इंसानों का आधुनिक बाजार
आज हर जगह
इंसानों का आधुनिक बाजार बन गया है
इस बाजार में
इंसान-इंसान का ही
व्यापार कर रहा है
बिठाकर अपना बेटा बाजार में
हर बाप उसका मौल कर रहा है
और
लगाकर बोलियां बेटी का
मजबूर बाप
अपना घर-बार भी बेच रहा है
कोई मजबूर भाई
अपना ईमान भी बेच रहा है
दहेज के लोभी
इंसानों के सामने अपना सर रगड़ रहा है
दहेज की आग
हर बेबस बाप
मर-मर कर जी रहा है
कुछ भी कर रहा है
पर
अपनी बेटी का घर बसा रहा है
मगर
फिर भी ये अन्याय हो रहा है
घर-घर में
मजबूर बापों की बेटियों
का दामन जल रहा है
हर घर में
आज मौतम का मातम मन रहा है
और
हमारा अंधा कानून
हमेशा की तरह
अपनी आंखें बंद किए सो रहा है
(यह कविता हमने 20 साल पहले लिखी थी, पर आज भी लगता है कि इस कविता की एक-एक लाइन अपने सभ्य समझे जाने वाले समाज पर खरी
उतर रही है)
1 टिप्पणियाँ:
लालच कभी कम होता है क्या राजकुमार?
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