पत्रकार भी गरीबी रेखा के नीचे!
भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी की बात अगर केन्द्र सरकार मान लेती है तो कम से कम अपने राज्य छत्तीसगढ़ के तो सैकड़ों पत्रकार जरूर गरीबी रेखा के नीचे आ जाएंगे। इन दिनों पत्रकारों के बीच इस बात को लेकर चर्चा है कि यार कितना अच्छा होता गर गडकरी की बात मान ली जाती और केन्द्र सरकार गरीबी रेखा की आय सीमा एक लाख रुपए कर देती। यह बात सब जानते हैं कि कुछ सीनियर पत्रकारों को छोड़कर बाकी पत्रकारों को छत्तीसगढ़ में दो से आठ हजार रुपए के बीच ही वेतन मिलता है। आठ हजार वेतन पाने वाला गर गरीबी रेखा के नीचे आ जाए तो क्या बुरा है, इतने पैसों में वैसे भी आज की महंगाई में घर चलाना मुश्किल है। वैसे गरीबी रेखा की आय सीमा देखा जाए तो हास्यप्रद ही लगती है।
भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी ने अपने छत्तीसगढ़ प्रवास में एक बात ठीक कही कि केन्द्र सरकार को गरीबी रेखा की आय सीमा एक लाख तक कर देनी चाहिए। वैसे इसमें कोई दो मत नहीं है कि गरीबी रेखा की बीस हजार की आया सीमा गले उतरने वाली नहीं है। एक तरफ सरकार ने यह सीमा तय कर रखी है, दूसरी तरफ मजदूरों को दी जाने वाली सरकारी मजदूरी की दर सौ रुपए के आस-पास है। इसके हिसाब के एक मजदूर को तीन हजार रुपए माह में मिल जाते हैं। ऐसे में साल में एक मजदूर 36 हजार तो कमा ही लेता है। जब सरकारी हिसाब से मजदूर 36 हजार कमा लेता है तो फिर गरीबी रेखा की आय सीमा 20 हजार कैसे हैं सोचने वाली है, हमें लगता है कि मजदूरी बढ़ाने की तरफ तो सरकार से जरूर ध्यान दिया, पर गरीबी रेखा की आय सीमा बढ़ाना अब तक जरूरी नहीं माना गया है। इस सीमा को बढ़ाना चाहिए। अब यह सीमा कितनी होनी चाहिए यह अलग मुद्दा है।
लेकिन इतना तय है कि अगर गडकरी के हिसाब से यह सीमा एक लाख कर दी जाए तो अपनी पत्रकार बिरादरी भी गरीबी रेखा के नीचे आ जाएगी। आज-कल छत्तीसगढ़ से गडकरी के जाने के बाद मीडिया में यही चर्चा है कि पत्रकार भी गरीबी रेखा की सीमा में आए गए तो उनको भी रमन सरकार का एक रुपए किलो चावल मिल जाएगा। अब यह बात अलग है कि कोई पत्रकार इस चावल को खाना पसंद नहीं करेगा, लेकिन इस तरह की बातें जरूर हो रही हैं।
इसमें कोई दो मत नहीं है कि अपने राज्य में पत्रकारों का वेतन सबसे कम है। यहां तो दो हजार में भी पत्रकार मिल जाते हैं। कई सालों से पत्रकारिता करने वाले पत्रकारों को चार से आठ हजार के बीच ही वेतन मिलता है। कुछ सीनियर पत्रकारों को छोड़ दिया जाए और कुछ बड़े अखबारों को छोड़ दिया जाए तो पत्रकारों का वेतन एक लाख रुपए सालाना नहीं है। वास्तव में देखा जाए तो हमारे पत्रकार गरीबी रेखा के नीचे होने के पात्र हैं। अब आज के महंगाई के दौर में क्या चार हजार में कोई घर चला सकता है? फिर यह नहीं भूलना चाहिए कि आज पत्रकारों को घर से दफ्तर और दफ्तर से घर आने-जाने में अपने वाहनों में पेट्रोल भी फुंकना पड़ता है। पेट्रोल और मोबाइल का खर्च ही हर पत्रकार का कम से कम दो हजार रुपए हो जाता है, ऐसे में कल्पना करें कि चार हजार पाने वाला पत्रकार कैसे अपना जीवन चलाएगा।
यहां पर कोई यह तर्क जरूर दे सकता है कि पत्रकारों की ऊपरी कमाई तो होती है। हम बता दें कि अब ऐसा जमाना नहीं रह गया है कि लोग पत्रकारों से डरकर उनकी जेंबे गरम कर दें। चंद रसूकदार पत्रकारों को छोड़ दिया जाए तो कोई अधिकारी पत्रकारों को घास नहीं डालता है।
भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी ने अपने छत्तीसगढ़ प्रवास में एक बात ठीक कही कि केन्द्र सरकार को गरीबी रेखा की आय सीमा एक लाख तक कर देनी चाहिए। वैसे इसमें कोई दो मत नहीं है कि गरीबी रेखा की बीस हजार की आया सीमा गले उतरने वाली नहीं है। एक तरफ सरकार ने यह सीमा तय कर रखी है, दूसरी तरफ मजदूरों को दी जाने वाली सरकारी मजदूरी की दर सौ रुपए के आस-पास है। इसके हिसाब के एक मजदूर को तीन हजार रुपए माह में मिल जाते हैं। ऐसे में साल में एक मजदूर 36 हजार तो कमा ही लेता है। जब सरकारी हिसाब से मजदूर 36 हजार कमा लेता है तो फिर गरीबी रेखा की आय सीमा 20 हजार कैसे हैं सोचने वाली है, हमें लगता है कि मजदूरी बढ़ाने की तरफ तो सरकार से जरूर ध्यान दिया, पर गरीबी रेखा की आय सीमा बढ़ाना अब तक जरूरी नहीं माना गया है। इस सीमा को बढ़ाना चाहिए। अब यह सीमा कितनी होनी चाहिए यह अलग मुद्दा है।
लेकिन इतना तय है कि अगर गडकरी के हिसाब से यह सीमा एक लाख कर दी जाए तो अपनी पत्रकार बिरादरी भी गरीबी रेखा के नीचे आ जाएगी। आज-कल छत्तीसगढ़ से गडकरी के जाने के बाद मीडिया में यही चर्चा है कि पत्रकार भी गरीबी रेखा की सीमा में आए गए तो उनको भी रमन सरकार का एक रुपए किलो चावल मिल जाएगा। अब यह बात अलग है कि कोई पत्रकार इस चावल को खाना पसंद नहीं करेगा, लेकिन इस तरह की बातें जरूर हो रही हैं।
इसमें कोई दो मत नहीं है कि अपने राज्य में पत्रकारों का वेतन सबसे कम है। यहां तो दो हजार में भी पत्रकार मिल जाते हैं। कई सालों से पत्रकारिता करने वाले पत्रकारों को चार से आठ हजार के बीच ही वेतन मिलता है। कुछ सीनियर पत्रकारों को छोड़ दिया जाए और कुछ बड़े अखबारों को छोड़ दिया जाए तो पत्रकारों का वेतन एक लाख रुपए सालाना नहीं है। वास्तव में देखा जाए तो हमारे पत्रकार गरीबी रेखा के नीचे होने के पात्र हैं। अब आज के महंगाई के दौर में क्या चार हजार में कोई घर चला सकता है? फिर यह नहीं भूलना चाहिए कि आज पत्रकारों को घर से दफ्तर और दफ्तर से घर आने-जाने में अपने वाहनों में पेट्रोल भी फुंकना पड़ता है। पेट्रोल और मोबाइल का खर्च ही हर पत्रकार का कम से कम दो हजार रुपए हो जाता है, ऐसे में कल्पना करें कि चार हजार पाने वाला पत्रकार कैसे अपना जीवन चलाएगा।
यहां पर कोई यह तर्क जरूर दे सकता है कि पत्रकारों की ऊपरी कमाई तो होती है। हम बता दें कि अब ऐसा जमाना नहीं रह गया है कि लोग पत्रकारों से डरकर उनकी जेंबे गरम कर दें। चंद रसूकदार पत्रकारों को छोड़ दिया जाए तो कोई अधिकारी पत्रकारों को घास नहीं डालता है।
6 टिप्पणियाँ:
बहुत बढिया लेख है,
आपका कहना भी जायज है।
1,00,000 तक गरीबी रेखा का दायरा लाने के बाद देश की 90% जनता गरीबी रेखा के नीचे आ जाएगी।
10% ही मध्यमवर्ग और उच्च वर्ग रह जाएगा सरकारी आंकड़ों में।
अच्छा लगा आपके लेखन के तेवर देख कर।
राजजी,
बिल्कुल सही बात है। पर करेगा कौन? अपना इंतजाम बेशर्मी की हद तक जाकर पूरा कर लेने वालों को सचमुच जिसे जरुरत है वे नजर नहीं आते।
चंद रसूकदार पत्रकारों को छोड़ दिया जाए तो कोई अधिकारी पत्रकारों को घास नहीं डालता है। sahi baat hai. bebak lekhan k liye badhai...ab sauch likhane vale kam ho rahe hai.
जब माननीय राजनाथ सिह भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे ,तब मैने उन्हे एक साल पहले कहा था कि राज्य मे तीन रूपिया किलो चावल योजना शुरू होने से ग़रीबी रेखा कार्ड का क्रेज़ बढ़ गया है. अभी तक लोग जब अपनी लड़की के लिए वर ढूँढने जाते है तो पुछते है कि लड़का क्या करता है ,कितनी ज़मीन है आदि आदि,लेकिन अब पुछते है कि ग़रीबी रेखा कार्ड है कि नही ?
अब क्या कहें ।
अच्छा आलेख !
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