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बुधवार, अक्तूबर 07, 2009

इंसानों का आधुनिक बाजार

आज हर जगह

इंसानों का आधुनिक बाजार बन गया है

इस बाजार में

इंसान-इंसान का ही

व्यापार कर रहा है

बिठाकर अपना बेटा बाजार में

हर बाप उसका मौल कर रहा है

और

लगाकर बोलियां बेटी का

मजबूर बाप

अपना घर-बार भी बेच रहा है

कोई मजबूर भाई

अपना ईमान भी बेच रहा है

दहेज के लोभी

इंसानों के सामने अपना सर रगड़ रहा है

दहेज की आग

हर बेबस बाप

मर-मर कर जी रहा है

कुछ भी कर रहा है

पर

अपनी बेटी का घर बसा रहा है

मगर

फिर भी ये अन्याय हो रहा है

घर-घर में

मजबूर बापों की बेटियों

का दामन जल रहा है

हर घर में

आज मौतम का मातम मन रहा है

और

हमारा अंधा कानून

हमेशा की तरह

अपनी आंखें बंद किए सो रहा है

(यह कविता हमने 20 साल पहले लिखी थी, पर आज भी लगता है कि इस कविता की एक-एक लाइन अपने सभ्य समझे जाने वाले समाज पर खरी
उतर रही है)

1 टिप्पणियाँ:

Anil Pusadkar बुध अक्तू॰ 07, 09:41:00 am 2009  

लालच कभी कम होता है क्या राजकुमार?

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