अबे... मरना है क्या...
छत्तीसगढ़ की राजधानी जयस्तंभ चौक का व्यस्त चौराहा हर तरफ ट्रैफिक की रेलम-पेल के बाद भी एक जनाब इधर मोटर सायकल में मोबाइल पर लगे हैं। उधर दूसरे जनाब कार की स्टेयरिंग थामे मोबाइल पर बतिया रहे हैं। जब तक सिग्नल लाल था, कोई बात नहीं थी, सिग्नल हरा होने के बाद भी दोनों जनाब मोबाइल से अलग नहीं हुए और वाहन चलाते हुए ही बतियाते रहे। कार वाले जनाब की बात तो एक बार समझ में आती है, क्यों की कार चलाते हुए बात करना एक बार आसान रहता है, (लेकिन है तो यह भी गलत) पर बाइक वाले जनाब सिर को तिरछा किए बतियाते हुए ही बाइक चला रहे हैं। उनकी वजह से दूसरों को लगातार परेशानी हो रही है, लेकिन उनको इससे कोई सरोकार नहीं है। ऐसे में एक साथ कई तरफ से आवाजें आने लगतीं है कि अबे ...मरना है क्या? ये नजारा रायपुर के साथ-साथ कम से कम छत्तीसगढ़ के हर शहर में आम है। सुविधाएं होने के बाद भी लोग सुधरे नहीं हैं और इसका नतीजा यह होता है कि लगातार दुर्घटनाओं में इजाफा हो रहा है। देखा जाए तो मोबाइल आज एक तरह से मुसीबत का सामान बन गया है। वैसे भी जब किसी सुविधा का बहुत ज्यादा दुरुपयोग होने लगता है तो उसके परिणाम घातक ही होते हैं।
सोचने वाली बात यह है कि ऐसे लोगों के साथ किया क्या जाए? ऐसा कोई दिन नहीं जाता जब हमको शहर में भीड़ भरे मार्गों पर ऐसे निहायत गधे, बेवकूफ, पढ़े-लिखे गंवारों से पाला नहीं पड़ता है जो वाहन चलाते हुए मोबाइल पर बतियाते रहते हैं। हमें ऐसे लोगों को देखकर इतना ज्यादा गुस्सा आता है कि जी चाहता है खींच दी जाए दो-चार..। हमें तो लगता है कि ऐसे लोगों के साथ ऐसा ही होना चाहिए और उनकी सार्वजनिक पिटाई होनी चाहिए। अब यहां पर कोई इस बात की दुहाई दे सकता है कि जनाब हमारी जिंदगी है हम चाहे कैसे भी चले और कुछ भी करें। तो करो न जनाब आप अपनी मनमर्जी किसने रोका है लेकिन अपने साथ दूसरों की जान से खिलवाड़ करने का आपको अधिकार किसने दे दिया है। अपनी जान गंवानी है तो शौक से जाकर मरो हमें क्या।
यातायात के मामले में अपना छत्तीसगढ़ वैसे भी बहुत खराब है। यहां पर किसी को भी ट्रैफिक का सेंस नहीं है। जिसकी जहां मर्जी चले जा रहा है। आप अगर कहीं से आ रहे हैं तो पता नहीं किस गली-कूचे से कोई बाइक या फिर कार सवार अचानक आपके सामने तेजी से आ जाएगा। लोगो को जहां पर हार्न का उपयोग करना चाहिए वहां करते नहीं हैं, उपर से जहां पर इसकी जरूरत नहीं है वहां बिना वजह पे.. पे.. किए जाते हैं। एक तो ट्रैफिक का बहुत ज्यादा लोचा, ऊपर से तुर्रा यह है कि यहां का हर दूसरा बाइक या फिर कार सवार ऐसे नवाब हैं कि उनको वाहन चलाते हुए ही मोबाइल पर बात करने की बीमारी है। लोग यह जताने से बाज नहीं आते हैं कि उनसे ज्यादा व्यस्त कोई नहीं है। अरे जनाब आप इतने भी व्यस्त नहीं हैं कि अपने साथ दूसरों की जान से खिलवाड़ करें। लेकिन क्या किया जाए यहां तो मेरी मर्जी वाली बात है। पहले जब सुविधाएं नहीं थीं तब बात समझ में आती थी कि चलो मजबूरी है, लेकिन आज तो ऐसी कोई मोबाइल कंपनी नहीं है जिसके मोबाइल के साथ ईयर फोन नहीं आता है। इसको लगाकर आसानी से आप वाहन चलाते हुए बात कर सकते हैं। कई युवा और दूसरे वर्ग के समझदार लोग इसका उपयोग करते भी हैं, लेकिन न जाने कई युवा इससे परहेज क्यों करते हैं। हमें तो लगता है कि उनको एक तरह से वाहन चलाते हुए बिना ईयर फोन के बात करने की या तो बीमारी है या फिर ये लोग अपने को जेम्स बांड की औलाद समझते हैं कि हम भीड़ में भी कमाल कर सकते हैं। इस तरह से वाहन चलाते हुए मोबाइल पर बात करने वालों के साथ कई हादसे हो चुके हैं। इनके चक्कर में कई बेकसूर भी मारे गए हैं, लेकिन इनको किसी की जान से क्या लेना-देना। इनको तो अपनी स्टाइल मारनी है बस। कई जनाब तो ऐसे हैं जो अकेले नहीं परिवार के साथ भी वाहन चलाते हुए मोबाइल पर बातें करने से बाज नहीं आते हैं। इनको अपनी जान की परवाह तो रहती नहीं है, साथ अपने परिवार की जान से भी खेलने का काम करते हैं। अगर किसी जनाब को पत्नी ने टोक दिया तो उसकी शामत आ जाती है। ऐसे में पत्नी या तो अपने जनाब के साथ बाजार जाने से कतराती हैं या फिर कुछ भी बोलने से परहेज करती हैं।
वाहन चलाते हुए मोबाइल पर बातें करना अपराध भी है। इसके लिए ट्रैफिक पुलिस कार्रवाई भी करती है। राजधानी में तो कई लोगों पर भारी जुर्माना भी किया गया है। लेकिन जब भी किसी को ट्रैफिक वाले ऐसा करते हुए पकड़ते हैं तो जनाब लगा देते हैं अपने किसी आका नेता या मंत्री को फोन फिर क्या है, बेचारे ट्रैफिक वाले हो जाते हैं ऐसे में असहाय और छोडऩा पड़ता है उन साहब को। ऐसे में जनाब पुलिस वालों के सामने ही फिर से मोबाइल कान में लगाकर बतियाते हुए वाहन फर्राटे से चलाते हुए निकल जाते हैं। सोचने वाली बात यह है कि ऐसे लोगों के साथ किया क्या जाए? ऐसा कोई दिन नहीं जाता जब हमको शहर में भीड़ भरे मार्गों पर ऐसे निहायत गधे, बेवकूफ, पढ़े-लिखे गंवारों से पाला नहीं पड़ता है जो वाहन चलाते हुए मोबाइल पर बतियाते रहते हैं। हमें ऐसे लोगों को देखकर इतना ज्यादा गुस्सा आता है कि जी चाहता है खींच दी जाए दो-चार ... हमें तो लगता है कि ऐसे लोगों के साथ ऐसा ही होना चाहिए और उनकी सार्वजनिक पिटाई होनी चाहिए। अब यहां पर कोई इस बात की दुहाई दे सकता है कि जनाब हमारी जिंदगी है हम चाहे कैसे भी चले और कुछ भी करें। तो करो न जनाब आप अपनी मनमर्जी किसने रोका है लेकिन अपने साथ दूसरों की जान से खिलवाड़ करने का आपको अधिकार किसने दे दिया है। अपनी जान गंवानी है तो शौक से जाकर मरो हमें क्या। लेकिन दूसरों की जान लेने का सामान करेंगे तो पिटाई तो जरूरी है। या तो ऐसे लोग खुद सुधर जाए नहीं तो इनकी अब सार्वजनिक पिटाई का अभियान चला देना चाहिए।
हमने अपने शहर का हाल बयान किया है, हमें लगता है कि दूसरे शहरों में भी हाल ऐसा ही होगा। ब्लाग बिरादरी के मित्र उचित समझे तो अपने शहर का हाल जरूर बताएं।
9 टिप्पणियाँ:
ऐसा कोई दिन नहीं जाता जब हमको शहर में भीड़ भरे मार्गों पर ऐसे निहायत गधे, बेवकूफ, पढ़े-लिखे गंवारों से पाला नहीं पड़ता है जो वाहन चलाते हुए मोबाइल पर बतियाते रहते हैं। हमें ऐसे लोगों को देखकर इतना ज्यादा गुस्सा आता है कि जी चाहता है खींच दी जाए दो-चार..।
बिलकुल खींच ही देना चाहिए, ऐसे लोग इसी लायक हैं।
मोबाइल पर गाड़ी चलाते बातें करने वाले शादीशुदा लोगों का पत्नियां खाना-पीना ही बंद करे दें तो कैसा रहेगा?
मैडम, कुंवारों का क्या होगा?
ये लोग अपने को जेम्स बांड की औलाद समझते हैं कि हम भीड़ में भी कमाल कर सकते हैं। ये बात तो पते की कही है आपने
दूसरों की जिंदगी से खेलने का अधिकार तो किसी को नहीं है। ऐसा करने वालों को सजा मिलनी ही चाहिए।
सार्वजनिक पिटाई का फार्मूला बिलकुल सही लगता है
भाई साहब ...ये तो अपनी जिन्दगी दाव पर लगा कर मोबाइल पर बात कर रहे है......
हिम्मत है आप में तो .......आप भी ......कर लो बात.
ise dekhte hi uchit karyvahi honi chahiye
rules hona chahiye
सभी शहरों के यही हाल हुए हैं.
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