मिशन नहीं अब कमीशन पत्रकारिता
अंबरीश कुमार का एक लेख क्या आप मिशनरी पत्रकार हैं? अचानक पढऩे का मौका मिला। इस लेख ने हमें एक बार फिर से पत्रकारिता के उस सच के बारे में लिखने की प्रेरणा देने का काम किया है जिसके बारे में हम पहले भी लिख चुके हैं, और आगे भी लिखना चाहते हैं। हमने जब काफी पहले एक लेख लिखा था कि कलम हो गई मालिकों की गुलाम-पत्रकार नहीं कर सकते मर्जी से काम। तब हमारे संपादक महोदय को यह बात नागवार लगी थी। उन्होंने मिटिंग में ही हमसे इस मुद्दे पर लंबी चर्चा की थी। कम से कम हम पत्रकारिता में एक मिशन लेकर आए थे और आज भी उस एक मिशन पर काम कर रहे हैं। अपने मिशन को सफल बनाने के लिए ही हमने एक पत्रिका खेलगढ़ का प्रकाशन भी प्रारंभ किया है। हम जानते हैं कि आज का जमाना मिशन पत्रकारिता का नहीं बल्कि कमीशन पत्रकारिता का है। पूरे देश में कमीशन की ही गूंज है। जिस देश में बिना कमीशन के कोई काम नहीं होता है, वहां पर भला खबरें कैसे बिना कमीशन के छप सकती हैं। एक समय था जब विज्ञापन के कमीशन से काम चल जाता था, पर आज खबरों के लिए कमीशन का पैकेज हो गया है। अब हाईटेक जमाना है तो बातें भी हाईटेक ही होंगी।
इसमें कोई दो मत नहीं है कि आज के जमाने में पत्रकारिता के क्षेत्र में आने वाले युवाओं के लिए एक मात्र आदर्श पैसा कमाना रह गया है। हमसे भी कई नए युवा पत्रकार पूछते हैं भईया पैसा बहुत मिलता होगा न। हम कहते हैं कि हां पैसा बहुत मिलता है, लेकिन उसके लिए अपने जमीर को गिरवी रखना पड़ता है। अगर आप में अपने जमीर को गिरवी रखने की क्षमता है तो फिर पैसा बरसने लगेगा। हम यह बात अच्छी तरह से जानते हैं कि आज के जमाने में लोग जमीर का महत्व नहीं समझते हैं, पर क्या किया जाए हमें तो अपने जमीर से अपनी जमीन से भी ज्यादा मोहब्बत है। अगर हमने भी अपना जमीर बेच दिया होता तो आज एक बड़े अखबार के संपादक होते। लेकिन क्या करें न तो हमें अपना जमीर बेचना आता है और न ही मालिकों की चाटुकारिता करने के हममें गुण हैं। हमने भी एक अखबार के समाचर संपादक का पद अपने जमीर की आवाज पर छोड़ा था, यह किस्सा फिर कभी बताएंगे कि क्यों कर हमने उस अखबार को छोड़ा, या फिर यूं कहा जाए कि क्यों करें हमें एक तरह से इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया गया।
हम यहां पर बात कर रहे हैं कि कैसे आज मिशन का स्थान कमीशन पत्रकारिता ने ले लिया है। आज हर अखबार का रिपोर्टर चाहता है कि उसको कमीशन मिले। इसके लिए वह खबरों का सौदा करता है। अगर आज पत्रकार कमीशन खाने लगा है तो इसके पीछे का कारण भी जान लेना जरूरी है। हमें लगता है कि आज अगर पत्रकार बेईमान हुआ है तो इसके पीछे का कारण संपादक नामक वह प्राणी है जिसने पत्रकारों को बेईमान बनाया है। हम अगर ऐसा आरोप लगा रहे हैं तो कोई हवा में नहीं लगा रहे हैं। हम यह नहीं कहते हैं कि सभी संपादक ऐसे होते हैं, लेकिन 10 में से 9 तो ऐसे ही होते हैं, यह जरूर कह सकते हैं। जो संपादक ईमानदार होते हैं उनका हश्र बबन प्रसाद मिश्र की तरह होता है जैसे की अंबरीश कुमार ने अपने लेख में बताया है।
अब आए इस बात पर की संपादक कैसे पत्रकारों को बेईमान बनाते हैं तो हम बता दें कि हमने खुद इस बात को एक बार नहीं कई बार देखा है कि कैसे किसी खबर के लिए पत्रकार द्वारा पैसे न लेने पर संपादक पैसे लेकर खबरों को रोक देते हैं। वैसे भी लगाम तो संपादकों और मालिकों के हाथ में रहती है, कोई संपादक ईमानदारी दिखाता है तो उन पर मालिकों का डंडा चल जाता है। और कहा भी जाता है कि जिसकी लाठी उसी की भैस। तो आपने अगर अपने हाथ से लाठी छोड़ी तो भैस तो पानी में जाएगी। ऐसे में पत्रकारों से सोचा कि यार जब संपादक और मालिक ही पैसे खा लेते हैं तो हमें पैसे खाने में क्या हर्ज है। फिर क्या था एक-एक करके बेईमान होते चले गए पत्रकार। वैसे भी अच्छाई से ज्यादा तेजी से बुराई फैलती है, सो फैल गई पैसे लेने की बुराई प्लेग की तरह और मिशन पत्रकारिता बन गई कमीशन पत्रकारिता।
हमने कई पत्रकारों को तो संपादकों की दलाली भी करते देखा है। ऐसे पत्रकार बड़े ठाट से रहते हैं। ऐसे ही पत्रकारों के ठाट देखकर नवोदित पत्रकार समझते हैं कि इस क्षेत्र में काफी पैसा है। लेकिन वेतन की बात की जाए तो आज भी अखबारों में नवोदितों को दो से तीन हजार रुपए और 20-20 साल से अपना जीवन पत्रकारिता के लिए खफाने वालों को बमुश्किल 10 हजार रुपए मिल पाते हैं। यह सच अपने छत्तीसगढ़ का है, बाकी स्थानों के बारे में हमें उतनी जानकारी नहीं है। अब सोचने वाली बात यह है कि आखिर एक इंसान इतनी महंगाई में अपना घर कैसे चलाएगा। ऐसे में जिसके पास बेईमान बनने का मौका रहता है कि वह मिशन पत्रकारिता से को बाय-बाय कहते हुए कमीशन पत्रकारिता से अपना नाता जोड़ लेता है। लिखने को इतना है कि बहुत कुछ लिखा जा सकता है, पर शेष अगली बार, फिलहाल इतना ही। वैसे हम इस पर धाराप्रवाह लिखने की बात काफी पहले से सोच रहे हैं, पर इतना मौका नहीं मिल पाता है। अगली बार हम बताएंगे कि कैसे हमको एक अखबार से नागा बाबा की एक फोटो छापने के कारण समाचार संपादक का पद छोडऩा पड़ा था, साथ ही बताएंगे कि कैसे हम आज आज तक मिशन पत्रकारिता कर रहे हैं। इसके अलावा और भी बहुत कुछ कहने के लिए है। एक और लेख हम इस पर भी लिखने वाले हैं कि कैसे एक अखबार के संपादक को पैकेज के चक्कर में ही बबन प्रसाद मिश्र की तरह इस्तीफा देना पड़ा था।
15 टिप्पणियाँ:
आज के जमाने में पत्रकारिता के क्षेत्र में आने वाले युवाओं के लिए एक मात्र आदर्श पैसा कमाना रह गया है।
आपने वास्तविकता को उजागर किया है।
बधाई!
पत्रकार होकर अपनी कौम के बारे में इतने दमदारी से लिखने की हिम्मत आपने दिखाई है, इसके लिए साधुवाद
जमाना लिफाफाखोर और शराब खोर पत्रकारों का है
मालिक बेईमान है तो इसका यह मतलब नहीं होता है कि पत्रकार भी बेईमान हो जाए। पत्रकारों को अपनी अहमियत समझना चाहिए
देश में हर कोई कमीशनबाज हो गया है तो मीडिया जगत इससे कैसे बच सकता है।
आपकी दमदार लेखनी को सलाम है गुरु
क्या पत्रकारों का भी जमीर होता है?
मीडिया जिसे देश का चौथा स्तंभ माना जाता है, वह अब पूरी तरह से रिश्वत के जाल में फंस कर खोखला हो चुका है।
पत्रकारिता के क्षेत्र में सिर्फ़ रिपोर्टर और संपादक ही नहीं है। कई हैं जो डेस्क पर काम करते हैं, असाइन्मेंट से लेकर आउटपुट तक लोग फैले हुए हैं। जोकि इस दलाली में कही से कही तक शामिल नहीं हैं, चाहते हुए भी शामिल नहीं हो पाते हैं। उनको आप इन दलालों की कैटेगरी में न रखे। शायद आपने अपने करियर में केवल रिपोर्टिंग ही की है केवल।
accha likha hai. likhte rahen.
dipti ki baat gaur karne layak hai.
राजकुमार हमेशा अच्छी बातो पर ध्यान देना चाहिये।गंदगी ज्यादा हो जाये तो इस्का मतलब ये नही है कि अपन भी सूअर हो जायें,जंहा तक़ हो सके गंदगी से बचो और हो सके तो उस ओर देखो भी मत्।
दीप्ति जी
हमने अपने जीवन में रिपोर्टिंग ही नहीं की है, बल्कि अखबार की हर डेस्क पर काम किया है। रायपुर के एक प्रतिष्ठित समाचार पत्र दैनिक देशबन्धु में तीन साल तक समाचार संपादक भी रहा हूं। आप ये कैसे कह सकती हैं कि डेस्क में काम करने वाले दलाली नहीं कर सकते हैं। अपने पत्रकारिता जीवन के दो दशक से ज्यादा समय में हमने ऐसे लोगों को भी संपादकों की दलाली करते देखा है जो डेस्क में काम करते हैं। जो लोग दलाली करने और कमीशनखोरी के गुर जानते हैं वे किसी भी डेस्क में बैठकर काम करें सब कर लेते हैं। हमने यह नहीं कहा है कि हर पत्रकार ऐसा होता है। लेकिन कमोवेश आज पत्रकारिता की हालत बहुत ज्यादा खराब है।
बबन प्रसाद जी जब अंबरीश जी को जब यह सारा किस्सा बता रहे थे तो मैं भी साथ ही मौजूद था।
इस मुद्दे पर काफी देर बातें हुईं, बात निकली तो दूर तलक जाएगी
अगर अम्बरीश कुमार के लेख का लिंक दे देते तो ज्यादा बेहतर होता
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