विवादों से क्यों है इतना प्यार-जरा कोई तो हमें बताए यार
आज जब हम ब्लाग चौपालमें चर्चा करने बैठे तो देखा कि दो ब्लागर मित्रों में जंग छिड़ी हुई है। इस जंग में एक तरफ वरिष्ठ पत्रकार राजकुमार सोनी खड़े हैं तो दूसरी तरफ संजीत त्रिपाठी। हमें यह देखकर अफसोस हुआ कि अपने पत्रकार मित्र भी ऐसी जंग में शामिल हैं। ब्लाग जगत में तो हमेशा से विवाद होते रहे हैं। लोगों को न जाने विवादों से क्यों कर इतना प्यार है। अगर इतना ही प्यार लोग एक दूसरे के प्रति दिखाते तो शायद नफरत के लिए कोई स्थान ही नहीं रहता। लेकिन इसका क्या किया जाए कि यहां तो प्यार के लिए भी समय कम है और लोग नफरत के लिए इतना समय निकाल लेते हैं।
आखिर ऐसी बिना सिर पैरे की लड़ाई से किसका भला होता है। क्यों कर लोग बिना वजह- बिना सोचे समझे किसी के भी ब्लाग में कुछ भी टिप्पणी करने से बाज नहीं आते है। हमारे ब्लाग में भी एक कोई पतित पावन साहब काफी समय से कभी मखन वाली टिप्पणियां तो कभी बिना सिर पैरे की टिप्पणियां कर रहे हैं। हम लगातार उनको नजर अंदाज कर रहे हैं। पता नहीं लोगों को क्या मजा आता है ऐसा करने में। इंटरनेट पर सुविधा मिली है तो उसका सही उपयोग करना चहिए, पर अपने मित्र फर्जी आईडी बनाकर मजा लेने का काम करते हैं। हम तो ऐसी फर्जी आईडी बनाकर टिप्पणी करने वालों को मानसिक रोगी समझते हंै। अगर ये मानसिक रोगी नहीं होते तो अपने नाम से टिप्पणी करते फिर वह भले अच्छी होती है या अलोचनात्मक होती। आलोचना करना गलत नहीं है, लेकिन आलोचना करने के पीछे ठोस वजह भी होनी चाहिए। अगर मुझे लगता है कि फला को परेशान करना है तो बना ली एक फर्जी आईडी और दे रहे हैं दनादन कुछ भी टिप्पणी। बहरहाल हम तो बस इतना चाहते हैं कि कम से कम अपने पत्रकार मित्रों को ऐसी किसी जंग का हिस्सा नहीं बनना चाहिए। आप दोनों समझदार हंै, क्यों कर अपनी ही बदनामी कर रहे हैं। यहां तो लोगों को बिना टिकट का तमाशा देखने में मजा आता है। मजा लेने वाले मजा लेंगे लेकिन सजा तो आपको मिलनी है। किसी भी समस्या का हल खुली जंग नहीं होता है। खुली जंग में तह उतरना चाहिए जब लगे कि सारे रास्ते बंद हो गए हैं। हमारा काम था मित्र होने के नाते सलाह देना अब इसे मानना न मानना आपका काम है।
आखिर ऐसी बिना सिर पैरे की लड़ाई से किसका भला होता है। क्यों कर लोग बिना वजह- बिना सोचे समझे किसी के भी ब्लाग में कुछ भी टिप्पणी करने से बाज नहीं आते है। हमारे ब्लाग में भी एक कोई पतित पावन साहब काफी समय से कभी मखन वाली टिप्पणियां तो कभी बिना सिर पैरे की टिप्पणियां कर रहे हैं। हम लगातार उनको नजर अंदाज कर रहे हैं। पता नहीं लोगों को क्या मजा आता है ऐसा करने में। इंटरनेट पर सुविधा मिली है तो उसका सही उपयोग करना चहिए, पर अपने मित्र फर्जी आईडी बनाकर मजा लेने का काम करते हैं। हम तो ऐसी फर्जी आईडी बनाकर टिप्पणी करने वालों को मानसिक रोगी समझते हंै। अगर ये मानसिक रोगी नहीं होते तो अपने नाम से टिप्पणी करते फिर वह भले अच्छी होती है या अलोचनात्मक होती। आलोचना करना गलत नहीं है, लेकिन आलोचना करने के पीछे ठोस वजह भी होनी चाहिए। अगर मुझे लगता है कि फला को परेशान करना है तो बना ली एक फर्जी आईडी और दे रहे हैं दनादन कुछ भी टिप्पणी। बहरहाल हम तो बस इतना चाहते हैं कि कम से कम अपने पत्रकार मित्रों को ऐसी किसी जंग का हिस्सा नहीं बनना चाहिए। आप दोनों समझदार हंै, क्यों कर अपनी ही बदनामी कर रहे हैं। यहां तो लोगों को बिना टिकट का तमाशा देखने में मजा आता है। मजा लेने वाले मजा लेंगे लेकिन सजा तो आपको मिलनी है। किसी भी समस्या का हल खुली जंग नहीं होता है। खुली जंग में तह उतरना चाहिए जब लगे कि सारे रास्ते बंद हो गए हैं। हमारा काम था मित्र होने के नाते सलाह देना अब इसे मानना न मानना आपका काम है।
3 टिप्पणियाँ:
ग्वालानी भाई
आपकी पोस्ट पढ़ी
अच्छी है... पर मैं यहां स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि जिसे आप जंग कह रहे हैं उसे मैं जंग नहीं मानता. संजीत त्रिपाठी ने बगैर तफ्तीश किए मेरे ब्लाग पर एक ऐसी टिप्पणी कर दी है जिससे मुझे निश्चित तौर पर बुरा लगा है। मैंने अपने पत्रकारिता के अब तक के पूरे काल में कभी किसी सिफारिश के जरिए नौकरी नहीं मांगी और न ही कोई ऐसी-वैसी हरकत की जिससे मुझसे शमिन्दा होना पड़े.
एक अखबार में जो कुछ झूठ मेरे और कई पत्रकारों के बारे में छपवाया गया उसकी तथाकथा शायद आप भी जानते होंगे. वहां एक ऐसे महानुभाव की इंट्री हो गई है जिसे कम से कम छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता में कोई पंसन्द नहीं करता है। इस महानुभाव को लगता है कि कुछ नामधारी आ जाएंगे तो उसका बेड़ा गर्क हो जाएगा.... खैर बगैर जाने-समझे टिप्पणी करने के फलस्वरूप मैंने अपनी बात रखी है. यह जंग नहीं है.
वैसे आप भी वाकिफ हो कि संजीत की प्रवृति कैसी रही है. डेढ़ होशियार बनने की उसकी अपनी आदत है. उसे यह पता नहीं होता कि लोग उसकी मूर्खता पर क्या-क्या टिप्पणी करते हैं। यह बात मैं कई ब्लागरों से हुई बातचीत और अनुभव के आधार पर कह रहा हूं।
खैर.. अभी तो यह मैने छोटी सी बात लिखी है। जिन्हें ये मूर्धन्य मानते हैं और चेले-चपाटियों सहित इनके बारे में बहुत ज्यादा विस्तार से लिख दूंगा तो रहा-सहा कपड़ा भी उतर जाएगा..
खैर... आपने मेरी पोस्ट 1947 का अखबार नामक पोस्ट भी देखी होगी..जरा इस पोस्ट को देखकर बताइए मैंने क्या गलत लिखा और क्या गलत कहा है। वहां जानबूझकर वैमनस्य को बढ़ावा देने वाली टिप्पणी किसने की.
और मजे की बात यह है कि टिप्पणी लिखने के बाद श्रीमानजी ने मेरे गुरूदेव को टिप्पणी ई-मेल भी की.. उन्हें यह भी बताया कि मैंने जानबूझकर लिखा है.
ऐसे में तो चुप रहने का सवाल ही नहीं उठता था.
सच कफ़न फाढ़ कर निकालता है किसी बुरा कहने से पहले झांके स्वयम में, बेहतर होगा सही गलत के चक्कर में उलझने की बजाय नौकरों को नौकरी करनी चाहिए
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