अधिकार की मार से सब बेजार
अधिकार... अधिकार... अधिकार.... मार... मार... मार... और फिर सब बेजार। आज यह बात हर इंसान पर लागू हो रही है। चाहे आप घर में हों या दफ्तर में। अपने रिश्तेदारों की बात करें या फिर साथ में काम करने वालों की। हर जगह पर एक बात हावी है और वह है अधिकार। अधिकार तो आज ऐसा हो गया है कि इस पर सबको खीज, चिढ़ और गुस्सा आने लगा है। अधिकार के नाम पर हर कोई आज प्रताडि़त हो रहा है कहा जाए तो गलत नहीं होगा। अधिकार की बातें आज वे लोग ज्यादा करते नजर आते हैं जो वास्तव में इस काबिल नहीं होते हैं कि उनको वो अधिकार दिए जाएं जो दे दिए जाते हैं। पर क्या किया जाए आज प्रतिभा का नहीं बल्कि चाटुकारिता का जमाना है। ऐसे में चाटुकार बन जाते हैं साहुकार और सच्चे हो जाते हैं बच्चे। ये बातें आज हर दफ्तर में देखने को मिलती हैं। फिर चाहे वह प्रशासनीय दफ्तर हो या फिर किसी निजी कंपनी का दफ्तर। यहां तक की मीडिया जगत भी इससे अछूता नहीं है। बल्कि मीडिया जगत में तो अधिकार का रोना ज्यादा है।
आज के आधुनिक युग में हर कोई अधिकार का उपयोग नहीं बल्कि दुरुपयोग करने में लगा है। किसी को कोई अधिकार मिला नहीं की वह बजाने लगता है अपने अधिकार का डंका। घर की बात करें तो घर में पति-पत्नी बच्चे सब अधिकार की बात करते नजर आते हैं। बच्चे मम्मी-पापा से कहते हैं कि क्या उनको अपने मर्जी से जीने का अधिकार नहीं है? क्या उनको जेब खर्च का अधिकार नहीं है? पति की बारी आती है तो वह पत्नी से कहता है कि क्या उसको अपनी मर्जी से दोस्तों के साथ कहीं आने- जाने का अधिकार नहीं है? पत्नी की बारी आती है तो वह भी पीछे नहीं हटती है और कहती है कि क्या उसको अपनी सहेलियों के साथ पार्टी में जाने का अधिकार नहीं है? रिश्ते-नाते दार भी बात-बात में अधिकार की बात कहते हैं। अरे भईया अधिकार सबको है, लेकिन अधिकार को पहले समझो तो। अधिकार कोई किसी के ऊपर लादने की चीज थोड़ी है जो पेले पड़े हैं जब देखो।
यह तो बात हुई जनाब घर की। अब अगर हम बाहर आएं तो बाहर के हालात तो काफी खराब हैं। घर परिवार में तो आदमी गुस्सा निकाल लेता है, चिल्ला लेता है। पर बाहर वह ऐसा इस
यह बात तय है कि जब भी किसी जूनियर को बड़े पद पर बिठाया जाता है तो वह अपने सीनियरों को साथ लेकर चलने की बजाए अपने अधिकार का दुरुपयोग करने लगता है। इसी के साथ जूनियरों के सही काम को भी गलत साबित करने लगता है। यह बात अपने मीडिया जगत में भी लागू होती है। हमने अपने कई साथियों को अक्सर इस बात की शिकायत करते देखा है कि क्या बताएं यार हमारे अखबार में जिनको हमारा बॉस बनाया गया है वह तो साला गधा है। लेकिन क्या करें उसमें एक ऐसा गुण है जो हम में नहीं है। क्या गुण पूछने पर मालूम होता है कि चापलूसी और चाटुकारिता के साथ मुखबिरी करने का।
लिए नहीं कर पाता है क्योंकि बाहर उस पर अधिकार जताने वाला उसका बॉस होता है। फिर यह बॉस चाहे उससे जूनियर हो या फिर अक्ल में पैदल हो, चूंकि वह बॉस है ऐसे में आपको तो बस उसकी सुननी ही है। आज सरकारी विभाग हो या फिर निजी कंपनियां चाहे कहीं भी नजरें डाल लें। हर जगह का एक ही फंसाना है कि कई सीनियर बैठे रह जाते हैं और जूनियरों को दे दी जाती है अधिकार वाली कुर्सी। हमारा इस बात से कोई विरोध नहीं है कि जूनियरों को क्यों ऐसी कुर्सी दे दे जाती है। हम यह बात अच्छी तरह से जानते हैं कि कई स्थानों पर सीनियरों में उतनी काबिलियत ही नहीं होती है और कई जूनियरों में इतना दम होता है कि वे अधिकार पाने के लायक होते हैं। जो वास्तव में हकदार होता है उसको कोई ओहदा मिलता है तो वह उस ओहदे की कदर भी करता है और उस जूनियर को अपने सीनियरों की कदर भी होती है। लेकिन जब किसी ऐसे जूनियर और कम अक्ल वाले बंदे को अधिकार वाली कुर्सी मिल जाती है तो फिर उसका वह बेजा फायदा ही उठाता है। उदाहरण तो इतने हैं कि अगर लिखने बैठें तो पता नहीं इस पोस्ट की कितनी किस्तें लिखनी पड़ जाएगीं।यह बात तय है कि जब भी किसी जूनियर को बड़े पद पर बिठाया जाता है तो वह अपने सीनियरों को साथ लेकर चलने की बजाए अपने अधिकार का दुरुपयोग करने लगता है। इसी के साथ जूनियरों के सही काम को भी गलत साबित करने लगता है। यह बात अपने मीडिया जगत में भी लागू होती है। हमने अपने कई साथियों को अक्सर इस बात की शिकायत करते देखा है कि क्या बताएं यार हमारे अखबार में जिनको हमारा बॉस बनाया गया है वह तो साला गधा है। लेकिन क्या करें उसमें एक ऐसा गुण है जो हम में नहीं है। क्या गुण पूछने पर मालूम होता है कि चापलूसी और चाटुकारिता के साथ मुखबिरी करने का। अब उन जनाब के हाथ में जब तलवार थमा दी गई है तो वह तलवार चलाएंगे ही। फिर उस तलवार से चाहे जूनियर घायल हों या फिर सीनियर आहत हों। एक अखबार के एक पत्रकार ने एक बार बताया कि क्या बताएं दोस्त हमारे यहां अखबार के भले के लिए बोलना ही बेकार है। किसी भी गलती की तरफ ध्यान दिलाने पर कहा जाता है कि यह तुम्हारा काम नहीं है। तुम सिर्फ अपना काम करो। उनकी इस बात पर हमें अपने वे दिन याद आए जब हम एक अखबार में काम करते थे। उस अखबार में कभी भी ऐसा नहीं हुआ कि किसी जूनियर ने अखबार की किसी गलती की तरफ ध्यान दिलाया हो तो उसको डांट पड़ी हो या फिर उसको यह कहा गया हो तुम अपना काम करो यह देखना तुम्हारा काम नहीं है। बल्कि उस जूनियर का हौसला बढ़ाया गया कि तुमने अखबार में एक गलती जाने से बचा ली, या फिर अखबार छपने के बाद भी उस गलती की तरफ ध्यान दिलाया जिसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं गया।
हम खुद जब दैनिक देशबन्धु रायपुर में समाचार संपादक थे तो कम से कम हमने कभी अधिकार का दुरुपयोग नहीं किया। हमने जहां हमेशा अपने सीनियरों का सम्मान किया, वहीं सभी जूनियरों को साथ लेकर चले। जूनियर अगर कोई अच्छी हेडिंग लगाकर देते थे या फिर लेआउट को लेकर सुझाव देते थे तो जरूर उनके सुझाव माने जाते थे। जब भी हमें लगा कि यह काम अखबार के भले के लिए है तो उसको जरूर किया गया, तब यह नहीं देखा गया कि उस काम का सुझाव देने वाला कौन है। कई बार आपरेटरों के साथ-साथ पेस्टरों के भी सुझाव पर अमल किया गया। ऐसा करने का एक मात्र मसकद यह था कि अखबार अच्छा होना चाहिए।
बहरहाल हमें तो लगता है कि आज के अंग्रेजीयत के दौर में जहां एक मात्र बात अधिकार की रह गई है, वहीं किसी भी दफ्तर में काम करने का माहौल वैसा नहीं रह गया है जैसा दो दशक पहले था। दो दशक पहले की बात करें तो हर दफ्तर में काम करने वाले एक परिवार की तरह नजर आते थे। सब जहां मिल-जुलकर काम करते थे, वहीं सबके सुख-दुख के साथी होते थे। लेकिन आज महज एक दिखावा रह गया है। किसी को किसी से कोई सरोकार नहीं रह गया है, सब पेशेवर बन गए हैं और इस पेशेवर रूख के चलते ही आज इंसानियत भी शनै-शैने समाप्त होती जा रही है। किसी को किसी की उम्र का लिहाज भी नहीं होता है। क्या करें दोस्त अब जमाना अंग्रेजी का है। अंग्रेजी में तो आप का कोई रिवाज नहीं है। यू का मतलब ही सब है। यानी आप बड़े हैं तो भी यू और छोटे हैं तो भी यू। यू-यू में सब होने वाला है धू-धू....।
10 टिप्पणियाँ:
बॉस इज आलवेज राइट, कहा जाता है, फिर चाहे बॉस गधा हो या घोड़ा क्या फर्क पड़ता है।
अब बॉस से पंगा कौन ले सकता है, नौकरी करनी है तो बात तो माननी ही पड़ेगी।
चाटुकारों का ही तो जमाना है गुरु
बॉस तो हमेशा सही होता है।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
बॉस कोई बीबी तो होता नहीं है कि उस पर गुस्सा उतारा जाए। कई बार बॉस का गुस्सा जरूर बीबी पर उतर जाता है। ऐसा होने पर घर में भी महाभारत हो जाती है।
अधिकारों की बात तो वही करते हैं जिनको जीवन में कभी अधिकार मिले नहीं होते हैं।
अधिकारों का अगर सही उपयोग होता तो अपना देश फिर से सोने की चिडिय़ा नहीं बन जाता।
मीडिया में भी अधिकारों की लड़ाई पर अफसोस है कि पत्रकारों की कौम में भी यह सब चल रहा है।
आज का जमाना सच्चों का मुंह काला झूठों का बोलबाला
सारे लफ़्ड़े इसी बात के हैं।
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