कलम हो गई मालिकों की गुलाम-पत्रकार नहीं कर सकते मर्जी से काम
प्रेस स्वतंत्रता दिवस पर विशेष:
आज प्रेस स्वतंत्रता दिवस है। यहां पर सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि क्या वास्तव में प्रेस स्वतंत्र है? क्या वास्तव में प्रेस में काम करने वाले पत्रकारों की कलम ऐसा कुछ लिखने के लिए स्वतंत्र है जिससे समाज और देश का भला हो? इसके जवाब में यही बातें सामने आती हैं कि न तो आज प्रेस स्वतंत्र है और न ही पत्रकार की कलम। हकीकत यह है कि प्रेस जहां सरकार के हाथों में नाचने वाली कठपुतली हो गई है, वहीं पत्रकार की कलम मालिकों की गुलाम हो गई है। आज जहां कोई प्रेस यह दावा नहीं कर सकती है कि वह पूरी तरह से स्वतंत्र है और उसके अखबार में वही छपता है जो उसके पत्रकार लिखते हैं। आज कोई पत्रकार भी यह दावा नहीं कर सकता है कि वह जिस हकीकत को लिखते हैं उसको छापने का हक उनके पास है। अगर हकीकत यही है तो फिर काहे का प्रेस स्वतंत्रता दिवस।
आज प्रेस स्वतंत्रता दिवस पर हम वो सब लिखने का साहस कर रहे हैं जो हम लिखना तो बरसों से चाह रहे थे, पर जानते थे कि हमारे लिखे को कोई छापने वाला नहीं है। लेकिन आज हमारे मन में बरसों से भरी आग को सबके सामने रखने के लिए हमारे पास एक ब्लाग है जिसमें लिखने के लिए हमें कम से कम किसी अखबार के मालिक या फिर मालिक के चहेते संपादक की मंजूरी की जरूरत नहीं है। हम पत्रकारिता से करीब 25 सालों से जुड़े हैं। 20 साल तो प्रेस में नौकरी करते हो गए हैं। इसके पहले के पांच साल ग्रामीण संवाददाता के रूप में काम किया। हमने जब लिखने के लिए कलम उठाई थी तब हम यही सोचकर पत्रकारिता में आए थे कि हम समाज और देश के लिए जो लिखेंगे वो छपेगा तो अपने समाज और देश का कुछ तो भला होगा। लेकिन हम तब नहीं जानते थे कि दूर के ढोल सुहावने होते हैं कि तरह पत्रकारिता का काम भी वैसा ही है। हम जब काम करने लगे तो हमें धीरे-धीरे अहसास होने लगा कि पत्रकार नाम का जो प्राणी होता है वो दुनिया के लिए तो सबका संकटमोचक होता है, पर हकीकत में ऐसा है नहीं।
आप एक पत्रकार हैं तो आपसे आपका समाज और आपके नाते-रिश्तेदार और सभी परिचित यह उम्मीद करते हैं कि उनके साथ अगर कहीं कोई अन्याय या फिर किसी तरह की भी ज्यादती हो रही है तो आपकी कलम उसके खिलाफ जहर उगले और आप उनको न्याय दिलाने का काम करें। लेकिन क्या कोई पत्रकार ऐसा कर पाता है? यह सवाल किसी भी पत्रकार से पूछा जाए तो उसका जवाब देने में वह सोचने लगेगा। क्योंकि हकीकत यह है कि कोई भी पत्रकार ऐसा कुछ भी लिखने की हिम्मत नहीं कर सकता है जो उसके अखबार मालिक को पसंद न हो। पसंद न हो का मतलब क्या है उसको भी समझना होगा। आज अखबार पूरी तरह से पेशेवर हो गए हैं। अखबारों में वही खबरें प्रकाशित की जाती हैं जिससे अखबार मालिकों को फायदा नजर आता है। समाज के सरोकार से जुड़ी काफी कम खबरों को ही अखबारों में स्थान मिल पाता है। यह होती है मालिकों की पसंद। अगर कोई पत्रकार एक असहाय अबला के लिए कुछ लिखना चाहता है, या फिर किसी गरीब परिवार की दास्तान लिखना चाहता है तो उसको ऐसा लिखने नहीं दिया जाता है। इन सब बातों को छोड़ भी दिया जाए तो एक पत्रकार खुद के साथ हो रहे अन्याय के बारे में भी अगर लिखना चाहे तो उसे लिखने नहीं दिया जाता है।
ऐसा हमारे साथ भी कई बार हो चुका है। हमारा वैसे खेल पत्रकारिता से ज्यादा नाता रहा है। ऐसे में हमने अपने राज्य के साथ देश के खेल और खिलाडिय़ों के साथ होने वाले अन्याय के लिए आवाज उठाने के मकसद से ही अपनी एक खेल पत्रिका खेलगढ़ का प्रकाशन प्रारंभ किया है। हमारी इस पत्रिका में हम वही छापते हैं जिसके बारे में हमें लगता है कि इससे खेल और खिलाडिय़ों का भला होगा। हमारी इस पत्रिका पर हमारा ही अधिकार है ऐसे में हम अपनी मर्जी से अपनी कलम का उपयोग तो कर सकते हैं। सबसे पहले हमने ही महिला खिलाडिय़ों के साथ होने वाले यौन शोषण का मामला उठाने का काम किया है। ऐसे और कई मुद्दे हैं जो हमने उठाए हैं।
बहरहाल हम उस मुद्दे पर लौटे जिसकी बात कर रहे हैं। हमारे एक पत्रकार मित्र ने अपने अखबार के लिए एक गरीब सब्जी वाली का साक्षात्कार लिया और उसको बनाकर संपादक के टेबल पर रखा तो इसके जवाब में उस पत्रकार को यह कहा गया कि इस सब्जी वाली का साक्षात्कार छापने से अखबार का क्या भला होगा। अगर साक्षात्कार छापना है तो किसी बड़े उद्योगपति के बच्चे का लेकर आओ जिसके छपने से कम से कम उस उद्योगपति का विज्ञापन तो मिलेगा। यह महज एक उदाहरण है। ऐसे अनेकों उदाहरण भरे पड़े हैं। वास्तव में देखा जाए तो आज अखबारों को चलाने का काम सरकारें कर रहीं हैं। सरकार के खिलाफ खबरें छाप कर आप अखबार निकाल ही नहीं सकते हैं। सरकार से जो विज्ञापन मिलते हैं उसी से अखबार का खर्च चलता है। इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता है कि अगर सरकारी विज्ञापन न मिलें तो अखबार छपे ही नहीं। लेकिन इसका यह मतलब तो कदापि नहीं है न कि अखबार पूरी तरह से सरकार के गुलाम हों जाएं जैसा की आज हो गया है। किसी भी पत्रकार में इतना दम नहीं है कि वह किसी मंत्री के खिलाफ कुछ लिखने की हिम्मत करे। कुछ अखबारों में ऐसी खबरें अगर छपती हैं तो इसके पीछे का कारण भी सब जानते हैं कि उस अखबार को उस मंत्री ने उसके मन मुताबिक विज्ञापन नहीं दिया होगा। इधर खबर छपी नहीं कि उधर मंत्री जी पहुंच गए अखबार के मालिक के दरबार में सजदा करने के लिए। सजदा करने के साथ वहां पर दान पेटी में अपनी इच्छा के अनुसार नहीं बल्कि अखबार मालिक की इच्छा के अनुसार चढ़ावा भी चढ़ाना पड़ा।
एक वह समय था जब अखबारों को देश का चौथा स्तंभ कहा जाता था। वैसे कहा तो आज भी अखबार को चौथा स्तंभ जाता है, पर यह स्तंभ अब हिल चुका है और यह नेताओं, मंत्रियों और उद्योगपतियों के सहारे के बिना खड़े नहीं रह सकता है। अगर ये अपने हाथ खींच लें को चौथा स्तंभ इतना ज्यादा जर-जर हो चुका है कि उसको गिरने में एक पल का भी समय नहीं लगेगा। ऐसे में जबकि देश के इस चौथे स्तंभ के हाल से हर आम आदमी परिचित हो चुका है और आज सब यह जानते हैं कि अखबार कैसे चल रहे हैं तो फिर ऐसे में प्रेस स्वतंत्रता दिवस मनाने का कोई मतलब रह जाता है क्या? हमारी नजर में तो इसका कोई मतलब नहीं है। इस दिवस पर जो आयोजन होंगे उन आयोजनों में भी किसी वरिष्ठ पत्रकार को नहीं बल्कि किसी बड़े मंत्री या नेता को बुलाया जाएगा जो वही पुराना राग अलापेगे कि अखबार देश का चौथा स्तंभ है यह सरकार बना भी सकता है और सरकार गिरा भी सकता है। मगर क्या ऐसा आज के जमाने में होना संभव है कि एक अखबार सरकार बना दे। ऐसा करने का दम हमें तो किसी भी अखबार में नजर नहीं आता है। लिखने को तो और बहुत कुछ है। यह एक ऐसा मुद्दा है जिस पर धाराप्रवाह लिखा जा सकता है, लेकिन ज्यादा लंबा लिखने से हमारी ब्लाग बिरादरी के भाई ही बोर हो जाते हैं। इसलिए फिलहाल इतना ही फिर आगे मौका मिला और ब्लाग बिरादरी के मित्रों ने चाहा तो जरूर और लिखा जाएगा। लिखने के लिए बहुत से किस्से हैं जिनको आगे जरूर लिखा जाएगा।
ब्लाग बिरादरी के मित्रों के विचार हम इस बारे में जरूर जानना चाहेगे। तो आप अपने विचारों से हमें जरूर अवगत कराएं। आपके विचारों का इंतजार रहेगा।
10 टिप्पणियाँ:
हकीकत यह है कि प्रेस जहां सरकार के हाथों में नाचने वाली कठपुतली हो गई है, वहीं पत्रकार की कलम मालिकों की गुलाम हो गई है, बिलकुल ठीक कहा आपने
एक पत्रकार होते हुए आपने अखबार मालिकों के खिलाफ लिखने का बहुत बड़ा साहस दिखाया है। ऐसा साहस शायद ही कोई पत्रकार कर सकता है। आपके लेख को पढऩे के बाद लगा कि आज की दुनिया में सच्ची बातें लिखने वालों की कदर नहीं होती है। आज का जमाना चाटुकारों का है।
हम कुछ पत्रकार मित्रों को जानते हैं उनसे जब भी चर्चा होती है तो यह बातें सामने आती है कि पत्रकारों की कौम खुद शोषण का शिकार है, लेकिन आप लोगों के साथ विडंबना यह है कि आप लोग अपने ही शोषण के खिलाफ नहीं लड़ पाते हैं जबकि दूसरों को न्याय दिलाने के लिए आप लोगों की कलम घिस जाती है।
आपकी साहसिक लेखनी को हमारा सलाम
सही मायनों में आप सच्चे पत्रकार है गुरु
नई बात नहीं है, पूंजी के तंत्र में पूंजी के गुलाम हो कर ही गुलछर्रे उड़ा सकते हैं। या फिर तैयार रहिए जीने को अभावों में।
वाह जी, कमाल की जानकारियां दी है आपने. मेरा ब्लॉग भी देखे कभी.....
http://deveshvyas.blogspot.com
लिखने का साहस किया नंगे सच को आज।
चौथे खम्भे की तरफ देखे सकल समाज।।
रोजी रोटी सामने पत्रकार मजबूर।
खबरें आती आजकल सच्चाई से दूर।।
और
लिखूँ जन-गीत मैं प्रतिदिन, ये साँसें चल रहीं जबतक।
कठिन संकल्प है देखूँ, निभा पाऊँगा मैं कबतक।
उपाधि और शोहरत की ललक में फँस गयी कविता,
जिया हूँ बेचकर श्रम को, कलम बेची नहीं अबतक।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
एक वह समय था जब अखबारों को देश का चौथा स्तंभ कहा जाता था। वैसे कहा तो आज भी अखबार को चौथा स्तंभ जाता है, पर यह स्तंभ अब हिल चुका है और यह नेताओं, मंत्रियों और उद्योगपतियों के सहारे के बिना खड़े नहीं रह सकता है। अगर ये अपने हाथ खींच लें को चौथा स्तंभ इतना ज्यादा जर-जर हो चुका है कि उसको गिरने में एक पल का भी समय नहीं लगेगा। यह एक कटु सच कह दिया है आपने, इतना अच्छा लिखने के लिए बधाई
sach hai, aaj k dunia chatukaro ki hai.
bolne ki swatantrata ka koi matlab hi nahi.
lekin aisi visam paristhiti me hame milkar kam karna hamara pahla uddesh hona chahiye
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