हॉकी खेलने किराना दुकान में काम करते हैं राजेश
भारत के अंतरराष्ट्रीय हॉकी खिलाडिय़ों को किस तरह से अपने हक के लिए हॉकी इंडिया से लडऩा पड़ रहा है, यह बात अब जग जाहिर हो गई है। एक तरफ अपने अंतरराष्ट्रीय हॉकी खिलाडिय़ों की हालत बहुत ज्यादा खराब है, तो दूसरी तरफ देश के अन्य राज्यों के साथ छत्तीसगढ़ के हॉकी खिलाडिय़ों की हालत भी बहुत दयनीय है। हॉकी खिलाडिय़ों को कभी खेलने के लिए उतने पैसे नहीं मिल पाते हैं, जितने क्रिकेट में अंडर १९ साल की टीम के खिलाडिय़ों को मिलते हैं। अपने प्रदेश के खिलाडिय़ों की हालत कितनी खराब है इसका एक उदारहरण है राष्ट्रीय खिलाड़ी राजेश बाघ। अभी स्कूल स्तर पर ही इस खिलाड़ी को अपने खेल को जिंदा रखने के लिए किराने की दुकान में काम करना पड़ रहा है। राजेश के भाई खगेश्वर बाघ भी जहां हॉकी खिलाड़ी हैं, वहीं उनके पिता शशि बाघ अपने बेटों को मजदूरी करके इस आश में हॉकी खिला रहे हैं कि शायद उनके बेटों को अच्छी नौकरी मिल जाए।
देश के लिए विश्व कप खेलने वाली भारतीय टीम के हॉकी खिलाडिय़ों को जिस तरह से अपने वेतन को लेकर प्रशिक्षण शिविर का बहिष्कार करना पड़ा, उसने एक बार फिर से यह सोचने के लिए मजबूर कर दिया है कि अपने देश के राष्ट्रीय खेल हॉकी के खिलाडिय़ों की अपने देश में कितनी दुर्गति हो रही है। यह बात काफी पहले से जग जाहिर है कि अपने देश के लिए ओलंपिक और विश्व कप में खेलने वाले हॉकी खिलाडिय़ों को बदहाली से ही गुजरना पड़ा है। एक तरफ जहां देश का नाम रौशन करने वालों की स्थिति बहुत ज्यादा खराब है तो दूसरी तरफ उन खिलाडिय़ों की स्थिति और ज्यादा खराब है जो देश की हॉकी टीम का भविष्य है। आज ज्यादातर राज्यों में खिलाड़ी हॉकी खेलना नहीं चाह रहे हैं लेकिन जिन लोगों से भी हॉकी स्टिक को थाम है, उनको अपने खेल को जिंदा रखने के लिए खेल के साथ काम करना पड़ता है। अपने राज्य छत्तीसगढ़ में एक गरीब परिवार के दो खिलाड़ी हॉकी स्टिक को थामे हुए इस उम्मीद में हैं कि कभी उनको भारतीय टीम से खेलने का मौका मिलेगा। इसी के साथ ये खिलाड़ी इस उम्मीद में भी है कि वे खेल के माध्यम से नौकरी प्राप्त कर अपने पिता का
सपना सच करने में सफल होंगे।
राजेश बाघ यह जूनियर खिलाड़ी हैं और उनके खाते में दो बार राष्ट्रीय स्कूली स्पर्धा में खेलने का रिकॉर्ड है। राजेश का खेल कमाल का है। उनकी फिटनेस इतनी अच्छी है कि उनके कोच नजीर अहमद भी दंग रह जाते हैं। राजेश पूछने पर बताते हैं कि वे जब नेताजी स्टेडियम में अपने भाई खगेश्वर के साथ बच्चों को हॉकी खेलते देखते थे तो उनका भी मन खेलने का होता था, लेकिन परिवार की स्थिति ऐसी नहीं थी कि वे खेल सकते। ऐसे में उन्होंने फैसला किया कि वे कहीं काम कर लेंगे लेकिन खेलेंगे जरूर। उन्होंने अपनी इस मंशा से जब अपने पिता शशि बाघ को अवगत कराया तो वे भी सहमत हो गए। वैसे राजेश के बड़े भाई खगेश्वर को राष्ट्रीय स्तर पर खेलने का जो मौका मिला था उस मौके ने भी राजेश के लिए प्रेरणा का काम किया।
राजेश पूछने पर बताते हैं कि वे बैजनाथपारा के एक किराना दुकान में काम करते हैं। वहां से उनको रोज २५ रुपए मिलते हैं। इन पैसों को न सिर्फ वे अपने खेल पर खर्च करते हैं, बल्कि इन पैसों से अपने पिता की मदद भी करते हैं। वे बताते हैं कि रोज सुबह ८ बजे दुकान जाते हैं और ११ बजे वहां से आने के बाद स्कूल जाते हैं। स्कूल से वापस आकर वे हॉकी का नेताजी स्टेडियम में शाम४ बजे से ६ बजे तक अभ्यास करते हैं फिर सात बजे दुकान चले जाते हैं। वहां से वे रात को ९ बजे आते हैं। पूछने पर वे बताते हैं कि दुकान के मालिक उनको न कभी पढऩे से मना करते हैं और न खेलने से। वे कहते हैं कि उनको लगता है कि वे अपनी ही दुकान में काम कर रहे हैं। उन्होंने बताया कि अभी इसी माह राजनांदगांव में खेली गई राष्ट्रीय स्कूली हॉकी में स्वर्ण पदक जीतने वाली छत्तीसगढ़ की टीम के वे भी सदस्य थे।
राजेश कहते हैं कि उनका सपना है कि वे भारतीय टीम से खेलें और प्रदेश सरकार उनके खेल का देखकर उनको कोई नौकरी दे दे। वे भारतीय खिलाडिय़ों की हालत से अंजान हैं। उनको जब बताया गया तो वे कहते हैं कि देश के लिए खेलने वाले खिलाडिय़ों के साथ ऐसा नहीं होना चाहिए।
खगेश्वर भी सच करना चाहते हैं पिता का सपना
राजेश के बड़े भाई खगेश्वर बाघ ने ही सबसे पहले २००३ में हॉकी स्टिक से नाता जोड़ा था। वे बताते हैं कि उनको स्टेडियम में बच्चों को हॉकी खेलते देखकर खेलने की इच्छा हुई तो उन्होंने पिता से कहा। उनके पिता ने उनको खेलने की इजाजत दे दी। उनके पिता उनके और छोटे भाई के साथ नेताजी स्टेडियम में ही रहते हैं। वैसे तो उनका घर आकाशवाणी के पास है, वे रहते स्टेडिमय में ही है। उनके पिता पंडाल लगाने का काम करते हैं। खगेश्वर बताते हैं कि उन्होंने २००४ में छत्तीसगढ़ की टीम से केडी सिंह बाबू हॉकी स्पर्धा खेली है। इस स्पर्धा में छत्तीसगढ़ की टीम उपविजेता रही थी। छत्तीसगढ़ की टीम को सफलता इसलिए मिली थी क्योंकि इस टीम में कोई खिलाड़ी ओवरएज नहीं था। इसके बाद वह इसी साल लुधियाना में स्कूल नेशनल में खेले। २००५ में उनको जूनियर ओपन नेशनल में खेलने का भी मौका मिला। इस खिलाड़ी ने खेल ने तो नाता नहीं तोड़ा है, पर आर्थिक तंगी के कारण उनकी पढ़ाई जरूर छूट गई है। वे कहते हैं कि मैं चाहता हूं कि मेरा भाई पढ़े और खूब खेले। खगेश्वर पूछने पर कहते हैं कि वे चाहते हैं कि वे भारतीय टीम से खेलें और एक दिन उनको खेल के दम पर नौकरी मिल जाए ताकि अपने पिता का सपना सच कर सके।
बेटे देश का नाम रौशन करें यही तमन्ना है
राजेश और खगेश्वर बाघ के पिता शशि बाघ कहते हैं कि वे चाहते हैं कि उनके दोनों बेटे हॉकी में देश का नाम रौशन करें। वे पूछने पर बताते हैं कि उनकी पत्नी का देहांत तो तभी हो गया था जब बेटे काफी छोटे थे। वे कहते हैं कि उन्होंने बेटों को पिता के साथ मां बनकर भी पाला है ऐसे में मैं नहीं चाहता कि उनकी कोई इच्छा अधूरी रहे। बड़े बेटे का हॉकी से लगाव देखकर मैंने उसे खेलने के लिए कहा। इसके बाद छोटे बेटे ने भी हॉकी स्टिक थामी तो मैंने उसे मना नहीं किया।
3 टिप्पणियाँ:
अच्छा लगा जानना.शुभकामनाएँ बालकों को.
काश उस अनाम दुकानदार की तरह सरकार भी सोचती
राष्ट्रीय नाम से जुड़ी वस्तुएँ या तो विवादग्रस्त हो चुकी हैं या संग्रहालय के लायक
इसे ही कह्ते हैं "गुदड़ी मे लाल"
फ़िर सरकार चाहती है मेडल लेके आएं
अरे! इनको पुरी सुविधा तो दिलवाएं
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