्रीय खेल संघों के ऐसे पदाधिकारी प्रभावित होंगे जो बरसों से कुर्सी से चिपके हुए हैं, वहीं अब इस नए कानून के कारण छत्तीसगढ़ के खेल संघों के पदाधिकारियों पर भी गाज गिरनी तय है। छत्तीसगढ़ बनने के बाद से ही यहां पर राज्य खेल संघ बनाने की बाढ़ सी आ गई थी। छत्तीसगढ़ बनते ही जिन लोगों ने राष्ट्रीय खेल संघों के मठाधीशों से सेटिंग करके संघ ले लिए हैं, वे आज तक इन संघों के अध्यक्ष और सचिव के पदों पर काबिज हैं। छत्तीसगढ़ में ओलंपिक संघ की लड़ाई लंबे समय तक चली। अध्यक्ष के पद को लेकर प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री अजीत प्रमोद कुमार जोगी ने क्या नहीं किया। उन्होंने अध्यक्ष का पद पाने के लिए लाखों रुपए पानी की तरह बहाए। छत्तीसगढ़ के १० साल के सफर में ओलंपिक संघ के अध्यक्ष तो बदलते रहे हैं, पर सचिव के पद पर प्रारंभ से ही भिलाई के बशीर अहमद खान चिपके हुए हैं। वे इस पद को किसी भी कीमत पर छोडऩा नहीं चाहते हैं। प्रदेश ओलंपिक संघ के साथ बशीर अहमद खान हैंडबॉल संघ में भी प्रारंभ से ही सचिव बने हुए हैं। इस खेल के भी अध्यक्ष बदलते रहे हैं, पर सचिव को कभी बदला नहीं गया।
ये हैं बरसों से काबिज
ऐसे खेल संघ जिनके अध्यक्ष तो बदले गए, पर सचिव वहीं हैं उनमें पहले नंबर पर प्रदेश ओलंपिक संघ के साथ हैंडबॉल संघ है, जिसके सचिव बशीर अहमद खान हैं। इनके अलावा कबड्डी संघ के सचिव पद पर प्रारंभ से लेकर अब तक रामबिसाल साहू काबिज हैं। इसी तरह से जूडो संघ के सचिव अरूण द्विवेदी, पावरलिफ्टिंग संघ के सचिव कृष्णा साहू, बेसबॉल संघ की सचिव मिताली घोष, खो-खो संघ के सचिव एस. रामू, सायकल पोलो संघ के विनायक राव चन्नावार और हॉकी संघ की नीता डुमरे शामिल हैं। इन खेल संघों के साथ कई खेल संघ ऐसे हैं जिनके अध्यक्ष और सचिव छत्तीसगढ़ बनने के बाद से ही पदों पर काबिज हैं। ऐसे संघों में बास्केटबॉल संघ (अध्यक्ष राजीव जैन, सचिव राजेश पटेल), वालीबॉल संघ (अध्यक्ष गजराज पगारिया, सचिव मो. अकरम खान, कैरम संघ (अध्यक्ष संदीप वर्मा, सचिव विजय कुमार), ताइक्वांडो संघ (अध्यक्ष आरएस आम्रवंशी, सचिव रामपूरी गोस्वामी), बैडमिंटन संघ (अध्यक्ष गुरप्रीत सिंह भाटिया, सचिव दीपक पटेल), वेटलिफ्टिंग संघ (अध्यक्ष बीवी भदारैया, सचिव एसएल जंघेल), मुक्केबाजी संघ (अध्यक्ष राजेन्द्र प्रसाद), थ्रो बाल संघ (अध्यक्ष अशोक जैन , सचिव रमन कुमार साहनी), म्यूथाई संघ (अध्यक्ष विजय अग्रवाल, सचिव अनीस मेमन), शरीर सौष्ठव (अध्यक्ष पुरुषोत्तम अजमानी, सचिव संजय शर्मा),  तीरंदाजी (अध्यक्ष रमेश बैस, सचिव कैलाश मुरारका, लॉन टेनिस संघ(अध्यक्ष गुरुचरण सिंह होरा, सचिव लारेंस सेंटियागो), नेटबॉल संघ (अध्यक्ष विधान मिश्रा सचिव संजय शर्मा) शामिल हैं।
सरकार को प्रस्ताव भेजेंगे
केन्द्र सरकार के नए कानून के बारे में हालांकि खेल संचालक जीपी सिंह ने कहा कि वे आज ही केन्द्र सरकार के खेल मंत्रालय की वेबसाइड से संशोधित नियमों की कापी निकालकर प्रदेश सरकार को नया कानून राज्य में भी लागू करने का प्रस्ताव बनाकर भेज रहे हैं। इधर एक खेल अधिकारी ने बताया कि अगर राज्य के मान्यता नियमों को देखा जाए तो केन्द्र सरकार का नियम राज्य में स्वत: ही लागू हो जाता है। उन्होंने बताया कि प्रदेश के खेल संघों को जिन नियमों के तहत मान्यता दी जाती है, उन मान्यता नियमों में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि राष्ट्रीय स्तर के खेल संघों के लिए जो नियम भारतीय खेल मंत्रालय द्वारा तय किए गए हैं, वे ही नियम राज्य खेल संघों पर भी लागू होंगे। ऐसे में किसी भी तरह के प्रस्ताव के बिना ही ऐसे खेल संघों के पदाधिकारियों को हटाया जा सकता है जो बरसों से संघों पर काबिज हैं।
मैं पद छोडऩे तैयार हूं: अकरम
प्रदेश वालीबॉल संघ के सचिव के पद पर बरसों से काबिज मो. अकमर खान कहते हैं कि वे तो तत्काल पद छोडऩे के लिए तैयार हैं। उन्होंने कहा कि केन्द्र सरकार का नया कानून स्वागत योग्य है। इस कानून से हर खेल संघों में नए चेहरों को मौका मिलेगा। इसी के साथ जब नए लोग आएंगे तो उनकी नई सोच का जहां लाभ मिलेगा, वहीं उनको मालूम होगा कि पद पर बैठना आसान तो होता है पर संघ को चलना कितना मुश्किल होता है। उन्होंने कहा कि वे सचिव के पद पर इतने सालों से इसलिए काबिज हैं क्योंकि इस पद को लेने कोई तैयार नहीं है। उन्होंने कहा कि केन्द्र के नियम को राज्य में भी तत्काल लागू करना चाहिए।
विरोध करेंगे: बशीर
प्रदेश ओलंपिक संघ के साथ हैंडबॉल संघ पर छत्तीसगढ़ बनने के बाद से ही काबिज बशीर अहमद खान का कहना है कि अगर प्रदेश में केन्द्र सरकार का नियम लागू किया जाता है तो हम लोग इसका विरोध करेंगे। उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय स्तर पर इसका जहां विरोध हो रहा है, वहीं इस मामले को सुप्रीम कोर्ट में ले जाने की तैयारी है। सुप्रीम कोर्ट ेफैसले के बाद ही कुछ होगा। केन्द्र सरकार के कानून बनाने से कुछ होने वाला नहीं है।

Read more...

सोमवार, मई 03, 2010

एक रहस्यमय कुआं



आज सुबह को अपने ही अखबार हरिभूमि की एक खबर पर नजरें पड़ीं कि कोरबा जिले के एक गांव में एक रहस्यमय कुआं है। अब कुआं किस तरह से रहस्यमय है यह जानने के लिए इस खबर पर या फिर नीचे दिए जा रहे लिंक पर क्लीक करें।

Read more...

रविवार, मई 02, 2010

नक्सलगढ़ की 46 किलो मीटर की रोमांचक यात्रा

बस्तर प्रवास की एक रोमांचक यात्रा की बात बताए बिना हमारी बस्तर यात्रा का अंत कैसे हो सकता है। हमने बारसूर से चित्रकूट तक घने जंगल और नक्सलगढ़ के रूप में जाने जाने वाले रास्ते की रोमांचक यात्रा की। इस यात्रा में हमें 46 किलो मीटर के दरमयान पहली बार बीच रास्ते में एक मंदिर में कुछ इंसानों के दर्शन हुए और इसके बाद दूसरी बार चित्रकूट के पास कुछ इंसान दिखे।
हम लोग जिस दिन बस्तर गए उसके एक दिन पहले ही दंतेवाड़ा में देश की सबसे बड़ी नक्सली वारदात हुई थी जिसमें 76 जवान शहीद हुए थे। ऐसे समय में हमारा बस्तर जाना हमारे परिजनों के साथ मित्रों को रास नहीं आया था। लेकिन हम भी धुन के पक्के हैं। बस्तर यात्रा का कार्यक्रम हमारा पुराना था और हम किसी भी कीमत पर नक्सली घटना के कारण अपनी यात्रा को रद्द करना नहीं चाहते थे। जब हम वहां पर सात अप्रैल को पहुंचे तो दूसरे दिन दंतेवाड़ा जाने के बाद हम बारसूर गए तो मालूम हुआ कि वहां से चित्रकूट के लिए जो रास्ता जाता है, वह 46 किलो मीटर का है। ऐसे में हमने जब उस रास्ते से जाने का फैसला किया तो हमें बारसूर में एक पत्रकार मित्र मिले उन्होंने हमें मना किया कि हम उस रास्ते से न जाए तो अच्छा है। कारण पूछने पर उन्होंने बताया कि यह रास्ता नक्सलगढ़ कहलाता है। यानी इस रास्ते पर नक्सली लेंड माइंस लगा देते हैं। यह वही रास्ता है जिस रास्ते पर तब नक्सलियों ने पिछले साल वारदात की थी जब राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल आई थीं। पत्रकार मित्र की बात सुनने के बाद हमारी मंडली सोच में पड़ गई थी कि आखिर क्या किया जाए। हमने कहा कि यार कहां मौत-वौत से डरते हो, अगर हम लोगों की किस्मत में मौत लिखी होगी तो हम किसी भी रास्ते से जाएंगे तो आएगी, उसे कौन टाल सकता है। ऐसा मौका बार-बार नहीं मिलता है, चलते हैं ऐसा रोमांचक सफर और कब नसीब होगा। अंत में सबको हमारी बात माननी पड़ी और हम लोग उस रास्ते पर चल पड़े। पूरे रास्ते घने जंगल और कई किलो मीटर तक कच्चे रास्ते का सफर तय करके जब हम लोग रास्ते के मध्य में पहुंचे तो वहां हमें एक मंंदिर मिला। उस मंदिर के पुजारी का जिक्र हम पहले ही कर चुके हैं कि वे हम लोगों को वहां देखकर कितने खुश हुए।
वहां से निकलने के बाद हम लोग जब चित्रकूट पहुंचने वाले थे तो हमें कुछ लोग रास्ते में जाते दिखे। इसके पहले और कोई बंदा रास्ते में नजर नहीं आया था। पूरे रास्ते घने जंगल को देखकर हम तो बहुत रोमांचित थे और गीत-संगीत का आनंद लेते हुए कार चला रहे थे। इस रोमांचक यात्रा का जब चित्रकूट पहुंच कर अंत हुआ तो सभी ने राहत की सांस ली कि यार चलो कोई घटना नहीं हुई। हमें यह सफर ताउम्र याद रहेगा। वैसे भी एक बात कही जाती है कि जो डर गया समझो मर गया। हम तो एक बात को हमेशा मान कर चलते हैं कि जिस इंसान की मौत जहां लिखी है, वहीं होगी, उसे कोई नहीं टाल सकता है, फिर डर किस बात है। 

Read more...

शनिवार, मई 01, 2010

बाइक का बेचना किसी को पसंद नहीं आया

हमने अपनी 12 साल पुरानी बाइक तीन दिन पहले बेच दी। इस बाइक से हमको ही नहीं हमारे पूरे परिवार को बहुत लगावा था। लेकिन काफी पुरानी होने के कारण कुछ-कुछ परेशानियां लगातार आ रही थीं। ऐसे में काफी समय से सोच रहे थे कि इसको बेचकर नई बाइक ली जाए।पर न जाने क्यों इसको बेचने का मन ही नहीं होता था।  लेकिन अंतत: हमने उस बाइक को बेच दी दिया। पर पुरानी बाइक का बेचने किसी को पसंद नहीं आया।
वास्तव में कहते हैं कि घर की बेजान चीजों से भी इंसान को इतना लगाव हो जाता है कि उसका जाना खल ही जाता है। यही हमारे साथ भी हुआ। अचानक तीन दिन पहले हमारी बाइक बनाने वाला मिस्त्री आया और उसने कहा कि भईया आपकी बाइक हमारे एक मित्र को चाहिए। हम उस बाइक को बेचने के पक्ष में नहीं थे, पर उस मिस्त्री ने ही हमारी बाइक को प्रारंभ से ठीक करने का काम किया था। उस मिस्त्री ने काफी मिन्नतें कीं कि भईया यही समझे कि बाइक आपके छोटे भाई के घर जा रही है। अंत में हमने वह बाइक उसे बेच दी। हमारे बाइक बेचने से सबसे ज्यादा दुखी हमारी बिटिया स्वप्निल राज ग्वालानी हुईं। उनको इस बाइक से कुछ ज्यादा ही लगाव था। और होता भी कैसे न। हमने उनको कई बार बताया था कि बेटा जितनी आपकी उम्र है उतनी ही इस बाइक की भी। हमने यह बाइक स्वप्निल के 12 फरवरी 1998 को पैदा होने के बाद 17 जून 1998 को खरीदी थी।
बहरहाल हमारे बाइक बेचने से हमारी पत्नी श्रीमती अनिता ग्वालानी को भी दुख हुआ। जब हम दूसरे दिन नई बाइक लेकर आए और हमारी श्रीमती जी दोपहर को बाहर गईं तो उन्होंने वापस आकर कहा कि बाहर भले नई बाइक खड़ी है लेकिन उसको देखकर वह अपनापन नहीं लग रहा है जैसा पुरानी बाइक को देखकर लगता था। यह बात तो सच है कि हमारे पूरे परिवार को उस पुरानी बाइक से बहुत लगाव था, लेकिन इस दुनिया में जब एक न एक दिन इंसान को जाना पड़ता है तो फिर तो वह बाइक थी। वैसे हम एक बात बता दें कि हमारी उस बाइक ने हमारा बहुत साथ दिया था, हमने उसमें लंबा-लंबा सफर तय किया, पर कभी उस बाइक ने हमें धोखा नहीं दिया था। हम कई बार रात को उस बाइक से अकेले 200 किलो मीटर से भी ज्यादा सा सफर तय करके आए, पर मजाल है कि हमें धोखा मिला हो। आशा है कि हमारी नई बाइक भी हमारा साथ देगी। इसी उम्मीद के साथ हमने बजाज की डिसकवर खरीदी है। इस नई को पाकर वैसे तो सभी खुश हैं, पर हमारा छह साल का बेटा सागर राज ग्वालानी कुछ ज्यादा ही खुश है। वह जब इस पर बैठा तो कहने लगा कि पापा ये बाइक तो बहुत तेज चलती है।

Read more...
Related Posts with Thumbnails

ब्लाग चर्चा

Blog Archive

मेरी ब्लॉग सूची

  © Blogger templates The Professional Template by Ourblogtemplates.com 2008

Back to TOP