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गुरुवार, जुलाई 28, 2011

साहब गांव में नक्सली आएं हैं... तो हम क्या करें बे....

बस्तर के पुलिस कंट्रोल रूम का फोन बजता है... उधर के किसी थाने का एक अदना सा सिपाही जानकारी लेता है कि साहब एक गांव में नक्सली आएं हैं। कंट्रोल रूम में बैठा अधिकारी पलटकर जवाब देता है कि तो हम क्या करें बे। और फोन फटक देता है। ऐसा एक बार नहीं बार-बार हो रहा है और नक्सल प्रभावित थानों के सिपाहियों से अगर पूछा जाए तो उनका यही जवाब मिलेगा कि जब भी किसी नक्सली के बारे में पुलिस कंट्रोल रूम में सूचना देने के लिए फोन करते हैं और फोर्स भेजने की बात करते हैं तो फोन पटक दिया जाता है और कंट्रोल रूम से कोई मदद नहीं मिलती है। ऐसे में थानों को भी या तो चुप बैठना पड़ता है या फिर थाने वाले ज्यादा ईमानदारी दिखाते हुए उस गांव में जाने की गलती करते हैं तो मारे जाते हैं।

पूरे देश में इस समय सबसे ज्यादा नक्सली समस्या का सामना छत्तीसगढ़ के बस्तर को करना पड़ रहा है। यहां पर अगर यह समस्या है तो इसके पीछे कारण भी कई हैं। एक कारण यह है कि यहां के अधिकारियों में इस समस्या से निपटने की इच्छा शक्ति है ही नहीं। एक छोटा है उदाहरण है कि जब भी किसी नक्सल प्रभावित थाने से कंट्रोल रूम में फोन आता है तो कंट्रोल रूम में बैठने वाले अधिकारी उस फोन पर आई सूचना को गंभीरता से लेते ही नहीं है और उल्टे जिस थाने से फोन आता है उस फोन करने वाले बंदे को डांट दिया जाता है। कोई ज्यादा ईमानदारी दिखाने की कोशिश करता है तो उसको जवाब मिलता है कि ... अबे साले जा ना तेरे को मरने का शौक है तो, हमारे तो बीबी-बच्चे हैं, हमें नहीं खानी है नक्सलियों की गोलियां। अब जहां पर कंट्रोल रूम से ऐसे जवाब मिलेंगे तो छोटे से थाने का अमला क्या करेगा? जब किसी थाने को फोर्स की मदद ही नहीं मिलेगी तो वे क्या बिगाड़ लेगे नक्सलियों का? नक्सली यह बात अच्छी तरह से समझ गए हैं कि नक्सल क्षेत्र में काम करने वाली पूरी पुलिस फोर्स नपुंसक हो गई है और उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती है। ऐसे में उनके हौसले बढ़ते जा रहा है।

इसमें कोई दो मत नहीं है कि नक्सली क्षेत्र की पुलिस नपुंसक हो गई है। इसके पीछे का कारण देखा जाए तो वह यह है कि नक्सली क्षेत्र में काम करने वाले अधिकारियों में इतना दम नहीं है कि अपनी पुलिस फोर्स का हौसला बढ़ा सके। हमारे एक मित्र हैं वे काफी समय तक बस्तर में एसपी रहे। उनके जमाने की बात करें तो उन्होंने अपनी फोर्स का हौसला इस तरह से बढ़ाया कि वे नक्सलियों से भिडऩे के लिए खुद चले जाते थे। यही नहीं उन्होंने गांव-गांव में इतना तगड़ा नेटवर्क बना रखा था कि कोई भी सूचना उन तक आ जाती थी। आज भी स्थिति यह है कि वे राजधानी में बैठे हैं लेकिन उनके पास सूचनाएं बस्तर में बैठे हुए अधिकारियों से ज्यादा आती हैं। इधर बस्तर में आज की स्थिति की बात करें तो, काफी लंबा समय हो गया है कि बस्तर की कमान संभालने वाला कोई एएपी नक्सलियों से भिडऩे जाता नहीं है। अब कप्तान खुद ही मांद में छुपकर बैठेगा तो फिर उनके खिलाड़ी कैसे अकेले जाकर जंग जीत सकते हैं। जब तक खिलाडिय़ों को गाईड नहीं किया जाता है कोई मैच जीता नहीं जा सकता है। यही हाल आज बस्तर का है। बस्तर को कोई ऐसा कप्तान ही नहीं मिल रहा है जो मैदान में आकर काम करे। बस कमरे में बैठकर निर्देश दिए जाते हैं कि ऐसा करो-वैसा करो। अब बेचारे टीआई और सिपाही ही मोर्चे पर जाते हैं और मारे जाते है। जब तक बस्तर के आला अधिकारियों में उन एसपी की तरह नक्सलियों को खत्म करने की रूचि नहीं होगी, नक्सल समस्या का कुछ नहीं किया जा सकता है। हर रोज यही होगा कि थानों से फोन आएंगे और कंट्रोल रूम वाले फोन पटक कर सो जाएंगे और उधर नक्सली गांवों अपना नंगा नाच करते रहेंगे।

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