भाजपा यानी अटल-अडवानी-बाकी सब बेमानी
भारतीय जनता पार्टी को लोकसभा चुनाव में चारों खाने चित होना पड़ा है। इसके पीछे का कारण भले लालकृष्ण अडवानी को प्रधानमंत्री के रूप में पेश करना माना जा रहा है। पर एक हकीकत यह भी है कि अडवानी के अलावा भाजपा के पास और विकल्प ही नहीं था जिसको प्रधानमंत्री के रूप में पेश किया जाता। भाजपा का मतलब ही अब तक अटल और अडवानी रहा है। इन दोनों नेताओं के सामने बाकी सारे नेता बेमानी रहे हैं। अचानक नरेन्द्र मोदी का नाम उछाले जाने के बाद ही भाजपा में एक तरफ से फूट पड़ी और उसका हाल बुरा हुआ। वैसे कहा तो यह भी जा रहा है कि अगर अडवानी को प्रधानमंत्री के रूप में पेश नहीं किया जाता तो भाजपा का हाल इससे भी बुरा होता। अडवानी के बारे में ऐसा माना जाता है कि उनके जैसी संगठन क्षमता किसी में नहीं है।
लोकसभा चुनाव के नतीजे भाजपा के लिए चौकाने वाले ही नहीं बल्कि घातक साबित हुए हैं। भाजपा ने तो यह सोचा भी नहीं था कि उसके साथ ऐसा हो सकता है। भाजपा ने तो एक तरह से सत्ता में वापस आने का सपना संजो ही लिया था। भाजपा का ऐसा मानना था कि उसको अब सरकार बनने से कोई रोक नहीं सकता है। भाजपा ने जिस तरह से लालकृष्ण अडवानी को प्रधानमंत्री के रूप में पेश किया था उससे भाजपा इस खुशफहमी में थी कि अडवानी को देश की जनता ठीक उसी तरह से स्वीकार कर लेगी जिस तरह से अटल बिहारी बाजपेयी को किया था। भाजपा का ऐसा सोचना था तो उसके पीछे वह गणित रहा है जिसमें भाजपा का मतलब ही है अटल-अडवानी है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि भाजपा को आज जो मुकाम हासिल है उसके पीछे इन्हीं दोनों नेताओं का सबसे बड़ा हाथ रहा है। भाजपा में अटल के बाद अगर वास्तव में किसी नेता में संगठन क्षमता रही है तो वे निर्विवाद रूप से अडवानी ही रहे हैं। उनकी संगठन क्षमता से भाजपा के लोग तो इंकार नहीं कर सकते हैं। अब यह बात अलग है कि हर पार्टी में गुटबाजी होती है और इसी गुटबाजी का परिणाम यह रहा कि अचानक गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी का नाम प्रधानमंत्री के रूप में उछाल दिया गया। भले ऐसा माना जा रहा है कि अगर अडवानी के स्थान पर मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में पेश किया जाता तो भाजपा को सफलता मिल जाती। लेकिन राजनीति के पंडितों की माने तो ऐसा करने पर भाजपा का और बुरा हाल हो जाता। अगर भाजपा को आज 100 से ज्यादा सीटें मिली हैं तो वह अडवानी की संगठन क्षमता का नतीजा है। और किसी नेता के नेतृत्व में चुनाव लड़ा जाता तो भाजपा की हालत इससे बुरी होती।
अटल के बाद भाजपा में एक अडवानी ही रह गए थे जिनके नाम को भाजपा भुना सकती थी और भाजपा ने इसके लिए कोशिश भी की। भाजपा ने तो एक तरह से पूरे देश में ऐसा माहौल बनाने का प्रयास भी किया था कि इधर चुनाव हुए नहीं कि उधर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर अडवानी नजर आएंगे। और लगता है अडवानी जी भी इसी मुगालते में थे कि उनको तो अब प्रधानमंत्री बनने से कोई नहीं रोक पाएगा। लेकिन इसका क्या किया जाए कि अपने देश की जनता आज ज्यादा ही समझदार हो गई है।
सत्ता में न आ पाने के कारण अडवानी ने तो अपने वादे के मुताबिक राजनीति से किनारा करने की बात कह दी थी। लेकिन भाजपा कैसे उनका दामन छोड़ सकती है। भाजपा को यह बात अच्छी तरह से मालूम है कि विपक्ष में दमदारी से अपनी बातें रखने के लिए उनके पास अडवानी से बड़ा कोई नेता नहीं है। भले मुरली मनोहर जोशी मौके का फायदा उठाते हुए विपक्ष के नेता बनने को तैयार बैठे हैं, पर उन पर भाजपा संगठन भरोसा करने वाला नहीं है। ऐसे में अडवानी को मनाने के लिए सारा संगठन जुटा और अडवानी को मानना पड़ा है। इस मान-मनव्वल ने भी यह साबित किया है कि भाजपा यानी अटल-अडवानी है, बाकी सब बेमानी है।
7 टिप्पणियाँ:
बिल्ली के भाग से छींका टूटा...
दोनों पर लागू..
१) कांग्रेस. उम्मीद से ज्यादा सीटें गिरी पाले में..
लोग भूल गए अमरनाथ, काश्मीर, सिख दंगों आदि को.. बोफोर्स की कौन कहे..
२) भा-ज-पा. हाथ में आते आते गिर के फ़ुट गया... लोग भूल गए ki आर्थिक सुधार (??) में कोई हाथ नहीं था कांग्रेस या मनमोहन का.. वोह to भला हो भारतीय कम्पनियों का और हमारे एन्गिनीरों का... पर कांग्रेस सब भुना ले गयी... लोग 50+ से ज्यादा आतंकवादी हमलों को भी भूल गए!!!
जाय हिंद bhaad में...
इसमें संदेह नहीं है कि भाजपा में बड़े नेताओं का टोटा है। अटल के बाद अडवानी भी नहीं रहे तो भाजपा का क्या होगा यह जरूर सोचने वाली बात है।
भाजपा को सबक लेना चाहिए कि अतिआत्मविश्वास कितना घातक होता है। भाजपा तो स्वंभू सरकार बन बैठी थी।
अडवानी की संगठन क्षमता से कोई इंकार नहीं कर सकता है
अडवानी के मुगालते को जनता को बड़ी बेदर्दी से तोड़ा है
नरेन्द्र मोदी में दम होता तो अपने राज्य में भाजपा को सारी सीटें न दिलवा देते।
भाजपा को तो गुटबाजी ले डूबी
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