रविवार, मई 31, 2009
राहुल...राहुल...राहुल... उफ.. हद हो गई...
इस बात में कोई दो मत नहीं है कि दुनिया उगते सूरज को सलाम करती है, लेकिन इतना भी क्या सलाम करना कि सलाम ही बोझ लगने लगे। ऐसा ही कुछ अपने राहुल बाबा के मामले में हो रहा है। जब से लोकसभा में यूपीए की जीत का डंका बजा है। हर कोई पेले पड़ा है राहुल का नाम लेकर। हर चैनल से लेकर सारे अखबार, चाहे वह दैनिक हों साप्ताहिक, पाक्षिक या फिर मासिक हों। कोई भी ऐसा मीडिया तंत्र नहीं है जो राहुल के पीछे पागल न हो। अरे हो गया न बाबा अब क्या पांच तक राहुल ही राहुल रटते रहोगे। राहुल चालीस लिख देने से कोई कांग्रेस या फिर यूपीए अपनी जमीन-जायजात आपके नाम करने वाली नहीं है। अब इतना भी मत सड़ाओ की कान भी पक जाएं और आंखें भी थक जाएं पढ़ते-पढ़ते।
आज पूरा एक पखवाड़ा हो गया है लोकसभा चुनावों के नतीजों को आए हुए, लेकिन इस एक पखवाड़े में ऐसा कोई दिन खाली नहीं गया होगा जब मीडिया ने अपने राहुल बाबा यानी राहुल गांधी की महिमा का बखान न किया होगा। इसमें कोई दो मत नहीं है कि आज अगर केन्द्र में यूपीए की सरकार बनी है तो उसके पीछे बहुत बड़ा हाथ राहुल का रहा है। लेकिन यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जनता आज इतनी समझदार हो गई है कि उसको बेवकूफ बनाया ही नहीं जा सकता है। कहने का मतलब यह है कि अगर भाजपा गठबंधन के पास जनता को लुभाने वाले मुद्दे होते तो जरूर राहुल का जादू नहीं चलता। एक तो एनडीए ने लालकृष्ण अडवानी को प्रधानमंत्री के रूप में सामने पेश करके गलती की (ऐसा लोगों का मानना है)ऊपर से उसके पास कोई मुद्दा नहीं था। अब ऐसे में जनता के सामने एक ही विकल्प था कि वह फिर से यूपीए को ही मौका दे। और जनता ने ऐसा किया भी। वैसे इसमें भी कोई मत नहीं है कि यूपी में कांग्रेस को जो सफलता मिली है उसके पीछे राहुल और प्रियंका ही रहे हैं।
अगर राहुल बाबा आज मंत्री नहीं बने हैं तो उनको मालूम है कि मंत्री बनने से होना कुछ नहीं है। अब उन बेवकूफों को यह बात कौन समझाए जो राहुल को मंत्री बनवाने के पीछे पड़े हैं कि राहुल मंत्री बनकर मनमोहन के सामने खड़े होने से अच्छा मनमोहन को अपने सामने खड़ा रखना जानते हैं। जो सुपर प्रधानमंत्री का पावर रखता हो उसको क्या पड़ी है किसी छोटे से मंत्री का पद लेने की।
यूपी में फिर से गांधी परिवार के दिन लौटाने में राहुल का ही हाथ रहा है। यूपीए को मिली सफलता में राहुल के हाथ को कोई नकार भी नहीं रहा है और नकार भी सकता है। लेकिन इसका यह मतलब तो नहीं है न की दिन-रात आप राहुल बाबा के राग को ही पेले पड़े हैं दर्शकों और पाठकों के सामने। एक तरफ अपने इलेक्ट्रानिक मीडिया वाले हैं जो वैसे भी महान लोगों की श्रेणी में आते हैं। यहां हर चैनल वाला अपने कार्यक्रम को विशेष बताता है। लेकिन टीवी देखने वाला दर्शक तो जानता है कि वह कितना बड़ा झूठ बोल रहा है, क्योंकि जिस कार्यक्रम को वह विशेष बताता है वैसा ही कार्यक्रम उस चैनल से पहले कोई और चैनल दिखा चुका होता है। हर चैनल ने राहुल पर दिखाए कार्यक्रम को विशेष ही बताया है। अरे बाबा ये चैनल वाले कब समझेंगे कि ये पब्लिक है बाबू पब्लिक जो सब जानती है। अगर नहीं जानती तो आज केन्द्र में यूपीए की नहीं एनडीए की सरकार होती और प्रधानमंत्री होते लालकृष्ण अडवानी। और फिर अपने मीडिया वाले बंधु भी राग राहुल नहीं राग अडवानी गाते नजरे आते।बहरहाल बात हो रही है राहुल बाबा की। राहुल बाबा को भुनाने का काम जहां एक तरफ इलेक्ट्रानिक मीडिया कर रहा है, वहीं प्रिंट मीडिया भी पीछे नहीं है। टीवी चैनलों के बाद दैनिक फिर साप्ताहिक और पाक्षिक अंत में मासिक, त्रैमासिक सबके सब पेले पड़े हैं राहुल की जय करने में। अरे बाबा कितनी जय करोगे हो गया न यार क्या पांच साल तक जनता के सामने यही परोसने का इरादा है कि राहुल त्याग की मूर्ति हैं, राहुल ने ये कियास राहुल ने वो किया। अगर राहुल बाबा आज मंत्री नहीं बने हैं तो उनको मालूम है कि मंत्री बनने से होना कुछ नहीं है। अब उन बेवकूफों को यह बात कौन समझाए जो राहुल को मंत्री बनवाने के पीछे पड़े हैं कि राहुल मंत्री बनकर मनमोहन के सामने खड़े होने से अच्छा मनमोहन को अपने सामने खड़ा रखना जानते हैं। जो सुपर प्रधानमंत्री का पावर रखता हो उसको क्या पड़ी है किसी छोटे से मंत्री का पद लेने की। Read more...
शनिवार, मई 30, 2009
अगाथा के हिन्दी प्रेम को सलाम
अपनी राष्ट्रभाषा हिन्दी से किसी को कितना प्यार हो सकता है इसका एक सबसे बड़ा उदाहरण पूर्व केन्द्रीय मंत्री पीए संगमा की पुत्री अगाथा संगमा ने पेश किया है। अहिन्दी भाषीय राज्य की इस लड़की को जब केन्द्र में मंत्री के रूप में शपथ दिलाई गई तो यह किसी ने नहीं सोचा था कि अगाथा हिन्दी में शपथ ले सकती हैं, पर उन्होंने ऐसा करके न सिर्फ सबको चौका दिया, बल्कि यह भी साबित कर दिया कि अगर आपके मन में सच्ची आस्था हो तो कुछ भी असंभव नहीं है। अगाथा का हिन्दी में शपथ लेने उन मंत्रियों के मुंह पर एक करारा तमाचा है जो हिन्दी भाषीय राज्य के होने के बाद भी हिन्दी में शपथ लेना संभवत: अपमान समझते हैं। भारतीय संविधान में तो यह प्रावधान ही कर देना चाहिए कि शपथ तो हिन्दी में ही लेनी पड़ेगी। ऐसा करने में बुराई नहीं है। अपनी भाषा को बढ़ाने के लिए ऐसा कड़ा कदम उठाया जाएगा तो ही हिन्दी का भला हो सकता है। जायसवाल जैसे नेताओं को सबक लेना चाहिए अगाथा जैसी लड़कियों से जिनमें हिन्दी प्रेम कितना कुट-कुट कर भरा है। हमें तो ऐसा लगता है जब अपनी राष्ट्र भाषा हिन्दी है तो संविधान में इस बात का साफ-साफ उल्लेख रहना चाहिए कि किसी भी मंत्री को हिन्दी में शपथ लेना अनिवार्य होगा।
राष्ट्रपति भवन के अशोका हाल में जब मनमोहन सरकार की सबसे कम उम्र की मंत्री के रूप में अगाथा संगमा शपथ लेने आईं तो उनके कम उम्र की मंत्री होने की ही उत्सुकता थी, लेकिन जब राष्ट्रपति ने उनको शपथ दिलाना प्रारंभ किया तो उन्होंने जैसे ही शपथ हिन्दी में लेनी प्रारंभ की सब चौक गए। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ श्रीमती सोनिया गांधी को भी आश्चर्य हुआ। एक तरफ जहां अगाथा ने हिन्दी के प्रति अपनी अथाह आस्था दिखाई, वहीं दूसरी तरफ उप्र के सांसद श्रीप्रकाश जायसवाल ने अंग्रेजी में शपथ लेकर सबको चौकाया। संभवत: श्री जायसवाल अंग्रेजी में शपथ लेकर अपने को पढ़ा-लिखा जताने की कोशिश कर रहे थे। जायसवाल जैसे नेताओं को सबक लेना चाहिए अगाथा जैसी लड़कियों से जिनमें हिन्दी प्रेम कितना कुट-कुट कर भरा है। हमें तो ऐसा लगता है जब अपनी राष्ट्र भाषा हिन्दी है तो संविधान में इस बात का साफ-साफ उल्लेख रहना चाहिए कि किसी भी मंत्री को हिन्दी में शपथ लेना अनिवार्य होगा। इस बात का विरोध किया जा सकता है लेकिन क्या आप मंत्री का पद पाने के लिए इतना सा काम नहीं कर सकते हैं। अगर सोनिया गांधी दूसरे देश की होते हुए हिन्दी बोल सकती हैं, अगाथा अहिन्दी भाषीय राज्य की होने के बाद हिन्दी में शपथ ले सकती हैं तो फिर परेशानी कहां है। अगर हम लोग ही अपनी राष्ट्रभाषा की अवहेलना करते रहेंगे तो फिर दूसरों से कैसे उम्मीद की सकती है कि हमारी राष्ट्र भाषा का सम्मान किया जाएगा।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि हमारी हिन्दी ही ऐसी भाषा है जो हमारे विचार से हर भारतीय की जान होनी चाहिए। हिन्दी ही है जो सबका सम्मान करना जानती है। इस भाषा में शिष्टाचार और शालीनता भी भरी पड़ी है। इसी के साथ इस भाषा में एक परिवार का अपनापन भी झलकता है। यह अपनी राष्ट्रभाषा के लिए दुखद है कि हमारे भारतीयों को कई बार हिन्दी बोलने में शायद शर्म
हमें याद है जब अपने राज्य में राज्यपाल ईएसएल नरसिम्हन की नियुक्ति हुई थी, तब उनके बारे में कहा गया था कि उनको हिन्दी नहीं आती है। ऐसे में एक अखबार में खबर भी छपी कि ऐसे में उन विधायकों का क्या होगा जिनको अंग्रेजी नहीं आती है। लेकिन जब राज्यपाल का छत्तीसगढ़ आना हुआ तो मालूम हुआ कि उनकी हिन्दी अच्छी नहीं बहुत अच्छी है। ऐसे कई अधिकारियों को हम जानते हैं कि जिनके राज्यों का नाता हिन्दी से नहीं है पर वे हिन्दी इतनी अच्छी बोलते हैं कि लगता है कि वास्तव में हिन्दी का मान इनसे ही है। कहने का मतलब है कि अगर आप में वास्तव में राष्ट्रभाषा के प्रति प्यार और सम्मान है तो आपके लिए हिन्दी कठिन नहीं है लेकिन आप उसको बोलना ही नहीं चाहते हैं तो फिर कोई बात नहीं है। अगर आज देश में हर कोई अगाथा की राह पर चले तो हिन्दी को विश्व की सिरमौर भाषा भी बनाया जा सकता है। हम तो बस इतना जानते हैं कि अपनी राष्ट्रभाषा का ज्यादा से ज्यादा प्रयोग हर हिन्दुस्तानी को करना चाहिए।
शुक्रवार, मई 29, 2009
जोगी नहीं चाहते छत्तीसगढ़ का भला...
प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी लगता है कि छत्तीसगढ़ का भला चाहते ही नहीं हैं। अगर उनमें वास्तव में अपने प्रदेश के लिए कुछ करने की चाहत होती तो वे यह कदापि नहीं चाहते कि केन्द्रीय मंत्रिमंडल में छत्तीसगढ़ को प्रनितिधित्व मिले ही नहीं। आज अगर छत्तीसगढ़ केन्द्र में प्रतिनिधित्व से वंचित हो गया है तो उसके पीछे स्पष्ट रूप से जोगी का ही हाथ है। यह बात साफ हो गई है कि जोगी के चलते ही प्रदेश के एक मात्र सांसद चरणदास महंत को केन्द्रीय मंत्रिमंडल में स्थान नहीं मिल पाया है। उनको मंत्रिमंडल में रखे जाने की पूरी संभावना थी। ऐसा हो जाता तो संभवत: जोगी की जो थोड़ी बहुत प्रतिष्ठा प्रदेश में बची थी उस पर भी बट्टा लग जाता। यही वजह रही है कि जोगी ने सोनिया मईया के दरबार में पूरा जोर लगाकर महंत को मंत्री की कुर्सी तक पहुंचने से रोक दिया। जनता को यह बात अच्छी तरह से समझ आ गई है कि जोगी परिवार ही विधान सभा के साथ लोकसभा चुनाव को भी अपनी बपौती मानता है। पहले जोगी खुद विधानसभा के बाद महासमुन्द से लोकसभा के लिए लड़े, फिर उन्होंने अपनी पत्नी को विधानसभा के बाद लोकसभा का टिकट दिलवा दिया। जोगी परिवार आधा दर्जन से ज्यादा बार विधानसभा और लोकसभा में लड़ा है। ऐसे में खफा जनता ने उनके परिवार को सबक सिखाने की ठानी और रेणु जोगी को खारिज कर दिया गया।
लोकसभा चुनाव में जब अजीत जोगी लाख जोर लगाने के बाद भी अपनी पत्नी श्रीमती रेणु जोगी को बिलासपुर से जीत दिलवाने में सफल नहीं हुए तभी यह बात तय हो गई थी कि अब जोगी की दाल प्रदेश में गलने वाली नहीं है। जोगी परिवार ने जिस तरह से छत्तीसगढ़ बनने के बाद लगातार चुनाव लड़ा उसके बाद से उनके परिवार की छवि लगातार जनता के बीच में खराब हो गई
महंत का जीतना कम से कम प्रदेश में जोगी को तो रास नहीं आया। उनको महंत की जीत के बाद से ही यह भय सता रहा था कि अब कहीं लोग यह न समझने लगे कि उनकी राजनीति का अंत हो गया है। वैसे महंत की जीत और रेणु जोगी की हार को इसी नजरिए से देखा जाने लगा था कि जोगी की राजनीति का अब अंत करीब आ गया है। ऐसे में जोगी ने यह बात ठान ली थी कि वे एक बार फिर से कम से कम राजनीति के जानकारों को अपना दम दिखा कर रहेंगे। ऐसे में उनके सामने एक सबसे बड़ा मौका यही था कि वे पूरा जोर लगा कर महंत को केन्द्रीय मंत्री की कुर्सी तक पहुंचने न दें। जोगी के ऐसा करने के पीछे एक और बड़ा कारण यह भी था कि महंत को मंत्री बनवाने के लिए केन्द्र में उन विद्याचरण शुक्ल से कमर कस ली थी जो जोगी के कट्टर विरोधी रहे हैं।
अगर श्री शुक्ल को, महंत को मंत्री बनवाने में सफलता मिल जाती तो यह बात पूरी तरह से तय हो जाती कि अब सोनिया के दरबार में भी जोगी की नहीं चलती है। और यह भला जोगी कैसे बर्दाश्त कर सकते थे। ऐसे में उन्होंने अपना पूरा जोर सोनिया के दरबार में लगाया और महंत को मंत्री बनने नहीं दिया। भले जोगी की इस सफलता से उनके चाहने वाले खुश हो रहे हों, लेकिन प्रदेश की जनता जरूर जोगी के इस कदम से उनसे और ज्यादा खफा हो गई है। जनता का ऐसा मानना है कि वास्तव में जोगी स्वार्थी हैं और उनको अपने अह्म के सामने प्रदेश के विकास से कोई लेना-देना नहीं है। जोगी के इस कदम ने विपक्षी दल भाजपा को भी बोलने का मौका दे दिया है। वैसे भाजपा के लिए यह फायदे की बात रही है कि कांग्रेस का कोई प्रतिनिधि केन्द्रीय मंत्रिमंडल में नहीं है। कुल मिलाकर कांग्रेस की अंदरूनी गुटबाजी के चलते प्रदेश और प्रदेश की जनता का नुकसान हुआ है। अब जोगी परिवार को यह बात समझ लेनी चाहिए कि इस बार अगर चुनाव में उनका परिवार मैदान में आया तो उसका हश्र क्या होगा। अब प्रदेश की जनता जोगी परिवार को बर्दाश्त करने वाली नहीं है।
गुरुवार, मई 28, 2009
चांद पर भी उगेंगे बाल ...
अब नहीं रहेगी दुनिया में गंजों की कोई बस्ती
कोई नहीं कर पाएगा उनको चिढ़ाने की मस्ती
पूरी दुनिया में दुखी प्राणियों के बारे में शोध किया जाए तो एक बात यह भी सामने आएगी कि जिनके सर पर बाल नहीं होते हैं वे भी बहुत ज्यादा दुखी होते हैं। अब यह बात अलग है कि कई लोगों को बिना बालों के जीना अच्छी तरह से आता है और वे यह मानकर चलते हैं कि उनकी किस्मत में जब बालों का सुख लिखा ही नहीं है तो वे क्या करें। फिल्मों में पहले तो ज्यादातर खलनायक गंजे ही दिखाए जाते थे, ऐसे में बेचारे गंजे परेशान रहते थे कि लोग उनको भी खलनायक ही समझते हैं। लेकिन जब से फिल्मों में हीरो को भी गंजा दिखाने का प्रचलन चला है तो गंजे इससे थोड़े खुश हुए हैं। गंजापन एक तरह से बीमारी ही है। इस बीमारी का पता लगाने का प्रयास हर देश में लंबे समय से किया जाता रहा है, लेकिन अब तक किसी देश को इसमें सफलता नहीं मिली थी। गंजों का इलाज एक विग ही थी। लेकिन उससे पता चल जाता था कि विग पहनी गई है। लेकिन अब किसी भी गंजे को विग पहनने की जरूरत नहीं पड़ेगी क्योंकि अंतत: टोक्यों के वैज्ञानिकों ने इस बात का पता लगा ही लिया है कि गंजेपन का राज क्या है। इस राज का खुलासा करते हुए बताया गया है कि इसके लिए भी एक जींस जिम्मेदार है। इस जींस की पहचान एसओएक्स 21 के रूप में की गई है। इस जींस के कारण ही लोग गंजे हो जाते हैं। जिनमें यह जींस रहता है उनका गंजा होना लाजिमी है।
वैज्ञानिकों को जब इस जींस का पता चला तो उन्होंने इसकी हकीकत जानने के लिए एक और खोज यह की कि उन्होंने यह भी पता लगाया कि ऐसे ही जींस चूहों में भी होते हैं। अब उन
टोक्यों के वैज्ञानिकों ने इस बात का पता लगा ही लिया है कि गंजेपन का राज क्या है। इस राज का खुलासा करते हुए बताया गया है कि इसके लिए भी एक जींस जिम्मेदार है। इस जींस की पहचान एसओएक्स 21 के रूप में की गई है। इस जींस के कारण ही लोग गंजे हो जाते हैं। जिनमें यह जींस रहता है उनका गंजा होना लाजिमी है।
के सामने आसानी हो गई कि प्रयोग किया जा सकता है। सबसे पहले इस जींस का प्रयोग चूहों पर किया। गया। जिन चू्हों में ये जींस पाए जाते हैं उनका पता लगाकर उन पर प्रयोग कुछ तरह से किया गया कि वैज्ञानिकों ने इस जींस के प्रभाव को समाप्त करने पर काम प्रारंभ किया और उनको इसमें सफलता भी मिल गई है। वैज्ञानिकों ने चूहों में इस जींस की सक्रियता पर लगाम लगाई और इसमें वे सफल भी रहे हैं। जन्म के 15 दिनों के अंदर ही चूहों के बाल गिरने लगे और चूहे एक सप्ताह में ही गंजे हो गए। ऐसे में वैज्ञानिकों ने चूहों पर जन्म के बाद ही अपना प्रयोग किया तो बालों का गिरना रूक गया।शोध करने वाले वैज्ञानिकों की मानें तो बालों के बढऩे का समय काफी लंबा होता है। बाल दो या तीन साल तक बढ़ते हैं फिर दो तीन माह तक बाल बढ़ते नहीं है। वैज्ञानिकों का मानना है कि एसओएक्स 21 इस चक्र को संचलित करता है। ऐसा माना जाता है कि पुराने बाल गिरने पर जल्द ही नए बाल उनका स्थान ले लेते हैं। लेकिन चूहों पर किए गए परीक्षण में यह बात सामने आई कि बाल जल्दी गिर गए और चूहों के गंजे रहने की अवधि बढ़ गई। वैज्ञानिकों का मानना है कि न सिर्फ गंजों के सिर पर बाल उगाए जा सकते हैं बल्कि ऐसे लोगों का भी पता लगाया जा सकता है जो गंजे होने वाले हैं। ऐसे लोगों की पहले से ही पहचान करके उनको गंजा होने से भी बचाया जा सकेगा। है न खुश होने वाली बात..तो हो जाइए खुश..।
बुधवार, मई 27, 2009
अबे... मरना है क्या...
छत्तीसगढ़ की राजधानी जयस्तंभ चौक का व्यस्त चौराहा हर तरफ ट्रैफिक की रेलम-पेल के बाद भी एक जनाब इधर मोटर सायकल में मोबाइल पर लगे हैं। उधर दूसरे जनाब कार की स्टेयरिंग थामे मोबाइल पर बतिया रहे हैं। जब तक सिग्नल लाल था, कोई बात नहीं थी, सिग्नल हरा होने के बाद भी दोनों जनाब मोबाइल से अलग नहीं हुए और वाहन चलाते हुए ही बतियाते रहे। कार वाले जनाब की बात तो एक बार समझ में आती है, क्यों की कार चलाते हुए बात करना एक बार आसान रहता है, (लेकिन है तो यह भी गलत) पर बाइक वाले जनाब सिर को तिरछा किए बतियाते हुए ही बाइक चला रहे हैं। उनकी वजह से दूसरों को लगातार परेशानी हो रही है, लेकिन उनको इससे कोई सरोकार नहीं है। ऐसे में एक साथ कई तरफ से आवाजें आने लगतीं है कि अबे ...मरना है क्या? ये नजारा रायपुर के साथ-साथ कम से कम छत्तीसगढ़ के हर शहर में आम है। सुविधाएं होने के बाद भी लोग सुधरे नहीं हैं और इसका नतीजा यह होता है कि लगातार दुर्घटनाओं में इजाफा हो रहा है। देखा जाए तो मोबाइल आज एक तरह से मुसीबत का सामान बन गया है। वैसे भी जब किसी सुविधा का बहुत ज्यादा दुरुपयोग होने लगता है तो उसके परिणाम घातक ही होते हैं।
सोचने वाली बात यह है कि ऐसे लोगों के साथ किया क्या जाए? ऐसा कोई दिन नहीं जाता जब हमको शहर में भीड़ भरे मार्गों पर ऐसे निहायत गधे, बेवकूफ, पढ़े-लिखे गंवारों से पाला नहीं पड़ता है जो वाहन चलाते हुए मोबाइल पर बतियाते रहते हैं। हमें ऐसे लोगों को देखकर इतना ज्यादा गुस्सा आता है कि जी चाहता है खींच दी जाए दो-चार..। हमें तो लगता है कि ऐसे लोगों के साथ ऐसा ही होना चाहिए और उनकी सार्वजनिक पिटाई होनी चाहिए। अब यहां पर कोई इस बात की दुहाई दे सकता है कि जनाब हमारी जिंदगी है हम चाहे कैसे भी चले और कुछ भी करें। तो करो न जनाब आप अपनी मनमर्जी किसने रोका है लेकिन अपने साथ दूसरों की जान से खिलवाड़ करने का आपको अधिकार किसने दे दिया है। अपनी जान गंवानी है तो शौक से जाकर मरो हमें क्या।
यातायात के मामले में अपना छत्तीसगढ़ वैसे भी बहुत खराब है। यहां पर किसी को भी ट्रैफिक का सेंस नहीं है। जिसकी जहां मर्जी चले जा रहा है। आप अगर कहीं से आ रहे हैं तो पता नहीं किस गली-कूचे से कोई बाइक या फिर कार सवार अचानक आपके सामने तेजी से आ जाएगा। लोगो को जहां पर हार्न का उपयोग करना चाहिए वहां करते नहीं हैं, उपर से जहां पर इसकी जरूरत नहीं है वहां बिना वजह पे.. पे.. किए जाते हैं। एक तो ट्रैफिक का बहुत ज्यादा लोचा, ऊपर से तुर्रा यह है कि यहां का हर दूसरा बाइक या फिर कार सवार ऐसे नवाब हैं कि उनको वाहन चलाते हुए ही मोबाइल पर बात करने की बीमारी है। लोग यह जताने से बाज नहीं आते हैं कि उनसे ज्यादा व्यस्त कोई नहीं है। अरे जनाब आप इतने भी व्यस्त नहीं हैं कि अपने साथ दूसरों की जान से खिलवाड़ करें। लेकिन क्या किया जाए यहां तो मेरी मर्जी वाली बात है। पहले जब सुविधाएं नहीं थीं तब बात समझ में आती थी कि चलो मजबूरी है, लेकिन आज तो ऐसी कोई मोबाइल कंपनी नहीं है जिसके मोबाइल के साथ ईयर फोन नहीं आता है। इसको लगाकर आसानी से आप वाहन चलाते हुए बात कर सकते हैं। कई युवा और दूसरे वर्ग के समझदार लोग इसका उपयोग करते भी हैं, लेकिन न जाने कई युवा इससे परहेज क्यों करते हैं। हमें तो लगता है कि उनको एक तरह से वाहन चलाते हुए बिना ईयर फोन के बात करने की या तो बीमारी है या फिर ये लोग अपने को जेम्स बांड की औलाद समझते हैं कि हम भीड़ में भी कमाल कर सकते हैं। इस तरह से वाहन चलाते हुए मोबाइल पर बात करने वालों के साथ कई हादसे हो चुके हैं। इनके चक्कर में कई बेकसूर भी मारे गए हैं, लेकिन इनको किसी की जान से क्या लेना-देना। इनको तो अपनी स्टाइल मारनी है बस। कई जनाब तो ऐसे हैं जो अकेले नहीं परिवार के साथ भी वाहन चलाते हुए मोबाइल पर बातें करने से बाज नहीं आते हैं। इनको अपनी जान की परवाह तो रहती नहीं है, साथ अपने परिवार की जान से भी खेलने का काम करते हैं। अगर किसी जनाब को पत्नी ने टोक दिया तो उसकी शामत आ जाती है। ऐसे में पत्नी या तो अपने जनाब के साथ बाजार जाने से कतराती हैं या फिर कुछ भी बोलने से परहेज करती हैं।
वाहन चलाते हुए मोबाइल पर बातें करना अपराध भी है। इसके लिए ट्रैफिक पुलिस कार्रवाई भी करती है। राजधानी में तो कई लोगों पर भारी जुर्माना भी किया गया है। लेकिन जब भी किसी को ट्रैफिक वाले ऐसा करते हुए पकड़ते हैं तो जनाब लगा देते हैं अपने किसी आका नेता या मंत्री को फोन फिर क्या है, बेचारे ट्रैफिक वाले हो जाते हैं ऐसे में असहाय और छोडऩा पड़ता है उन साहब को। ऐसे में जनाब पुलिस वालों के सामने ही फिर से मोबाइल कान में लगाकर बतियाते हुए वाहन फर्राटे से चलाते हुए निकल जाते हैं। सोचने वाली बात यह है कि ऐसे लोगों के साथ किया क्या जाए? ऐसा कोई दिन नहीं जाता जब हमको शहर में भीड़ भरे मार्गों पर ऐसे निहायत गधे, बेवकूफ, पढ़े-लिखे गंवारों से पाला नहीं पड़ता है जो वाहन चलाते हुए मोबाइल पर बतियाते रहते हैं। हमें ऐसे लोगों को देखकर इतना ज्यादा गुस्सा आता है कि जी चाहता है खींच दी जाए दो-चार ... हमें तो लगता है कि ऐसे लोगों के साथ ऐसा ही होना चाहिए और उनकी सार्वजनिक पिटाई होनी चाहिए। अब यहां पर कोई इस बात की दुहाई दे सकता है कि जनाब हमारी जिंदगी है हम चाहे कैसे भी चले और कुछ भी करें। तो करो न जनाब आप अपनी मनमर्जी किसने रोका है लेकिन अपने साथ दूसरों की जान से खिलवाड़ करने का आपको अधिकार किसने दे दिया है। अपनी जान गंवानी है तो शौक से जाकर मरो हमें क्या। लेकिन दूसरों की जान लेने का सामान करेंगे तो पिटाई तो जरूरी है। या तो ऐसे लोग खुद सुधर जाए नहीं तो इनकी अब सार्वजनिक पिटाई का अभियान चला देना चाहिए।
हमने अपने शहर का हाल बयान किया है, हमें लगता है कि दूसरे शहरों में भी हाल ऐसा ही होगा। ब्लाग बिरादरी के मित्र उचित समझे तो अपने शहर का हाल जरूर बताएं।
मंगलवार, मई 26, 2009
मर्द नहीं लगते अच्छे-फिर भी हो जाते हैं बच्चे
दुनिया में हमेशा से नर और मादा का विवाद रहा है। यह विवाद महज इंसानों तक ही सीमित नहीं है। यह विवाद जीव-जंतुओं में भी रहा है। पुरुष प्रधान समाज में हमेशा से नारी को कमजोर समझने की भूल की जाती है। यह भूल इंसान ही नहीं बल्कि जीव-जतुं भी करते हैं। लेकिन एक तरफ जहां इंसानी समाज में नर के बिना नारी बच्चे पैदा करने में सक्षम नहीं होती, वहीं जीव-जंतुओं में ऐसा नहीं है। कहा जाता है कि जीव-जंतुओं में कुछ कौम ऐसी हैं जिनको प्रजनन के लिए नर की जरूरत ही नहीं होती है। अब इस बात का खुलासा हुआ कि चीटियों में एक ऐसी प्रजाति मिली है जिस प्रजाति में नर की कहीं जरूरत ही नहीं है। इस प्रजाति मोइकोसेपुरस स्मिथी में बिना नर के ही मादा चीटियां बच्चे पैदा करने का काम करती हैं। शोध की मानें तो चीटियों में प्रजनन एक रानी चीटी से किया जाता है। रानी चीटी के क्लोनिंग से प्रजनन होता है और इस क्लोनिंग से होने वाले सभी बच्चे मादा होते हैं। चीटियों के बारे में कहा जाता है कि इनमें कई प्रजातियां ऐसी हैं जिनमें प्रजनन के लिए सेक्स की जरूरत नहीं पड़ती हैं, लेकिन मोइकोसेपुरस स्मिथी ऐसी पहली प्रजाति है जिसमें केवल मादा चीटियों का ही जन्म होता है। इन चीटियों पर शोध करने का काम एरिजोना विश्व विद्यालय की अन्ना हिमलर ने किया है। इन्होंने इन चीटियों का अध्ययन किया तो मालूम हुआ कि इन चीटियों के समूह में कोई नर है ही नहीं। जब कोई नर नहीं है तो फिर यह प्रजाति बढ़ कैसे रही है? इसका पता लगाने का काम किया गया तो ही इस बात का खुलासा हुआ कि इस प्रजाति के वंश को बढ़ाने का काम रानी चीटियां करती हैं।
सोमवार, मई 25, 2009
मैदान में ही छलकने लगे जाम-क्रिकेट का क्या होगा हे.. राम
इंडियन प्रीमियर लीग के दूसरे संस्करण में भले मैचों की चर्चा कम रही हो लेकिन विवादों की चर्चा ज्यादा रही है। इस संस्करण में जहां एक तरफ कई युवा चेहरे सामने आए, वहीं हमेशा विवादों में रहने वाले शेन वार्न ने इस बार ऐसा कारनामा कर दिया जिसके बारे में सोच कर ही शर्म आती है। लेकिन इसमें वार्न का कोई दोष इसलिए नहीं है क्योंकि उनके देश में कभी खेल को न तो पूजा जा सकता है और न ही इसकी इबादत की जा सकती है जैसी की भारत में की जाती है। वार्न ने जिस तरह से एक मैच में मैदान में ही दर्शकों से बीयर लेकर पीने का काम किया, वह निहायत की घटिया और शर्मनाक काम था। इसके लिए वार्न को भले किसी ने कुछ नहीं कहा लेकिन क्रिकेट को पूजने वाले देश भारत में जरूर इसको सही नजरिए ने नहीं देखा गया है। क्रिकेट के हर विशेषज्ञ की नजर में वार्न की यह हरकत माफी के काबिल नहीं है। लेकिन इसका क्या किया जाए कि क्रिकेट में ऐसा करने वालों के लिए सजा का कोई प्रावधान ही नहीं है। अईपीएल के इस संस्करण को वैसे भी खेल के नाम से कम और अश्लीलता के नंगे नाच और वार्न की इस हरकत के कारण ही ज्यादा याद रखा जाएगा। वार्न की हरकत से तो लगता है कि अब वास्तव में आईपीएल से क्रिकेट की बर्बादी के दिन प्रारंभ हो गए हैं। वैसे भी आईपीएल महज एक नौटंकी के सिवा कुछ नहीं है। इस नौटंकी में काम करने वालों के मनोरंजन के लिए ही तो चियर्स गर्ल्स रखी जाती हैं।
आईपीएल के दूसरे संस्करण की विदाई हो गई है। पहली बार आईपीएल दक्षिण अफ्रीका में खेला गया। इस संस्करण को भी भले आयोजक भारत में हुए आयोजन की तरह की सफल बता रहे हैं पर यह बाद जग जाहिर है कि यह आयोजन उतना सफल नहीं रहा है। इस आयोजन में सफलता के गीत कम और विवादों के राग ज्यादा गूंजे हैं। अगर सबसे बड़े विवाद की बात की जाए तो वह विवाद शेन वार्न का मैदान में बीयर पीना रहा है। इसको हालांकि मीडिया में उतनी तव्वजो नहीं दी गई, लेकिन भारत में वार्न की हरकत की जरूर तीखी प्रतिक्रिया रही और उनको खेल विशेषज्ञों ने जरूर आड़े हाथों लिया। वार्न की यह हरकत काबिले माफी नहीं है। वैसे वार्न माफी मांगने वाले भी नहीं हैं क्योंकि उनकी सेहत पर मैदान में शराब पीने से कोई फर्क पडऩे वाला नहीं है। जिस देश में मैच देखते हुए शराब पीने की परंपरा हो उस देश के खिलाड़ी से यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि वह शराब को मैदान से दूर रख सकता है। यह आयोजन अगर भारत में होता तो यहां कभी ऐसी अशोभनीय हरकत का सवाल ही नहीं उठता था। भारत के किसी मैदान में कोई बीयर लेकर जा ही नहीं सकता है। ऐसे में यह तो संभव ही नहीं था कि कोई दर्शक वार्न जैसे किसी खिलाड़ी को बीयर आफर करता।
एक तरफ जहां वार्न की वजह से क्रिकेट शर्मसार हुआ है, वहीं चियर्स गर्ल्स के नंगे नाच से भी इसकी साख पर बटा लगा है। वैसे आयोजक चियर्स गर्ल्स को इसलिए रखते हैं ताकि जहां मैदान में दर्शकों का मनोरंजन हो सके, वहीं मैच के बाद खिलाड़ी चाहे तो उनका भी मनोरंजन हो सके और वह भी उस तरीके से जिस तरीके से वे चाहें। वैसे भी खिलाड़ी मैच के बाद विदेशों में क्लबों में जाकर क्या-क्या करते हैं यह बात जगजाहिर है। क्रिकेटर आज पूरी तरह से सभ्यता के दायरे से बाहर होते जा रहे हैं। विदेशी खिलाडिय़ों की तो बात ही छोडि़एं अपने भारतीय खिलाड़ी भी वैसे ही हो गए हैं।
विवादों की कड़ी में शाहरूख खान और सौरभ गांगुली का विवाद भी चर्चा में रहा है। यह बात अलग है कि इनका विवाद खुलकर सामने नहीं आया, लेकिन यह बात तय है कि शाहरूख की टीम की जो दुर्गति हुई है उसके पीछे सबसे बड़ा कारण सौरभ गांगुली से टीम की कमान वापस लेना रहा है। कोलकाता टीम के एक खिलाड़ी ने यह बात साफ तौर पर कह भी दी कि अगर टीम की कमान दादा के हाथों में रहती तो टीम का यह हाल नहीं होता और टीम कभी अंतिम स्थान पर नहीं आती। इसमें कोई मत नहीं है कि दादा टीम के हर खिलाड़ी की क्षमता जानते हैं। यह दादा के बस की ही बात थी कि उन्होंने भारतीय टीम को भी अपनी कप्तानी में एक नई ऊंचाईयां दी थी। ऐसे कप्तान से आईपीएल जैसी सीरीज में कप्तानी वापस लेना निश्चित ही शाहरूख की सबसे बड़ी भूल थी। अपनी टीम की दुर्गति देखकर अब शाहरूख भी उस दिन को कोस रहे होंगे जिस दिन उन्होंने गांगुली से कप्तानी वापस ली थी।
अब अगर आयोजन की बात की जाए तो भारत के लिए यह आयोजन सिर्फ इस लिहाज से ठीक रहा है कि इस आयोजन में भी भारत के कुछ नए सितारे उभर कर सामने आए हैं। जिन सितारों का नाम आज क्रिकेट प्रेमियों की जुबान पर चढ़ गया है उनमें प्रमुख रूप से मनीष पांडे, टीएस सुमन, शादाबा जकाती, नमन ओझा, रजत भाटिया और कामरान के नाम हैं। इनके अलावा रोहित शर्मा लीग के सर्वश्रेष्ठ अंडर 23 खिलाड़ी बनकर सामने आए हैं। इन खिलाडिय़ों को भविष्य में भारतीय टीम में स्थान जरूर मिल सकता है। आयोजन में एक सुखद पहलू यह रहा कि इस बार भारतीय मैदानों की तरह महज बल्लेबाजों का ही नहीं बल्कि गेंदबाजों का भी जलवा रहा, तभी तो मात्र 20 ओवर के मैच में तीन गेंदबाजों से हेट्रिक बनाने का कमाल दिखाया।
रविवार, मई 24, 2009
डॉक्टर ... ये लूट लेते हैं आपका घर
डॉक्टर ... ये एक ऐसी कौम है जिसे इस मानवीय दुनिया में भगवान का दर्जा प्राप्त है। लेकिन सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न यह है कि क्या वास्तव में यह कौम भगवान का दर्जा प्राप्त करने लायक है? इसका सीधा सा जवाब है कि इस कौम को कम से कम आज के जमाने में तो भगवान क्या इंसान का दर्जा देना भी सही नहीं है। आज डॉक्टरों में सेवाभाव नहीं स्वार्थ और लालच का भाव इतना ज्यादा भर गया है कि पैसों के लालच में ये कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। इन्हें किसी के दुख-दर्द से कोई लेना-देना नहीं है। ये तो आपका घर लूटने वाले सबसे बड़े लुटेरे हो गए हैं। आज चिराग लेकर ढूंढने से भी कोई डॉक्टर के नाम पर फरिश्ता मिलने वाला नहीं है। अगर कोई फरिश्ते जैसा काम कर रहा है तो उसके पीछे भी मानकर चले की कोई न कोई स्वार्थ होगा। और कुछ नहीं तो मीडिया में अपना नाम करने के लिए वह डॉक्टर ऐसा कर रहा होगा।
डॉक्टरों का विषय आज अचानक इसलिए निकल पड़ा है क्योंकि कल जब हमने एक पोस्ट लिखा थी सावधान... आप भी हो सकते हैं गायब तो इस पोस्ट में हमने भ्रूण हत्या का उल्लेख किया था, आज अगर भ्रूण हत्याएं हो रही हैं तो इसके पीछे सबसे बड़े दोषी तो डॉक्टर ही हैं, अगर डॉक्टर किसी को यही न बताए कि कोख में क्या पल रहा है तो फिर हत्या कैसे होगी। लेकिन चंद रुपयों के लिए डॉक्टर अपना ईमान बेच कर अपने पेशे के साथ भी गद्दारी कर रहे हैं और हत्याओं के भागीदार भी बन रहे हैं। वैसे आज के डॉक्टरों का धर्म और ईमान पूरी तरह से बस और बस पैसा ही रह गया है, एक वह समय था जब डॉक्टर को भगवान माना जाता था, लेकिन अब डॉक्टर भगवान नहीं बल्कि ऐसे शैतान बन गए हैं जो इंसानी खून के प्यासे हैं। इंसान का पूरा खून निचोड़ कर उनको भूखा-नंगा छोड़ देना ही इनका पेशा रह गया है। ऐसे अनेकों उदाहरण भरे पड़े हैं जिसमें डॉक्टरों के काले कारनामे सामने आए हैं। हम पहले एक छोटा सा उदाहरण अपने साथ हुए हादसे का दे रहे हैं। कुछ समय पहले
राजधानी की एक स्त्री रोग विशेषज्ञ ने एक महिला का पेट महज इसलिए चीर दिया था क्योंकि उनको पैसे कम मिलते। बात यह हुई कि एक महिला को वहां बच्चे की डिलवरी के लिए भर्ती किया गया था, रात को महिला को दर्द हुआ और उसकी नार्मल डिलवरी हो गई। अब अगर नार्मल डिलवरी की बात परिजनों को बताई जाती तो पैसे कम मिलते ऐसे में डॉक्टर ने महिला के पेट में चीरा लगा कर परिजनों को कह दिया कि बच्चा आपरेशन से हुआ है, बाद में इस बात का खुलासा होने पर डॉक्टर और परिजनों के बीच में काफी विवाद हुआ।
की बात है कि हमारी बिटिया स्वप्निल की एक ऊंगली में फ्रेक्चर हो गया था। हमने उसको राजधानी के गायत्री हास्पिटल में डॉक्टर अरूण मढ़रिया को दिखाया।डॉक्टर मढरिया का नाम जाने-माने हड्डी रोग विशेषज्ञों में आता है। जब हम उनके पास अपनी बिटिया को लेकर गए तो वे इस बात को अच्छी तरह से जानते थे कि हम एक पत्रकार हैं, इसके बाद भी उन्होंने ऐसी हरकत की जिसने यह सोचने पर मजबूर किया कि जब वे एक पत्रकार के साथ बिना डरे ऐसा कर सकते हैं तो फिर किसी आम इंसान के साथ क्या नहीं करते होंगे। हमने जब उनको स्वप्निल की ऊगंली दिखाई तो उन्होंने तपाक से कहा कि इसका आपरेशन करना पड़ेगा इस में कम से कम पांच हजार का खर्च आएगा। इसी के साथ उन्होंने यह भी कहा कि आपरेशन में ऊंगली की हड्डी ठीक से जुड़ेगी या नहीं इसकी भी कोई गारंटी नहीं है। दूसरे दिन आपरेशन के लिए आने की बात कहते हुए उन्होंने स्वप्निल की ऊंगली को मोड़कर पट्टी बांध दी। हम परेशान हो गए कि कहां छोटा सा फ्रेक्चर लग रहा था और कहां क्या हो गया। हमने जब अपने कुछ मित्रों से चर्चा की तो सबने सलाह दी कि अरूण मढरिया से इलाज करवाना ठीक नहीं है। ऐसे में हमने अपने एक और डॉक्टर मित्र सुरेन्द्र शुक्ला से इसके बारे में चर्चा की और उनके पास स्वप्निल को ले गए। उन्होंने उसको चेक करने के बाद बताया कि छोटा सा फ्रेक्चर है 21 दिनों में ठीक हो जाएगा। डॉक्टर मढरिया ने ऊंगली को मोड़कर जो पट्टी बांधी थी उसके कारण ऊंगलियों में सूजन आ गई थी। डॉक्टर सुरेन्द्र ने पहले सूजन कम होने के लिए दवाई दी और कच्चा प्लास्टर लगाया, तीन दिनों बाद पक्का प्लास्टर लगा दिया। इस सारी प्रक्रिया में महज दो सौ रुपए ही खर्च हुए।यह एक उदाहरण है, एक और बड़ा उदाहरण उस समय सामने आया था जब राजधानी की एक स्त्री रोग विशेषज्ञ ने एक महिला का पेट महज इसलिए चीर दिया था क्योंकि उनको पैसे कम मिलते। बात यह हुई कि एक महिला को वहां बच्चे की डिलवरी के लिए भर्ती किया गया था, रात को महिला को दर्द हुआ और उसकी नार्मल डिलवरी हो गई। अब अगर नार्मल डिलवरी की बात परिजनों को बताई जाती तो पैसे कम मिलते ऐसे में डॉक्टर ने महिला के पेट में चीरा लगा कर परिजनों को कह दिया कि बच्चा आपरेशन से हुआ है, बाद में इस बात का खुलासा होने पर डॉक्टर और परिजनों के बीच में काफी विवाद हुआ। कई बार ऐसे मौके आए हैं जब डॉक्टरों की लापरवाही से मरीजों की जानें गईं हैं, जानें जाने के बाद भी डॉक्टर तब तक मरीजों का शव उठाने नहीं देते हैं जब तक उनको सारा भुगतान नहीं कर दिया जाता है। आज शायद ही कोई ऐसा डॉक्टर होगा जो मरीजों को जांच के नाम पर दूसरे डॉक्टरों के पास नहीं भेजता होगा। यह सारा खेल कमीशन का होता है।
कुछ समय पहले कुछ डॉक्टरों ने मरीज और डॉक्टरों के रिश्ते सुधारने के लिए एक सेमीनार का आयोजन राजधानी में किया था, इस कार्यक्रम की जानकारी देने प्रेस क्लब आए डॉक्टरों को जब हमारे साथ मीडिया ने घेर लिया था और उनसे पूछा था कि डॉक्टर और मरीजों के रिश्तों में दरार क्यों आई है क्या आज डॉक्टर पैसों के भूखे नहीं हो गए तो उनके पास कोई जवाब नहीं था। आज किसी डॉक्टर के पास इस बात का जवाब ही नहीं है कि वह पैसों के पीछे क्यों भाग रहा है। पैसों के पीछे भागने में बुराई नहीं है पैसे आप बेशक कमाएं लेकिन इसके लिए मानवता को तो कम से कम गिरवी न रखें। डॉक्टरों को जिस सेवा भाव के लिए डॉक्टर बनने से पहले शपथ दिलाई जाती है उसका वे पालन ही नहीं करते हैं। आज जो डॉक्टर किसी गरीब की बड़ी बीमारी का इलाज मुफ्त में करने का काम करते हैं तो उसके पीछे उनका स्वार्थ रहता है कि उनकी मीडिया में वाह-वाही होगी। संभव है कि कुछ डॉक्टर ऐसे हों जो वास्तव में आज भी मानवता के लिए काम कर रहे हों लेकिन ज्यादातर डॉक्टर तो किसी भी बीमारी के नाम पर लोगों का घर लूटने का काम कर रहे हैं। यहां पर कोई डॉक्टर किसी को किसी भी बीमारी का नाम बता कर डरा देता है, बाद में बाहर जाने पर मालूम होता है कि उसको वह बीमारी है ही नहीं। उदाहरण तो इतने हैं कि लिखने बैठे तो लिखते ही रहना पड़ेगा। हमारा तो बस इतना सोचना है कि डॉक्टरों को अपने पेशे के साथ इसके धर्म की मर्यादा को जिंदा रखने का काम करना चाहिए, वास्तव में अगर डॉक्टर चाहते हैं कि डॉक्टरों और मरीजों के बीच का रिश्ता मधुर हो तो डॉक्टरों को भगवान बनने की भी जरूरत नहीं है, वे पहले एक अच्छे इंसान ही बन जाए और जितनी हो सके मानवता की सेवा करने का काम करें।
शनिवार, मई 23, 2009
सावधान...आप होने वाले हैं गायब
सावधान.... होशियार.... खबरदार .... आपके लिए एक खतरनाक खबर है कि आप भी गायब होने वाले हैं। जनाब हमें क्यों कोस रहे हैं, ये हम नहीं कह रहे हैं बल्कि एक शोध कह रहा है कि जिसमें इस बात का खुलासा हुआ है कि अब आप और हम यानी की पुरुष जाति पर ततुप्त होने का खतरा आ गया है। पुरुष पैदा करने की क्षमता रखने वाले वाई क्रोमोजोम पर अब संकट के बादल छा गए हैं और ऐसे में इस बात के संकेत मिल रहे हैं कि पुरुष दुनिया के नक्शे से गायब हो सकते हैं। हालांकि इसमें काफी समय लगेगा लेकिन यह खतरनाक बात सामने जरूर आ गई है। इस बात का खुलासा एक शोध में हुआ है कि वाई क्रोमोजोम के जींस अब बहुत कम हो गए हैं और इन कम जिंसों के कारण ही देश के कई राज्यों में महिला और पुरुषों की संख्या में भारी अंतर है। महिलाओं की संख्या वैसे भी इस वजह से कम रहती हैं कि आज भी कन्या भ्रूण को लोग मार डालते हैं। लड़का पैदा करने वाले क्रोमोजोम जो कि वाई हैं वह पुरुषों में ही होते हैं। पुरुष में एक्स क्रोमोजोम भी होते हैं। साइंस के मुताबिक जब पुरुष का वाई और महिला का एक्स क्रोमोजोम मिलता है तो लड़का होता है और पुरुष का एक्स और महिला का एक्स मिलने पर लड़की होती है। संभव है कि किसी पुरुष में वाई क्रोमोजोम हो ही न। ऐसे में उनमें लड़का पैदा करने की क्षमता ही नहीं होगी। अब अगर पुरुष में ही लड़का पैदा करने की क्षमता नहीं है तो फिर इसके लिए महिला कैसे दोषी हो गई है?
दिल्ली में हुए एक शोध में यह बात सामने आई है कि वाई क्रोमोजोम की संख्या में भारी गिरावट आई है। आज से करीब 30 लाख साल पहले जो वाई क्रोमोजाम 1400 था, वह आज की तारीख में महज 45 रह गया है। वैसे इसके समाप्त होने में लाखों साल लग जाएंगे लेकिन एक बड़ा खतरा
लड़का पैदा करने वाले क्रोमोजोम जो कि वाई हैं वह पुरुषों में ही होते हैं। पुरुष में एक्स क्रोमोजोम भी होते हैं। साइंस के मुताबिक जब पुरुष का वाई और महिला का एक्स क्रोमोजोम मिलता है तो लड़का होता है और पुरुष का एक्स और महिला का एक्स मिलने पर लड़की होती है। संभव है कि किसी पुरुष में वाई क्रोमोजोम हो ही न। ऐसे में उनमें लड़का पैदा करने की क्षमता ही नहीं होगी। अब अगर पुरुष में ही लड़का पैदा करने की क्षमता नहीं है तो फिर इसके लिए महिला कैसे दोषी हो गई है? लड़का पैदा न कर पाने के लिए अगर अनपढ़ लोग महिला को दोषी मानते हैं तो एक बार बात समझ में आती है लेकिन यहां तो पढ़े-लिखे लोग भी ऐसा करते हैं तब उनके इस व्यवहार पर गुस्सा आता है।
बहरहाल इस समय बात हो रही है कि वाई क्रोमोजोम का अस्तित्व खतरे में है। वैसे ज्यादा घबराने वाली बात इसलिए नहीं है कि फिलहाल कोई आपातकाल जैसी स्थिति नहीं है और वाई क्रोमोजोम को समाप्त होने में अभी 50 लाख साल लग जाएंगे।
शुक्रवार, मई 22, 2009
चारो धाम घरवाली है...
" सासु तीरथ॥ससुरा तीरथ.. तीरथ साला-साली हैं, दुनिया के सब तीरथ झूठे चारो धाम घरवाली है..." लगता है अब इस गाने को सुप्रीम कोर्ट ने भी मान लिया है और सलाह दे डाली है कि घरवाली की बात मानो... नहीं तो भुगतो। इसमें कोई दो मत नहीं है दुनिया के बड़े-बड़े गुंड़े-मवाली भी अगर किसी से डरते हैं तो वो बीबी ही होती है। एक बार खबर आई थी अंडर वल्र्ड डॉन दाउद इब्राहीम भी अपनी बीबी को देखकर कांपते हैं। अब अगर सुप्रीम कोर्ट यह बात कह रहा है तो क्या गलत है। लगता है सुप्रीम कोर्ट में फैसला सुनाने वाले जज महोदय भी भुक्तभोगी रहे हैं तभी तो उन्होंने अपने फैसले में लिखा है कि हम सब इसके भुक्तभोगी हैं।
महिलाओं को कहने के लिए भले अबला नारी कहा जाता है, लेकिन जब संविधान की बात आती है तो नारी ही इसमें सबसे ज्यादा सबला नजर आतीं है। अब सुप्रीम कोर्ट के हाल के फैसले के बाद भी यह बात साबित हो गई है कि भईया कुछ भी हो जाए किसी महिला खासकर अपनी पत्नी से तो पंगा लेना भी मत। अगर पंगा लिया तो वह महंगा ही पड़ेगा। कोर्ट का भी ऐसा मानना है कि घरवाली जो बोलती है उनको चुप-चाप मानने में ही भलाई है। अब उस बोलने बताने में गलत-सही की पहचान करने का अधिकार भी आपका नहीं है। अगर कुछ गलती निकालने की कोशिश की तो समझो आपकी शामत आ जाएगी। अब तक तो हमारे विचार से पुरुषों को लगता था कि अगर उनके साथ अन्याय होता है और उनको अपनी घरवाली से प्रताडऩा मिलती है तो कम से कम कोर्ट का दरवाजा तो खटखटा ही सकते हैं पर अब तो यह दरवाजा भी बंद ही हो गया समझो। ऐसे में अब आपके पास जब कोई रास्ता बचा ही नहीं है तो घरवाली को ही अपने काका राजेश खन्ना की तरह चारो धाम मानने में क्या बुराई है। वैसे काका ने एक फिल्म के गाने में पत्नी को चारो धाम बताया है। अब उन्होंने ऐसा बताया है तो उस गाने को लिखने वाले कवि महोदय ने भी कुछ सोचकर ही ऐसा गाना लिखा होगा। अब यह तो हम नहीं जानते हैं कि वे कवि महोदय भी अपने सुप्रीम कोर्ट के जज की तरह भुक्तभोगी रहे हैं या नहीं, लेकिन उनके गाना लिखने से जरूर लगता है कि वे भी कहीं न कहीं तो चोट खाए हुए होंगे ही। वैसे भी कवियों को जब तक चोट नहीं लगता है वो कहां अच्छा लिख पाते हैं।
सवाल सिर्फ जज और कवि का नहीं है, यहां सवाल हर आदमी का है। अगर देखा जाए तो कम से कम भारत में तो आधे से ज्यादा आदमी घरवाली की बातें मानते हैं। बातें नहीं मानते हैं
यहां एक बात और यह है कि जहां तक हमारा मानना है कि जो इंसान कुछ गलत करता है वहीं अपनी पत्नी से खौफ खाता है, जो इंसान कुछ गलत नहीं करता है उसको खौफ खाने की जरूरत इसलिए नहीं होती है क्योंकि उनकी पत्नी भी इस बात को जानती है कि उनके पति अच्छे हैं तो फिर वो ऐसा कुछ करती ही नहीं हंै जिससे उनके पति को खौफ का सामना करना पड़े। कहने का मतलब यह है कि अगर आप में कोई ऐब नहीं है तो आपको न तो घरवाली से डरने की जरूरत है और न ही आपको घरवाली डराने का काम करेगी। ऐसे लोगों का परिवार ही तो हैप्पी फेमिली होता है।
तो उनसे खौफ तो जरूर खाते हैं। जिस इंसान के खौफ से पूरी दुनिया कांपती हो वो इंसान भी अगर अपनी घरवाली से खौफ खाने वाला हो तो फिर बाकी की बिसात ही क्या है। हम यहां पर बात करें रहे हैं अंडर वल्र्ड डॉन दाउद इब्राहीम की। उनके बारे में एक बार खुलासा हुआ था जब भी अपनी किसी महिला मित्र के साथ रहते थे और उनको उनके गुर्गे बताते थे कि भाभीजी आ रही हैं तो उनकी हालत पतली हो जाती थी। अगर हर आदमी के मन को सही तरीके से टटोल कर देखा जाए तो उसमें से यही बात सामने आएगी कि हर आदमी अपनी घरवाली से खौफ तो खाता है, अब यह बात अलग है कि कोई इसको स्वीकार कर लेता है कोई नहीं करता है। यहां एक बात और यह है कि जहां तक हमारा मानना है कि जो इंसान कुछ गलत करता है वहीं अपनी पत्नी से खौफ खाता है, जो इंसान कुछ गलत नहीं करता है उसको खौफ खाने की जरूरत इसलिए नहीं होती है क्योंकि उनकी पत्नी भी इस बात को जानती है कि उनके पति अच्छे हैं तो फिर वो ऐसा कुछ करती ही नहीं हैं जिससे उनके पति को खौफ का सामना करना पड़े। कहने का मतलब यह है कि अगर आप में कोई ऐब नहीं है तो आपको न तो घरवाली से डरने की जरूरत है और न ही आपको घरवाली डराने का काम करेगी। ऐसे लोगों का परिवार ही तो हैप्पी फेमिली होता है।बहरहाल कुछ दिनों पहले की ही बात है हम लोग प्रेस क्लब में बैठे थे और चर्चा निकल पड़ी की कौन अपनी घरवाली से डरता है। हमारे एक मित्र ने बताया कि एक दिन वे अपने एक दोस्त को अपने कुछ दोस्तो के साथ लेने के लिए रात को 10 बजे गए थे तो उनकी पत्नी ने पूछा कि कब वापस आओगे। अब जनाब की हालत खराब थी कि दोस्तों के सामने क्या जवाब दें। उनको अपनी प्रतिष्ठा पर आंच आती नजर आ रही थी। ऐसे में जनाब ने यह फार्मूला निकाला कि कार में बैठते-बैठते अपनी पत्नी की तरफ देखे बिना ही बोले कल आऊंगा, कल। उनका ऐसा बोलना था कि उनके एक मित्र ने कहा कि अबे इधर नहीं भाभी की तरफ देखकर बोल न। ऐसे और कई उदाहरण हैं। एक मित्र ने बताया कि एक दोस्त थोड़ी सी पी लेते हैं तो फिर घर जाने से डरते हैं। जब तक उनकी उतर नहीं जाती है इधर-उधर भटकते रहते हैं। जब उनको लगता है कि अब उनके मुंह से महक नहीं आएगी तब पान-गुटखा खाकर घर पहुंचते हैं। लेकिन तब भी बात नहीं बनती है पत्नी तो पत्नी है ताड़ जाती हैं कि जनाब पीकर आए हैं। अगर कोई इंसान इस मुगालते में रहता है कि वह पीकर घर जाएगा या फिर कुछ गलत करेगा और उनकी घरवाली को मालूम नहीं होगा तो वह इंसान बेवकूफ है। इसमें कोई दो मत नहीं है कि पत्नियों का सिक्ससेंस बहुत ज्यादा तगड़ा होता है और उनको अपनी पति की कारगुजारियों का सिक्ससेंस से भान हो जाता है तो जनाब इस बात को हमेशा ध्यान रखे और साथ ही सुप्रीम कोर्ट से उस फैसले को भी जिसमें पत्नी की हर बात को मानने की सलाह दी गई है। अगर आप ऐसा करते हैं तो फिर आपका जीवन सुखी रहेगा। अब आप घरवाली को चारो धाम मान ही लें इसमें भलाई है, वरना आपकी भी बज जाएगी बैंड....।
गुरुवार, मई 21, 2009
हिन्दी है हमारी जान-करती ये सबका सम्मान
है प्रीत जहां की रीत सदा मैं गीत में वहां के गाता हूं, भारत का रहने वाला हूं भारत की बात सुनाता हूं.... पूरब-पश्चिम का यह गाना आज अचानक हमें इसलिए याद आ गया है क्योंकि हम आज अपनी राष्ट्रभाषा हिन्दी की बात करना चाहते हैं। हिन्दी की बात आज यूं निकल पड़ी क्योंकि हम आज बैठे थे तो हमारे हाथ वह फाइल लग गई जो हमारी सायकल यात्रा की है। हमने आज से 23 साल पहले राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार और राष्ट्रीय एकता,अखंडता के लिए उत्तर भारत की दो बार सायकल यात्रा की थी। इसमें कोई संदेह नहीं है कि हमारी हिन्दी ही ऐसी भाषा है जो हमारे विचार से हर भारतीय की जान है और जो सबका सम्मान करना जानती है। इस भाषा में शिष्टाचार और शालीनता भरी पड़ी है। इसी के साथ इस भाषा में एक परिवार का अपनापन भी झलकता है। यह अपनी राष्ट्रभाषा के लिए दुखद है कि हमारे भारतीयों को कई बार हिन्दी बोलने में शायद शर्म महसूस होती है तभी तो वे हिन्दी जानते हुए भी ऐसी जगहों पर बिना वहज अंग्रेजी का प्रयोग करते हैं जहां पर इसकी जरूरत नहीं होती है।
वैसे तो काफी समय से हमारा राष्ट्रभाषा हिन्दी पर लिखने का मन था, पर लेकिन लगता है संयोग नहीं बन पा रहा था, लेकिन आज अचानक संयोग बना तो सोचा कि चलो लिख ही लिया जाए। हमारे विचार से इस दुनिया में शायद ही कोई इंसान होता है जिसको अपनी राष्ट्रभाषा से प्यार नहीं होगा। इस नाते कम से कम हमें तो अपनी राष्ट्रभाषा से बहुत ज्यादा प्यार है और हम तो हिन्दी को ही अपनी जान मानते हैं। इसके बिना हमारी जिंदगी अधूरी है। हमारी अंग्रेजी से कोई अदावत नहीं है लेकिन हमारा ऐसा मानना है कि इसका प्रयोग तभी करना चाहिए जब बहुत जरूरी हो। लेकिन ऐसा होता नहीं है। अक्सर हमने देखा है कि हमारे भारतीय हिन्दी बोलने में अपमान महसूस करते हैं। कई बार प्रेस कांफ्रेंस में ऐसे मौके आए हैं जब लोग हिन्दी की बजाए अंग्रेजी बोलने लगते हैं, तब कम से कम हमसे तो रहा नहीं जाता है और हम बोल पड़ते हैं कि जनाब हिन्दी बोलने में शर्म आ रही है या फिर आप हिन्दी ही नहीं जानते हैं। अगर हिन्दी नहीं जानते हैं तब तो कोई बात नहीं है लेकिन हिन्दी आती है तो हिन्दी में ही बोले यहां हम सब हिन्दुस्तानी ही हैं। एक तरफ जहां ऐसे लोगों की कमी नहीं है, वहीं दक्षिण सहित कई ऐसे राज्यों के रहवासी हैं जिनके राज्य की बोली दूसरी होने के बाद भी ऐसे लोग हिन्दी से इतना लगाव रखते हैं कि उनको हिन्दी बोलना अच्छा लगता है। हमें याद है जब अपने राज्य में राज्यपाल ईएसएल नरसिम्हन की नियुक्ति हुई थी, तब उनके बारे में कहा गया था कि उनको हिन्दी नहीं आती है। ऐसे में एक अखबार में खबर भी छपी कि ऐसे में उन विधायकों का क्या होगा जिनको अंग्रेजी नहीं आती है। लेकिन जब राज्यपाल का छत्तीसगढ़ आना हुआ तो मालूम हुआ कि उनकी हिन्दी अच्छी नहीं बहुत अच्छी है। ऐसे कई अधिकारियों को हम जानते हैं कि जिनके राज्यों का नाता हिन्दी से नहीं है पर वे हिन्दी इतनी अच्छी बोलते हैं कि लगता है कि वास्तव में हिन्दी का मान इनसे ही है। कहने का मतलब है कि अगर आप में वास्तव में राष्ट्रभाषा के प्रति प्यार और सम्मान है तो आपके लिए हिन्दी कठिन नहीं है लेकिन आप उसको बोलना ही नहीं चाहते हैं तो फिर कोई बात नहीं है।
दक्षिण सहित कई ऐसे राज्यों के रहवासी हैं जिनके राज्य की बोली दूसरी होने के बाद भी ऐसे लोग हिन्दी से इतना लगाव रखते हैं कि उनको हिन्दी बोलना अच्छा लगता है। हमें याद है जब अपने राज्य में राज्यपाल ईएसएल नरसिम्हन की नियुक्ति हुई थी, तब उनके बारे में कहा गया था कि उनको हिन्दी नहीं आती है। ऐसे में एक अखबार में खबर भी छपी कि ऐसे में उन विधायकों का क्या होगा जिनको अंग्रेजी नहीं आती है। लेकिन जब राज्यपाल का छत्तीसगढ़ आना हुआ तो मालूम हुआ कि उनकी हिन्दी अच्छी नहीं बहुत अच्छी है। ऐसे कई अधिकारियों को हम जानते हैं कि जिनके राज्यों का नाता हिन्दी से नहीं है पर वे हिन्दी इतनी अच्छी बोलते हैं कि लगता है कि वास्तव में हिन्दी का मान इनसे ही है। कहने का मतलब है कि अगर आप में वास्तव में राष्ट्रभाषा के प्रति प्यार और सम्मान है तो आपके लिए हिन्दी कठिन नहीं है लेकिन आप उसको बोलना ही नहीं चाहते हैं तो फिर कोई बात नहीं है।
अगर देखा जाए तो हमारी हिन्दी ही ऐसी भाषा है जिसमें सम्मान, शिष्टाचार और शालीनता की भरमार है। यह हिन्दी के ही बस में है कि इसमें बड़ों के सम्मान में उनको आप कहा जाता है। यहां पर अंग्रेजी की बात करें तो हर किसी के लिए यू यानी तुम का उपयोग होता है। बड़े के लिए भी यू और छोटे के लिए भी यू। अंग्रेजी में किसीके नाम के साथ जी लगाने का कोई प्रावधान नहीं है। हिन्दी में अगर अपने से बड़े को संबोधित करना है तो उनके नाम या फिर सरनेम के साथ जी लगाई जाती है। हम यदि अपने से किसी बड़े को अगर राजेश.. अनिल.. सुनील.. या फिर शर्मा.. चौबे.. साहू या कुछ भी कहकर पुकारेंगे तो जरूर उसको बुरा लगेगा। लेकिन उनके नाम और सरनेम के साथ जी लगाने का मतलब है कि एक तो यह शिष्टाचार है दूसरे सम्मान है। और कहा भी जाता है कि जब तक आप किसी का सम्मान नहीं करते हैं आपको सम्मान नहीं मिलता है, सम्मान पाने के लिए सम्मान करना भी आना चाहिए। एक और उदाहरण देना चाहेंगे वो यह कि आप किसी के साथ काम करते हैं या फिर आप कहीं किसी काम से जाते हैं तो आज लोग किसी अधिकारी या अपने से उच्च पद पर काम करने वाले सहकर्मी को सर और मैडम बोलना पसंद करते हैं। ये शब्द हिन्दी के नहीं अंग्रेजी के हैं। हिन्दी में इनके लिए एक समय भाई साहब और बहनजी का प्रयोग होता था, कई स्थानों पर आज भी इनका प्रयोग होता है। किसी को भाई साहब कहने में जो अपनापन झलकता है वह किसी को सर कहने में कभी नहीं लगता है। भारतीय दफ्तरों में पहले साथ काम करने वालों को उनकी उम्र के हिसाब से भाई साहब, चाचा, ताऊ और जो भी रिश्ते होते हैं उनके हिसाब से संबोधित किया जाता था, पर आज सबके लिए सर का प्रयोग होने लगा है। सर बोलना गलत नहीं है लेकिन इसमें अपनापन कहां है। किसी को सर कहते हुए ऐसा लगता है कि हम तो बस उनके हुक्म के गुलाम हैं।बहरहाल उदाहरणों की कमी नहीं है। हम तो बस इतना जानते हैं कि अपनी राष्ट्रभाषा का ज्यादा से ज्यादा प्रयोग हर हिन्दुस्तानी को करना चाहिए। जहां जरूरी है वहां पर बेसक आप चाहे अंग्रेजी या फिर किसी भी भाषा और बोली का प्रयोग करें, लेकिन जहां जरूरी न हो वहां पर हिन्दी के स्थान पर दूसरी भाषा का प्रयोग करना कम से कम हमारी नजर में तो यह राष्ट्रभाषा का अपमान है। तो क्यों हम अपनी उस भाषा का अपमान करें जिस भाषा से ही हमारा मान है। हिन्दी का बोलबाला तो विदेशों में है हम अगर हिन्दी में ब्लाग लिख रहे हैं तो यह इस भाषा का दम ही है जिसके कारण गुगल सहित बाकी सर्च इंजन को भी इसको अपनाना पड़ा है।
बुधवार, मई 20, 2009
भाजपा यानी अटल-अडवानी-बाकी सब बेमानी
भारतीय जनता पार्टी को लोकसभा चुनाव में चारों खाने चित होना पड़ा है। इसके पीछे का कारण भले लालकृष्ण अडवानी को प्रधानमंत्री के रूप में पेश करना माना जा रहा है। पर एक हकीकत यह भी है कि अडवानी के अलावा भाजपा के पास और विकल्प ही नहीं था जिसको प्रधानमंत्री के रूप में पेश किया जाता। भाजपा का मतलब ही अब तक अटल और अडवानी रहा है। इन दोनों नेताओं के सामने बाकी सारे नेता बेमानी रहे हैं। अचानक नरेन्द्र मोदी का नाम उछाले जाने के बाद ही भाजपा में एक तरफ से फूट पड़ी और उसका हाल बुरा हुआ। वैसे कहा तो यह भी जा रहा है कि अगर अडवानी को प्रधानमंत्री के रूप में पेश नहीं किया जाता तो भाजपा का हाल इससे भी बुरा होता। अडवानी के बारे में ऐसा माना जाता है कि उनके जैसी संगठन क्षमता किसी में नहीं है।
लोकसभा चुनाव के नतीजे भाजपा के लिए चौकाने वाले ही नहीं बल्कि घातक साबित हुए हैं। भाजपा ने तो यह सोचा भी नहीं था कि उसके साथ ऐसा हो सकता है। भाजपा ने तो एक तरह से सत्ता में वापस आने का सपना संजो ही लिया था। भाजपा का ऐसा मानना था कि उसको अब सरकार बनने से कोई रोक नहीं सकता है। भाजपा ने जिस तरह से लालकृष्ण अडवानी को प्रधानमंत्री के रूप में पेश किया था उससे भाजपा इस खुशफहमी में थी कि अडवानी को देश की जनता ठीक उसी तरह से स्वीकार कर लेगी जिस तरह से अटल बिहारी बाजपेयी को किया था। भाजपा का ऐसा सोचना था तो उसके पीछे वह गणित रहा है जिसमें भाजपा का मतलब ही है अटल-अडवानी है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि भाजपा को आज जो मुकाम हासिल है उसके पीछे इन्हीं दोनों नेताओं का सबसे बड़ा हाथ रहा है। भाजपा में अटल के बाद अगर वास्तव में किसी नेता में संगठन क्षमता रही है तो वे निर्विवाद रूप से अडवानी ही रहे हैं। उनकी संगठन क्षमता से भाजपा के लोग तो इंकार नहीं कर सकते हैं। अब यह बात अलग है कि हर पार्टी में गुटबाजी होती है और इसी गुटबाजी का परिणाम यह रहा कि अचानक गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी का नाम प्रधानमंत्री के रूप में उछाल दिया गया। भले ऐसा माना जा रहा है कि अगर अडवानी के स्थान पर मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में पेश किया जाता तो भाजपा को सफलता मिल जाती। लेकिन राजनीति के पंडितों की माने तो ऐसा करने पर भाजपा का और बुरा हाल हो जाता। अगर भाजपा को आज 100 से ज्यादा सीटें मिली हैं तो वह अडवानी की संगठन क्षमता का नतीजा है। और किसी नेता के नेतृत्व में चुनाव लड़ा जाता तो भाजपा की हालत इससे बुरी होती।
अटल के बाद भाजपा में एक अडवानी ही रह गए थे जिनके नाम को भाजपा भुना सकती थी और भाजपा ने इसके लिए कोशिश भी की। भाजपा ने तो एक तरह से पूरे देश में ऐसा माहौल बनाने का प्रयास भी किया था कि इधर चुनाव हुए नहीं कि उधर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर अडवानी नजर आएंगे। और लगता है अडवानी जी भी इसी मुगालते में थे कि उनको तो अब प्रधानमंत्री बनने से कोई नहीं रोक पाएगा। लेकिन इसका क्या किया जाए कि अपने देश की जनता आज ज्यादा ही समझदार हो गई है।
सत्ता में न आ पाने के कारण अडवानी ने तो अपने वादे के मुताबिक राजनीति से किनारा करने की बात कह दी थी। लेकिन भाजपा कैसे उनका दामन छोड़ सकती है। भाजपा को यह बात अच्छी तरह से मालूम है कि विपक्ष में दमदारी से अपनी बातें रखने के लिए उनके पास अडवानी से बड़ा कोई नेता नहीं है। भले मुरली मनोहर जोशी मौके का फायदा उठाते हुए विपक्ष के नेता बनने को तैयार बैठे हैं, पर उन पर भाजपा संगठन भरोसा करने वाला नहीं है। ऐसे में अडवानी को मनाने के लिए सारा संगठन जुटा और अडवानी को मानना पड़ा है। इस मान-मनव्वल ने भी यह साबित किया है कि भाजपा यानी अटल-अडवानी है, बाकी सब बेमानी है।
मंगलवार, मई 19, 2009
अपनी पहचान खुद बनाएं...
एक दिन ट्रेन से हमारे भाई साहब चन्दीराम ग्वालानी रायपुर से भाटापारा जा रहे थे। ट्रेन में उनकी मुलाकात मुंबई के एक पत्रकार से हुई। परिचय होने पर जब हमारे भाई साहब ने अपना नाम बताया तो उन पत्रकार बंधु ने उनसे पूछ लिया कि राजकुमार ग्वालानी आपके क्या लगते हैं। हमारे भाई साहब ने उनको बताया कि हम उनके छोटे भाई हैं। इसके बाद हमारे भाई साहब से हमारी जब मुलाकात हुई तो उन्होंने हमें कहा कि शाबास राजू... बेटा मुझे गर्व है कि तुमने वो मुकाम हासिल कर ही लिया है जो तुम करना चाहते थे। आज लोग हमको तुम्हारे नाम से जानते हैं। हम बता दें कि एक वह भी समय था जब लोग हमको हमारे इन्हीं भाई साहब के नाम से जानते थे। हमारे ये भाई साहब न केवल एक अच्छे पत्रकार, बल्कि एक साहित्यकार भी रहे हैं।
आज जब हमने एक ब्लाग देखा तो उसमें ब्लागर मित्र द्वारा लिखा गया एक वाक्य यह पोस्ट लिखने के लिए प्रेरित कर गया। हमारे इन ब्लागर मित्र भीमसिंह मीना ने अपनी प्रोफाइल में लिखा था कि जब वे स्कूल गए तो उनका यह दंभ टूट गया कि वे एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के नाती हंै क्योंकि उनकी कोई पहचान नहीं थी। वास्तव में इस वाक्य ने हमें भी उन दिनों की याद दिला दी जब हमारी अपनी कोई पहचान नहीं थी। यह वह जमाना था
आज हमको पत्रकारिता करते हुए दो दशक से भी ज्यादा समय हो गया है और पत्रकारिता में हमने अपनी एक अलग पहचान बनाई है। इसके बाद भी हमें लगता है कि हमने कुछ ज्यादा नहीं सीखा है और न ही ऐसा कुछ किया है जिससे हमारे नाम का डंका बज सके।
जब हमारे भाई साहब चंदीराम ग्वालानी के नाम का डंका बजता था। कारण यह कि वे एक जाने-माने साहित्यकार और पत्रकार रहे हैं। हमें लोगों को बताना पड़ता था कि हम उनके भाई हैं। इसका हमें मलाल कभी नहीं हुआ। एक दिन हमारे भाई साहब ने हमें कहा था कि राजू हमेशा अपनी एक अलग पहचान बनानी चाहिए ताकि लोग तुमको तुम्हारे नाम से जान सकें और अगर ऐसा हो जाए कि हमें भी लोग तुम्हारे नाम से जानें तो वह दिन सुखद होगा। उनकी वह बात हमें लग गई और हमने उसी दिन ठान ली कि हम एक दिन वह मुकाम हासिल करके रहेंगे जब लोग हमको हमारे नाम से जानेंगे। हमने इतना नहीं सोचा था कि लोग हमारे परिजनों को भी हमारे नाम से जानें, लेकिन ऐसा हो गया है।आज हमको पत्रकारिता करते हुए दो दशक से भी ज्यादा समय हो गया है और पत्रकारिता में हमने अपनी एक अलग पहचान बनाई है। इसके बाद भी हमें लगता है कि हमने कुछ ज्यादा नहीं सीखा है और न ही ऐसा कुछ किया है जिससे हमारे नाम का डंका बज सके। लेकिन हमारे भाई साहब को जब बाहर के एक पत्रकार मित्र ने जिनको शायद हम भी नहीं जानते हैं हमारा नाम लेकर पूछा तो हमें उस दिन बड़ा अच्छा लगा और सबसे ज्यादा अच्छा यह लगा कि हमारे उन भाई साहब के चेहरे पर यह बताते हुए जो रौनक थी, वह। हमारा भी ऐसा मानना है कि हर इंसान को दुनिया में ऐसा काम करना चाहिए जिससे उसकी एक अलग पहचान बन सके और लोग उनको उनके नाम से जान सके। जब तक आपको लोग आपके परिवार के किसी नामी आदमी के नाम से जानते हैं, आपका अस्तित्व नहीं होता है और बिना अस्तित्व के इंसान किस काम का। हालांकि यह भी सच है कि हर किसी को वह मुकाम हासिल नहीं होता है लेकिन एक कोशिश जरूर करनी चाहिए अपनी पहचान बनाने की। हमेशा कोशिश करने वालों को सफलता मिलती है।
सोमवार, मई 18, 2009
जोगी की राजनीति का अंत-अब चलेगा महंत का मंत्र
छत्तीसगढ़ में सबसे ताकतवर समझे जाने वाले पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी की राजनीति का लगता है अब अंत हो गया है। ऐसा कहने के पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि वे लाख कोशिशों के बाद भी जहां अपनी पत्नी को बिलासपुर लोकसभा से जीत दिलवाने में सफल नहीं हुए, वहीं कई सालों से वे जिन प्रदेशाध्यक्ष चरणदास महंत का विरोध करते रहे और प्रदेशाध्यक्ष पद से हटवाने के लिए शतरंजी चालें चलते रहे, वही महंत कोरबा से जीतने में सफल रहे। महंत को मिली सीट ही कांग्रेस की एक मात्र सीट है। ऐसे में अब यह तय लग रहा है कि कांग्रेस की आलाकमान श्रीमती सोनिया गाँधी की नजर में जहां महंत की कीमत बढ़ेगी, वहीं जोगी की पूछ-परख सोनिया के दरबार में कम हो जाएगी।
लोकसभा चुनाव में भले कांग्रेस के गठबंधन वाली यूपीए को सफलता मिली है, लेकिन जहां तक छत्तीसगढ़ का सवाल है तो यहां पर मुख्यमंत्री डा। रमन सिंह ने भाजपा को एतकरफा जीत दिलाने में सफलता प्राप्त की है। चुनाव परिणाम आने से पहले बिलासपुर सीट को लेकर लगातार दांवे किए जा रहे थे कि इस सीट पर श्रीमती रेणु जोगी का जीतना तय है। जो लोग अजीत जोगी को
हम याद करें राजनांदगांव का पिछला उपचुनाव जिसमें उन्होंने देवव्रत को जीत दिलाने का काम किया था। ऐसे में जबकि मैदान में उनकी पत्नी थी तो यह कैसे नहीं सोचा जाता कि वे उनके लिए कुछ नहीं करेंगे। उन्होंने तो अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ी लेकिन इसका क्या किया जाए कि अब प्रदेश की जनता पर जोगी के जादू का असर नहीं होता है। अब तो यहां की जनता चाऊर वाले बाबा की शरण में चली गई है।
जानते हैं उनका भी ऐसा मानना था कि जोगी अपनी पत्नी को जीत दिलाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। इसमें कोई दो मत नहीं है कि जोगी जिसके सिर पर हाथ रखते हैं उसकी जीत हो जाती है। ऐसा माजरा कई बार देखने को मिला है। हम याद करें राजनांदगांव का पिछला उपचुनाव जिसमें उन्होंने देवव्रत को जीत दिलाने का काम किया था। ऐसे में जबकि मैदान में उनकी पत्नी थी तो यह कैसे नहीं सोचा जाता कि वे उनके लिए कुछ नहीं करेंगे। उन्होंने तो अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ी लेकिन इसका क्या किया जाए कि अब प्रदेश की जनता पर जोगी के जादू का असर नहीं होता है। अब तो यहां की जनता चाऊर वाले बाबा की शरण में चली गई है। ऐसे में श्रीमती जोगी उन दिलीप सिंह जूदेव से हार गईं जिन पर एक समय सांसद रहते हुए पैसे लेने का आरोप लगा था। तब दुनिया भर के टीवी चैनलों में उनको पैसे लेते हुए दिखाया गया था और उन्होंने पैसे लेते हुए कहा था ऐ पैसे तू खुद तो नहीं लेकिन खुद से कम नहीं।रविवार, मई 17, 2009
मनमोहन का अर्थशास्त्र आया काम-अडवानी का नहीं भाया नाम
वह भी 16 तारीख थी जिस दिन छत्तीसगढ़ में मतदान हुआ था और आज भी 16 तारीख है जब लोकसभा चुनाव के नतीजे सामने आए हैं। जब 16 अप्रैल को छत्तीसगढ़ में 11 लोससभा सीटों के लिए मतदान हुआ था उस समय हमने रायपुर लोकसभा सीट के लिए मतदान करने वालों से बात की थी, उस बातचीत के दौरान ही एक महिला मतदाता ने जो बातें कहीं थीं, वहीं बात आज नतीजों के बाद सच होती नजर आ रही है। उस महिला मतदाता से आप कैसा प्रधानमंत्री चाहती हैं के सवाल पर उन्होंने तपाक से कहा था कि उनका तो ऐसा मानना है कि मनमोहन सिंह से अच्छा प्रधानमंत्री कोई हो ही नहीं सकता है। इसके पीछे का कारण भी उन्होंने बताया था कि आज विश्व जिस तरह से मंदी के दौर से गुजर रहा है उस दौर में भी मनमोहन सिंह अर्थशास्त्री होने के कारण देश को बचाए रखने में सफल हो रहे हैं। आगे भी देश को वे ही आगे ले जाने का काम कर सकते हैं। उनकी बातों को याद करके लगता है कि वास्तव में देश के पढ़े-लिखे तबके ने भी संभवत: इस बात को ध्यान में रखते हुए एक बार फिर से मनमोहन सिंह को सिंह इज किंग बनाने का फैसला किया है। इधर यह बात भी सामने आई है कि भाजपा को लालकृष्ण अडवानी को प्रधानमंत्री के रूप में सामने रखना भारी पड़ा है। अगर उनके स्थान पर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को भावी प्रधानमंत्री के रूप में सामने रखा जाता तो शायद आज तस्वीर कुछ और होती।
लोकसभा के परिणामों ने साबित कर दिया है कि जनता पूरी तरह से कांग्रेस और उसकी गठबंधन की सरकार से संतुष्ट है और चाहती है कि एक बार फिर से देश की कमान मनमोहन सिंह के हाथों में ही रहे। जनता का ऐसा मानने के पीछे जो सबसे बड़ा कारण नजर आता है वह यह है कि जनता ऐसा मानती है कि मनमोहन सिंह जैसे अर्थशास्त्री ही इस देश का विकास कर सकते हैं। कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी भी संभवत: इस बात से अच्छी तरह से वाकिफ थीं कि मनमोहन सिंह ही लोगों का मन मोह सकते हैं। ऐसे में उन्होंने सही समय पर सही पासा फेंकते हुए यह ऐलान किया था कि यूपीए फिर सत्ता में आती है तो मनमोहन ही प्रधानमंत्री होंगे। अगर वह पुत्र मोह में फंस जातीं तो आज यूपीए को फिर से सरकार बनाने का मौका मिलने वाला नहीं था। कांग्रेस की चाकरी करने वाले नेता श्रीमती गांधी को खुश करने के लिए जरूर समय-समय पर राहुल गांधी को प्रधान मंत्री बनाने की बात करते रहे, लेकिन कम से कम श्रीमती गांधी को यह बात अच्छी तरह से मालूम थी कि अगर उन्होंने कांग्रेस के चाकरों के चक्कर में पड़कर राहुल को प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित कर दिया होता तो आज यह दिन देखने को नहीं मिलता।
श्रीमती सोनिया गांधी ने जिस तरह से रणनीति बनाकर फिर से कांग्रेस को सत्ता में लाने का काम किया है, उससे यह साफ हो जाता है कि उनको राजनीति की सबसे ज्यादा समझ है।
इसमें कोई दो मत नहीं है कि यूपीए सरकार में श्रीमती सोनिया गांधी की ही चलती रही है और आगे भी उनकी ही चलेगी। मनमोहन सिंह इस बात को कैसे भूल सकते हैं कि उनको प्रधानमंत्री बनने का मौका मिला था उसके पीछे श्रीमती गांधी ही थीं, ऐसे में उनको तो उनकी बातें माननी ही हैं। क्या भाजपा में ऐसा होता तो भाजपा सुप्रीम की बात मानने से कोई प्रधानमंत्री इंकार कर देगा। विरोधियों का काम है विरोध करना, लेकिन फैसला करने का काम तो जनता का है। अब जनता ने जबकि यूपीए को सत्ता सौंपने का फैसला सुना दिया है तो इससे क्या फर्क पड़ता है कि मनमोहन सिंह मजबूर प्रधानमंत्री है या मजबूत प्रधानमंत्री। मनमोहन चाहे मजबूत हो या मजबूर लेकिन यह तय है कि उनको उनके अर्थशास्त्र ने एक बार फिर से सिंह इज किंग बना दिया है।
और समझ हो भी क्यों नहीं, उनको राजनीति सीखने का मौका अपनी सास श्रीमती इंदिरा गांधी के साथ अपने पति राजीव गांधी से मिला है। ऐसे में यह कैसे हो सकता है कि वह मात खा जाती, उन्होंने सही समय पर जनता की नब्ज पहचानी और बिलकुल सही रणनीति से काम लिया और अपने को सरकार में वापस लाने में सफल रहीं। अब यह अलग मुद्दा है कि मनमोहन मजबूर प्रधानमंत्री हैं या मजबूत प्रधानमंत्री। विरोधी पार्टियां लगातार उनको मजबूर प्रधानमंत्री कहती रही हैं। इसमें कोई दो मत नहीं है कि यूपीए सरकार में श्रीमती सोनिया गांधी की ही चलती रही है और आगे भी उनकी ही चलेगी। मनमोहन सिंह इस बात को कैसे भूल सकते हैं कि उनको प्रधानमंत्री बनने का मौका मिला था उसके पीछे श्रीमती गांधी ही थीं, ऐसे में उनको तो उनकी बातें माननी ही हैं। क्या भाजपा में ऐसा होता तो भाजपा सुप्रीम की बात मानने से कोई प्रधानमंत्री इंकार कर देगा। विरोधियों का काम है विरोध करना, लेकिन फैसला करने का काम तो जनता का है। अब जनता ने जबकि यूपीए को सत्ता सौंपने का फैसला सुना दिया है तो इससे क्या फर्क पड़ता है कि मनमोहन सिंह मजबूर प्रधानमंत्री है या मजबूत प्रधानमंत्री। मनमोहन चाहे मजबूत हो या मजबूर लेकिन यह तय है कि उनको उनके अर्थशास्त्र ने एक बार फिर से सिंह इज किंग बना दिया है।अब भाजपा की बात करें तो भाजपा का जो हाल हुआ है उसके पीछे कहीं न कहीं लालकृष्ण अडवानी को भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्रमोट करना रहा है। आम जनता की तो बात ही छोड़ दें भाजपा वाले खुद कहते रहे हैं कि अडवानी का नाम तय करना गलत फैसला रहा है और आज वास्तव में वह फैसला गलत साबित हो ही गया है। अगर भाजपा ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी पर दांव खेला होता तो एक बार भाजपा के सत्ता में आने के आसार हो सकते थे, लेकिन अब क्या हो सकता है अब तो भाजपा को पांच साल इंतजार करना पड़ेगा। इसी के साथ उसके लिए यह चिंतन-मनन का सवाल है कि उसको हार क्यों मिली। बड़े-बड़े दांवे करने वाली भाजपा अपना पिछला ही प्रदर्शन नहीं दोहरा सकी।
शनिवार, मई 16, 2009
आंखों में पड़ी लाइट-गाडिय़ों की हो गई फाइट
रात के समय कम से कम अपने देश में ऐसी कोई सड़क नहीं होगी जिस सड़क पर आप दुपहिए या फिर चारपहिए वाहन पर जा रहे हों और आपको सामने से आ रहे किसी दूसरे वाहन की लाइट सीधे आंखों में न पड़े। आंखों में लाइट पड़ते ही जब आंखें चुधिया जाती हैं तो उसके बाद आंधों के सामने छाता है अंधेरा और सामने से आ रही दूसरी गाड़ी से हो जाती है आपकी या फिर किसी की भी गाड़ी की फाइड। यह किस्सा हर शहर का है हमें ऐसा लगता है। कम से कम अपने छत्तीसगढ़ में तो रात को हर सड़क पर यही नजारा रहता है। कोई यह कह ही नहीं सकता है कि वह रात को जा रहा था तो उसको सामने वाले वाहन की लाइट से परेशानी नहीं हुई। अगर वाहनों की लाइट से परेशानियों हो रही हैं, दुर्घटनाएँ हो रही हैं तो इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि कोई भी वाहनधारक अपनी लाइट में नियमानुसार काली पट्टी लगाना ही नहीं चाहता है। खासकर लाखों की कारों के मालिक तो काली पट्टी को मखमल में टाट का पैबंद ही मानते हैं। उनके ऐसा मानने का नतीजा यह हो रहा है कि रोज दुर्घटनाओं में इजाफा होते जा रहा है। हमारे देश का ट्रेफिक अमला ऐसे वाहनों पर कार्रवाई करता नजर ही नहीं आता है। इस ट्रेफिक अमले को तो वसूली से ही फुर्सत नहीं है तो कार्रवाई क्या खाक करेगा।
हम जब भी रात में दुपहिया या फिर चारपहिया वाहन चलाते हैं तो हमें उस समय बहुत गुस्सा आता है जब सामने से आ रहे वाहन की लाइट सीधे हमारी आंखों में पड़ती है। हमें नहीं लगता है कि यह परेशानी किसी और को नहीं होती होगी। हमारा ऐसा मानना है कि ऐसी ही परेशानी से हर वाहन चालक दो-चार होता है। लेकिन इसके बाद भी कोई इस समस्या से मुक्ति पाने के रास्ते पर जाना नहीं चाहता है। आज के आधुनिक जमाने में ऐसी -ऐसी कारें आ रही हैं जिनमें न जाने क्या-क्या हाई पॉवर की लाइटें लगी रहती हैं। इन लाइटों में इतनी तेजी रहती है कि सीधे सामने वाले की आंखों पर तेज असर होता है। अगर सामने वाला सावधान न हुआ तो यह मान कर चलें कि दुर्घटना होनी ही है। हमारा ऐसा मानना कि रात के समय जितनी भी दुर्घटनाएँ होती हैं उसके लिए सबसे ज्यादा दोषी ऐसी ही तेज रौशनी वाले वाहन हैं। ऐसे वाहनों के मालिक कभी अपने वाहनों में लाइट में काली पट्टी लगाने का काम नहीं करते हैं।
हमको अपने राज्य में ऐसे वाहन नजर ही नहीं आते हैं जिनकी लाइट में काली पट्टी लगी हो। हमारे ट्रेफिक अफसरों को तो वसूली करने से फुर्सत नहीं रहती है ऐसे में उनसे यह उम्मीद की ही नहीं जा सकती है कि वे इस दिशा में कुछ करेंगे। अगर ट्रेफिक थानों से आंकड़े मांगे जाएं तो ये आंकड़े कभी नहीं मिलेंगे कि कितने वाहनों पर लाइट में काली पट्टी न होने पर जुर्माना किया गया। जब कभी साल में एक बार ट्रेफिक सप्ताह मनाया जाता है तो समझाईश के नाम पर जरूर वाहनों में काली पट्टी लगाने की खानापूर्ति करने के लिए कुछ वाहनों को रोक कर काली पट्टी लगा दी जाती है। लेकिन इसके बाद इन वाहनों से काली पट्टी गायब हो जाती है।
हमको अपने राज्य में ऐसे वाहन नजर ही नहीं आते हैं जिनकी लाइट में काली पट्टी लगी हो। हमारे ट्रेफिक अफसरों को तो वसूली करने से फुर्सत नहीं रहती है ऐसे में उनसे यह उम्मीद की ही नहीं जा सकती है कि वे इस दिशा में कुछ करेंगे। अगर ट्रेफिक थानों से आंकड़े मांगे जाएं तो ये आंकड़े कभी नहीं मिलेंगे कि कितने वाहनों पर लाइट में काली पट्टी न होने पर जुर्माना किया गया। जब कभी साल में एक बार ट्रेफिक सप्ताह मनाया जाता है तो समझाईश के नाम पर जरूर वाहनों में काली पट्टी लगाने की खानापूर्ति करने के लिए कुछ वाहनों को रोक कर काली पट्टी लगा दी जाती है। लेकिन इसके बाद इन वाहनों से काली पट्टी गायब हो जाती है। एक तो भाई लोग अपने वाहनों में काली पट्टी लगाने से परहेज करते हैं ऊपर से सितम यह कि बड़े वाहन वाले अपर-डीपर भी देना जरूरी नहीं समझते हैं। सामने वाला भले ऐसा करते रहे उनकी बला से, उन्होंने यह बात ठान रखी है कि उनको अपर-डीपर देना ही नहीं है। संभवत: ऐसे वाहनों को सामने वाले वाहनों की लाइट से शायद फर्क नहीं पड़ता है तभी तो वे इतने ज्यादा लापरवाह हो गए है कि किसी की जान की कीमत भी नहीं समझते हैं। अगर ये वाहन चालक दूसरों के जान की कीमत समझते तो वाहनों में नियमानुसार काली पट्टी लगाने का काम करते। हमें तो लगता है कि इसके लिए जन जागरण की जरूरत है। ट्रेफिक पुलिस वाले तो आज तक कुछ कर नहीं पाए हैं। और न ही कभी कुछ कर सकते हैं।दोस्तों हमने तो अपने राज्य के हालात को देखते हुए यह पोस्ट लिखी है, हमें नहीं लगता है कि दूसरे राज्यों में ऐसा नहीं होता होगा। ब्लाग बिरादरी से आग्रह है कि वे भी अपने राज्यों और शहरों के बारे में बताएं कि उनके यहां वाहनों की लाइट में काली पट्टी रहती है या नहीं। आप लोगों की जानकारियों का इंतजार रहेगा।
शुक्रवार, मई 15, 2009
भईया पानी नहीं है मत आना...
हमारे पड़ोसी जायसवाल जी के मोबाइल की घंटी बजती है और वे अपना सेल फोन उठाते हैं तो उधर से उनके बड़े भाई साहब की आवाज आती है। पहले वे उनका हाल-चाल पूछने के बाद कहते हैं कि उनका परिवार गर्मियों की छुट्टियों के कारण रायपुर घुमने आना चाहता है। बड़े भाई साहब की बात सुनकर जायसवाल जी तपाक से कहते हैं कि भईया पानी नहीं है मत आना। वे उनको बताते हैं कि यहां तो एक-एक बाल्टी पानी के लिए मारा-मारा मची है। ऐसे में आप परिवार के साथ आ जाएंगे तो पानी कहां से आएगा। यह एक जायसवाल जी की बात नहीं है। अपने छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में आज स्थिति यह है कि कोई भी परिवार नहीं चाहता है कि उनके यहां कोई अतिथि आए। एक समय अतिथि को भगवान माना जाता था, पर आज अतिथि लोगों के लिए परेशानी का सबब बन गए हैं। इसके पीछे कारण है पानी की किल्लत का।
अपने राज्य की राजधानी सहित इस समय पूरा प्रदेश जल संकट से गुजर रहा है। ऐसे में एक तरफ जहां आस-पास के जंगलों में जानवर मर रहे हैं वहीं जो जू हैं वहां भी जानवरों के मरने का क्रम जारी है। कल ही खबर आई कि नंदन वन में भी कुछ जानवरों की मौत हो गई। इसमें कोई दो मत नहीं है कि आसमान से ऐसी आग बरस रही है जिसमें सब झुलस रहे हैं। ऊपर से सितम यह कि लोगों को पानी नसीब नहीं हो रहा है। अब ऐसे में अगर कोई मेहमान आ जाए तो उनके लिए पानी का इंजताम कहां से किया जा सकता है। गांवों के हालत यह है कि कुएं और तालाब पूरी तरह से सुख गए हैं। शहरों में नलों से पानी नहीं आ रहा है। कालोनियों की स्थिति ज्यादा खराब है। कई कालोनियां ऐसी हैं जहां पर पानी की कुछ ही टंकियां हैं। इन्हीं टंकियों से पूरी कालोनी को पानी देने का काम किया जा रहा है। ऐसे में हालत यह है कि पानी देने के समय में भी कटौती कर दी गई है। एक
कई महानुभवों ने अपने-अपने घरों में पानी खींचने के लिए बड़े-बड़े मोटर लगा रखे हैं। ऐसे में जिनके घर में मोटर लगे हैं उनको तो भरपूर पानी नसीब हो रहा है लेकिन बगल में जिनका घर है उनको पानी नसीब नहीं हो रहा है। ऐसे में वे बेचारे कहां जाएं? पड़ोसी से मोटर लगाने का विरोध किया जाता है तो जवाब मिलता है कि आप भी क्यों नहीं लगा लेते हैं मोटर। अब जनाब उन साहब को कौन समझाएं कि एक तो उन्होंने खुद मोटर लगाकर गैरकानूनी काम किया है, फिर दूसरे को भी मोटर लगाने के लिए उकसा रहे हैं।
तो पानी आने का समय कम उपर से यह सितम की कई महानुभवों ने अपने-अपने घरों में पानी खींचने के लिए बड़े-बड़े मोटर लगा रखे हैं। ऐसे में जिनके घर में मोटर लगे हैं उनको तो भरपूर पानी नसीब हो रहा है लेकिन बगल में जिनका घर है उनको पानी नसीब नहीं हो रहा है। ऐसे में वे बेचारे कहां जाएं? पड़ोसी से मोटर लगाने का विरोध किया जाता है तो जवाब मिलता है कि आप भी क्यों नहीं लगा लेते हैं मोटर। अब जनाब उन साहब को कौन समझाएं कि एक तो उन्होंने खुद मोटर लगाकर गैरकानूनी काम किया है, फिर दूसरे को भी मोटर लगाने के लिए उकसा रहे हैं।राजधानी में उन स्थानों पर मोटर लगाने का काम ज्यादा किया गया है जहां पर पानी की समस्या ज्यादा है। इन मोटरों को पकडऩे का काम सरकारी अमला कर ही नहीं रहा है। अगर इन मोटर वालों पर कड़ाई हो तो पानी की समस्या से कुछ हद तक छुटकारा मिल सकता है। लेकिन सरकारी अधिकारी किसी से पंगा लेने के पक्ष में नहीं हैं। उनको भी मालूम है कि जिससे वे पंगा लेने जाएंगे वही किसी नेता या मंत्री को फोन खटखटा देगा और उनको खाली हाथ वापस जाना पड़ेगा। कहने का मतलब यह है कि जिन साहब ने पानी खींचने के लिए मोटर लगाई है उनकी पहुंच है। अब इन पहुंच वालों के कारण ही पहुंचविहीन प्राणी निरीह प्राणी हो गए हैं और पानी के लिए तरस रहे हैं। ऐसे में पानी न होने से अतिथि देवों भव की परंपरा भी गर्मी में जलकर खाक हो रही है। आप चाहकर भी अपने परिजनों को नहीं बुला सकते हैं।
गुरुवार, मई 14, 2009
टोनहियों के साथ लंबा सफर
आज हम जो पोस्ट लिखने जा रहे हैं, शायद उस पर बहुत कम लोग यकीन करें। लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि इस संसार में कुछ शैतानी शक्तियां भी हैं जिनसे किसी न किसी का सामना हो जाता है। ऐसी ही शैतानी शक्तियों में टोनही और टोनहा का सुमार होता है। अपने छत्तीसगढ़ में टोनही के बारे में ज्यादा घटनाएं सामने आती हैं। हम जो लिखने जा रहे हैं, वह कोई कहानी या किस्सा नहीं है एक सच्चाई है जिस पर यकीन करने का हमारा भी मन नहीं होता है। यकीन हम तब करते जब वास्तव में कोई टोनही बिलकुल हमारे करीब आ जाती। हम तो ऐसा चाहते थे, पर ऐसा संभव नहीं हो सका। हमने कई टोनहियों के साथ लंबा सफर गरियाबंद से लेकर राजिम तक का रात के अंधेरे में तय किया है। हमारे साथ जो मित्र थे उनकी हालत पलती हो गई थी, उनको तो टोनही का नाम सुनने के बाद होश ही नहीं था।
बात आज से करीब तीन साल पुरानी है। प्रदेश के खेल एवं युवा कल्याण विभाग ने रायपुर से कोई 100 किलो मीटर की दूरी पर गरियाबंद में खेलों का राज्य स्तरीय प्रशिक्षण शिविर लगाया था। इस शिविर की रिपोर्टिंग करने के लिए हम अपने एक साथी पत्रकार कमलेश गोगिया के साथ हमारी मोटर सायकल से वहां गए। दोपहर को वहां पहुंचने के बाद शाम को खिलाडिय़ों का प्रशिक्षण शिविर प्रारंभ हुआ। हमने खिलाडिय़ों से बात की और फिर खेल आयुक्त राजीव श्रीवास्तव के साथ खेल अधिकारी राजेन्द्र डेकाटे के कहने पर रात का सांस्कृतिक कार्यक्रम देखने के लिए रूक गए। पहले यह तय हुआ था कि हम लोग करीब 9 बजे तक कार्यक्रम देखकर खाना खाएंगे और निकल जाएंगे। लेकिन खिलाड़ी बच्चों ने ऐसे-ऐसे कार्यक्रम दिए कि हम लोगों का उठाने का मन ही नहीं हुआ और अंत में हुआ यह की रात के 12.30 बजे गए। ऐसे में हम लोगों से खेल आयुक्त श्री श्रीवास्तव ने अपनी कार में साथ चलने के लिए कहा और कहा कि हमारी मोटर सायकल सुबह मंगवा लेंगे। लेकिन हमने इंकार कर दिया, हमें रात में अपनी मोटर सायकल से सफर करने में मजा आता है। हम प्रारंभ से ही रोमांचकारी सफर के शौकीन रहे हैं। हमने दो बार उत्तर भारत की सायकल से भी यात्रा की है, इनकी बातें फिर कभी। हमने अपने मित्र कमलेश से कहा कि तुम चाहो तो कार में चले जाओ, पर कमलेश ने भी इंकार कर दिया और कहा कि नहीं भईया हम साथ में आएं हैं तो साथ ही जाएंगे। मैं आपको अकेले कैसे छोड़ कर जाऊंगा। इधर श्री डेकाटे ने हमें रात में वहीं रूकने के लिए बहुत कहा पर हम नहीं रूके। हमें गांव के लोगों ने कहा भी कि गरियाबंद से राजिम के बीच का सफर रात को ठीक नहीं है, उन्होंने इशारों में कहा भी कि टोनही-टकारी का भरोसा नहीं है। लेकिन हमने किसी की बात नहीं सुनी और हम लोग अंतत: वहां से रात को 12.45 पर निकले।
जब हम लोग गरियाबंद से निकले थे तब हमें मालूम नहीं था कि हम एक ऐसे रोमांचकारी सफर पर जा रहे हैं। रोमांचकारी इसलिए कि हमारे सफर में करीब 30 किलो मीटर तक रात के अंधेरे में एक नहीं कई टोनहियों का साथ रहा। अब यह बात अलग है कि वो दूर में खेत में चल र
टोनही के बारे में छत्तीसगढ़ में एक कानून भी बना है कि किसी को टोनही कहते हुए प्रताडि़त नहीं किया जा सकता है। अक्सर लोग गांवों में किसी से दुश्मनी से निकालने के लिए किसी पर भी टोनही होने का आरोप लगाकर उसके साथ कुछ भी कर लेते हैं। कई बार टोनही के नाम पर प्रताडऩा सीमाएं लांघ जाती है।
ही थीं। हमने बचपन से टोनहियों के बारे में सुना है, लेकिन इनको कभी करीब से देखने का मौका नहीं मिला है, हम तो चाह रहे थे कि कोई टोनही करीब आए तो हम भी देखें कि आखिर टोनही क्या बला होती है। लेकिन हमारी तमन्ना पूरी नहीं हुई। इधर रोड के दोनों तरफ जिस तरह से आग के गोले जल रहे थे और हमारे साथ-साथ तेजी से चल रहे थे उससे हमारे मित्र कमलेश ने अंत में पूछा लिया कि भईया वो कहीं टोनही तो नहीं है। हमारे ख्याल से छत्तीसगढ़ का हर रहवासी टोनही के बारे में जानता है। हमने जब कमलेश को बताया कि हां वो सब हमें भी टोनही लग रहीं हैं तो कमलेश की हालत खराब हो गई। इसके बारे में उसने हमें बाद में बताया था कि उसको तो टोनही के बारे में सुनने के बाद होश ही नहीं था। उन टोनहियों या फिर चाहे उनको जो कहा जाए उनका साथ राजिम प्रारंभ होने के बाद ही छुटा।टोनही के बारे में लोग तरह-तरह की बातें बताते हैं, लेकिन जहां तक हमारा मानना है कि उसे किसी ने अब तक देखा नहीं होगा। हमने जो टोनही के बारे में सुना है उसके मुताबिक यह एक तंत्र साधन है जिसको सीखने वाली महिला को टोनही और पुरुष को टोनहा कहा जाता है। वैसे टोनहा के बारे में कम और टोनही के बारे में ज्यादा बातें होती हैं। इनके बारे में कुछ लोग कहते हैं कि यह रात को निकलती है और खेत-खलिहानों में ही विचरण करती है, यह कभी रोड को क्रास नहीं कर पाती है। दूर से वह जलती हुई दिखती है तो इसके बारे में लोग बताते हैं कि उसके मुंह से निकलने वाली लार ही आग के रूप में रहती है। इसी के साथ कहा जाता है कि वह जमीन से कुछ फीट ऊपर हवा में हवा की तरह की चलती है। अब इन बातों में कितनी सच्चाई है हम भी नहीं जानते हैं। लेकिन हमको दो-तीन बार रात के सफर में ऐसे दृश्य देखने का मौका मिला है जिसके बारे में लोगों की सुनाई बातों से आधार पर हम कह सकते हैं कि हमने जिनको दूर से देखा था वो टोनही थी और हमने उनसे साथ एक रोमांचकारी सफर तय किया। टोनही के बारे में छत्तीसगढ़ में एक कानून भी बना है कि किसी को टोनही कहते हुए प्रताडि़त नहीं किया जा सकता है। अक्सर लोग गांवों में किसी से दुश्मनी से निकालने के लिए किसी पर भी टोनही होने का आरोप लगाकर उसके साथ कुछ भी कर लेते हैं। कई बार टोनही के नाम पर प्रताडऩा सीमाएं लांघ जाती है। छत्तीसगढ़ में टोनही पर काफी कुछ लिखा भी गया है। हमारे एक साथ मित्र खेमराज देवांगन को इस पर शोध करने के लिए स्टेटसमैन अवार्ड के साथ राज्य की चंदूलाल चन्द्राकार फेलोशिप भी मिली है। उन्होंने एक पूरी पुस्तक टोनही भी लिखी है।
बुधवार, मई 13, 2009
पंडवानी का बढ़ाया मान-रितु को बिस्मिल्लाह सम्मान
अपने राज्य छत्तीसगढ़ का मान बढ़ाने का काम लगातार यहां की महिलाएं कर रही हैं। वैसे भी छत्तीसगढ़ की नारी सब पर भारी रही है। अभी प्रदेशवासी राज्य की किरण कौशल के संघ लोक सेवा आयोग में पूरे देश में तीसरा स्थान पाने की खुशियों को समेट भी नहीं पाए थे, कि खबर आई कि अब अपने राज्य की पंडवानी गायिका रितु वर्मा को बिस्मिल्लाह खां सम्मान दिया जाएगा। इस खबर ने जहां प्रदेश की पूरी कला और संस्कृति बिरादरी को खुशी के सागर में डुबो दिया, वहीं प्रदेश का हर नागरिक गौरव महसूस कर रहा है। हकीकत में अगर कोई राज्य नारी सशक्तिकरण की तरफ बढ़ रहा है तो वह अपना राज्य छत्तीसगढ़ है। यहां की महिलाएं काम करने के मामले में भी आगे हो गई हैं। छत्तीसगढ़ की महिलाओं के बारे में अगर यह कहा जाए कि वे आत्मनिर्भर हो गई हैं तो गलत नहीं होगा।
पंडवानी गायन एक ऐसी कला है जिसको सुनने वालों की कमी अपने देश के साथ विदेशों में भी नहीं है। जब पंडवानी में गायक या गायिका तानपुरे के साथ महाभारत कथा का बखान करते हैं तो सुर और ताल के साथ इस बखान को सुनने वाले श्रोता झूमे बिना रह ही नहीं सकते हैं। एक समय पंडवानी का मान बढ़ाने का काम अपने राज्य की पद्मश्री तीजनबाई ने किया था। तीजन बाई को जब पद्मश्री मिला था तब भी अपने राज्य की कला बिरादरी बहुत खुश हुई थी। अब तीजन बाई के बाद पंडवानी को एक नया आयाम देनी वाली रितु वर्मा को बिस्मिल्लाह खां पुरस्कार मिलने वाला है। रितु की बात की जाए तो वह महज 6 साल की उम्र से पंडवानी गा रही हैं। गुलाबदास मानिकपुरी से यह कला सीखने के बाद उन्होंने इसका प्रदर्शन अपने देश के साथ विदेशों में ब्रिटेन, जापान, फ्रांस और अमरीका में किया है। रितु को जितना सम्मान अपने देश में मिला है, उतना ही विदेशों में भी मिला है। रितु वेदमति शैली में पंडवानी का गायन करती है।
बहरहाल रितु को मिले सम्मान ने एक बार फिर से छत्तीसगढ़ की नारी पर बात कर
छत्तीसगढ़ को जो लोग पिछड़ा राज्य मानते हैं वे भी यह बात अच्छी तरह से जान लें कि राज्य पर भले पिछड़ा राज्य होने का ठप्पा लगा है, पर कम से कम यहां की महिलाएं पढ़ाई में भी किसी से कम नहीं हैं। इसमें कोई दो मत नहीं है कि अपने राज्य की महिलाओं के कदम लगातार सफलता की तरफ बढ़ रहे हैं कुछ समय पहले ही रविशंकर विवि की एक प्रोफेसर डा. सरला शर्मा ने एक शोध किया था जिसमें यह बात सामने आई थी निम्न स्तर पर जीवन यापन करने वाली महिलाओं की जीवन शैली में नौकरी के कारण काफी बदलाव आया है।
ने का मौका दे दिया है। रितु क्या आज छत्तीसगढ़ में महिलाएं वास्तव में ऐसे-ऐसे काम कर रही हैं जिससे पूरे राज्य का मान बढ़ रहा है। रितु से पहले अपने राज्य की किरण कौशल ने संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा में देश में तीसरा स्थान प्राप्त कर यह बताया कि छत्तीसगढ़ को जो लोग पिछड़ा राज्य मानते हैं वे भी यह बात अच्छी तरह से जान लें कि राज्य पर भले पिछड़ा राज्य होने का ठप्पा लगा है, पर कम से कम यहां की महिलाएं पढ़ाई में भी किसी से कम नहीं हैं। इसमें कोई दो मत नहीं है कि अपने राज्य की महिलाओं के कदम लगातार सफलता की तरफ बढ़ रहे हैं कुछ समय पहले ही रविशंकर विवि की एक प्रोफेसर डा. सरला शर्मा ने एक शोध किया था जिसमें यह बात सामने आई थी निम्न स्तर पर जीवन यापन करने वाली महिलाओं की जीवन शैली में नौकरी के कारण काफी बदलाव आया है। एक समय वह था जब निम्न वर्ग में महिलाओं को काम करने नहीं दिया जाता था, लेकिन अब समय की मांग को देखते हुए इस वर्ग ने भी अपने घर की महिलाओं को घर की चारदीवारी से बाहर जाने की इजाजत दी है। इसका नतीजा यह रहा है कि जहां निम्न वर्ग के लोगों के रहन-सहन में बदलाव आया है, वहीं महिलाओं ने घर को संभालने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने का काम किया है। छत्तीसगढ़ में पूर्व में निम्न स्तर पर महिलाओं का प्रतिशत 39 था जो अब घटकर महज पांच प्रतिशत रह गया है। रायपुर की बात करें तो यहां का प्रतिशत 41 से घटकर 7 हुआ है। एक तरफ जहां निम्न वर्ग की महिलाओं का रूझान काम के प्रति बढ़ा है तो दूसरी तरफ उच्च वर्ग की महिलाएं अब काम करने की बजाए घर संभालने की दिशा में अग्रसर हो रही हैं। उच्च वर्ग में पहले 14 प्रतिशत महिलाएं ही घरों को संभालती थीं, लेकिन अब इसका प्रतिशत 48 हो गया है। यानी आज करीब आधी महिलाएं ही बाहर काम करने में रूचि रखती हैं।जो महिलाएं बाहर काम करती हैं उन पर घर के काम का दवाब कम नहीं होता है। शोध में यह बात सामने आई है कि दबाव के मामले में रायपुर की महिलाएं किस्मत वाली हैं। उन पर घर के काम का दबाव महज 34 प्रतिशत है। इस मामले में बिलासपुर की महिलाएं बदकिस्मत हैं कि उनको बाहर का काम करने के बाद भी घर का ज्यादा से ज्यादा काम करना पड़ता है। बिलासपुर का प्रतिशत 66 हैं। एक तरफ जहां बिलासपुर की महिलाएं घर के काम के बोझ से भी दबी हुई हैं, वहीं उन पर ही घर का खर्च चलाने का जिम्मा ज्यादा है। शोध में यह बात सामने आई है कि बिलासपुर की 43 प्रतिशत कामकाजी महिलाएं घर का 75 प्रतिशत खर्च उठाती हैं। रायपुर में यह प्रतिशत महज 13 प्रतिशत है। एक तरफ निम्न वर्ग की महिलाएं काम में आगे बढ़ रही हैं तो दूसरी तरफ यहां की महिलाएं अपने-अपने क्षेत्र में पुरस्कार पाने में ही सफल हो रही है।