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बुधवार, सितंबर 30, 2009

बॉर्डर पर बेटियों ने बदली बयार

नारी शक्ति के रूप नवरात्रि को अभी समाप्त हुए तीन दिन ही हुए हैं कि बॉर्डर से खबर आई है कि भारत की बेटियों ने बॉर्डर की बयार ही बदल दी है। एक तो बार्डर पर बेटियों की तैनाती ही मिसाल थी, अब इन्हीं बेटियों के कारण बॉर्डर के किनारे रहने वाली मांओं का जीवन बदल गया है। इन मांओं को अब अपने खेतों में जाने की आजादी मिल गई है, नहीं तो पहले इनको अपने खेतों को दूर से उसी तरह से निहारना पड़ता था जिस तरह से हम लोग चांद और सूरज को निहारने के लिए मजबूर रहते हैं। पर अब बॉर्डर पर बेटियों ने सारी बयार बदल दी है। यह पाकिस्तान के उन निकम्मों के लिए करारा जवाब भी है जो बॉर्डर पर तैनात बेटियों को वैश्या कहने से बाज नहीं आए थे। अब जिसकी जैसी मानसिकता होगी, वह तो वैसा ही सोचेगा। हो सकता है पाकिस्तान में बेटियों को यही समझा जाता हो।

आज सुबह उठे तो दैनिक भास्कर में एक अच्छी खबर पर नजरें पड़ीं। यह खबर थी बॉर्डर में तैनात महिला बटालियन की। भास्कर के लिए यह रिपोर्ट बनाने का काम भी हिन्द की एक बेटी कलमकार शायदा जी ने किया है। उनकी इस रिपोर्ट के लिए उनका भी नमन करते हैं। इस बटालियन के बारे में इस खबर में काफी विस्तार से जानकारी दी गई है कि कैसे इस महिला बटालियन की सदस्यों ने 36 हफ्ते की ट्रेनिंग पूरी की। यही नहीं इस खबर में बताया गया है कि इस बटालियन में उस पंजाब की कुडिय़ां हैं जिस पंजाब में एक समय लड़कियों को भ्रूण में मार दिया जाता था। अब उसी पंजाब ने उस कलंक को इस मिसाल से धोने का काम कर दिया है। बटालियन की एक सदस्य बठिंडा की सुखमनजीत कौर से चर्चा में बताया गया है कि उनको बॉर्डर पर तैनात होने की कितनी खुशी है। बॉर्डर की निगरानी करने के बाद भी किसी भी महिला सैनिक के चेहरे पर कहीं थकान नजर नहीं आती है। इस बटालियन की सदस्यों को उस समय बहुत अच्छा लगता है कि जब बॉर्डर के आस-पास के गांवों की महिलाएं उनकी सुरक्षा में अपने खेतों में काम करती हैं, और उनको दुवाएं देते हुए बताती हैं कि इसके पहले उनको कभी खेतों में जाने का मौका ही नहीं मिलता था। बॉर्डर के पास के खेतों में कभी भी महिलाओं को जाने की इजाजत नहीं थी, वहां केवल पुरुष ही जाते थे, पर जब से बॉर्डर पर महिला बटालियन आई हैं, तब से बॉर्डर की बयार बदली और महिलाओं को खेतों में जाने का मौका मिलने लगा है।

गांवों की महिलाएं अब अपने खेतों में जाकर अपनी मिट्टी को छुकर देखने के बाद कैसे रोमांचित हैं यह बताने की जरूरत नहीं है। हर गांव की महिलाओं को अपने हिन्द की इन बेटियों पर नाज है। ये वो बेटियां हैं जो किसी भी मायने में बेटों से कम नहीं हैं। ट्रेनिंग में महिला बटालियन की सदस्यों ने वह सब किया जो पुरुष बटालियन के सदस्य करते हैं। 40 किलो मीटर तक दौडऩे से लेकर अपने घायल साथी को हथियारों के साथ कंघे पर उठाकर भागने का काम भी किया। बटालियन की सभी 450 सदस्य कमांडो ट्रेनिंग से बेहद रोमांचित हैं और अपनी भारत मां की रक्षा का जिम्मा पाकर गर्व महसूस कर रही हैं। अभी इस बटालियन की सदस्यों को बॉर्डर की निगरानी करके शाम को बीएसएफ के कैम्प में लौटना पड़ता है, जब इनके रहने की व्यवस्था हो जाएगी तो ये सभी रात में भी वहीं रहेंगी।

बॉर्डर की बयार बदलने की इस खबर से पाक के उन निकम्मों को सोचना चाहिए जिन्होंने हिन्द की इन बेटियों की तैनाती की खबर को यह कहा था कि भारत ने बॉर्डर में वैश्याओं को तैनात किया है। अब पाक जैसे घटिया मानसिकता वाले देश से अच्छा सोचने की उम्मीद भी कैसे की जा सकती है। हमें तो लगता है कि पाक में पाकी बेटियों को यही समझते हैं, तभी तो उन्होंने हिन्द की बेटियों के बारे में ऐसा सोचा। अरे हमारे देश में तो वैश्याओं को भी सम्मान की नजर से देखा जाता है, क्योंकि हम लोग जानते हैं कि अगर कोई अपना जिस्म बेचकर अपना पेट भर रहा है तो यह उसकी मजबूरी होगी। अब पाक में तो कोई मजबूर है नहीं, वहां सब मगरूर हैं और मगरूरों से क्या उम्मीद की जा सकती है। जब इनका मगरूरपन टूटेगा तो फिर पूरा विश्व भी भागने के लिए कम पड़ जाएगा। एक दिन वह जरूर आएगा जब पाक को हमारे हिन्द की यही बेटियां बताएगीं कि उनमें कितना दम है, तब देखेंगे कि कैसे पाक के सैनिक इनका सामना करते हैं। भारत वह देश है जिसने झांसी की रानी को जना है और जिसने दुश्मनों का बताया था कि हिन्द की बेटियों में कितना दम है। आज भी भारतीय नारियों में झांसी की रानी बसी हैं, बस वक्त आने दें ये बता देंगी कि इनमें कितना दम है।

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मंगलवार, सितंबर 29, 2009

ब्लागवाणी वापस आई-खुशियां मनाओ भाई

ब्लागवाणी ने ब्लाग बिरादरी की भावनाओं की कदर करते हुए वापस आने का जो फैसला किया है, उसके लिए हमारे पास आभार के शब्द ही नहीं हंै। हमें लगता है कि इस फैसले से ब्लाग बिरादरी का असली दशहरा तो आज मनेगा। आज ही ब्लाग बिरादरी के लिए विजयदशमी है तो फिर देर किस बात की है मित्रों।

जलाएं खुशियों के दीए और बांटे मिठाई

और दें उन सबको बधाई

जिनके कारण ब्लागवाणी लौटकर आई

खुश हो जाओ सभी भाई

और मजे से चटके लगाओ भाई

चटके लगाओ जरूर भाई

पर फिर से न झटके लगाना भाई

मुश्किल से ब्लागवाणी लौट कर आई

अब न देना किसी गलती की दुहाई

अब अगर हो गई जुदाई

तो फिर रोते रहोगे भाई

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छत्तीसगढ़ में ब्लागरों का स्नेह मिलन


उस दिन हम हमेशा की तरह शाम को करीब 5 बजे प्रेस जाने के लिए घर से निकले ही थे कि अचानक बीएस पाबला जी का फोन आया और उन्होंने काफी प्यार से कहा कि कोई नाराजगी है क्या?
हमने कहा नहीं ऐसी तो कोई बात नहीं है।
उन्होंने कहा- फिर आपके दर्शन क्यों नहीं हो रहे हैं?
हमने कहा कि अभी भिलाई आना नहीं हो पा रहा है।

न्होंने कहा हम तो प्रेस क्लब रायपुर की बात कर रहे हैं क्या आपको मालूम नहीं है कि यहा अलबेला खत्री जी आए हुए हैं।
लीजिए पहले आप अनिज जी ही बात कीजिए और उन्होंने सीधे फोन थमा दिया हमारे प्रेस क्लब के अध्यक्ष अनिल पुसदकर जी को।

उन्होंने हमेशा की तरह अधिकार परक आवाज में डांटते हुए कहा अबे कहां है? अब तक पहुंचा क्यों नहीं है?
हमने कहा भईया हमें जानकारी नहीं थी।
उन्होंने कहा कि अबे प्रेस में तो सूचना भिजवाई थी।
हमने कहा हम बस पांच मिनट में पहुंच रहे हैं।
और अपने अपनी बाइक का रास्ता प्रेस की बजाए प्रेस क्लब की तरफ मोड़ दिया और पहुंच गए महज पांच मिनट में ही प्रेस क्लब।
वहां अलबेला जी से परिचय हुआ और उन्होंने गले लगाकर मुलाकात की। उनके साथ ही अपने दुर्ग के शरद कोकास जी थे। उनसे भी हमारी यह पहली मुलाकात थी। उनसे भी गले लगकर मिलना हुआ।
इसके बाद अपने अभनपुर के ललित शर्मा से गले मिलने का मौका मिला। फिर पाबला जी और अनिल जी से हाथ मिलाया।
अभी हम लोग बैठे बातें कर ही रहे थे कि तभी गिरीश पंकज जी आ गए। इसके थोड़ी देर बात बिलासपुर प्रेस क्लब के अध्यक्ष शशिकांत कोन्हेर जी भी आ गए। इसके बाद हम लोगों के बीच चला बातों का दौर। सारी बातें ब्लाग बिरादरी में चल रही वर्तमान परिस्थितियों पर केन्द्रित रहीं।
इस करीब डेढ़ घंटे के स्नेह मिलन में काफी अच्छा लगा। अलबेला जी से साथ बाकी साथी ब्लागरों से मुलाकात काफी सुखद और यादगार रही। अलबेला जी से मिलकर लगा ही नहीं कि उनसे पहली बार मिल रहे हैं। उनके साथ और साथियों के साथ कैसे डेढ़ घंटे का समय कटा पता ही नहीं चला। फिर सब लोग वहां से निकले। हम लोग जब चलने के लिए हुए तो हमने अपनी खेल पत्रिका खेलगढ़ सबको भेंट की। इस बीच अपने पाबला जी का कैमरा तैयार था, तस्वीरें लेने के लिए। ऐसे में जबकि तस्वीरों का दौर चल रहा था तो मजाक-मजाक में ही सबने हमारी पत्रिका खेलगढ़ को ऐसे सामने कर दिया मानो उसका विमोचन हो रहा हो। वास्तव में यह स्नेह मिलन इतना सुखद रहा कि लग रहा था कि यह दौर चलता रहे। लेकिन इसका क्या कि जाए कि सबको जाना था। ऐसे में हम तो चल दिए प्रेस की तरफ और बाकी अनिल जी के साथ निकल गए।

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सोमवार, सितंबर 28, 2009

असली रावण कौन?

आज विजयदशमी का पर्व है। यानी एक तो असत्य पर सत्य की विजय का और दूसरा रावण की डेथ डे का, यानी आज रावण का अंत हुआ था। रावण का तो अंत हो गया, पर विश्व में करोड़ों रावण आज भी जिंदा हैं। सोचने वाली बात यह है कि असली रावण कौन है। जो मर गया वो रावण या आज जो जिंदा हैं वो रावण।

असली रावण कौन का सवाल हम इसलिए कर रहे हैं कि आज विजयदशमी के दिन हमारे पास एक एसएमएस आया। इसी ने हमें ब्लाग बिरादरी के सामने यह सवाल रखने को मजबूर किया कि असली रावण कौन है? इस एसएमएस का मजमून कुछ यूं है कि एक लंकापति रावण थे जिनके दस सिर और बीस आंखें थीं। बीस आंखों के बाद भी रावण की नजरें केवल एक स्त्री (सीता) पर थी। लेकिन आज के पुरुषों की दो आंखें हैं और नजरें हर स्त्री पर हैं, तो बताएं असली रावण कौन?

अंत में विजयदशमी की सबको शुभकामनाएं और बधाई।

साथ ही यह उम्मीद की अपने मन के रावण को मारो भाई।

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ब्लागवाणी बंद करवाना किसी नए एग्रीगेटर की साजिश तो नहीं?

सुबह उठते ही जब नेट पर आएं तो आज विजयदशमी के दिन रावण के दहन से पहले ही ब्लाग बिरादरी के सबसे चहेते एग्रीगेटर ब्लागवाणी के दहन की दुखद खबर मिली। जब ब्लागवाणी का पेज खोला तो भरोसा ही नहीं हुआ कि यह बंद हो गया है। सारे जतन करके देखे पर ब्लागवाणी ने तो विदाई ले ली थी फिर पेज खुलता कैसे। गूगल से अपने ब्लाग में गए तो वहां पर ब्लागवाणी का बटन बंद की खबर से चिढ़ाता नजर आया। इसके बाद चिट्ठा जगत में गए तो ब्लागवाणी के बंद होने की कुछ खबरें देखने को मिलीं।

सोचने वाली बात यह है कि आखिर ब्लागवाणी के कर्ताधर्ताओं को इसको बंद करने की जरूरत कैसे पड़ गई। हिन्दी ब्लागों के लिए ब्लागवाणी ही तो एक बड़ा माध्यम था। इसमें कोई दो मत नहीं है कि ब्लागवाणी सबका चहेता रहा है और अगर सबने चाहा तो आगे भी रहेगा। ब्लागवाणी वालों ने अगर इसको बंद करने का फैसला किया तो इसके पीछे कोई छोटा-मोटा नहीं, बड़ा कारण होगा। अब क्या कारण है यह तो उनके ही खुलासा करने से मालूम हो सकता है। हमें लगता है कि ब्लागवाणी वालों को इस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। हमें न जाने क्यों इस बात का अंदेशा को रहा है कि कहीं यह किसी नए एग्रीगेटर की साजिश तो नहीं है कि वह ब्लागवाणी की दुकान बंद करवा दे और जब सारे ब्लाग बिरादरी के लोग एग्रीगेटर को लेकर परेशान हों तो अपनी दुकानदारी चालू कर ले। हो न हो हमें तो यही बात लग रही है। बाकी ब्लाग बिरादरी क्या सोचती है हम नहीं जानते हैं। आप भी अपना मत दे तो मालूम हो कि आप क्या सोचते हैं।

हमने जब चिट्ठा जगत के द्वारा हमारे साथ की गई मनमर्जी की बात लिखी थी तो सबने समझाने की कोशिश की थी कि इतना बड़ा एग्रीगेटर स्वचलित है तो गलतियां लाजिमी है, ऐसा ही ब्लागवाणी के साथ भी है, फिर क्यों कर कोई ब्लागवाणी के इतने पीछे पड़ा कि उसको बंद करने की नौबत आ गई। हम नहीं जानते कि इसके बंद होने से किसको क्या हासिल होगा, पर हम इतना जरूर कह सकते हैं कि इसके बंद होने से जहां हिन्दी ब्लाग बिरादरी का बहुत ज्यादा नुकसान होगा, वहीं साजिश करने वालों के हौसले भी बढ़ेंगे।

ऐसे में हमारा ऐसा मानना है कि ब्लागवाणी को इस दिशा में गंभीरता से सोचते हुए बिना विलंब के ब्लागवाणी को उसी तरह से प्रारंभ कर देना चाहिए जैसा पहले चल रहा था। अगर ऐसा नहीं किया गया है तो यह मान कर चलिए कि आज ब्लागवाणी को बंद करवाया गया तो कल चिट्ठा जगत का नंबर हो सकता है। साजिश करने वालों के लिए क्या है, वे तो ऐसा करने से बाज नहीं आएंगे। ब्लागवाणी को फिर से प्रारंभ करवाने के लिए ब्लाग बिरादरी को एक मुहिम चलानी होगी। हमें मालूम है कि इसको बंद करवाने वाले ब्लागवाणी के पक्ष में लिखने वालों की पोस्ट पर कुछ भी टिप्पणी कर सकते हैं और कर भी रहे हैं, लेकिन इन सबको दरकिनार करते हुए ब्लागवाणी को फिर से प्रारंभ करवाने के मकसद से काम करने की जरूरत है।

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रविवार, सितंबर 27, 2009

नक्सलियों को चुनौती देना तो महंगा पड़ेगा ही

लगता है प्रदेश सरकार के साथ केन्द्र सरकार भी अपने को शेर समझने की गलती कर बैठी है, तभी तो इनके संयुक्त अभियान के तहत खुले आम यह बात कही जा रही है कि नवंबर में नक्लसियों पर कई राज्यों के साथ मिलकर चौतरफा हमला किया जाएगा। अरे भाई एक हमले की खबर तो नक्सलियों को बिना बताए ही हो गई थी और अब हमला करने की खुले आम चुनौती दी जा रही है। क्या नक्सली इस चुनौती के लिए तैयारी नहीं करेंगे? नक्सली तो चुनौती क्या मंत्रियों के बयान पर भी खफा होकर हत्याएं करने लगते हैं। अभी केन्द्रीय गृहमंत्री पी. चिंदबरम के बयान से ही नक्सली इतने ज्यादा खफा हुए कि सासंद बलीराम के पुत्रों पर ही हमला कर दिया जिसमें उनके एक पुत्र की जान चली गई। क्या यही काफी नहीं है सबक लेने के लिए।

प्रदेश सरकार का साथ देने के लिए केन्द्र सरकार तैयार क्या हुई है लगता है प्रदेश सरकार अपने को शेर समझने लगी है। लगातार मुख्यमंत्री डॉ। रमन सिंह के साथ गृहमंत्री ननकीराम कंवर का यह बयान आ रहा है कि नक्सलियों का सफाया कर दिया जाएगा। यहां तक तो बात ठीक है, पर यह कहना कि नक्सलियों पर नंवबर में साझा हमला किया जाएगा, हमें तो गलत लगता है। अगर हमला करना है तो क्यों इस बात का खुलासा किया जा रहा है। जब योजना का खुलासा नहीं किया गया था तो नक्लसियों के हथियारों के कारखाने पर हमले की खबर लीक होकर उन तक पहुंच गई थी। हम पहले भी एक बार यह बात लिख चुके हैं कि एक तो पुलिस विभाग में पहले से नक्सलियों के मुखबिर हैं, ऊपर से इस बार यह हुआ है कि पुलिस की भर्ती में नक्सलियों ने अपने साथियों को भर्ती करवा दिया है। नक्सलियों के कारखाने पर हमले की खबर का लीक होना भी इस बात का सबूत है कि नक्सलियों का नेटवर्क कितना तगड़ा है। ऐसा नहीं है कि पुलिस का अमला और सरकार इस बात से अंजान है कि नक्सलियों का नेटवर्क उनसे ज्यादा अच्छा है, इतना सब होने के बाद मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह का यह बयान सही नहीं लगता है कि नक्सलियों पर नवंबर में साझा हमला किया जाएगा।

न जाने प्रदेश सरकार अपने को क्या समझने लगी है जो प्रदेश के मुखिया ऐसा बयान दे रहे हैं। हो सकता है कि हमले का खुलासा कराना भारी पड़ जाए और जब नक्सलियों पर हमला करने के लिए फोर्स जाए तो इतने ज्यादा जवान शहीद हो जाएं कि लाशें भी गिनने में न आएं। नक्सलियों के मदनवाड़ा के तांड़व को कौन भूल सका है अब तक। अगर इससे बड़ी घटना हमले के दौरान हो जाए तो क्या इसके लिए मुख्यमंत्री का यह बयान दोषी नहीं होगा। तब मुख्यमंत्री के पास अपने बयान के लिए अफसोस करने के अलावा क्या चारा रहेगा। अरे भाई अगर हमला करना है तो चुपचाप योजना बनाकर करें न, क्यों ढिंढोरा पिटने का काम किया जा रहा है। क्या ढिंढोरा पिटे बिना हमला करेंगे तो कोई आपको बुजदिल कहने लगेगा। ऐसा कुछ नहीं है। हमला करने के माह का जब ऐलान मुख्यमंत्री ने कर दिया है तो नक्सलियों के लिए हमला करने का दिन पता लगाना कौन सी बड़ी बात होगी और अगर उनको दिन मालूम हो गया तो फिर हमला करने जाने वाला का क्या होगा, इसके बारे में किसी ने सोचा है।

इसमें कोई दो मत नहीं है कि नक्सलियों की ताकत और उनके हथियार पुलिस से ज्यादा उमदा हैं। ऐसे में भगवान न करें कोई बड़ा हादसा हो गया तो क्या होगा। अब भी वक्त है सुधर जाए और बयानबाजी से बाज आते हुए जो काम करना है चुप-चाप उसी तरह से किया जाए जिस तरह से नक्सली करते हैं। हमने एक बार पहले भी लिखा है कि जब तक पुलिस की सोच नक्सलियों से एक कदम आगे की नहीं होगी सफलता नहीं मिल सकती है। जब भी किसी मंत्री का बयान आया है उसका करारा जवाब नक्सलियों ने दिया है। इसके बाद भी हमारे मंत्री चेतते नहीं है। केन्द्रीय गृहमंत्री पी. चिंदबरम छत्तीसगढ़ आए और उनके बयान से खफा होकर उनके जाते ही नक्सलियों ने सांसद बलीराम कश्यप के पुत्रों पर हम्ला कर दिया। इस हमले में एक पुत्र की मौत हो गई, दूसरा घायल है। अब चिंदबरम साहब श्री कश्यप के पुत्र को वापस तो नहीं ला सकते हैं, वे सिर्फ अफसोस जताने का काम करेंगे। क्या जरूरत है ज्यादा हिम्मत दिखाने की। हिम्मत दिखानी है तो ऐसी योजना बनाने की हिम्मत दिखाए जिससे नक्सलियों का सच में सफाया हो सकें। ऐसा नहीं कर सकते हैं तो कम से कम अपने मुंह तो बंद रखें।

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शनिवार, सितंबर 26, 2009

पत्रकारिता हमारे लिए तो मिशन है

अपने वादे के मुताबिक हम आज बताने वाले हैं कि कम से कम हमारे लिए तो पत्रकारिता आज भी मिशन है। हमारा पत्रकारिता में खेलों से ज्यादा वास्ता रहा है। वैसे तो हम एक अखबार में समाचार संपादक के पद पर तीन साल तक रहे हैं। लेकिन इसके बाद भी हमने खेल पत्रकारिता से किनारा नहीं किया था। हमने खेल पत्रकारिता में खेल और खिलाडिय़ों के लिए हमेशा लडऩे का काम किया है और आज भी कर रहे हैं। खिलाडिय़ों के साथ अन्याय होता हम नहीं देख सकते हैं। कई ऐसे उदाहरण हैं जिसके कारण खेल और खिलाडिय़ों का भला हमारी खबरों से दो दशक से हो रहा है। एक ताजा उदाहरण यह है कि छत्तीसगढ़ के खेल पुरस्कारों को निष्पक्ष बनाने के लिए निष्पक्ष जूरी बनवाने में हमारी खबर ने एक अहम भूमिका निभाई जिसके कारण निप्षक्ष जूरी बनी और सही खिलाडिय़ों को पुरस्कार मिले।

हम पत्रकारिता के क्षेत्र में इसलिए आए हैं कि हमें अपने देश और समाज के लिए कुछ करना है, और हम यह कर भी रहे हैं। इसमें पैसा कमाना हमारा मिशन कभी नहीं रहा है। हां इतना पैसा जरूर मिल जाता है जिससे घर चल जाता है। हम यहां पर एक बात साफ तौर पर बता देना चाहते हैं कि हमारे परिवार में सभी व्यापार करने वाले हैं, और अगर हम भी अपने परिवार के साथ व्यापार करते तो बहुत पैसा कमा सकते थे, लेकिन हमने पत्रकारिता को इसलिए चुना क्योंकि इसमें हम कुछ करना चाहते थे। हमें जब अखबार में खेल पत्रकारिता का जिम्मा दिया गया तो हमने खेल और खिलाडिय़ों के लिए लडऩे का मिशन बनाया जिस मिशन पर आज भी हम चल रहे हैं। हमने इस क्षेत्र में ऐसे-ऐसे काम किए जिसके कारण जब भी कहीं गलत होता है तो सबसे पहले खिलाड़ी हमारे पास आते हैं और जानकारी देते हैं। हमें लगता है कि खिलाड़ी की बात सही है तो उसे छापने का काम करते हैं। ऐसा करके हम खिलाडिय़ों को न्याय दिलाने में मदद करते हैं।

जब अपना राज्य छत्तीसगढ़ अलग बना था तब हमने सोचा था कि यार कम से कम अपने राज्य की खेल नीति ऐसी होनी चाहिए जो एक मिसाल हो देश के लिए। ऐसे में हमने एक अभियान चलाया कि खिलाडिय़ों के साथ खेलों से जुड़े कोच और खेल संघों के पदाधिकारियों से पूछा कि कैसी खेल नीति होनी चाहिए, उनकी भावनाओं को तब हमने दैनिक देशबन्धु में लगातार प्रकाशित करके सरकार तक पहुंचाने का काम किया। इसी के साथ पहली बार देश के इतिहास में ऐसा हुआ कि खेल नीति बनाने से पहले एक खुली परिचर्चा के माध्यम से सरकार ने खेल से जुड़े लोगों से पूछा कि आप कैसी खेल नीति चाहते हैं। अन्यथा राष्ट्रीय खेल नीति से लेकर हर राज्य की खेल नीति एक कमरे में बैठकर चंद अधिकारी बना लेते हैं जिनको खेलों के बारे में जानकारी भी नहीं होती है। लेकिन छत्तीसगढ़ के पहले खेल मंत्री शंकर सोढ़ी ने इस बात को समझा था और हमारे आग्रह पर उन्होंने मुख्यमंत्री अजीत जोगी से बात करके एक खुली परिचर्चा आयोजित करके देश के इतिहास में इसे दर्ज करवाया। आज छत्तीसगढ़ की खेल नीति की मिसाल पूरे देश में दी जाती है।

खेलों में जब खिलाडिय़ों के यौन शोषण की बात सामने आई तो इसका भी खुलासा करने का काम सबसे पहले हमने किया। इसके बाद खेलों में ओवरएज खिलाडिय़ों का मामला आया तो इसका भी खुलासा हमने किया। खिलाडिय़ों के लिए जिससे हमें लडऩा पड़ा हम लड़े हैं। हमने अपने अखबार के संपादकों और मालिकों से भी इसके लिए पंगा लिया है, और खेल और खिलाडिय़ों का भला करने का काम किया है।

अपने राज्य में खेलों पुरस्कारों को लेकर हमेशा विवाद होता रहा है, इस बार पुरस्कारों के चयन से पहले ही हमने अपने अखबार दैनिक हरिभूमि के माध्यम से यह बात सामने रखी कि पुरस्कारों के चयन के लिए बनने वाली जूरी निष्पक्ष होनी चाहिए। इस बात को खेल मंत्री सुश्री लता उसेंडी ने समझा और एक निपष्क्ष जूरी बनाई गई। सेटिंगबाजों को हवा भी नहीं लगी और जूरी बन गई और पुरस्कारों का चयन भी हो गया। पुरस्कारों के चयन के बाद भी पुरस्कारों को प्रभावित करने का प्रयास एक मंत्री के माध्यम से करने की असफल कोशिश की गई। इसके बारे में हमें मालूम हुआ तो हमने साफ कह दिया कि अगर जूरी का फैसला बदल गया तो खबर प्रकाशित की जाएगी, अंत में जूरी का फैसला बदलने की हिम्मत नहीं की गई और पहली बार सही खिलाडिय़ों को पुरस्कार मिले। प्रदेश के उत्कृष्ट खिलाडिय़ों की सूची को सामान्य प्रशासन विभाग ने साल भर से ज्यादा समय से लटका कर रखा था जिसे जारी करवाने का काम हमारी खबरों ने किया।

मिशन पत्रकारिता की सूची इतनी लंबी है जिसको बताना संभव नहीं है। ये चंद उदाहरण हैं इस बात के कि हम तो मिशन पत्रकारिता में लगे हैं और लगे रहेंगे। मिशन पत्रकारिता को जिंदा रखने के लिए ही हमने अपनी एक खेल पत्रिका खेलगढ़ का प्रकाशन भी करते हैं। यह पत्रिका इसलिए क्योंकि हम जानते हैं कि कई बार संपादकों और मालिकों के दबाव में कई खबरें रूक जाती हैं, ऐसे में हमारी अपनी पत्रिका में हमें कुछ भी छापने से कौन रोकेगा। इस पत्रिका का प्रकाशन भी हमने पैसे कमाने के लिए नहीं किया है। सभी अच्छी तरह से जानते हैं कि प्रकाशन का खर्च निकलने के बाद पत्रिका छपती है और सारी की सारी पत्रिकाएं हम मुफ्त में ही बांट देते हैं। रिकॉर्ड रहा है हमने आज तक एक भी पत्रिका बेची नहीं है। यह पत्रिका जब भी खेलों के आयोजन होते हैं हम खुद जाकर खिलाडिय़ों को मुफ्त में देते हैं।

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शुक्रवार, सितंबर 25, 2009

जानवरों को जानवर कहने से बवाल क्यों?

बिना वजह पूरे देश का मीडिया और ब्लाग जगत केन्द्रीय मंत्री शशि थरूर के पीछे पड़ा है। अरे भई उन्होंने क्या गलत कह दिया है? उनकी नजर में आम इंसान अगर जानवर हैं तो जानवरों को जानवर ही तो कहा है। कम से कम थरूर जी ने ऐसी हिम्मत तो दिखाई कि उन्होंने ऐसा कहा जैसा समझते हैं। बाकी नेता और मंत्री भी आम जनता को जानवर ही समझते हैं। अब यह अलग बात है कि वे कहने की हिम्मत नहीं करते हैं। देश की जनता के पैसों पर ऐश करने वाले नेता और मंत्रियों को आम आदमी जाहिल, गंवार और जानवर ही नजर आएंगे। अगर आम आदमी जानवर नहीं हैं तो क्यों कर ऐसे लोगों को सबक सीखने की हिम्मत नहीं दिखाते हैं। लेकिन नहीं भेड़ बकिरयों की तरह गुलामी करने की आदत पड़ी है तो कैसे कोई आवाज उठा सकता है।

शशि थरूर ने जब ने विमान की इकोनॉमी क्लास को कैटल क्लास कहा है तब से लगातार हंगामा हो रहा है कि उन्होंने ऐसा कैसे कह दिया। उनकी कांग्रेस की हाई कमान सोनिया गांधी ने क्लास तक ले डाली। वैसे थरूर जी इस बात से मुकर गए हैं कि उन्होंने ऐसा कहा है। यह तो अपने मीडिया का कमाल है जो किसी भी बात को इस तरह से पेश किया जाता है कि बवाल मच जाता है। अब तक जो लोग थरूर जी को नहीं जानते थे, वे भी जानने लग गए। हमारा तो मानना है कि थरूर जी ने बिलकुल ठीक कहा है। क्या फर्क है आम इंसान और जानवर में। जिधर चाहो उधर हांक लो इनको चल देते हैं। क्या आज तक किसी ने ऐसी कोई हिम्मत दिखाई है जिससे ये नेता या मंत्री आम आदमी की अहमियत को समझ सकते। नहीं न ,तो फिर किसी बात का रोना कि जानवर क्यों कह दिया गया। अरे विमान की यात्रा की बात तो छोड़ दें, यहां का सफर करने की औकात वैसे भी आम आदमी में नहीं हैं। ट्रेन और बस की बातें करें तो इनमें तो इंसान भेड़-बेकरियों की तरह ही भरे रहते हैं, जब ट्रेन और बस में यह हाल है कि उनमें सफर करने वाले जानवरों की तरह सफर करते हैं तो फिर विमान के सफर के लिए कैटल क्लास कह दिया गया तो क्या गलत है। माना कि विमान में यात्रा करने वाले थोड़े से अमीर होते हैं, पर होते तो आम आदमी ही हैं न। और आम आदमी का मतलब ही होता है जानवर।

आप ये क्यों भूलते हैं कि जिनको आप जनप्रतिनिधि बनाकर विधानसभा और लोकसभा में भेजते हैं उनके सामने आपकी औकात दो कौड़ी की नहीं होती है। जब वे रास्ते से गुजरते हैं तो आपको गुलामों की तरह रास्ते में रोक दिया जाता है कि राजा साहब जा रहे हैं। गनीमत है कि पुराने जमाने की तरह आपको सिर झूका कर खड़े रहने के लिए नहीं कहा जाता है। जब उनके सामने आपकी कोई अहमियत ही नहीं है तो फिर आप अपने को कैसे इंसानों की श्रेणी में रख सकते हैं।

अगर आप इंसानों की श्रेणी में रहना चाहते हैं या फिर आना चाहते हैं तो आईये मैदान में और करीए नेताओं और मंत्रियों की हर गलत बात का विरोध। क्या आप में इतना दम है कि आप अपनी किसी समस्या को लेकर किसी मंत्री के दरबार में जाए और उनको समस्या से मुक्ति दिलाने के लिए मजबूर कर सकें। मजबूर करना तो दूर आप को उन तक पहुंचने में ही इतने पापड़ बेलने पड़ेंगे कि दुबारा आप कोई समस्या लेकर जाने की हिम्मत भी नहीं करेंगे। अंत में दो बातें हम यह कहना चाहेंगे कि किसी के जानवर कह देने से कोई जानवर नहीं हो जाता और दूसरी बात यह कि जो इंसान खुद जैसा रहता है उसको सब वैसे ही दिखते हैं।

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गुरुवार, सितंबर 24, 2009

क्या नागा बाबा की फोटो अश्लील होती है?

पत्रकारिता के जीवन का एक ऐसा एक सच हम आज सामने रखने जा रहे हैं जिसके कारण हमने एक अखबार से समाचार संपादक का पद छोड़ा। बात करीब दो साल पहले की है। राजिम में कुंभ चल रहा था और वहां पर काफी नागा साधु आए थे। ऐसे में नागा साधुओं की एक फोटो को लेकर संपादक ने हमारी ठन गई। संपादक उस फोटो को अश्लील फोटो कहने पर तुले थे, लेकिन हम उस फोटो को अश्लील मानने के तैयार नहीं थे। हमारी नजर में नागा साधुओं की फोटो कभी अश्लील नहीं होती है, इसकी फोटो देश के बड़े-बड़े अखबार और पत्रिकाएं प्रकाशित करते हैं। ऐसे में उनकी फोटो को अश्लील कहने वाले की मानसिकता को हम अश्लील समझते हैं और यही हमने अपने संपादक से कहा था। अंतत: वे कोई बात सुनने को तैयार नहीं हुए थे हमने भी उनके कह दिया कि आपको लगता है कि हम गलत है तो हमें नौकरी से निकाल दें। उन्होंने हमें नोटिस थमाया और हमने जवाब देने के बाद प्रेस जाना बंद कर दिया। हमारे जवाब के बाद ने फंस गए थे, ऐसे में उनको हमसे इस्तीफा देने के लिए बहुत मनाना पड़ा, हमें भी वहां काम करने की इच्छा नहीं थी, ऐसे में हमने एक माह के अतिरक्ति वेतन के बाद इस्तीफा दे दिया।

हमने छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के एक प्रतिष्ठित समाचार पत्र में अपने जिंदगी के १५ साल गुजारे। हमने उस अखबार को अपना अखबार समझा और उसके भले के लिए ही हमेशा काम किया। जिस समय अखबार में हड़ताल चली तो उस हड़ताल को समाप्त करवाने का भी काम हमने किया। हमने ऐसा किया तो ऐसा करने की पीछे हमारी सोच यह थी कि हम पत्रकारों को तो किसी भी अखबार में काम मिल जाता है, पर दूसरे कर्मचारियों का क्या होता। इसी के साथ हमारा ऐसा मानना था कि उस अखबार से जुड़े पेपर बांटने वाले हाकर का क्या होता। उस हाकर का परिवार भी तो अखबार के कारण चल रहा था। लेकिन ये बातें कोई नहीं सोच रहा था, हमने ऐसा सोच और सबको समझाया कि अखबार बंद करवाना समस्या का हल नहीं है। अखबार को हमने न सिर्फ हड़ताल से ऊबार बल्कि अखबार को ऐसे समय में पत्रकारों की एक टीम लाकर दी जब उस अखबार में कोई काम करने को तैयार नहीं था। हमारे इस प्रयास के लिए हम अखबार में काम करने वाले मित्रों ने रोका कि क्यों ऐसे मालिकों के लिए काम कर हों जो कर्मचारियों के भले के बारे में सोचते ही नहीं हैं। हमने उनको समझाया कि हम मालिकों के भले के लिए नहीं बल्कि अखबार में काम करने वालों के भले के लिए सोच रहे हैं।
बहरहाल हमने अखबार में पत्रकारों की एक पूरी टीम खड़ी और अखबार को काफी अच्छे तरीके से निकालने का काम किया। करीब साल भर तो सब ठीक चला, जब सब कुछ ठीक-ठाक हो गया तो मालिक के दामाद जो कि संपादक थे उनका नजरिया बदलने लगा और उनको न जाने क्यों हम खटकने लगे। संभवत: इसका कारण यह था कि जब भी बाजार में यह बात होती थी कि आज कल उस अखबार को कौन देख रहा है तो हमारा नाम आता था, क्योंकि हम पत्रकारिता में दो दशक से ज्यादा समय से हैं। शायद यही बात हमारे संपादक को ठीक नहीं लगती थी। एक बार उनके पत्रकार साथियों के वेतन को लेकर भी बहस हो गई। इसके बाद उन्होंने हमने कार्मिक प्रबंधक से मिलने के लिए कहा दिया था, हम उनसे मिले तो वे गोल-मोल बात करने लगे। हमने उनसे कहा कि अगर आपको हमें निकालने के लिए कहा गया है तो कोई बात नहीं हमें हमारा दो माह का बचा वेतन दे दें, और आप निकाल रहे हैं तो हमें नियमानुसार एक माह का वेतन देने पड़ेगा। हम जब उनसे चेक लेकर जाने लगे तो संपादक महोदय ने हमें बुलाया और बात करने लगे हमने कहा कि बात करने का क्या ओचित्य है आपने तो हमें अखबार से निकाल दिया है, न उन्होंने कहा कि हमने ऐसा कुछ नहीं किया है। उन्होंने कार्मिक प्रबंधक को बुलाकर डांट पिलाई और कहा कि आप कहीं नहीं जा रहे हैं।

संभवत: हमसे वहीं गलती हो गई में उनकी मीठी-मीठी बातों में नहीं आता था। उन्होंने हमें उस दिन इसलिए रोक लिया था क्योंकि उनको मालूम था कि हम चले गए तो उनके अखबार का क्या होगा। ऐसे में उन्होंने कुछ दिनों बाद एक स्थानीय संपादक रख लिया और हमें अखबार से बाहर करने के लिए बहाने की तलाश में लग गए। ऐसे में उनको कोई ठोस बहाना नहीं मिला तो उन्होंने नागा बाबा की एक तस्वीर को लेकर हमें घेरे का प्रयास किया।

हुआ यूं कि राजिम कुंभ में देश भर के नागा बाबा आए थे। ऐसे में हमारे राजिम के प्रतिनिधि ने जो फोटो भेजी वहीं हमने लगा दी, दूसरे दिन उस फोटो को लेकर बवाल मचा दिया गया कि अश्लील फोटो लगा दी गई है। हमने उनसे पूछा कि कौन कहता है कि यह फोटो अश्लील है, उन्होंने अखबार के मालिक और प्रधान संपादक का नाम लिया कि वे कह रहे हैं। हमने उनको कहा कि जो भी कह रहे हैं उनकी मानसिकता अश्लील है। हमने उनको कहा कि इंडिया टूडे में नागा साधुओं की फोटो छपी है, पर्यटन विभाग ने भी अपने ब्रोसर में फोटो छापी है, और कई अखबार छाप रहे हैं तो फोटो अश्लील कैसे हो गई। हमने कहा कि आपको लगता है कि हमने गलत किया है तो आप हमें निकाल दीजिए। वे यहीं तो चाह रहे थे। उन्होंने हमें स्पष्टीकरण देने के लिए नोटिस दिया, हमने जो जवाब दिया उसके बाद उनके पास जवाब नहीं था। ऐसे में वे फंस गए थे। हमने अखबार में जाना बंद कर दिया था।

अंत में कार्मिक प्रबंधक ने हमें बुलाया और कहा कि बात को आगे बढ़ाने का कोई मतलब नहीं है जब आपस में जम नहीं रही है तो आप इस्तीफा दे दे। हमने कहा कि ठीक है हम इस्तीफा देने के लिए तैयार हैं पर हमें एक माह का वेतन नियमानुसार अतिरिक्त देना पड़ेगा क्योंकि नौकरी हम नहीं छोड़ रहे हैं आप हमें निकाल रहे हैं। ऐसे में यही समझौता हुआ कि हमें एक माह का अतिरिक्त वेतन दिया जाएगा, इसी के साथ हमारा तीन माह का बचा वेतन और ग्रेच्युटी का पैसा भी दिया जाएगा। ग्रेच्युटी के पैसे के लिए घुमाने की कोशिश की गई, पर हमने पूरे पैसे लेने के बाद ही इस्तीफा दिया। लेकिन हम आज भी इस बात को नहीं भूल सकते हैं कि हमे बिना वजह उस अखबार के संपादक ने प्रताडि़त किया और वो भी ऐसे संपादक ने जिनके अखबार के लिए हमने अपने जीवन के १५ कीमती साल खफाए। इस बात के बाद हमें एक ही नसीहत मिली कि वास्तव में किसी भी अखबार का मालिक कर्मचारी का नहीं होता है, चाहे उसके लिए आप जितना कर लें जब आप उनकी नजरों में किसी कारण से खटके तो समझो गए काम से।

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बुधवार, सितंबर 23, 2009

मिशन नहीं अब कमीशन पत्रकारिता

अंबरीश कुमार का एक लेख क्या आप मिशनरी पत्रकार हैं? अचानक पढऩे का मौका मिला। इस लेख ने हमें एक बार फिर से पत्रकारिता के उस सच के बारे में लिखने की प्रेरणा देने का काम किया है जिसके बारे में हम पहले भी लिख चुके हैं, और आगे भी लिखना चाहते हैं। हमने जब काफी पहले एक लेख लिखा था कि कलम हो गई मालिकों की गुलाम-पत्रकार नहीं कर सकते मर्जी से काम। तब हमारे संपादक महोदय को यह बात नागवार लगी थी। उन्होंने मिटिंग में ही हमसे इस मुद्दे पर लंबी चर्चा की थी। कम से कम हम पत्रकारिता में एक मिशन लेकर आए थे और आज भी उस एक मिशन पर काम कर रहे हैं। अपने मिशन को सफल बनाने के लिए ही हमने एक पत्रिका खेलगढ़ का प्रकाशन भी प्रारंभ किया है। हम जानते हैं कि आज का जमाना मिशन पत्रकारिता का नहीं बल्कि कमीशन पत्रकारिता का है। पूरे देश में कमीशन की ही गूंज है। जिस देश में बिना कमीशन के कोई काम नहीं होता है, वहां पर भला खबरें कैसे बिना कमीशन के छप सकती हैं। एक समय था जब विज्ञापन के कमीशन से काम चल जाता था, पर आज खबरों के लिए कमीशन का पैकेज हो गया है। अब हाईटेक जमाना है तो बातें भी हाईटेक ही होंगी।

इसमें कोई दो मत नहीं है कि आज के जमाने में पत्रकारिता के क्षेत्र में आने वाले युवाओं के लिए एक मात्र आदर्श पैसा कमाना रह गया है। हमसे भी कई नए युवा पत्रकार पूछते हैं भईया पैसा बहुत मिलता होगा न। हम कहते हैं कि हां पैसा बहुत मिलता है, लेकिन उसके लिए अपने जमीर को गिरवी रखना पड़ता है। अगर आप में अपने जमीर को गिरवी रखने की क्षमता है तो फिर पैसा बरसने लगेगा। हम यह बात अच्छी तरह से जानते हैं कि आज के जमाने में लोग जमीर का महत्व नहीं समझते हैं, पर क्या किया जाए हमें तो अपने जमीर से अपनी जमीन से भी ज्यादा मोहब्बत है। अगर हमने भी अपना जमीर बेच दिया होता तो आज एक बड़े अखबार के संपादक होते। लेकिन क्या करें न तो हमें अपना जमीर बेचना आता है और न ही मालिकों की चाटुकारिता करने के हममें गुण हैं। हमने भी एक अखबार के समाचर संपादक का पद अपने जमीर की आवाज पर छोड़ा था, यह किस्सा फिर कभी बताएंगे कि क्यों कर हमने उस अखबार को छोड़ा, या फिर यूं कहा जाए कि क्यों करें हमें एक तरह से इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया गया।

हम यहां पर बात कर रहे हैं कि कैसे आज मिशन का स्थान कमीशन पत्रकारिता ने ले लिया है। आज हर अखबार का रिपोर्टर चाहता है कि उसको कमीशन मिले। इसके लिए वह खबरों का सौदा करता है। अगर आज पत्रकार कमीशन खाने लगा है तो इसके पीछे का कारण भी जान लेना जरूरी है। हमें लगता है कि आज अगर पत्रकार बेईमान हुआ है तो इसके पीछे का कारण संपादक नामक वह प्राणी है जिसने पत्रकारों को बेईमान बनाया है। हम अगर ऐसा आरोप लगा रहे हैं तो कोई हवा में नहीं लगा रहे हैं। हम यह नहीं कहते हैं कि सभी संपादक ऐसे होते हैं, लेकिन 10 में से 9 तो ऐसे ही होते हैं, यह जरूर कह सकते हैं। जो संपादक ईमानदार होते हैं उनका हश्र बबन प्रसाद मिश्र की तरह होता है जैसे की अंबरीश कुमार ने अपने लेख में बताया है।

अब आए इस बात पर की संपादक कैसे पत्रकारों को बेईमान बनाते हैं तो हम बता दें कि हमने खुद इस बात को एक बार नहीं कई बार देखा है कि कैसे किसी खबर के लिए पत्रकार द्वारा पैसे न लेने पर संपादक पैसे लेकर खबरों को रोक देते हैं। वैसे भी लगाम तो संपादकों और मालिकों के हाथ में रहती है, कोई संपादक ईमानदारी दिखाता है तो उन पर मालिकों का डंडा चल जाता है। और कहा भी जाता है कि जिसकी लाठी उसी की भैस। तो आपने अगर अपने हाथ से लाठी छोड़ी तो भैस तो पानी में जाएगी। ऐसे में पत्रकारों से सोचा कि यार जब संपादक और मालिक ही पैसे खा लेते हैं तो हमें पैसे खाने में क्या हर्ज है। फिर क्या था एक-एक करके बेईमान होते चले गए पत्रकार। वैसे भी अच्छाई से ज्यादा तेजी से बुराई फैलती है, सो फैल गई पैसे लेने की बुराई प्लेग की तरह और मिशन पत्रकारिता बन गई कमीशन पत्रकारिता।

हमने कई पत्रकारों को तो संपादकों की दलाली भी करते देखा है। ऐसे पत्रकार बड़े ठाट से रहते हैं। ऐसे ही पत्रकारों के ठाट देखकर नवोदित पत्रकार समझते हैं कि इस क्षेत्र में काफी पैसा है। लेकिन वेतन की बात की जाए तो आज भी अखबारों में नवोदितों को दो से तीन हजार रुपए और 20-20 साल से अपना जीवन पत्रकारिता के लिए खफाने वालों को बमुश्किल 10 हजार रुपए मिल पाते हैं। यह सच अपने छत्तीसगढ़ का है, बाकी स्थानों के बारे में हमें उतनी जानकारी नहीं है। अब सोचने वाली बात यह है कि आखिर एक इंसान इतनी महंगाई में अपना घर कैसे चलाएगा। ऐसे में जिसके पास बेईमान बनने का मौका रहता है कि वह मिशन पत्रकारिता से को बाय-बाय कहते हुए कमीशन पत्रकारिता से अपना नाता जोड़ लेता है। लिखने को इतना है कि बहुत कुछ लिखा जा सकता है, पर शेष अगली बार, फिलहाल इतना ही। वैसे हम इस पर धाराप्रवाह लिखने की बात काफी पहले से सोच रहे हैं, पर इतना मौका नहीं मिल पाता है। अगली बार हम बताएंगे कि कैसे हमको एक अखबार से नागा बाबा की एक फोटो छापने के कारण समाचार संपादक का पद छोडऩा पड़ा था, साथ ही बताएंगे कि कैसे हम आज आज तक मिशन पत्रकारिता कर रहे हैं। इसके अलावा और भी बहुत कुछ कहने के लिए है। एक और लेख हम इस पर भी लिखने वाले हैं कि कैसे एक अखबार के संपादक को पैकेज के चक्कर में ही बबन प्रसाद मिश्र की तरह इस्तीफा देना पड़ा था।

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मंगलवार, सितंबर 22, 2009

मंदिरों में नारियल चढ़ाने का मतलब ही क्या है?

नवरात्रि का पर्व चल रहा है, ऐसे में रायपुर जिले के राजिम के मंदिरों में जाने का मौका मिला। इन मंदिरों में जो भक्तजन गए थे, उनमें इस बात का आक्रोश नजर आया कि मंदिरों में चढ़ाए जाने वाले नारियलों को फोंडने की जहमत पंडित नहीं उठाते हैं और सारे के सारे नारियल वापस आ जाते हैं बिकने के लिए बाजार में। गांव-गांव से राजिम के मंदिर में आए लोग इस बात से बहुत खफा लगे कि मंदिर के पुजारी भक्तों को प्रसाद तक देना गंवारा नहीं करते हैं। प्रसाद के नाम पर शिव लिंग का पानी देकर ही खानापूर्ति की जाती है। ऐसे में भक्तजन एक-दूसरे ही यह सवाल करते नजर आए कि आखिर मंदिरों में नारियल चढ़ाने की मतलब ही क्या है? इनका सवाल सही भी है। वैसे हमें लगता है कि जैसा हाल अपने छत्तीसगढ़ के इन मंदिरों का है, वैसा ही हाल देश के हर मंदिर का होगा।

अपने मित्रों के साथ जब हम जतमई और घटारानी गए तो वहां पर तो हालत फिर भी ठीक थे और भक्तों को न सिर्फ प्रसाद दिया जा रहा था। बल्कि बाहर से आए भक्तों के लिए भंडारे में खाने तक की व्यवस्था थी। यह खाना बहुत ही अच्छा था कहा जाए तो गलत नहीं होगा। दाल, चावल और सब्जी के साथ सबको भरपूर खाना परोसा गया। यहां आने वाले भक्त गण जितने खुश लगे उतने ही राजिम के मंदिरों में जाने वाले भक्त खफा लगे। इनके खफा होने का कारण यह था कि मंदिरों में जो भी भक्त नारियल लेकर गए उनको प्रसाद भी देना पुजारियों ने जरूरी नहीं समझा।

प्रसाद के नाम पर भक्तों को शिवलिंग का पानी दिया गया। ऐसे में गांवों से आए ग्रामीण भी मंदिरों से निकलते हुए खफा लगे और रास्ते भर यही बातें करते रहे कि मंदिरों में नारियल चढ़ाना ही ठीक नहीं है। हम लोग यहां नारियल चढ़ाते हैं तो कम से कम इनमें से कुछ को फोंडकर प्रसाद देना चाहिए, पर ऐसा नहीं किया जाता है, और पुजारी सारे नारियल उन्हीं दुकान वालों के पास वापस भेज देते हैं बेचने के लिए। ऐसे में अच्छा यही है कि बिना नारियल लिए बिना ही मंदिर जाएं और भगवान के दर्शन करके आ जाए। वास्तव में यह सोचने वाली बात है कि दूर-दूर से आने वाले भक्तों के लिए पुजारियों के मन में कोई भाव नहीं रहते हैं। उनसे अगर प्रसाद मांगा जाए तो कह देते हैं कि मंदिर के नीचे जाइए वहां पर बिक रहा है, ले ले। अब मंदिर के नीचे बिकने वाली किसी भी सय को प्रसाद कैसे माना जा सकता है।

भक्त तो भगवान के चरणों में चढऩे वाली सय को ही प्रसाद मानते हैं। अगर यह कहा जाए कि मंदिरों के नाम पर पुजारियों की दुकानदारी चल रही है तो गलत नहीं होगा। लोग काफी दूर-दूर से राजिम के कुलेश्वर मंदिर में जाते हैं। यह मंदिर नदी के बीच में है। लोग घुटनों तक पानी से गुजरते हुए तपती धुप में भी मंदिर जाते हैं और पुजारी है कि उनको टका सा जवाब दे देते हैं कि प्रसाद तो मंदिर के बाहर ही मिलेगा। राजिम लोचन मंदिर में तो मंदिर के अंदर ही प्रसाद बेचा जाता है।

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सोमवार, सितंबर 21, 2009

साई सेंटर में नहीं चलेंगे ओवरएज खिलाड़ी



भारतीय खेल प्राधिकरण (साई) के छत्तीसगढ़ और मप्र के निदेशक आरके नायडु ने साफ तौर पर चेताया है कि राजधानी रायपुर के साथ राजनांदगांव सहित छत्तीसगढ़ में प्रारंभ होने वाले किसी भी सेंटर में ओवरएज खिलाडिय़ों का चयन नहीं किया जाएगा। उन्होंने कहा कि ऐसा करने वालों के खिलाफ कार्रवाई भी जाएगी। साई सेंटर में खाने से लेकर सामानों में भी स्तर का ख्याल रखा जाता है, इसका ख्याल न रखने वाले किसी भी अधिकारी को शिकायत पर तत्काल हटा दिया जाएगा। साई का मसकद देश की सही प्रतिभाओं को सामने लाने का है। छत्तीसगढ़ में प्रतिभाओं की कमी नहीं है, इनको साई विश्व स्तर पर जाने का रास्ता दिखाने के लिए ही यहां पर अपनी योजनाएं ला रहा है। इन योजनाओं का लाभ खिलाडिय़ों को मिलेगा और यहां के खिलाड़ी विश्व में छत्तीसगढ़ के साथ देश का नाम रौशन करने का काम करेंगे।

ये बातें उन्होंने यहां पर चर्चा करते हुए कहीं। उन्होंने कहा कि साई के भोपाल के क्षेत्रीय कार्यालय में काम संभालने के बाद मैं तीन माह बाद ही पहली बार छत्तीसगढ़ आया था। यहां आने के बाद मालूम हुआ कि यहां के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह के साथ खेल मंत्री सुश्री लता उसेंडी और खेल संचालक जीपी सिंह की प्रदेश में खेलों के विकास में विशेष रूचि है। ऐसे में छत्तीसगढ़ के लिए एक्शन प्लान बनाया गया जिसे साई के दिल्ली के मुख्यालय से पास करवाने के बाद अब साई की कई योजनाओं को छत्तीसगढ़ में लागू करने की तैयारी है। उन्होंने बताया कि राजनांदगांव में साई का ४० करोड़ की लागत वाला खेल परिसर जल्द प्रारंभ होगा। इस समय हमारा पहला मकसद राजधानी के स्पोट्र्स काम्पलेक्स में साई का सेंटर प्रारंभ करना है। उन्होंने बताया कि इसके अलावा बिलासपुर में भी साई का सेंटर प्रारंभ किया जाएगा।

श्री नायडु ने कहा कि मैं एक बात साफ तौर पर कह देना चाहता हूं कि साई के सेंटरों के लिए खिलाडिय़ों के चयन में किसी भी तरह का पक्षपात और गलत बात बर्दाश्त नहीं की जाएगी। उन्होंने साफ तौर पर कहा कि देश में खेलों को ओवरएज के कारण बहुत ज्यादा नुकसान हो रहा है, ऐसे में यह बात कताई बर्दाश्त नहीं होगी कि साई के किसी भी सेंटर में ओवरएज खिलाडिय़ों का चयन किया जाएगा। सरकार हर खिलाड़ी के पीछे साल भर में २५ से २८ हजार का खर्च करती है, ऐसे में यह देखना हमारा काम है कि ये पैसे सही खिलाडिय़ों के पीछे खर्च हो रहे हैं या नहीं। उन्होंने कहा कि सेंटर के लिए किसी भी खेल के चयन ट्रायल के समय मैं खुद उपस्थित रहता हूं। मैं सारे सही प्रमाणपत्र देखने के बाद ही किसी भी खिलाड़ी को सेंटर में प्रवेश देने की मंजूरी दूंगा। किसी भी तरह की एप्रोच के दम पर खिलाडिय़ों का चयन नहीं किया जाएगा। उन्होंने बताया कि ओवरएज के कारण ही भोपाल में साई ने हॉकी का प्रशिक्षण सेंटर बंद कर दिया गया था, बाद में सही खिलाडिय़ों के आने के बाद ही इसको प्रारंभ किया गया है। उन्होंने बताया कि साई के सेंटरों में १४ साल से २१ साल तक के खिलाडिय़ों को रखा जाता है।

राजधानी के सेंटर में होंगे ११ खेल

श्री नायडू ने बताया कि राजधानी रायपुर के साई सेंटर में प्रारंभिक रूप से ११ खेलों को रखा जाएगा। इसके बाद इन खेलों की संख्या बढ़ाई जाएगी। डे बोर्डिंग के लिए १५० और बोर्डिंग के लिए १०० खिलाडिय़ों का चयन किया जाएगा। उन्होंने बताया कि शुरू में आउटडोर में खेलों का प्रारंभ होगा इसके बाद इंडोर स्टेडियम मिलते ही वहां पर जो इंडोर खेलों को प्रारंभ किया जाएगा। उन्होंने बताया कि सभी खेलों के लिए साई की तरफ से आधुनिक सुविधाएं उपलब्ध करवाईं जाएगीं। वालीबॉल का कोर्ट २५ लाख और हैंडबॉल का कोर्ट ३० लाख में बनेगा। उन्होंने पूछने पर कहा कि निगम के साथ एमओयू होते ही १५ दिनों में आउटडोर के खेलों के लिए खिलाडिय़ों का चयन कर लिया जाएगा। उन्होंने एक बार फिर से दोहराया कि साई के सेंटरों के लिए प्रशिक्षक स्थानीय ही रखे जाएंगे।

छत्तीसगढ़ की खेल नीति को सराहा

श्री नायडु जो कि खुद हैंडबॉल के अंतरराष्ट्र्रीय खिलाड़ी रहे हैं, उन्होंने छत्तीसगढ़ की खेल नीति की तारीफ करते हुए कहा कि छत्तीसगढ़ की खेल नीति की मिसाल पूरे देश में दी जाती है, यहां पर खेल और खिलाडिय़ों के लिए जैसा किया जा रहा है, वैसा और किसी राज्य में नहीं है। उन्होंने कहा कि इस बात का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि मप्र पुराना राज्य होने के बाद भी वहां की ११ खेलों की टीमों को राष्ट्रीय खेलों में खेलने की पात्रता मिली है, जबकि छत्तीसगढ़ की १५ खेलों की टीमों को पात्रता मिली है। उन्होंने कहा कि अभी अगर १५ खेलों में पात्रता मिली है तो आगे इसकी संख्या बढ़ेगी। उन्होंने कहा कि ऐसे में जबकि छत्तीसगढ़ २०१३ के राष्ट्रीय खेलों की मेजबानी लेने वाला है तो यहां पर २०१३ तक सभी खेलों खेलने की पात्रता पाने का लक्ष्य रखना चाहिए।


एमओयू जल्द होगा


राजधानी के स्पोट्र्स काम्पलेक्स के लिए आज एमओयू होना था, पर नगर निगम के आयुक्त अमित कटारिया के देश से बाहर होने के कारण यह एमओयू नहीं हो सका। उन्होंने बताया कि अतिरिक्त आयुक्त को कुछ बातों को लेकर संदेह है उनका संदेह दूर करके एमओयू जल्द पूरा किया जाएगा। उन्होंने भरोसा दिलाया कि एमओयू के लिए सारी बड़ी बातें तय हो चुकी हैं और कहीं कोई परेशानी नहीं है।

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रविवार, सितंबर 20, 2009

बनारसी बाबू-नवरात्रि में रखते थे शराब पर काबू

नवरात्रि का प्रारंभ हो गया है। ऐसे समय में जबकि चारों तरफ देवी माता की धूम मची है, तब हमें बरसों पुराने अपने गांव के एक बनारसी बाबू की याद आ रही है। यह याद इसलिए आ रही है कि यही नवरात्रि का समय रहता था जब वह बनारसी बाबू शराब से दूर रहते थे, वरना वे शराब के बिना एक घंटे भी नहीं रह पाते थे। कहते हैं कि वास्तव में आस्था से ही रास्ता मिलता है। और यह बात हमने बनारसी बाबू में देखी थी जिनको आस्था के कारण ही शराब पर काबू पाने की शक्ति मिलती थी।

हमारा एक गांव है पलारी। रायपुर जिले के इस छोटे से गांव में हमारा बचपन बीता है। हमें आज भी याद है कि हमारी दुकान के सामने एक होटल था। इस होटल के मालिक बनारस के थे और एक बार उनके एक साले वहां आए और उन्होंने उनको वहां पर पान की दुकान खुलवाकर दे दी। बनारस से आने के कारण वे पूरे गांव में बनारसी बाबू के नाम से जाने -जाने लगे। उनमें सबसे बड़ी बुराई यह थी कि वे शराब खूब पीते थे। खूब क्या पीते थे यह कहा जाए कि वे शराब के बिना एक घंटे भी नहीं रह पाते थे। हमें याद है कि वे अल सुबह को करीब पांच बजे तालाब नहाने के लिए जाते तो रास्ते में शराब भट्टी जाते और वहां से शराब की आधी बोतल लेते और उसी से मुंह धोने के बाद बाकी की गटक जाते। यह उनकी रोज की दिनचर्या थी। नहा कर वापस आते समय वे साथ में एक बाटल लेकर आते और दुकान में हर घंटे में थोड़ी-थोड़ी पीते रहते थे।

बनारसी बाबू भले बेभाव की शराब पीते थे, लेकिन कभी उनको किसी ने न तो नशे में देखा और न ही वे किसी से अभ्रदता करते थे। यही वजह थी कि उनका शराब पीना किसी को बुरा नहीं लगता था। बनारसी बाबू की एक अच्छाई का पता तब चला जब गांव में नवरात्रि के समय दुर्गा रखी गई। ऐसे में उन्होंने भी इस कार्यक्रम में शामिल होने की मंशा जाहिर की तो सबको लगा कि यार इस पियक्कड़ को कैसे रखा जा सकता है। संभवत: वे सबके मन की बात जान गए थे, ऐसे में उन्होंने सबको विश्वास दिलाया कि वे वादा करते हैं कि ९ दिन बिलकुल नहीं पीएंगे और देवी माता की सेवा करेंगे। किसी को यकीन तो नहीं था, पर सबने सोचा कि चलो यार एक मौका देकर देखने में क्या है। जब उनको मौका दिया गया तो उन्होंने वाकई में ९ दिनों तक शराब को हाथ भी नहीं लगाया। वरना कहां अगर वे एक घंटे भी शराब नहीं पीते थे तो उनके हाथ-पैर कांपने लगते थे, लेकिन ९ दिनों तक उनमें ऐसी शक्ति रही कि उनको कुछ नहीं हुआ।

नवरात्रि के बाद वे फिर से बेभाव की पीने लगे। उनको यार-दोस्तों ने सलाह दी कि यार जब तुम ९ दिनों तक शराब से दूर रह सकते हो तो बाकी दिनों क्यों नहीं रह सकते हो। उन्होंने बताया कि बाकी दिनों उनका शराब से दूर रहना संभव नहीं है। उन्होंने बताया कि वे देवी माता को बहुत मानते हैं जिसके कारण उनको इन दिनों में अद्भुत शक्ति मिल जाती है। उन्होंने बताया कि वे कई बार शराब छोडऩे की कोशिश कर चुके हैं, पर सफल नहीं हुए हैं। जहां बनारसी बाबू में एक अच्छी बात यह थी कि ेवे नवरात्रि के समय शराब को हाथ नहीं लगाते थे, वहीं अगर गांव में नवधा रामायण रखा जाता था तब भी वे शराब नहीं पीते थे। यहां भी उनकी एक अद्भुत क्षमता का पता चला था कि उनको पूरा का पूरा रामायण याद था और वे बिना पुस्तक लिए रामायण का पाठ करने बैठते थे। हमने बचपन में उनको कई सालों तक देखा और आज नवरात्रि में अचानक उनकी याद आई तो सोचा चलो इसको अपने ब्लाग बिरादरी के मित्रों के बीच बांटा जाए। आज हमें यह तो नहीं मालूम कि वे बनारसी बाबू कहां हैं। वे इस दुनिया में हैं भी या नहीं हम नहीं जानते, पर उनको हम कभी नहीं भूल सकते हैं।

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शनिवार, सितंबर 19, 2009

अशोक ध्यानचंद को चाचा ने रोका था भारत छोडऩे से

हॉकी के जादूगर ध्यानचंद के पुत्र अशोक ध्यानचंद भी तीन दशक पहले भारतीय टीम के चयन में होने वाली राजनीति के शिकार हो गए थे और उन्होंने १९८० में भारत छोड़कर इटली जाने का मन बना लिया था। ऐसे में उनको चाचा रूप सिंह से डांटते हुए भारत छोडऩे से मना किया था और कहा था कि जब तुम्हारे पिता को हिटलर मेजर बनाने को तैयार थे तो उन्होंने देश नहीं छोड़ा तो तुम क्यों देश छोड़कर अपने परिवार का नाम खराब करना चाहते हो।

अशोक ध्यानचंद ने इस बात का खुलासा अपने रायपुर प्रवास में अजीत जोगी के निवास में रात्रि भोज में किया। इस भोज में उनकी श्री जोगी के साथ हॉकी को लेकर काफी लंबी चर्चा हुई। इस चर्चा के दौरान ही उन्होंने ये बातें बताईं कि उनको १९८० में चयनकर्ताओं ने भारतीय टीम से बिना किसी कारण के बाहर कर दिया था। बकौल अशोक कुमार वे १९८४ के ओलंपिक तक खेल सकते थे, पर उनको न जाने क्या सोच कर टीम से बाहर कर दिया गया फिर कभी टीम में नहींं रखा गया। ऐसे में वे खफा होकर इटली जाने का मन चुके थे। इटली से उनको एक बड़ा ऑफर था। लेकिन जब उनके चाचा रूप सिंह को इस बारे में मालूम हुआ तो वे बहुत नाराज हुए और अशोक कुमार को डांटते हुए कहा कि तुमको शर्म आनी चाहिए कि तुम्हारे पिता ने हिटलर का मेजर बनाने का ऑफर ठुकरा दिया था और एक तुम हो जो पैसों की खातिर अपना देश छोडऩा चाहते हो। अशोक कुमार कहते हैं कि उस समय आर्थिक परेशानियों का दौर था ऐसे में मुङो इटली जाने का फैसला करना पड़ रहा था, पर चाचा के कहने पर मैंने अपना फैसला बदल दिया और उनके बाद मैंने भारतीय टीम में लौटने का इरादा भी छोड़ दिया।

जोगी भी साई से मदद के पक्ष में

अशोक कुमार से चर्चा करते हुए पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने प्रदेश में खेलों के विकास के लिए भारतीय खेल प्राधिकरण यानी साई की मदद लेने के पक्ष में दिखे। उन्होंने कहा कि साई की मदद से प्रदेश में खेलों का पूरा विकास हो सकता है। साई की ज्यादा से ज्यादा मदद लेकर यहां कई सेंटर खोलने इससे यहां की मैदानों की कमी भी दूर होगी। उन्होंने अमरीका यात्रा का एक संस्मरण सुनाते हुए कहा कि जब वे वहां गए थे तो उन्होंने एक अमरीकन से पूछा था कि वे लोग फुटबॉल क्यों नहीं खेलते हैं तो उन्होंने कहा था कि जिस खेल में बॉल को हाथ लगाना ही पापा हो वैसा खेलने का मतलब क्या है। फुटबॉल में अगर बॉल हाथ से लग जाती है तो फाउल माना जाता है।

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शुक्रवार, सितंबर 18, 2009

पाक में रहने वाला इंसान मुसलमान-इसलिए हिन्दुस्तान में रहने वाले हिन्दु

अपने जीके अवधिया जी ने एक अच्छा मुद्दा उठाया है कि किसी के यह कह देने से कि हां मैं हिन्दु हूं कोई हिन्दु नहीं हो जाता यह बात उन सलीम खान के लिए कही गई है जो अपने को हिन्दु कहते हैं। वास्तव में सोचने वाली बात है कि अगर सच में आप हिन्दुस्तान में रहते हुए अपने को हिन्दु मानते हैं तो फिर इस धर्म या संस्कृति की बातों का पालन करते हैं क्या? अगर भारत में रहने वाले हर जाति-समुदाय और धर्म के लोग हिन्दु हैं तो फिर सबके लिए लिए अलग-अलग कानून क्यों? किसके पास है इसका जवाब।

अवधिया जी के साथ पीसी गोदियल से यह सवाल उठाया है कि अगर कोई सलीम खान या कोई भी खान अपने को हिन्दु कहता है तो क्यों कर मुस्लिम एक्ट अलग से बनाया गया है। क्या अपने को हिन्दु कहने का दावा करने वाले ऐसे लोग अपने धर्म के लिए बनाए गए कानून का विरोध करने का दम रखते हैं और कह सकते हैं कि एक से ज्यादा पत्नी रखना गुनाह है। अगर ऐसा करने की हिम्मत नहीं है तो फिर क्यों किसी के धर्म के साथ खेलने की कोशिश की जा रही है। हिन्दु तो किसी के धर्म के साथ नहीं खेलते हैं।


हमें तो लगता है कि सलीम खान जैसे लोगों के दिमाग में पाकिस्तान का वह सब भरा हुआ है जिसमें पाकिस्तान में रहने वाले हर इंसान को मुसलमान होना पड़ता है। जो मुसलमान नहीं होता है उसका क्या हश्र होता है यह सब जानते हैं कि कैसे हिन्दुओं को अपने धर्म में शामिल करने के लिए उन पर जुल्म किए गए थे। अगर मुसलमान यह नहीं कहेंगे कि हिन्दुस्तान में रहने वाला हर कोई हिन्दु है तो उनकी यह बात कैसे जायज होगी कि पाकिस्तान में रहने वाला हर इंसान मुसलमान है। ये लोग अच्छी तरह से जानते हैं कि हिन्दुओं में इतना दम नहीं है कि मुसलमानों को हिन्दु बनने मजबूर किया जा सके। वैसे भी कम से कम अपने हिन्दु धर्म में इस बात के लिए कोई स्थान नहीं है कि किसी को जबरिया अपना धर्म कबूल करवाया जाए। किसी भी धर्म में आस्था होने पर ही कोई किसी का धर्म कबूल करता है। आस्था न होने पर किसी पर कोई धर्म थोपा जाता है तो उस धर्म से इंसान प्यार नहीं नफरत ही करता है।

हिन्दु धर्म को लेकर भी तरह-तरह की बातें की जाती हैं। अब इसको लोग धर्म मानने को तैयार नहीं है। बचपन से लेकर आज तक हम तो यही सुनते और पढ़ते आए हैं कि हिन्दु धर्म है। अब इसको कोई संस्कृति कह रहा है तो कोई कुछ और। आखिर किसी के पास ऐसा कोई साक्ष्य है कि अंतत: हिन्दु धर्म है या संस्कृति, तो उसका खुलासा करना चाहिए। वैसे भी पूरे विश्व में यही कहा जाता है कि चार धर्म हिन्दु, मस्लिम, सिख और ईसाई हैं। अगर हिन्दु धर्म नहीं है तो फिर बाकी भी धर्म नहीं संस्कृति ही हुए। किसी के पास कोई जवाब हो तो जरूर बताए कि आखिर माजरा क्या है ताकि हमारे ज्ञान में भी कुछ इजाफा हो सके। अंत में अवधिया जी को एक अच्छा मुद्दा सामने रखने के लिए बधाई और धन्यवाद।

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गुरुवार, सितंबर 17, 2009

मद्रासी ने किया क्रिकेट का आपरेशन

एक मद्रासी भाई काफी गुस्से में चले जा रहे थे, एक मित्र मिला और पूछा अन्ना इतने गुस्से में क्यों हो यार? आखिर क्या बात है?

अन्ना बोला- अरे गुस्सा, मेरे को बहुत-बहुत गुस्सा, लीमिट के बाहर गुस्सा।

मित्र बोला- लेकिन बात क्या है?

अन्ना- अरे बाबा वानखेड़े स्टेडियम में कोई क्रिकेट-फिरकेट है बोला, सोचा चलो साला हम भी जाकर देखे, ये क्रिकेट-फिरकेट क्या है जिसके पीछे दुनिया पागल है। साला हम दो सौ रुपए का टिकट लेकर गया। सारा पैसा पानी में गया साला।

मित्र बोला- आखिर हुआ क्या?

अन्ना- हुआ क्या, होना क्या है, वहां जाकर देखा इतने बड़े मैदान में तीन लकड़ी ये बाजू-तीन लकड़ी वो बाजू, हम बोला साला ये छह लकड़ी देखने को इतने पब्लिक आता है, साला हमारे घर में आकर देखों यार कितना लकड़ी है।

मित्र बोला- फिर क्या हुआ?

अन्ना- फिर क्या, हम सोचा यार यहां कोई क्रिकेट-फिरकेट नहीं है ये लकड़ी देखने को पागल पब्लिक आया है, हम सोचा चलो यार घर चलते हैं। तभी पब्लिक जोर-जोर से चिल्लाया आया.. आया.... आया..। हमने देखा को सामने वाली बिल्डिंग से दो डॉक्टर (अंपायर सफेद कोट पहने हुए रहते हैं, अन्ना उनको डॉक्टर समझते हैं) आया। दोनों डॉक्टर लकड़ी के आजू-बाजू में घुमा। फिर सामने वाला बिल्डिंग से दो आदमी (दोनों टीमें के कप्तान) आया वो भी लकड़ी के आजू-बाजू में घुमा। एक डॉक्टर ने दोनों आदमी से बात किया और खीसे से एक सिक्का निकाला और आसमान में उछाल दिया। दूसरा डॉक्टर साला पक्का चोर सिक्का उठाकर अपने खीसे में रख लिया।

थोड़ी देर बाद फिर पब्लिक चिल्लाया.. आया... आया....। हमने सोचा अब कौन आया रे.. क्या देखता है सामने वाला बिल्डिंग से 10-12 वार्ड बॉय आया और लकड़ी के चारों तरफ मैदान में खड़े हो गया। हमारे समझ में कुछ नहीं आया, सोचा बाबा पागल दुनिया ये क्या क्रिकेट है ये बाबा।

इतने में फिर से पब्लिक जोर-जोर से चिल्लाया आया.. आया.. आया..। इस बार लड़की लोग भी चिल्लाया। हमने सोचा यार इसी बारी जरूर अमिताभ बच्चन आया होगा।

हमने देखा सामने वाला बिल्डिंग से दो पेसेंट पैर में ब्लास्टर बांध कर लकड़ी टेकते हुए आया (बल्लेबाज पेड बांध कर बल्ला लेकर आए)। हमने सोचा यार यहां क्रिकेट -फिरकेट कुछ नहीं होगा यहां साला किसी का आपरेशन होगा और हम वापस आ गया है, फोकट में साला दो सौ रुपए टिकट का गया यार। बाबा पागल दुनिया क्रिकेट के पीछे भगाता है। इतने बड़े मैदान में आपरेशन देखने जाता है टिकट लेकर।

नोट: यह एक जोक है जिसे हमने काफी पहले जानी लीवर से सुना था। उनका यह जोक आज भी काफी पसंद किया जाता, हमने सोचा चलो लोगों का मुड आज मस्त कर दिया जाए। वैसे इसको जानी लीवर की आवाज में सुनने का मजा अलग है, कहीं मिले तो जरूर सुनिएगा।

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बुधवार, सितंबर 16, 2009

हॉकी को रोल मॉडल की कमी मार गई

ओलंपियन अशोक ध्यानचंद ने कहा


हॉकी के ओलंपियन अशोक ध्यानचंद का कहना है कि देश में आज हॉकी की जो दुर्दशा है उसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि इसको रोल मॉडल की कमी मार गई। आज अगर हॉकी के जादूगर ध्यानचंद सहित हमारे जैसे ओलंपियन की वीडियो होती तो यह खिलाडिय़ों के लिए रोल मॉडल का काम करती। पर ऐसा नहीं है। क्रिकेट में अगर सचिन और धोनी को लोग खेलते न देखें तो कोई क्रिकेट की तरफ जाना नहीं चाहेगा। हॉकी को निचले स्तर से उठाने की जरूरत है।


अपने छत्तीसगढ़ प्रवास में रायपुर में चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि हॉकी के नवोदितों को बताने के लिए हॉकी फेडरेशन के पास आज कुछ नहीं है। माना कि मेजर ध्यानचंद के समय 1936 का जमाना ऐसा नहीं था जिसमें वीडियो बन पाता और उसको सहेज कर रखा जाता, पर इसके बाद जब हम लोग खेलते थे, उस समय 70 के दशक में तो वीडियो बनाकर उसको सहेज कर रखा जा सकता था। पर ऐसा नहीं किया गया और आज के हॉकी खिलाडिय़ों को क्या बताया जाए। उनके लिए कोई रोल मॉडल ही नहीं है तो उनका रूझान हॉकी की तरफ कैसे होगा। आज अगर हॉकी में नई पौध नहीं आ रही है तो इसके लिए फेडरेशन दोषी है।

निचले स्तर पर देना होगा ध्यान

1968 में रायपुर की नेहरू हॉकी में खेलने आए अशोक कुमार कहते हैं कि आज इस बात की जरूरत है कि हॉकी पर ग्रामीण, जिला और राज्य स्तर पर ध्यान दिया जाए। आज घरेलु स्पर्धाएं बंद हो गई हैं, जब तक स्पर्धाएं नहीं होगी खिलाड़ी कैसे निकलेंगे। वे कहते हैं कि सरकारी मदद की तरफ भी देखना बंद होना चाहिए, स्थानीय स्तर पर मदद लेकर खेलों को आगे बढ़ाने की जरूरत है। उन्होंने इटारसी का उदाहरण देते हुए बताया कि वहां पर क्रिकेट के आईपीएल की तर्क पर हॉकी में आईपीएल प्रारंभ किया गया है। आज देश के कोने-कोने में हॉकी को जिंदा रखने के लिए ऐसे ही आईपीएल करवाने की जरूरत है। वे कहते हैं कि आज देश की हॉकी को मजबूत करने की जरूरत है। इसके लिए स्कूल स्तर के मैच भी जरूरी है। आज स्कूलों में आयोजन की खाना पूर्ति होती है। पहले स्कूलों में खेलों का पीरियड होता था, अब ऐसा नहीं होता है। उन्होंने कहा कि आज हॉकी के लिए एस्ट्रो टर्फ जरूरी है। लेकिन इसको बनाने की सरकारी कवायद इतनी कठिन है कि बिल्डिंग तो बन जाती है, पर एस्ट्रो टर्फ नहीं बन पाता है। वे कहते हैं कि एस्ट्रो टर्फ के लिए कोई बड़ा स्टेडियम बनाने की बजाए अगर एस्ट्रो टर्फ के साथ चारों तरफ बस गैलरी बना दी जाए तो वही काफी है।

पापा हॉकी खेलने से रोकते थे

हॉकी के जादूगर ध्यानचंद के पुत्र अशोक कुमार बताते हैं कि उनके पापा कभी नहीं चाहते थे कि मैं हॉकी खेलूं। मुझे हमेशा उन्होंने खेलने से मना किया। वे कहते थे कि पढ़ाई करके नौकरी करके कुछ पैसे कमाओगे तो काम आएंगे। वे बताते हैं कि उनके खेल को देखकर 1970 में मोहन बागान की टीम में स्थान मिला, इसके बाद इंडियन एयर लाइंस में नौकरी मिली। इसके बाद भारतीय टीम, फिर एशियन एकादश और फिर विश्व एकादश में भी स्थान मिला। उन्होंने बताया कि जब हमारी टीम ने विश्व कप जीता था, तब देश में हमारी टीम के 14 मैच करवाए गए थे और हर मैच के लिए आठ-आठ सौ रुपए मिले थे। वे बताते हैं कि वे हॉकी से आज भी जुड़े हुए हैं और चाहते हैं कि इसके पुराने दिन फिर से लौटे, हालांकि यह बहुत कठिन है।

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मंगलवार, सितंबर 15, 2009

पाक में हिन्दुओं पर हुए अत्याचार का जवाब है किसी के पास

कुछ समय पहले हमने एक ब्लाग में एक लेख पढ़ा था जिसमें लिखा गया था कि भारत-पाक के विभाजन का नुकसान तो मुसलमानों को उठाना पड़ा है। यह बात कम से कम हमारे गले तो उतरने वाली नहीं है। कारण यह कि हमने बचपन से यही सुना है कि पाकिस्तान में जितना अत्याचार हिन्दुओं पर किया गया वैसा अत्याचार कभी भारत में मुसलमानों पर नहीं हुआ है। अगर किसी मुसलमान पर हिन्दुओं ने अत्याचार किया है, तो कोई बताएं। हम यहां बताना चाहेंगे कि हमें हमारे पुर्वज बचपन से बताते रहे हैं कि पाकिस्तान में हिन्दुओं पर जो अत्याचार किए गए उसी के कारण उनको पाक से भारत आना पड़ा। हमें गर्व है हमारे पुर्वजों पर जिन्होंने हमें कभी मुसलमानों से नफरत करने की सीख नहीं दी।

हमने जिस दिन से एक ब्लाग में विभाजन का नुकसान मुसलमानों को उठाना पड़ा है, पढ़ा था, तभी से इस मुद्दे पर लिखना चाह रहे थे, पर समय नहीं मिल रहा था। आज सोचा कि चलों इस मुद्दे पर लिखने में विलंब करना ठीक नहीं है। हमें इस मुद्दे पर इसलिए लिखना पड़ रहा है क्योंकि पाकिस्तान में हमारे पुर्वजों पर भी अत्याचार हुए हैं जिसके बारे में हमने बचपन से सुना है। हमारे पुर्वज बताते थे कि किस तरह से पाकिस्तान में विभाजन के बाद हिन्दुओं पर अत्याचार किए गए और उनको मुस्लिम धर्म अपनाने के लिए मजबूर किया गया। हमें जो जानकारी मिली थी उसके मुताबिक हिन्दुओं की बहू-बेटियों के साथ जोर-जबरदस्ती भी की गई। कई हिन्दुओं ने वहां समझौता कर लिया और पाक में रह गए और जिन लोगों ने समझौता नहीं किया वे अपनी सारी जमीन-जायजाद छोड़कर भारत आ गए और वो भी खाली हाथ। यहां पर आने के बाद नए सिरे से मेहनत करके अपना आशियाना बनाया। हमारे पुर्वज भी पाक छोड़कर भारत आए। हमारा जन्म तो भारत में ही हुआ है, पर जन्म से पाक में हिन्दुओं पर हुए अत्याचार की बातें सुनते रहे हैं।

हम नहीं जानते हैं कि पाकिस्तान में हिन्दुओं पर हुए अत्याचार में कितनी सच्चाई है, पर इतना जरूर है कि कोई भी परिवार अपने बच्चों को गलत जानकारी नहीं देता है। हमें इस बात पर गर्व है कि हमारे पुर्वजों ने यह तो जरूर बताया कि किस तरह से हिन्दु परिवारों पर मुसलमानों ने कहर बरपाया था, पर यह कभी नहीं कहा कि इसके बदले में हमें भी उनके साथ ऐसा करना चाहिए। शायद यह अपने हिन्दु धर्म की अच्छाई है जो अत्याचार करने वालों पर भी प्यार लुटाने की बात की जाती है। अगर ऐसा नहीं होता तो भारत में मुसलमानों पर भी ऐसे ही अत्याचार होते। हमें नहीं लगता है कि कभी किसी मुसलमान पर हिन्दु बनने के लिए किसी ने अत्याचार किए होंगे। भारत में ऐसे कई उदाहरण हैं जब मुसलमान देश के सर्वोच्च पदों पर रहे हैं। अपने देश के राष्ट्रपति के पद भी एक मुसलमान अब्दुल कलाम रहे हैं। फिर हम जानना चाहते हैं उन जनाब से कि कैसे विभाजन का नुकसान मुसलमानों को हुआ है। क्या किसी ने मुसलमानों को भारत छोडऩे के लिए मजबूर किया है। मुसलमानों के पास भी अपने देश में वो सारे अधिकार हैं जो एक नागरिक के होने चाहिए। फिर कैसे कहां जाता है कि विभाजन का नुकसान मुसलमानों को हुआ है।

हम पूछते हैं कि क्या किसी के पास इस बात का जवाब है कि क्यों कर हिन्दुओं के साथ पाक में अत्याचार किया गया था? क्यों उनको अपना धर्म छोडऩे के लिए मजबूर किया गया था? क्यों हिन्दुओं की बहू-बेटियों की इज्जत के साथ खिलवाड़ किया गया था? क्या पाक में रहने वाले हर नागरिक का मुसलमान होना जरूरी है? है किसी के पास इस बातों का जवाब तो जरूर दें।

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सोमवार, सितंबर 14, 2009

किराया बचाकर किस पर अहसान कर रहे हैं मंत्री- दम है तो हटाए सुरक्षा में लगे अपने संतरी

देश में सुखे की स्थिति की दुहाई देते हुए केन्द्रीय मंत्री अब सामान्य श्रेणी में यात्रा करने लगे हैं। वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी सहित जहां कई मंत्री ऐसा करने लगे हैं, वहीं कई मंत्रियों को यह बात रास नहीं आ रही है। सोचने वाली बात यह है कि आखिर ये मंत्री किराया बचा कर किस पर अहसान कर रहे हैं। इन मंत्रियों को जनता को बेवकूफ बनाना बंद करना चाहिए। जनता सब समझती है। अगर सच में इन मंत्रियों को देश और जनता की इतनी ही फिक्र है और इनमें दम तो क्यों नहीं हटा देते अपनी सुरक्षा में लगे उन संतरियों को जिनके कारण जहां देश के पैसों की बर्बादी होती है, वहीं उनके लंबे चौड़े काफिले से आम जनता हलाकान होती है।

केन्द्रीय वित्त मंत्रालय ने मंत्रियों और सांसदों को सादगी में रहने का फरमान जारी किया है, उससे कई मंत्री और सांसद खफा हैं। खफा इसलिए हैं क्योंकि इनको मुक्त में ऐश करने की आदत जो पड़ गई है। अब जिसको मुफ्त की घी की रोटी खाने की आदत पड़ी हो उसको अगर चिमटे वाली रोटी खाने के लिए कहा जाएगा तो यह रोटी कैसे उनके गले उतरेगी। यही हालत अपने मंत्रियों और सांसदों की हो गई है। अब ऐसे में वित्त मंत्री ने इनके सामने मिसाल पेश करने के लिए सबसे पहले खुद ही सामान्य श्रेणी में हवाई यात्रा करके दिखाई। आपकी यह मिसाल काबिले तारीफ है प्रणब जी। लेकिन क्या आप में इतना दम है कि आप सच में यह बता सके कि आप जनता के सच्चे हितैषी हैं। अगर दम है तो फिर कल से ही अपनी सुरक्षा में लगे उन सारे संतरियों को भी हटाने का काम करें जिनके कारण आम जनता को लगातार परेशानी होती है। इसी के साथ देश का पैसा भी बर्बाद होता है। प्रणब जी ऐसा करके एक मिसाल कायम करें और देश के सारे मंत्रियों के लिए भी यह फरमान जारी किया जाए कि अब किसी भी मंत्री को ज्यादा सुरक्षा नहीं दी जाएगी।

यह बात जग जाहिर है कि अपने देश का बहुत ज्यादा धन मंत्रियों की सुरक्षा में खर्च होता है। धन तो खर्च होता है सो होता है, पर सबसे ज्यादा मुसीबत तब आती है जब इनका काफिले किसी शहर में जाता है और इस काफिले के कारण सारे रास्ते जाम हो जाते हैं। जब तक आम जनता परेशान होती रहेगी तब तक किराया बचाने का कितना भी बड़ा नाटक ये मंत्री कर लें जनता पर इसका कोई असर होने वाला नहीं है। देश के संकट का हवाला देकर कब तक नेता ऐसे नाटक नहीं रहेंगे। देश को बेचने का काम भी तो यही करते हैं। देश और विदेशों से चाहे किसी भी मंत्रालय के लिए कोई भी खरीदी की जाए बिना दलाली के कोई खरीदी होती नहीं है। ऐसी दलाली करने वाले थोड़ा का किराया बचाकर किस पर अहसान कर रहे हैं। क्या ये मंत्री भ्रष्टाचार न करने की कसम खा सकते हैं? ऐसा ये कभी नहीं करने वाले हैं। तो फिर किराया बचाने का नाटक किस लिए? अब जनता उतनी बेवकूफ नहीं रही है कि आप उसको आसानी से बेवकूफ बना सके। जनता भी समझती है कि ये राजनीति के चौचले हैं और सस्ती लोकप्रियता पाने का फार्मूला है। यह एक कड़वी सच्चाई है कि देश की गरीब जनता की चिंता न तो इन नेता और मंत्रियों को कभी रही है और न कभी रहेगी।

आज जब सूखे की बात पर किराया बचाने का ढोंग किया जा रहा है तो ऐसे में हमें कादर खान की एक फिल्म का एक दृश्य याद आ रहा है जिसमें वे एक नेता रहते हैं। वे अपने पीए से कहते हैं कि देश में आई बाढ़ का मुआयना करने अगर मंत्री जी ट्रेन से जाए तो अखबारों में हमारा बयान देना कि जब लोग बाढ़ से मर रहे हैं तो मंत्री जी टे्रन से जाकर समय खराब कर रहे हैं और अगर वे हेलीकाप्टर से जाते हैं तो बयान देना कि लोग बाढ़ से मर रहे हैं ऐसे में मंत्री जी को हेलीकाप्टर से जाने की सुझ रही है और वे देश का पैसा बर्बाद कर रहे हैं। हमारे आज के मंत्री बिलकुल कादर खान के उसी किरदार से मिलते-जुलते लगते हैं। इनको बस एक-दूसरे की टांग खींचने और अपने घर से भरने से फुर्सत नहीं है तो ये जनता के बारे में क्या सोचेंगे। जनता तो बेचारी हमेशा से गरीब की लुगाई रहेगी है और रहेगी।

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रविवार, सितंबर 13, 2009

खेलगढ़ में 400 पोस्ट पूरी



ब्लाग बिरादरी में हमने अपने एक और ब्लाग खेलगढ़ में आज पोस्ट में 400 का आंकड़ा पर कर लिया है। हमने खेलगढ़ से ही फरवरी 2009 में ब्लाग जगत में कदम रखा था। इसके बाद हमने इसी माह राजतंत्र में भी पारी का आगाज किया था, पर राजतंत्र में हमने नियमित रूप से लिखना अप्रैल से प्रारंभ किया। राजतंत्र में तो हम रोज एक ही लेख लिख पाते हैं, लेकिन खेलगढ़ में हम रोज छत्तीसगढ़ से जुड़ी तीन से चार खबरें देते हैं।

इस ब्लाग का प्रारंभ करने का हमारा मकसद छत्तीसगढ़ के खेलों को एक नया आयाम देना रहा है। हमारा ऐसा मानना है कि छत्तीसगढ़ में खेलों की जो भी गतिविधियों हो रही हैं, उनको विश्व के किसी भी कोने में बैठा हुआ आदमी जान लें। इस मसकद में हमें लगता है अभी उतनी कामयाबी नहीं मिल पाई है, कारण साफ है कि खेलों को पढऩा आज भी कम लोग पसंद करते हैं। अपने देश में खेलों का मतलब महज क्रिकेट रह गया है। हमें क्रिकेट से परहेज नहीं है, पर क्या क्रिकेट के आगे सब बेमानी है। भले ऐसा माना जाए लेकिन हमने अपने ब्लाग खेलगढ़ में सभी खेलों को समान रूप से स्थान देने का काम किया है और यह काम निरंतर जारी रहेगा, चाहे इस ब्लाग को कम लोग पसंद करें, इससे हमें कोई फर्क नहीं पड़ता है।

हमें विश्वास है एक दिन ऐसा आएगा, जब खेल का यह ब्लाग भी अपना विशेष स्थान बनाने में सफल होगा। हम इस ब्लाग से कभी किनारा नहीं करने वाले हैं। हमारे इस ब्लाग में 400 पोस्ट पूरी हो चुकी है, लेकिन इसमें पाठकों की संख्या काफी कम रही है। बहरहाल आज नहीं तो कल जरूर छत्तीसगढ़ के खेलों के प्रति लोगों का लगाव बढ़ेगा तब जरूर इस ब्लाग की पूछ परख बढ़ेगी। इसी उम्मीद के साथ अब कल तक के लिए विदा लेते हैं। कल हम राजतंत्र में फिर से एक नए लेख के साथ आएंगे।

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शनिवार, सितंबर 12, 2009

सरकारी कबड्डी में भी चंदा उगाही

खेल एवं युवा कल्याण विभाग के सरकारी कबड्डी के आयोजन में ही कबड्डी संघ द्वारा चंदा लिए जाने का मामला सामने आया है। इस मामले में खेल विभाग ने ३ लाख ७० का खर्च किया, इसके बाद भी कबड्डी संघ ने करीब दो लाख का चंदा किया है। इस बारे में कबड्डी संघ के महासचिव रामबिसाल साहू कबूल भी करते हैं कि चंदा लिया गया। उनका कहना है कि चंदा नहीं लेते तो व्यक्तिगत पुरस्कार नहीं दे पाते। इसी के साथ और कई तरह के खर्च होते हंै जिन खर्चों के लिए खेल विभाग पैसे नहीं देता है। इस मामले को खेल संचालक जीपी सिंह ने गंभीरता से लेते हुए मामले की जांच करवाने की बात कही है।

प्रदेश के खेल विभाग ने प्रदेश कबड्डी संघ के सहयोग से कुरूद में सब जूनियर बालक-बालिका कबड्डी का आयोजन ४ से ६ सितंबर तक किया। इस आयोजन में यह बात सामने आई है कि कुरूद में व्यापारियों से ११ हजार से लेकर २५ हजार और ५० हजार का चंदा लिया गया है। सरकारी आयोजन में जब चंदे की बात हरिभूमि को मालूम हुई तो इस बारे में जानने जब प्रदेश कबड्डी संघ के महासचिव रामबिसाल साहू से संपर्क किया गया तो उन्होंने इस बात को माना कि चंदा लिया गया है। जब उनसे पूछा गया कि जब सारा खर्च खेल विभाग करता है तो फिर चंदा क्यों लिया गया तो उनका कहना है कि खेल विभाग ७० प्रतिशत खर्च करता है। उन्होंने कहा कि संघ के जो तकनीकी अधिकारी आते हैं इसी के साथ खिलाडिय़ों को भी व्यक्तिगत पुरस्कार दिए जाते हैं, ये सारा खर्च संघ करता है। ऐसे में चंदा लिए बिना काम नहीं होता है। उन्होंने यह तो नहीं बताया कि कितना चंदा लिया गया है, लेकिन इधर जानकारों का ऐसा कहना है कि आयोजन के नाम पर व्यापारियों ने दो लाख से ज्यादा की राशि वसूली गई है।

इधर खेल विभाग के उन अधिकारी से संपर्क किया गया जिनके जिम्मे आयोजन था तो उन्होंने साफ बताया कि तकनीकी अधिकारियों के लिए ३० को पैसे देने की बात हुई थी, इसके बाद भी संघ के कहने पर ४० तकनीकी अधिकारियों को ५०० रुपए की दर से भुगतान किया गया है जिसकी रसीद खेल विभाग के पास है। इन राज्य खेल अधिकारी विलियम लकड़ा ने बताया कि आयोजन का विभाग ने तीन लाख ७० हजार का बजट बनाया था जो खर्च किया गया। इस बजट में खिलाडिय़ों के आने-जाने के खर्च, खाने, रहने के साथ पुरस्कार से लेकर सारा खर्च शामिल हैं। ऐसे में और कोई अतिरिक्त खर्च होता नहीं है। उन्होंने बताया कि ऐसा कोई भुगतान नहीं है जो खेल विभाग ने नहीं किया है। यह कहना गलत है कि विभाग ७० प्रतिशत खर्च करता है, विभाग खेल संघों के साथ पूरी योजना बनाकर पूरा खर्च वहन करता है।

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शुक्रवार, सितंबर 11, 2009

चिट्ठा जगत करता है मनमर्जी-और सुनता भी नहीं अर्जी

हमें काफी दिनों से यह लग रहा है कि चिट्ठा जगत जमकर अपनी मनमर्जी कर रहा है। हम ऐसा सीधे तौर पर आरोप लगा रहे हैं तो हवा में नहीं लगा रहे हैं। हमारे साथ कम से कम तीन बार ऐसा हुआ है कि हमारे लेखों की चर्चा दूसरे ब्लागों में होने के बाद भी उन प्रविष्टियों को हमारे हवाले में नहीं जोड़ा गया है। अभी 7 सितंबर को भी एक बार ऐसा किया गया। हमने चिट्ठा जगत का ध्यान ई-मेल करके भी दिलाया है, पर नतीजा शून्य रहा है। यानी सीधे तौर पर यह भी कहा जा सकता है कि चिट्ठा जगत में अर्जी भी नहीं सुनी जाती है। आखिर इसके पीछे क्या कारण हो सकता है ये तो चिट्ठा जगत का संचालन करने वाले ही बता सकते हैं या फिर इसके जानकार लोग क्योंकि हम तो ब्लाग जगत में अभी नवाड़ी है।

बहुत दिनों से सोच रहा था कि आखिर इस पर लिखा जाए या नहीं। लेकिन आखिर कब तक कोई किसी की मनमर्जी को बर्दाश्त कर सकता है। वैसे भी अपने हक के लिए लडऩा गलत नहीं होता है। यहां पर हम अपने हक की लड़ाई लड़ रहे हैं। हमें ब्लाग जगत में आए ज्यादा समय नहीं हुआ है, यही कोई आधा साल पहले हम इस बिरादरी में आए हैं। पहले पहल हमें कुछ समझ नहीं आता था कि क्या सक्रियता क्रंमाक होता है और ये कैसे तय होता है। लेकिन जब से इसको जाना है, तब से देख रहे हैं कि चिट्ठा जगत में भी कहीं न कहीं कुछ तो गड़बड़ है, अब यह गड़बड़ तकनीकी है या फिर जानबूझ कर किसी के साथ ऐसा किया जाता है, यह हम नहीं जानते हैं। पर गड़बड़ तो है। हमें पहली बार इस गड़बड़ी का अंदेशा तब हुआ जब हमारे नक्सलियों पर लिखे एक लेख का उल्लेख संजीव तिवारी जी ने अपने ब्लाग आरंभ में किया। इस उल्लेख के बाद न तो हमारे ब्लाग का हवाला बढ़ाया गया और न ही इस प्रविष्टी को जोड़ा गया। हमने इसके बारे में चिट्ठा जगत में ई-मेल करके जानकारी दी, पर फिर भी कुछ नहीं किया गया।

हमारे गब्बर सिंह वाले लेख की चर्चा जब एक ही दिन में दो ब्लागों - झा जी कहिन और चिट्ठा चर्चा में हुई तो झा जी की प्रविष्टी को तो शामिल किया गया, पर अनूप शुक्ल जी द्वारा की गई चर्चा की प्रविष्टी को शामिल नहीं किया गया। हमने फिर से चिट्ठा जगत का ध्यान दिलाया तो इस बार हमसे हमारे ब्लाग का और उस लेख का पता मांगा गया, हमने पता मेल किया, फिर भी कुछ नहीं किया गया। अब चार दिनों पर पहले 7 सितंबर को हमारे एक लेख का उल्लेख दि संडे पोस्ट में हुआ तो बीएस पाबला जी ने अपने ब्लाग प्रिंट मीडिया पर ब्लागचर्चा में किया। इस प्रविष्टी को भी शामिल नहीं किया गया। ये तीन हादसे तो हमें याद हैं जिनके बारे में हम जानते हैं, इसके अलावा और भी ऐसे हादसे हो सकते हैं जिनके बारे में हम नहीं जानते हैं।

अब हम अपनी ब्लाग बिरादरी से ही पूछना चाहते हैं कि इसको आखिर मनमर्जी की संज्ञा दी जाए, बेईमानी कहा जाए या फिर कुछ और कहा जाए। आज हमें भी न जाने क्यों काफी समय पहले एक ब्लागर मित्र द्वारा लिखे एक लेख की याद आ रही है कि ब्लाग जगत में भी मठाधीशों की कमी नहीं है। क्या कोई ऐसा मठाधीश है जो यह नहीं चाहता है कि राजतंत्र आगे बढ़े। ऐसा हम इसलिए कह रहे हैं कि राजतंत्र ने महज पांच माह में ही आज सक्रियता में 80 वां स्थान प्राप्त कर लिया है। अगर हमारी तीन प्रविष्टियां को और शामिल किया जाता है तो यह और आगे होता। चिट्ठा जगत वालों को जवाब देना चाहिए कि आखिर क्यों कर किसी ब्लागर की प्रविष्टियां इस तरह से गायब हो जाती हैं, अगर कोई तकनीकी कमजोरी है तो उसे दूर किया जाना चाहिए। हम भी जानते हैं कि दस हजार से ज्यादा चिट्ठों के संचालन में गलती हो सकती है, लेकिन गलती लगातार और बार-बार नहीं होती है जैसा हमारे साथ हुआ है। जैसा हमारे साथ हुआ है संभव है और ब्लागरों के साथ भी हुआ हो। हमारी बस इतनी गुजारिश है कि इस तरफ गंभीरता से ध्यान देना चाहिए। ताकि किसी को शिकायत का मौका न मिले।

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गुरुवार, सितंबर 10, 2009

पुलिस विभाग में भी नक्सली !

छत्तीसगढ़ में नक्सलियों का नेटवर्क है कि लगातार बढ़ते ही जा रहा है। अगर इस खबर पर यकीन किया जाए तो अब यह भी कहा जाने लगा है कि पुलिस विभाग में नक्सली आ गए हैं। ऐसा कहा जा रहा है तो उसके पीछे कम से कम तर्क तो ठोस ही लग रहा है कि पुलिस विभाग में हाल ही में हुई आरक्षकों की भर्ती में जोरदार पैसे चले और इसी का फायदा उठाते हुए नक्सलियों ने अपने आदमी पुलिस विभाग में भी भेज दिए हैं। अगर सच में ऐसा हुआ है तो फिर यह बात तय है कि पुलिस की हर बात नक्ससलियों तक अब और आसानी से पहुंच जाएगी। और आसानी से इसलिए कि पहले भी नक्सलियों तक पुलिस की योजनाएं पहुंचती रही हैं।

छत्तीसगढ़ की नक्सली समस्या प्रदेश सरकार के साथ केन्द्र सरकार के लिए भी नासूर बन गई है। एक तरफ इस समस्या से निजात पाने के लिए बड़ी रणनीति पर काम किया जा रहा है और लालगढ़ से भी बड़ा नक्सली आपरेशन करने की तैयारी है। इसकी शुरुआत भी हो चुकी है, पर सफलता अभी लगता है कौसों दूर है, और कौसों दूर ही रहेगी। कारण साफ है कि नक्सलियों का नेटवर्क इतना तगड़ा है कि पुलिस विभाग की सारी योजनाएँ उन तक पहुंच जाती हैं। अब पुलिस विभाग भले किसी भी योजना का मीडिया के सामने खुलासा नहीं कर रहा है। वैसे मीडिया पुलिस विभाग को बाध्य भी नहीं करता है, क्योंकि मीडिया जानता है कि इससे उसका फायदा होने वाला नहीं है बल्कि सच में नक्सली योजना जानकर सचेत हो जाएंगे। अब यह बात अलग है कि नक्सलियों तक किसी भी तरह से पुलिस की रणनीति की खबर पहुंच ही जाती है। यह बात सब जानते हैं कि पुलिस विभाग में नक्सलियों के मुखबिरों की कमी नहीं है।

अब तक तो पुलिस विभाग में महज नक्सलियों के मुखबिर हुआ करते थे, पर इधर खबरें यह आ रही हैं कि नक्सलियों ने अपने आदमी भी पुलिस विभाग में भर्ती करवा दिए हैं। इसके बारे में जानकारों की बातों पर यकीन किया जाए तो उनका कहना है कि अभी पुलिस विभाग में आरक्षकों की भर्ती में जमकर पैसों का खेल चला है। दो से तीन लाख रुपए तक लिए गए हैं नियुक्ति के लिए। ऐसे में नक्सलियों ने इसी बात का फायदा उठाते हुए अपने कई जवानों को पुलिस विभाग में भर्ती करवा दिया है। अगर ऐसा हो गया हो तो आश्चर्य नहीं है। जब किसी भी विभाग में पैसों के दम पर भर्ती होती है तो पैसे लेने वालों को इस बात से कोई मतलब थोड़े रहता है कि जिसको वे नौकरी देने जा रहे हैं वो साहूकार है या काला चोर।

वास्तव में यह अपने देश की विडंबना है कि पैसों के आगे सब इस तरह से नतमस्तक हो जाते हैं कि वे देश का भी सौदा कर डालते हैं। अगर पुलिस विभाग के आलाअधिकारियों ने पैसे लेकर नक्सलियों या फिर उनके प्रतिनिधियों को पुलिस में रख लिया है तो क्या बुरा किया है? इस मामले में होना तो यह चाहिए कि पुलिस विभाग को इस सारे मामले की जांच करवानी चाहिए। वैसे जांच में कुछ हासिल होगा, इसकी गुंजाइश नहीं है क्योंकि अपने देश में किसी भी मामले की जांच सालों चलती है और अंत में फैसला यही आता है कि शिकायत गलत पाई गई। अब देश का सारा सिस्टम ही ऐसा है तो कोई क्या कर सकता है। आम आदमी तो बस ऐेसे रिश्वतखोर अफसरों को कोस ही सकता है। और हमारे जैसे पत्रकार बस कमल घिस सकते हैं। हम जानते हैं कि हमारे ऐसा लिखने से कुछ होना नहीं है, पर कम से कम हमको इस बात का मलाल तो नहीं रहेगा कि हमारे पास जो जानकारी थी उसको हमने सार्वजनिक नहीं किया।

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बुधवार, सितंबर 09, 2009

मोहब्बत का कफन



तू सामने खड़ी है तो है

पर तेरा दीदार करू कैसे

नजरें तो मिला सकता नहीं

फिर से हंसी गुनाह करू कैसे

छोटी सी खता ही सही प्रिंस

पर मोहब्बत का इजहार करू कैसे

तेरे दुखते दिल को चैन तो दे दूं

पर अपनी आहें और आंसू दूं कैसे

बेरूखी तो किसी तरह खत्म हो जाएगी

पर अपनी मुराद पूरी करू कैसे

तुझे माफ तो कर दूं

पर अपने दिल में बसाऊ कैसे


मोहब्बत तो मेरे दिल में भी है प्रिंस

पर मोहब्बत का कफन दिल में सजाऊ कैसे

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मंगलवार, सितंबर 08, 2009

अपराध से कोसों दूर एक गांव-जहां कभी नहीं पड़े पुलिस के पांव

क्या आप अपने देश में एक ऐसे गांव की कल्पना कर सकते हैं जहां पर अपराध न होता हों, न कोई शराब पीता हो, और जहां कभी पुलिस के पांव भी न पड़े हों। आपको कल्पना करने की जरूरत नहीं है हम आपको हकीकत में एक ऐसे गांव के बारे में बताने वाले हैं जो अपराध से अब तक अछूता है। इस गांव के सारे छोटे-बड़े मामले गांव की पंचायत में ही निपटा लिए जाते हैं। इस गांव में बरसों से युधिष्ठिर के आसन पर बैठकर सरपंच फैसला करते हैं।

हम यहां पर बात कर रहे हैं छत्तीसगढ़ के उस नक्सल क्षेत्र बस्तर के चारामा के एक गांव उड़कुडा की जहां पर आज तक पुलिस के पांव नहीं पड़े हैं और यहां का एक भी मामला कभी कोर्ट तक नहीं गया है। करीब ढाई हजार की आबादी वाले इस गांव में महर्षि वेद व्यास के संत स्वभाव और धर्मराज युधिष्ठिर की बड़ी छाप है। गांव वालें इन्हीं के चरण चिन्हों पर चल रहे हैं और कोई भी मामला आपस में मिलकर ही निपटा देते हैं। गांव का एक-एक आदमी इस बात को अच्छी तरह से जानता है कि पुलिस, कोर्ट-कचहरी के चक्कर से हासिल कुछ नहीं होता है, ऐसे में कोई भी मामला कोई कोर्ट तक ले जाने के बारे में सोचता ही नहीं है।

गांव में जहां पंचायत की बैठक में किसी भी मामले का फैसला किया जाता है, वहां पर संत महर्षि व्यास की मूर्ति है। इसी मूर्ति के पास में धर्मराज युधिष्ठिर का आसन है। यह आसन जोगी गुफा के पास है। इसी गुफा के बारे में कहा जाता है कि इसी गुफा में महर्षि व्यास अपने शिष्य युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव को ज्ञान देते थे। इस गुफा के पास आज भी शिष्यों के बैठने का स्थान है। युधिष्ठिर जहां पर बैठते थे, उस आसन का ग्रामीण बहुत सम्मान करते हैं। बताया जाता है कि अज्ञातवाश के समय पांडव बस्तर आए थे और यहां एक साल तक रहे थे।

अब इस गांव का कोई भी फैसला पंचायत में होता है तो इसका यह मतलब कदापि नहीं है कि यहां के लोग कम पढ़े-लिखे हैं। इस गांव से निकले कई लोग बड़े पदों पर भी हैं। गांव का कमलेश जूरी जज, जोहर कश्यप कमिश्नर, कोर्राम एसपी और श्याम लाल गोटा डॉक्टर हैं।

गांव में अपराध नहीं होते हैं तो उसका एक सबसे बड़ा कारण यह भी है गांव में कोई शराब नहीं भी नहीं पीता है। गांव में शराब पर पूरी तरह से बंदिश है। अगर कोई इस नियम को तोड़ता है और शराब पीकर हुल्लड़ करता है तो उसे पंचायत में पांच सौ रुपए का जुर्माना किया जाता है। इसी तरह से किसी के शराब पीने की जानकारी होने पर उसको 200 रुपए का अर्थ दंड दिया जाता है। हैं न एक सपनों का गांव। काश देश का हर गांव ऐेसा हो जाता तो कितना अच्छा होता।

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सोमवार, सितंबर 07, 2009

ट्रिपल नाइन के स्वागत के लिए तैयार रहे

सितंबर का माह भी एक अनोखी सौगात लेकर आया है। इस माह में ट्रिपल नाइन का संयोग पडऩे वाला है। वैसे देखा जाए तो आप एक नहीं बल्कि दो-दो ट्रिपल नाइन का मजा ले सकते हैं।

सिंतबर में जब 9 तारीख आएगी तो इसी के साथ ट्रिपल नाइन का संयोग बनेगा। 9 तारीख 9 वां माह और 2009 की अंतिम संख्या 9 यानी हो गए न ट्रिपल नाइन। इन ट्रिपल नाइन में एक खास बात यह भी है कि तीनों नौ का योग 27 होता है और इसका योग भी 9 होता है। यानी चार नाइन का मजा। अब अगर इस मजे को और रोमांचक बनाना है तो हम बताते हैं आपको कि कैसे डबल ट्रिपल नाइन का मजा लिया जा सकता है। 9 सिंतबर के दिन ठीक 9 बजकर 9 मिनट 9 सेकेंड को जोड़ दिया जाए तो हो गए न डबल ट्रिपल नाइन। अब इन ट्रिपल नाइन के बारे में ज्योतिषियों का मत देखा जाए तो इसे महत्वपूर्ण माना जा रहा है। ज्योतिषियों का कहना है कि यह दिन मेष, कर्क, मीन, धनु और सिंह राशि के लिए अतिशुभ है। कुंडली में भी नलांश को ज्योतिषी विशेष महत्व देते हैं। लग्न कुंडली, चंद्र कुंडली और सूर्य कुंडली से ज्यादा नवांश का महत्व माना जाता है। 9 सिंतबर के बारे में बताया जा रहा है कि इस दिन मंगल मिथुन राशि में रहेगा। मिथुन का ग्रह बुध है, बुध को मंगल का सम माना जाता है। जबकि मंगल बुध का शत्रु है। 9 सितंबर को वार भी बुधवार है।

ज्योतिषी कहते हैं कि 9 सितंबर को कन्या और मिथुन राशि को लाभ नहीं होगा। तुला, वृष, मकर और कुंभ राशि वालों के लिए सामान्य फल कारक रहेगा ट्रिपल नाइन। इस दिन को साल का सबसे श्रेष्ठ दिन माना जा रहा है। इस श्रेष्ठ दिन के कारण ही पितृ पक्ष होने के बाद भी 9 सितंबर को खरीददारी के लिए महत्वपूर्ण माना जा रहा है। वैसे पितृ पक्ष में खरीददारी नहीं की जाती है, पर इस बार ट्रिपल नाइन से इस पक्ष में भी सराफा बाजार में रौनक की रहने खबरें आ रही हैं। तो हो जाए आप भी तैयार ट्रिपल नाइन का स्वागत करने के लिए और अपने दिन को खास बना लें।

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रविवार, सितंबर 06, 2009

छत्तीसगढ़ के खेलों में डालना जान-श्रीकांत अयगर का अरमान

भारतीय हॉकी टीम के फिजियोथेरेपिस्ट

से विशेष बातचीत


भारतीय हॉकी टीम के खिलाडिय़ों को फिटनेस में माहिर करने वाले फिजियोथेरेपिस्ट रायपुर के श्रीकांत अयगर का अब अरमान है कि वह अपने राज्य छत्तीसगढ़ के खेलों में भी जान डालने का काम करें। उनको जब भी मौका मिलता है वे रायपुर आते हैं, पर यहां आने के बाद उनको खाली बैठना पड़ता है जो उनको पसंद नहीं है। इसलिए वे चाहते हैं कि उनकी मदद जो भी खेल संघ लेना चाहते हैं ले सकते हैं। उनकी इस मंशा को देखते हुए ही खेल संचालक ने सभी खेल संघों को पत्र लिखने की बात कही है।


भारतीय टीम के कनाडा दौरे से पहले रायपुर आए श्रीकांत ने यहां पर खेल भवन में चर्चा करते हुए कहा कि वे जब भी रायपुर आते हैं तो वे यहां पर खेल संचालक जीपी सिंह से जरूर मिलने आते हैं। उन्होंने बताया कि वे चाहते हैं कि अपने राज्य के खिलाडिय़ों के लिए भी कुछ करें। वे पूछने पर बताते हैं कि पिछले दो साल से वे भारतीय हॉकी टीम के फिजियो के रूप में काम कर रहे हैं। उन्होंने टीम के कप्तान संदीप ङ्क्षसह के साथ दिलीप तिर्की, प्रभाजोत सिंह सहित सभी उन खिलाडिय़ों को फिटनेस में माहिर किया है जो दो साल से भारतीय हॉकी टीम से खेल रहे हैं। इस समय छत्तीसगढ़ का एक और खेल सितारा मृणाल चौबे भी भारतीय टीम के साथ है। श्रीकांत बताते हैं उनको अपने राज्य के मृणाल को हॉकी टीम में देखकर अच्छा लगा। वैसे वे भारत की जूनियर टीम को भी तैयार करने का काम करते हैं। पूछने पर वे बताते हैं कि उनका भारतीय टीम के साथ २०१० की एशियन चैंपियनशिप तक अनुबंध है। इस बीच टीम को जहां अगले साल दिल्ली में होने वाले विश्व कप में खेलना है, वहीं टीम दिल्ली में होने वाले कामनवेल्थ में भी खेलेगी। एक सवाल के जवाब में बताते हैं कि टीम की सबसे बड़ी समस्या यह है कि सीनियर टीम के खिलाडिय़ों के घायल होने की दशा में टीम को फिट बेक नहीं मिल पाता। मेरे कहने का मतलब है कि टीम के पास अतिरिक्त खिलाडिय़ों की कमी है। हॉकी संघ ने फैसला किया है कि जूनियर टीम के ज्यादा खिलाडिय़ों को अब मौका दिया जाएगा। इसी रणनीति के तहत ही मृणाल चौबे को भी मौका मिला है।

छत्तीसगढ़ में एस्ट्रो टर्फ जरूरी

वे पूछने पर कहते हैं कि छत्तीसगढ़ में हॉकी को सही दिशा देने के लिए ज्यादा से ज्यादा एस्ट्रो टर्फ लगाने चाहिए। वे बताते हैं कि कई देशों में गए हैं और वहां देखा है कि क्लबों के पास भी अपने एस्ट्रो टर्फ रहते हैं। वे पूछने पर बताते हैं कि वे मूलत: रायपुर के हैं और उनकी शिक्षा यही हुई है। यहां पर वे सालेम स्कूल में पढ़े हैं और राज्य स्तर तक क्रिकेट खेलने के साथ वे स्कूल की टीम से फुटबॉल भी खेले हैं। वे कहते हैं कि आज जबकि वे भारतीय हॉकी टीम के खिलाडिय़ों को फिटनेस के गुर सिखाते हैं तो उनको लगता है कि वे अपने राज्य के खिलाडिय़ों को भी ऐसा कुछ बताएं जिससे वे राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर राज्य का नाम रौशन कर सके। वे बताते हैं कि वे यहां पर १०-१५ दिनों के लिए आते हैं तो खाली रहते हैं। ऐसे में वे सोचते हैं जब भी वे आया आएं तो उनके आने का फायदा किस भी खेल के खिलाड़ी ले सकते हैं। श्रीकांत की इसी मंशा को ध्यान में रखते हुए खेल संचालक जीपी सिंह ने श्रीकांत की सेवाएं लेने के लिए प्रदेश ओलंपिक संघ के साथ सभी खेल संघों को पत्र लिखने की बात कही है।

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शनिवार, सितंबर 05, 2009

छात्रों से ही ले रहे पैसा-ये शिक्षकों का सम्मान कैसा

आज शिक्षकों यानी गुरुओं का दिन है यानी शिक्षक दिवस। इस दिन गुरुओं का सम्मान किया जा रहा है। सम्मान तो ठीक है, पर कई स्कूलों में शिक्षकों का सम्मान करने के लिए छात्रा से ही जबरिया पैसे उगाहे गए हैं। छात्रों से पैसे वसूल कर ये शिक्षकों का कैसा सम्मान करने की परंपरा प्रारंभ हो गई है। यह परंपरा उन निजी अंग्रेजी स्कूलों में है जिनका नाम बड़ा, पर काम छोटा है। वैसे कुछ स्कूल अच्छे भी हैं, जैसे ही हमारी बिटिया का स्कूल है। इस स्कूल को हम अच्छा यूं ही नहीं कर रहे हैं। यहां से जहां ऐसा कोई फरमान नहीं आया, वहीं हमने अपनी बिटिया को सुबह से उठकर अपनी शिक्षिका के लिए ग्रीटिंग बनाते देखा है।

इस सारे संसार में अगर किसी का सबसे ऊंचा स्थान है तो वह स्थान है गुरु का यानी शिक्षा का ज्ञान देने वाले शिक्षकों का। शिक्षकों का सम्मान करने की परंपरा पुरानी है। एक वह समय था जब शिक्षकों का सम्मान मन से किया जाता था, पर आज वह जमाना नहीं रह गया है। याद करें हम एकलव्य को जिन्होंने अपने गुरु को गुरु दक्षिणा में अपना अगूंठा ही काट कर दे दिया था। लेकिन जहां न तो आज ऐसे शिष्य हैं और न ही ऐसे गुरु। आज के गुरुओं की बात की जाए तो आज इनका स्थान शिक्षकों ने ले लिया है। आज शिक्षा का ज्ञान देने वालों को गुरु कहना भी गलत है। कितने ऐसे गुरु हैं जिनको सम्मान से सच में गुरु कहा जा सकता है। आज कदम कदम पर शिक्षा के ज्ञान के नाम की दुकानें खुल गई हैं। इन दुकानों में बस लुट मची है।

हम अगर निजी अंग्रेजी स्कूलों की बातें करें तो ये दुकानें ही सबसे ज्यादा लुट मचाने का काम कर रही हैं। बस इनको एक मौका चाहिए बहाने का कि कैसे छात्रों के पालकों की जेबे हल्कीं की जाएं। अब आज शिक्षक दिवस है तो अपने छत्तीसगढ़ की राजधानी के साथ कई शहरों से इस बात की खबरें हैं कि निजी स्कूलों ने बकायदा छात्रों की डायरी में शिक्षक दिवस पर शिक्षकों का सम्मान करने के किए एक-एक छात्र से कम से कम 100-100 रुपए लाने का फरमान जारी किया है। अब ऐसा फरमान जारी हुआ है तो किस छात्र के पालक में दम है कि वह इसका विरोध करे और पैसे न दे। अगर पैसे नहीं दिए गए तो छात्र स्कूल में प्रताडि़त होंगे। हमने कई छात्रों को ऐसे ही किसी मौकों के लिए पैसे देने के लिए पालकों के सामने गिड़गिड़ाते देखा है। उनके गिड़गिड़ाने के पीछे का कारण यही रहता है कि वे स्कूल में प्रताडि़त नहीं होना चाहते हैं। पालक भी इस बात को जानते हैं, इसलिए वे न चाहते हुए भी अपनों बच्चों को प्रताडऩा से बचाने के लिए पैसे दे देते हैं।

ऐसे समय में उन मानवाधिकारों की बातें करने वालों की याद आती है कि क्या यहां पर उनको यह बात नजर नहीं आती है कि कैसे निजी स्कूलों में लगातार लुट मचाकर रखी गई है और शिक्षक दिवस जैसे न जाने कितने आयोजनों के नाम से पालकों को परेशान किया जाता है। क्या इस तरह की शिक्षा और शिक्षकों की कल्पना की गई थी इस सोने की चिडिय़ा समझे जाने वाले देश में। क्यों नहीं किया जाता है ऐसे बातों का विरोध? क्यों नहीं खोलते हैं वे मानवाधिकारी ऐसे स्कूलों के खिलाफ मोर्चा जो नक्सलियों को मदद तक पहुंचाने वालों की वकालत करने से बाज नहीं आते हैं। क्यों नहीं किया जाता है ऐसे स्कूलों और ऐसे शिक्षकों का बहिष्कार जिनके जबरिया सम्मान के लिए पैसे वसूले जाते हैं? हमें लगता है कि जैसे हालात छत्तीसगढ़ में हैं उससे जुदा हालात देश के अन्य राज्यों में नहीं होंगे। हर राज्य के स्कूलों में ऐसे ही पैसे वसूल कर शिक्षकों का सम्मान किया जाता होगा।


एक तरफ जहां पैसे वसूलने वाले बड़े-बड़े निजी स्कूल हैं तो वहां पर कुछ अच्छे स्कूल भी हैं। हमारे बच्चे जिस स्कूल में पढ़ते हैं वहां से कभी ऐसा फरमान नहीं आया कि फला तारीख को शिक्षक दिवस है तो इतने पैसे दिए जाए। हमने अपनी बिटिया स्वप्निल को अपनी शिक्षिका के लिए सुबह से उठकर ग्रीटिंग बनाते देखा है। यह देखकर जहां खुशी हुई, वहीं उन बातों को लेकर दुख होता है जिसमें शिक्षकों के सम्मान के लिए छात्रों से पैसे मंगाए जाते हैं। शिक्षकों का सम्मान अगर छात्र सच्चे मन से एक ग्रीटिंग देकर करें तो उससे बड़ा सम्मान नहीं हो सकता है। लेकिन ऐसा नहीं है। आज शिक्षकों को अपना सम्मान जबरिया करवाने का शौक है।

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शुक्रवार, सितंबर 04, 2009

पांच माह में 200 पोस्ट, 16,050 पाठक, 1991 टिप्पणियां

राजतंत्र पर नियमित रूप से लिखते हुए करीब पांच माह हो गए हैं। यूं तो इस ब्लाग का आगाज फरवरी 2009 के अंत में किया था, पर फरवरी और मार्च में ज्यादा कुछ नहीं लिख सके। अप्रैल से जो नियमित लिखना प्रारंभ किया तो बिना एक दिन का नागा किए लगातार लिख रहे हैं। कल ही हमारे ब्लाग पर पोस्ट का दोहरा शतक यानी 200 पोस्ट पूरी हुई है। इसी के साथ हमें इन पोस्टों के लिए जहां 16,050 पाठक मिले, वहीं हमारे मित्रों से 1991 टिप्पणियों ने नवाजा है। इस बीच हमें ब्लाग बिरादरी के साथ अपने मित्रों का अपार प्यार और स्नेह मिला है। कई बार मित्रों ने यह भी कहा कि यार किस-किस विषय पर बिना वजह लिखते रहते हो, न जाने क्यों लफड़ों में पड़ते रहते हो, पर क्या करें हमें गलत बात पसंद नहीं सो हो जाता है कई बार किसी विषय में लोगों से पंगा। पंगे से याद आया कि वैसे भी ब्लाग जगत में अपना आगाज एक तरह से पंगे से ही हुआ था, जब हमने कपड़ों के लफड़ों पर लिखा था। तब भी हमारे मित्रों और शुभचिंतकों ने कहा कि ये क्या लफड़ा है। हमने उनको समझाया था कि यार यह तो जिंदगी का एक हिस्सा है, जरूरी नहीं है कि जो बातें हमें पसंद न हों उससे सब सहमत हों। वैसे इसे पंगे का नाम देना ही गलत है। इसे एक तरह से स्वस्थ्य बहस का नाम दिया जाना उचित होगा। किसी भी विषय में अगर विचार मेल न खाएं तो उसको पंगे का रूप देना भी नहीं चाहिए, जैसा कि अपनी ब्लाग बिरादरी में कई बार दे दिया जाता है। ब्लाग बिरादरी में भी हमने देखा है कि भारत-पाकिस्तान जैसी स्थिति आ जाती है। लोग सारी सीमाएं पार कर जाते हैं। वास्तव ब्लाग जगत एक परिवार है जिसमें सबको मिलकर रहना है। वैसे भी अपने हिन्दी जगत का ब्लाग परिवार काफी छोटा है। अभी से यह हाल रहा तो आगे न जाने क्या होगा।

बहरहाल हम किसी को कोई नसीहत देना नहीं चाहते हैं। वैसे भी आज-कल देखा जाए तो नसीहत महंगाई की तरह ही महंगी हो गई है, क्यों इसे मुक्त में जाया किए जाए। हमें इतने कम समय में इतने ज्यादा प्यार और स्नेह के साथ मार्गदर्शन के लिए भी हम ब्लाग बिरादरी के मित्रों के साथ अन्य उन मित्रों के भी आभारी हैं जो हमारा ब्लाग नियमित पढ़ते हैं। ब्लाग पढऩे वालों में हमारे कई ऐसे मित्र भी शामिल हैं, जिनको ब्लाग लेखन से कोई मतलब नहीं है लेकिन चूंकि वे हमारे मित्र हैं इसलिए नियमित रूप से न सिर्फ हमारा ब्लाग पढ़ते हैं, बल्कि टिप्पणियां करने के साथ कई बार सुझाव भी देते हैं कि इस विषय पर क्यों नहीं लिखते हैं। हमारे ऐसे मित्र अपने राज्य छत्तीसगढ़ में ही नहीं पूरे देश में हैं, जिनके सुझाव आते हैं जो हमसे लगातार फोन पर भी बात करते हैं। संभवत: यह उनका मार्गदर्शन, सुझाव और प्यार है जिसने हमें इस मुकाम तक पहुंचाया है, हम सभी के तहे दिल से आभारी हैं। हमें आशा ही नहीं विश्वास है कि ऐसा ही प्यार और स्नेह सदा बना रहेगा। इसी आशा के साथ कल तक के लिए विदा लेते हैं। कल फिर मिलेंगे एक नए लेख के साथ।

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गुरुवार, सितंबर 03, 2009

भजनों से मिला ऐसा मान-पंडित बना गया मुस्लमान

कहते हैं संगत का बहुत असर होता है। इसमें कोई दो मत नहीं है कि अच्छों की संगत में इंसान की जिंदगी संवर जाती है तो बुरों की संगत में इंसान की जिंदगी नरक बन जाती है। हमने तो भजन गाने वालों की संगत के रंग में रंग कर अपने एक मित्र को मुस्लमान से पंडित बनते देखा है। यहां पर हमारा पंडित का मतलब यह है कि उस युवक ने मंदिरों में भजन करने के कारण अपने साथियों की तरह ही मांसाहार से किनारा कर लिया और पूरी तरह से भजनों में रम गया। आज भी यह युवक शादी के बाद अपने वादे पर कायम है। यह वादा उन्होंने किसी और से नहीं बल्कि अपने आप से किया था। आज जबकि हर तरफ देश में साम्प्रदायिकता का जहर फैलाने का काम किया जा रहा है, ऐसे में हमें यह बात याद आ गई जिसका हम यहां उल्लेख कर रहे हैं। वैसे हम एक बात यह भी कहना चाहते हैं कि अक्सर हिन्दुओं को कमजोर समझने की गलती की जाती है, हिन्दु कमजोर नहीं बल्कि रहम दिल है। लेकिन इस रहम दिली का अगर गलत फायदा उठाया गया तो इसका अंजाम घातक भी हो सकता है।

एक मुस्लमान युवक के पंडित जैसे बनने की बात हमें अचानक याद नहीं आई है। यह बात हम इसलिए यहां बताना चाहते हैं कि हमें ब्लाग जगत में यही लगता है कि यहां पर भी हिन्दु और मुस्लिम का भेद है। कोई हिन्दुओं के देवताओं के साथ हो रहे खिलवाड़ के बारे में लिखता है तो कोई मुस्लमान उस पर आवंछित टिप्पणी कर देता है। जी हां ठीक समझे हम बात कर रहे हैं अनिल पुसदकर जी के लेख की। उनके एक लेख पर सलीम भाई ने जो टिप्पणी की उसके बाद पहली बार अनिल जी ने उनके जवाब में एक पोस्ट लिख दी। वैसे यह बात सब जानते हैं कि अनिल जी प्रति उतर नहीं देते हैं। अनिल जी ने प्रति उदर दिया ठीक किया, पर उनके लेख पर जिस तरह की टिप्पणियां आईं उससे कम से कम हमें तो यह कहीं से नहीं लगा कि वास्तव में आज अपने देश में हिन्दु, मुस्लिम, सिख, ईसाई आपस में हैं भाई-भाई जैसी स्थिति का कुछ भी प्रतिशत बचा है। हमारा ऐसा मानना है कि अगर एक इंसान गलती कर रहा है और वह रोड़ में नंगा खड़े होकर नाच रहा है तो क्या हम भी नंगे हो जाए। फिर उसमें और हममें फर्क क्या रह जाएगा। जिनकी जैसा फितरत है वो तो वैसा ही करेंगे फिर हम क्यों उनकी तरह अपने कपड़े फाडऩे का काम कर रहे हैं।

हमारा ऐसा मानना है कि वास्तव में हमारा हिन्दु धर्म ऐसा है जो सबको प्यार देने का काम करता है। एक नहीं हजारों उदाहरण मिल जाएंगे इसके लिए। कभी हिन्दुओं के मंदिर में किसी को जाने से नहीं रोका जाता है। लेकिन क्या कभी कोई हिन्दु किसी मस्जिद में जा सकता है? हिन्दुओं के सारे तीर्थ सभी धर्मों को मानने वालों के लिए खुले हैं, पर क्या कोई हिन्दु हज करने जा सकता है? उनको तो वहां फटकने भी नहीं दिया जाएगा। अगर कोई मुस्लिम युवक किसी मंदिर में बैठकर भजन गाता है तो उसको कोई नहीं रोकता है, उस युवक को हिन्दु गले लगाने का काम करते हैं।

हमें याद है हमारे एक बचपन के मित्र हैं शौकत अली उनका छोटा भाई शाकिर अली भी हमारा मित्र है। हमने इस युवक को देखा कि कैसे वह संगत में बदला और पूरी तरह से पंडित जैसा बन गया। बात हमारे गृहनगर भाटापारा की है। वहां पर जो लोग शाकिर के घर आते थे, उनमें से कई लोग ऐसे थे जो रोज शाम को एक मंदिर में बैठकर भजन गाते थे। एक दिन शाकिर भी उनके साथ चला गया, इसके बाद उनका मन वहां ऐसा रम की वह रोज वहां जाने लगा। यही नहीं उन्होंने तो अपने दोस्तों की संगत में मांसाहार भी छोड़ दिया। इसके लिए उसे किसी ने बाध्य नहीं किया था, लेकिन उन्होंने सच्चे मन से ऐेसा किया। वह रोज मंदिर में भजन करने के साथ भगवान का टिका लगाकर निकलता था। हम पहले भी बता चुके हैं कि शाकिर का बड़ा भाई जो कि हमारा मित्र है वह भी रोज हमारे साथ मंदिर जाता था और माता का टिका लगाकर हमारे साथ घुमता था। हमने कभी शौकत ने मांसाहार छोडऩे नहीं कहा। वह कभी भजन करने नहीं गया, पर उनका भाई जाता था। आज से करीब दो दशक पहले शाकिर ने जो मांसाहार से नाता तोड़ा है, उसने फिर शादी के बाद भी उससे नाता नहीं जोड़ा। आज भी उनके घर में जब बिरयानी बनती है तो उनके लिए अलग से खाना बनाया जाता है। शाकिर से उनके परिजनों के साथ ससुराल वालों ने भी मांसाहार के लिए कई बार कहा, पर उन्होंने फिर कभी मांसाहार नहीं किया है।

आखिर ये क्या है? यह उनके मन की भावना ही तो है जिसने उनको भगवान में ऐसा रमाया कि वह पंडित की तरह हो गया। भाटापारा छोडऩे के बाद रायपुर में फिर उनको ऐसा कोई साथ नहीं मिला। वह आज भी जब हमसे मिलता है तो पुराने दिनों को याद करता है और कहता है राजु सच में भाटापारा में मंदिर में भजन करने में जो सुख मिलता था वैसा सुख और कहीं नहीं है। यह एक उदाहरण है जो बताता है कि हिन्दु धर्म क्या है।

हमारा धर्म कभी किसी पर थोपा नहीं गया है। मैं भी अनिल जी की एक बात को दोहराना चाहता हूं कि हिन्दु इतना भी कमजोर नहीं कि उनके मंदिरों में कोई गाय के बछड़े का मांस फेंक कर चला जाए तो वह चुप बैठा रहे। अब यह बात अलग है कि अपने राज्य का मीडिया इतना अच्छा है कि वह यह जानता है कि कौन सी खबर को कैसे प्रकाशित करना है। अगर रायपुर के एक मंदिर में फेंके गए गाय के बछड़े के मांस की फोटो छाप दी जाती तो जरूर साम्प्रयादिकता का जहर फैल सकता था, पर ऐसा नहीं किया गया। अखबार वाले जरूर समझदार हैं, इसी के साथ हिन्दु धर्म के मानने वाले भी समझदार हैं जो बिना सोचे समझे किसी पर आरोप नहीं लगते हैं। लेकिन इतना तय है कि अगर ऐसी हरकत करते किसी को देख लिए जाएगा तो उसका हश्र क्या किया जाएगा यह बताने वाली बात नहीं है।

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बुधवार, सितंबर 02, 2009

कलयुग का अर्जुन

वर्तमान युग के अर्जुन से

उनके गुरुदेव ने पूछा


बताओ अर्जुन तुम्हें क्या दिखता है

लाचारी, गरीबी, बेबसी, बेकारी, भूखमरी

अर्जुन बोला

गुरुदेव मुझे तो बस कुर्सी दिखती है

गुरुदेव खुश होकर बोले

शाबास अर्जुन


तुम काफी तरक्की करोगे

धन से अपना घर भरोगे

झूठे वादे जनता से करोगे

काम मगर कुछ नहीं करोगे


कुर्सी के लिए लड़ोगे

हत्या करने से भी नहीं डरोगे

एक दिन देश के मंत्री बनोगे

भारत माता को भी

विदेशियों के हाथों बेचोगे

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मंगलवार, सितंबर 01, 2009

राज्यपाल नरसिम्हन के छत्तीसगढ़ी प्रेम को सलाम

छत्तीसगढ़ के राज्यपाल ईएसएल नरसिम्हन ने खेल पुरस्कार समारोह में अपना उद्बोधन छत्तीसगढ़ी में देकर सबको आश्चर्य में डाल दिया। ऐसे समय में जबकि आज अपने देश की राष्ट्रभाषा ही काफी उपेक्षित नजर आती है एक गैर हिन्दी भाषीय राज्य से संबंध रखने वाले राज्यपाल का ऐसा प्रयास वास्तव में सराहनीय है। उनके छत्तीसगढ़ी प्रेम के लिए हम उनको प्रदेश की दो करोड़ जनता के साथ सलाम करते हैं। छत्तीसगढ़ को आज इस बात पर गर्व है कि उनको एक ऐसे राज्यपाल मिले हैं जो उनके राज्य की भाषा की न सिर्फ कदर करते हैं बल्कि उससे प्यार भी करते हैं। यह उनके छत्तीसगढ़ी से प्यार का ही नतीजा है जो उन्होंने छत्तीसगढ़ी में अपनी बात कही।


खेल दिवस के दिन जब राज्यपाल के कार्यक्रम को अपने अखबार के लिए हम कवर करने गए थे तब हमको भी यह मालूम नहीं था कि वहां पर राज्यपाल हमारे साथ पूरे छत्तीसगढ़ की जनता को अपना कायल कर लेंगे। वैसे राज्यपाल के तो हम करीब दो साल पहले से ही कायल हैं। कारण यह कि जब वे छत्तीसगढ़ के राज्यपाल बने थे तो उनके बारे में ऐसा कहा गया था कि वे गैर हिन्दी भाषीय राज्य के हैं और उनको हिन्दी नहीं आती है। लेकिन जब उनके कदम छत्तीसगढ़ में पड़े तो मालूम हुआ कि उनके बारे में जो बताया गया था वह बिलकुल गलत है और वे न सिर्फ हिन्दी में बोलते हैं बल्कि बहुत अच्छा बोलते हैं। हमें याद है जब वे यहां आएं थे तब हम दैनिक देशबन्धु में समाचार संपादक थे। हमने जब उन रिपोर्टर से पूछा जो राज्यपाल के आगमन पर विमानतल गए थे कि राज्यपाल की हिन्दी कैसी है तो उन्होंने बताया कि राज्यपाल से उन्होंने पूछा था कि उनकी हिन्दी कैसी है, तो उन्होंने हिन्दी में जवाब देते हुए कहा कि अब आप ही तय कर लें कि मेरी हिन्दी कैसी है।


दरअसल में जब वे छत्तीसगढ़ नहीं आए थे तो उनके बारे में लगातार यही कहा गया और कुछ अखबारों में खबरें में छपीं कि राज्यपाल तो अंग्रेजी में ही बोलते हैं। ऐसे में अंग्रेजी न जानने वाले मंत्रियों और विधायकों को परेशानी हो सकती है। यही वजह रही कि हमने उनके आगमन पर रिपोर्टिंग करने जाने वाले रिपोर्टर से यह कहा था कि इस बारे में उनसे जरूर पूछा जाए। आज राज्यपाल नरसिम्हन को छत्तीसगढ़ में करीब दो साल से ज्यादा समय हो गया है और हमें भी उनके कई कार्यक्रमों में जाने का मौका मिला है। हम जब भी उनके कार्यक्रमों में गए हैं उनकी हिन्दी ने हमें प्रभावित किया है। जब वे हिन्दी में बोलते हैं तो कहीं से यह नहीं लगता है कि वे गैर हिन्दी भाषीय राज्य के हैं।


खैर हिन्दी बोलना एक अलग बात है, पर छत्तीसगढ़ी में बोलना आसान नहीं है। लेकिन इस कठिन काम को भी राज्यपाल ने कर दिखाया। उन्होंने जिस तरह के छत्तीसगढ़ी में भाषण दिया है उसके बाद यह बात आसानी से समझी जा सकती है कि वास्तव में यह उनका छत्तीसगढ़ी के प्रति लगाव ही है जिसके कारण उन्होंने छत्तीसगढ़ी में अपना उद्बोधन दिया। अगर राज्यपाल के स्थान पर कोई मंत्री ऐसा करता तो जरूर एक बार कहा जा सकता था कि वे जनता के बीच में लोकप्रिय होने के लिए ऐसा कर रहे हैं। अब अपने राज्यपाल को कोई चुनाव तो लडऩा नहीं है कि वे ऐसा करेंगे। ऐसे में एक ही बात लगती है कि सच में वे छत्तीसगढ़ी से लगाव रखते हैं। उनके इस लगाव को हम नमन करते हैं।


आज राज्यपाल नरसिम्हन से उन लोगों को सबक और प्रेरणा लेने की जरूरत है जो राष्ट्र भाषा हिन्दी का मान करने की बजाए अपमान करते हैं। जब एक गैर हिन्दी भाषा राज्य का इंसान दूसरे राज्य की भी भाषा में बोल सकते हैं तो फिर लोगों को राष्ट्रभाषा में बोलने में क्यों शर्म आती है। आज अपने देश को नरसिम्हन जैसे लोगों की ही जरूरत है जो लोगों में जागरूकता पैदा कर सकें कि राष्ट्रभाषा से बढ़कर कुछ नहीं होता है।

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