दो दशक बाद किया बस का सफर
बस के अंदर से खींची गई सड़क की एक तस्वीर
हमें कल बस का सफर करने का मौका मिल गया। यह सफर वास्तव में सुहाना रहा। हमें बस में सफर करने का मौका करीब दो दशक बाद मिला था। वैसे बस में जाना कमोवेश हम पसंद नहीं करते हैं, जहां जाते हैं अपनी मोटर सायकल या फिर कार में जाते हैं। हमें जब राजधानी के नए अंतरराष्ट्रीय स्टेडियम में रिपोर्टिंग करने जाना था तो क्रिकेट संघ ने कहा कि हम वाहन भिजवा देंगे ताकि सारे पत्रकार आ सके। हम वहां जाना तो अपने ही वाहन से चाहते थे, लेकिन पत्रकार मित्रों के आग्रह पर हमने साथ जाने मंजूर किया। जब यह वाहन आया तो यह कोई कार नहीं बल्कि एक बस थी जिसमें हम लोग करीब एक दर्जन पत्रकार और फोटोग्राफर मस्ती करते हुए स्टेडियम गए और वापस आए। इस सफर ने कॉलेज के दिनों की याद ताज कर दी।
हम जब नए स्टेडियम जाने के लिए प्रेस क्लब पहुंचे तो हमें मालूम नहीं था कि हमें किस वाहन से स्टेडियम जाना है, हम पहुंचे तो सभी पत्रकार मित्र पहुंच गए थे। ऐसे में हमने प्रदेश क्रिकेट संघ के उपाध्यक्ष राजय सिंह परिहार को फोन लगाया कि भाई साहब सारे पत्रकार प्रेस क्लब पहुंच गए हैं आपका वाहन कहां है? उन्होंने बताया कि महेन्द्रा की एक बस जिसका नंबर 0713 है, वहीं पास में खड़ी है। हम सभी लोग बस में सवार हो गए और चल दिए स्टेडियम की तरफ। हमने अपने पत्रकार मित्रों को बताया कि यार आज हमें करीब 20 साल बाद बस में सफर करने का मौका मिला है। हम बता दें कि हमें चाहे जितनी भी दूर जाना होता है हम अपनी मोटर सायकल या फिर कार से जाते हैं। हम रायपुर से करीब 300 किलो मीटर दूर जगदलपुर और करीब इतनी ही दूर कोरबा के साथ कई बार 300 से 500 किलो मीटर तक का सफर अपनी मोटर सायकल से कर चुके हैं। हमें ज्यादातर अपने वाहन और साधन में जाना पसंद है। इसके पीछे दो कारण हैं, एक तो किसी का अहसान नहीं रहेगा कि हम उनके वाहन में गए थे, दूसरे यह कि हम अगर किसी और के वाहन में जाते हैं तो हमें उनके हिसाब से वापस आना पड़ता है। अपने पत्रकारिता के दो दशक से ज्यादा के जीवन में महज एक बार जनसंपर्क के वाहन का उपयोग तब किया था, जब कोरबा में करीब पांच साल पहले भारत और पाकिस्तान के पूर्व क्रिकेटरों का एक मैच हुआ था। वैसे जनसंपर्क के वाहन का उपयोग करना हर पत्रकार अपना जन्म सिद्ध अधिकार सममझता है, पर कम से कम हमें यह बात पसंद नहीं है।
हमारा रायपुर से नए स्टेडियम तक का करीब 50 किलो मीटर का आने-जाने का सफर बहुत सुहाना रहा। हम लोग जिस तरह से मस्ती करते हुए गए और आए उसने कॉलेज के दिनों की याद ताजा कर दी। हमारे एक फोटोग्राफर मित्र दीपक पांडे ने किस तरह से कंडेक्टर बनकर मस्ती की इसका किस्सा हम बात में बताएंगे।
4 टिप्पणियाँ:
ये तो मस्त रहा..कभी एस टी सी से चल विवरण भरें..तो हम ग्रास रुट की जानकारी पायें..इतनी उम्मीद ज्यादा तो नहीं हो गई>> हा! हा!
वाह ! यह पोस्ट बहुत अच्छी लगी..... पर मुझे तो बस देखते ही उलटी होने लगती है...... इसीलिए अवोइड ही करता हूँ बस का सफ़र..... पर जब बस में जाना ही होता है तो ..... पेरिनोर्म का इंजेक्शन लेके ही सफ़र करता हूँ......
ये बढिया सफ़र रहा. क्रिशमश की रामराम.
रामराम.
दश्कों बाद हुए इस बस सफर के लिए धन्यवाद.
बडे भाई समीर लाल जी को ग्रास रुट की जानकारी चाहिए.
आगे के पोस्टों का इंतजार रहेगा.
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